नोवल कोरोनावायरस ने दुनिया को अनजान रास्ते में डाल दिया है. वायरस और उसकी वजह से फैली बीमारी ने लोगों और सरकारों को दहशत में डाल दिया है. जैसा किसी भी संक्रामिक बीमारी से उम्मीद की जा सकती है, उसी तरह मरने वालों और बीमार लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. यहां तक कि जिन देशों में स्वास्थ्य का मज़बूत ढांचा है वहां भी हालत चरमरा गई है. अभी कोविड19 की वजह से स्वास्थ्य पर असर का पूरा आकलन चल ही रहा है लेकिन कई देशों ने पहले ही वायरस को फैलने से रोकने के लिए कठोर क़दम उठा लिए हैं. इन क़दमों में लॉकडाउन की रणनीति सबसे सामान्य है लेकिन इसकी आलोचनात्मक समीक्षा होनी चाहिए.
घाना और भारत की जनसंख्या संरचना में युवा आबादी की बहुतायत है. दोनों देशों की क़रीब आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है. इस तरह की जनसंख्या की वजह से यूरोप की बुजुर्ग आबादी जिस हालात से फिलहाल गुज़र रही है, उसके मुक़ाबले घाना और भारत बेहतर हालात में हो सकते हैं
उभरती अर्थव्यवस्था का मामला
कोविड19 से जुड़ी मृत्यु दर का मौजूदा रुझान संकेत देता है कि कुछ अर्थव्यवस्थाओं के लिए, ख़ास तौर पर उभरते बाज़ार के लिए, सख्त लॉकडाउन का उपाय महामारी से निपटने के लिए बेहतर जवाब नहीं है. हाल के आंकड़े बताते हैं कि ज़्यादा जोखिम वाले समूह में मुख्य रूप से बुजुर्ग, ख़ास तौर पर पहले से बीमार लोग शामिल हैं. दो उभरते बाज़ारों घाना और भारत के लोगों की उम्र पर नज़र डालें तो कोविड19 के नकारात्मक असर के आकलन में उम्मीद की किरण दिखाई देती है. (इटली, घाना और भारत के जनसंख्या वितरण की तुलना आंकड़ा 1 में देखें). घाना और भारत की जनसंख्या संरचना में युवा आबादी की बहुतायत है. दोनों देशों की क़रीब आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है. इस तरह की जनसंख्या की वजह से यूरोप की बुजुर्ग आबादी जिस हालात से फिलहाल गुज़र रही है, उसके मुक़ाबले घाना और भारत बेहतर हालात में हो सकते हैं.
हमें लगता है कि संक्रमित नौजवानों को अस्पताल में भर्ती कराने की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए क्योंकि वायरस नौजवानों की सेहत पर भी गंभीर असर डालता है. लेकिन अभी तक के आंकड़े बताते हैं कि बुजुर्गों के मुक़ाबले बच्चों और युवाओं के गंभीर रूप से बीमार होने की आशंका काफ़ी कम है.
मौजूदा प्रस्तावों के गौण असर को ध्यान में रखना
विशेषज्ञ मौजूदा लॉकडाउन प्रस्तावों के लंबे समय तक चल सकने पर सवाल उठा रहे हैं. ऐसे में उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए ज़रूरी है कि वो अपने ख़ास संदर्भ में ऐसा जवाब तैयार करें जो उनके लिए फ़ायदेमंद हो. उभरते बाज़ारों की अर्थव्यवस्था कठोर लॉकडाउन क़दमों की नक़ल करने और उन्हें लागू करने में सावधानी बरतें क्योंकि ऐसा नहीं करने पर उनकी नाज़ुक अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालीन असर पड़ेगा.
अभी तक कोविड19 से मृत्यु दर (और संक्रमण दर) का विश्वसनीय आकलन मिलना मुश्किल है लेकिन ये धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. किसी भी हालात में मृत्यु दर दूसरी संक्रामक बीमारियों जैसे SARS या MERS या ख़ास तौर पर इबोला के मुक़ाबले निश्चित रूप से कम है. इसलिए बीमारी पर काबू पाने के उपायों जैसे कि लॉकडाउन के दूसरे असर का ध्यान रखा जाना चाहिए. भारत जैसे उभरते बाज़ारों में तो ये बेहद ज़रूरी है. ऐसा भी देखा जा रहा है कि लॉकडाउन की आड़ में शक्तिशाली लोग सत्ता में आ रहे हैं. विशेषज्ञ हंगरी जैसे नौजवान लोकतंत्रों में सत्ता हड़पने के मामले को उठाना शुरू कर चुके हैं.
