Author : Maya Mirchandani

Published on Feb 15, 2024 Updated 0 Hours ago

अनौपचारिक रूप से शीर्ष सरकारी अधिकारी भी स्वीकार करते हैं कि किसी संकट के समय जब सरकारें और कानून लागू करने वाली संस्थाएं कोई व्यवस्था बनाती हैं, तो मीडिया — यहां तक कि निजी स्वामित्व वाले नेटवर्क और अख़बार भी — उसका पालन करते हैं। लेकिन, मुंबई पर आतंकी हमले के बाद हुई घेराबंदी के के दौरान ऐसा नहीं हुआ था।

26/11 और मीडिया: नियमों का ख्याल किसे था?

कोलाबा कॉज़वे पर भव्य ताजमहल के छाया में नई शक्लोसूरत वाले कैफे लिओपोल्ड के आगे बढ़ते हुए या यहूदी चाबाड हाउस को छोड़कर जहां हिंसा के निशान उसकी ढहती दीवारों की दरारों ने निगल लिए हैं काला घोड़ा से गुजरते हुए यह याद करने में थोड़ा समय लगता है कि मुंबई के इन प्रसिद्ध स्थलों पर 26 नवंबर 2008 को भारी रक्तपात और तबाही मची थी। बीते एक दशक में, समय जितना आगे बढ़ा है, उतना ही स्थिर भी रहा है। भारत सरकार अभी भी 26/11 के योजनाकारों को कानून के सामने लाने के लिए पाकिस्तान का इंतजार कर रही है, जबकि इस घटना के पीड़ितों के दुखी परिवार दुनिया भर के विभिन्न शहरों में अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारने की कोशिश में लगे रहे हैं; और सोशल मीडिया — जो 2008 में पारंपरिक संचार माध्यमों के नवजात सहयोगी जैसा था, दुनिया भर में अपने विचारों को फैलाने और लोगों के विचारों को आकार देने में किसी की भी कल्पना से कहीं अधिक शक्तिशाली हो चुका है।

इस मुद्दे पर चर्चा बहुत कम हुई है, लेकिन द डेली टेलीग्राफ के पत्रकार क्लॉडिन बोमॉंट ने मुंबई की घेराबंदी शुरू होने के एक दिन बाद ही लिखा था कि ट्विटर और फ़्लिकर के उपयोगकर्ताओं ने न केवल घटना की जानकारी सबसे पहले [1] दी थी, वरन वे तत्काल आंखों देखी भयावह स्थितियों [2] के बारे में जानकारियां दे रहे थे। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शियों ने केवल ब्लॉगों पर इसके फोटो अपलोड किए बल्कि होटल के कमरों में बंधक बने लोगों ने इस बारे में भी ट्वीट किए कि आतंकवादी होटल के स्वागतकक्ष [3] से लोगों की राष्ट्रीयताएं जानने का प्रयास कर रहे हैं। इसके अलावा, बहुत से बंधकों ने अपने परिजनों से मोबाइल पर सम्पर्क किया या मौका पाते ही ई-मेल या टेक्स्ट संदेश भेजे। ट्विटर पर #मुंबई सबसे ज्यादा पढ़ा देखा जा रहा था, और हैशटैग की इस नई प्रवृत्ति ने परिवारों और पत्रकारों के लिए यह जान सकना आसान बना दिया था कि हमले का शिकार हुई सड़कों पर, रेलवे स्टेशनों पर, इमारतों में और होटल के अंदर किस क्षण क्या चल रहा है। [4] चौबीसों घंटे चलने वाले समाचार चैनलों के कैमरे सभी स्थानों पर पहुंच गए थे। आखिर, यह बहुत बड़ा समाचार तो था ही। इतना ही नहीं, आतंकवादियों और उनके हैंडलरों के बीच फोन पह हुई बातचीत के पकड़े गए संकेतों से यह भी पता चला कि वे भी खबर देख रहे थे और इन रिपोर्टों से मिल रहे विवरणों में से अपने मतलब के विवरण हमलावरों को बताते हुए उन्हें उनका अभियान जारी रखते हुए शहीद होने के लिए लगातार प्रेरित कर रहे थे। यह सब कुछ बिना किसी काल-अंतराल के निरंतर चल रहा था।

भारत सरकार अभी भी 26/11 के योजनाकारों को कानून के सामने लाने के लिए पाकिस्तान का इंतजार कर रही है, जबकि इस घटना के पीड़ितों के दुखी परिवार दुनिया भर के विभिन्न शहरों में अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारने की कोशिश में लगे रहे हैं; और सोशल मीडिया — जो 2008 में पारंपरिक संचार माध्यमों के नवजात सहयोगी जैसा था, दुनिया भर में अपने विचारों को फैलाने और लोगों के विचारों को आकार देने में किसी की भी कल्पना से कहीं अधिक शक्तिशाली हो चुका है।