इस बात में ज़्यादा शक नहीं है कि जब तक वैक्सीन नहीं आती या बेहद सख़्त क़दम नहीं उठाए जाते, आबादी का एक बड़ा हिस्सा आख़िरकार संक्रमित हो जाएगा. एक तरफ़ जहां हम स्थायी समाधान की उम्मीद कर रहे हैं, नौजवान आबादी वाले उभरते बाज़ार के समाज को उचित उपाय चुन लेने चाहिए. आगे बढ़ने के लिए फ़ैसला लेने वालों को सख़्त क़दमों के नुक़सान के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. ज़रूरी सामानों की सप्लाई में रुकावट संक्रमण से गुज़र रहे देश में पहले से बोझ तले दबी स्वास्थ्य सुविधाओं को और ज़्यादा संकट में धकेल सकती है. उदाहरण के तौर पर, सार्वजनिक शौचालय बंद होने से लोग खुले में शौच शुरू कर देंगे और इसकी वजह से अभी तक जो फ़ायदे मिले थे वो ख़त्म हो जाएंगे. अगर लॉकडाउन के उपाय मौजूदा हालात के हिसाब से जारी रहे तो पीने के पानी की सप्लाई पर असर पड़ सकता है. दहशत वाली प्रतिक्रिया और अंतर्राष्ट्रीय मदद में कमी से दूसरी तरह की बीमारियों का ख़तरा बढ़ सकता है. हमें इस बात को याद रखना होगा कि कई ग़रीब ऐसे हैं जो नियमित तौर पर साबुन का खर्च नहीं उठा सकते हैं. इसके अलावा उनके पास जो कुछ हैं वो भी लॉकडाउन की वजह से ख़त्म होने की आशंका है. 2017 में कम आमदनी वाले देशों में कुल मौतों में 5% हिस्सा गंदगी की वजह से मौत का था. चाड जैसे देश में तो ये आंकड़ा 11% पर था. अगर हम मौजूदा कोविड19 के ख़तरे और सख़्त क़दमों को लेकर सावधान नहीं रहे तो ये आंकड़ा और बढ़ सकता है.
अर्थशास्त्री 130 करोड़ की आबादी वाले देश भारत जहां मज़दूरों ने बड़ी संख्या में पलायन किया था, वहां महामारी और उसके बाद लॉकडाउन की वजह से भुखमरी की आशंका जता रहे हैं
दूसरी तरफ़ जिन लोगों के पास बचत नहीं है और जो अपनी आमदनी के लिए रोज़ाना की मज़दूरी पर निर्भर हैं, उनको काम से रोकना उनकी सेहत और समाज में स्थायित्व के लिए बड़ा जोखिम है. कुछ उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सार्वजनिक बाज़ारों को बंद करने की योजना खाद्यान्नों की सप्लाई को ख़तरे में डाल रही है. इसकी वजह से कुपोषण से लड़ाई कमज़ोर होगी. अर्थशास्त्री 130 करोड़ की आबादी वाले देश भारत जहां मज़दूरों ने बड़ी संख्या में पलायन किया था, वहां महामारी और उसके बाद लॉकडाउन की वजह से भुखमरी की आशंका जता रहे हैं.
ऐसा लगता है कि उभरते बाज़ारों में प्राथमिक समस्या संक्रमित लोगों की संख्या नहीं होगी बल्कि कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली और लॉकडाउन के दूसरे असर होंगे. मज़बूत अर्थव्यवस्था को उसके नागरिकों की सेहत और उनकी औसत उम्र से क़रीबी तौर पर जोड़ा गया है. महामारी सिर्फ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य त्रासदी नहीं हैं बल्कि ज़रूरी है कि उसे समझा जाए और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से उसका सामना किया जाए.
आगे का संभावित रास्ता
उभरते बाज़ारों की नौजवान आबादी समस्या की छानबीन और चिकित्सकीय और आर्थिक तौर पर टिकाऊ हल को इस्तेमाल में लाने का विकल्प देती है. इस इलाक़े के देश आइचनबर्ग एट आल (2020) की सिफ़ारिशों का पालन कर कोविड19 का सामना करने वाले और इम्युनिटी हासिल करने वाले लोगों की पहचान कर सकते हैं. ये किसी एक देश की कोशिश नहीं होनी चाहिए बल्कि अलग-अलग क्षेत्रीय संगठन मिलकर ऐसा कर सकते हैं. मौजूदा लॉकडाउन बेअसर हो सकता है क्योंकि जो लोग संक्रमित होकर ठीक हो चुके हैं, उनके फिर से संक्रमित होने की आशंका बेहद कम है क्योंकि बीमारी से इम्युनिटी की संभावना ज़्यादा है. ऐसे देशों के लिए ये फ़ायदेमंद है कि ऐसे इम्यून लोगों को तलाश कर उन्हें सर्टिफिकेट दिया जाए ताकि ये लोग अपनी सामान्य आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों को कर सकें. ऐसे में समस्या का ये बुद्धिमानी से निदान है कि समाज में ऐसे लोगों की तलाश की जाए.
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