पूरी दुनिया में संकट काल में पत्रकारों को कठिन रिपोर्टिंग वातावरण में संचरण करते हुए ज्यादा से ज्यादा विवरणों की मांग करने वाले दर्शकों-श्रोताओं का सामना करना पड़ता है। आतंकवादी हमले या किसी को बंधक बनाये जाने जैसे संकटों के बारे में प्रसारण करते हुए उनकी भूमिका और भी जटिल हो जाती है। हर कोई सूचनाओं में नए बदलावों की जानकारी के लिए समाचार मीडिया की ओर दौड़ता है और पत्रकार को राष्ट्रीय और सार्वजनिक (नागरिक) हितों के संरक्षण में संतुलन तलाशने का संघर्ष करना पड़ता है। राज्य के स्वामित्व वाले मीडिया के लिए स्वाभाविक रूप से इस पर फैसला कर पाना आसान है क्योंकि उसे सूचना की केवल एक धारा का अनुसरण करना होता है। लेकिन बाकियों के लिए दोनों के बीच की विभेदक रेखा बहुत महीन होती है और समाचार कवरेज के लिए संकटकालीन नियमावली या प्रोटोकॉल की अनुपस्थिति मामले को और भी कठिन बना देती है।

अनौपचारिक रूप से शीर्ष सरकारी अधिकारी भी स्वीकार करते हैं कि किसी संकट के समय जब सरकारें और कानून लागू करने वाली संस्थाएं कोई व्यवस्था बनाती हैं, तो मीडिया — यहां तक ​​कि निजी स्वामित्व वाले नेटवर्क और अख़बार भी — उसका पालन करते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं — 9/11 या 7/7 को लंदन में बमबारी के बाद की कवरेज के मामले हैं। मीडिया ने जुनून फैला सकने वाले दृश्यों तक पहुंच और प्रदर्शन दोनों के लिए दिशानिर्देशों का पालन किया। उन्होंने केवल पुलिस, खुफिया और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा नियमित ब्रीफिंग में दी गई जानकारियां ही प्रसारित कीं। संकट की स्थिति में, कुछ चीजें बहुत तेजी से होती हैं। सबसे पहले प्रतिवाद करने वालों की एक परिधि निर्धारित की जाती है जो आम तौर पर स्थानीय कानून प्रवर्तन एजेंसी होती है, एक समूह संकटापन्न परिवारों के संपर्क में रहने के लिए बनाया जाता है और नियंत्रण कक्ष स्थापित किए जाते हैं जहां तैनात अधिकारी लोगों को आधिकारिक, विश्वसनीय और स्पष्ट जानकारी देना सुनिश्चित करते हुए किसी भी राष्ट्रीय आपात स्थिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले संचार माध्यमों को व्यवस्थित और आवधिक रूप से सूचनाएं प्रदान करते हैं।

मुंबई की घेरेबंदी के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। इसके बजाय, पत्रकार और कैमरापर्सन दुर्घटनास्थलों के जितना संभव हो सके उतना करीब पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। इनमें से कुछ तो कार्रवाई का संचालन कर रहे राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के प्रमुख जे.के. दत्ता के साथ भी खड़े थे। नतीजतन, खुद को एक अभूतपूर्व माहौल में पा रहे कुछ संवाददाताओं ने तो प्रतिरक्षात्मक कार्रवाइयों के ऐसे विवरण भी प्रसारित किए कि आतंकवादियों को होटल से बाहर निकालने के प्रयास में होटल में जगह-जगह आग जलाई जा रही थी। उचित प्रणालियों और सूचना व्यवस्थाओं के अभाव में पत्रकारों ने एक सांस में वह सब कुछ बताया जो उनकी और थोड़े से नागरिकों की आंखों के सामने घटित हो रहा था। आतंकवादियों को समाचार चैनलों से ही यह पता से चला था कि आग जलाई गई है और ओबेरॉय होटल तथा यहूदी चबाड हाउस की छतों पर हेलीकॉप्टर उतारने की कोशिश की जा रही थी जहां एक अमेरिकी रब्बी और उनका परिवार फंसा हुआ था। क्या यह जानकारी सार्वजनिक करना पत्रकारीय दृष्टि से खराब फैसला था? पीछे पलट कर देखा जाए तो इसका उत्तर संभवतः हाँ में है। लेकिन, बहुत बड़े पैमाने की सुरक्षा विफलता के लिए आलोचना का शिकार हो रही सरकार के लिए, इन आरोपों की दिशा मोड़ देना महत्वपूर्ण था। बलि का बकरा समाचार माध्यमों को बनाया गया। आतंकवादियों और उनके हैंडलरों के बीच की पकड़ी गई फोन वार्ताओं का हवाला देते हुए, राजनीतिक प्रवक्ताओं ने मुंबई में 60 घंटे तक चली जंग में आतंकवादियों के हाथ हुए भारी नुकसान का दोष मुख्यरूप से मुख्यधारा के मीडिया पर मढ़ दिया — विशेष रूप से सजीव, वाणिज्यिक, 24 घंटे के समाचार चैनलों पर। लेकिन सच्चाई यह है कि यदि 26/11 भारत का 9/11 था, तो भारत की तत्काल प्रतिक्रिया अपेक्षित से बहुत दूर थी।

किसी भी सरकार के लिए जीवित बंधकों वाली परिस्थितियां कभी आसान नहीं होतीं। दिसंबर 1999 में आईसी 814 के अपहरण के मामले में — 26/11 से एक दशक पहले जब सोशल मीडिया पैदा भी नहीं हुआ था, भारत सरकार ने तेजी से काम करने के लिए बंधकों के परिवारों की ओर से आये दबावों के लिए मुख्यधारा के मीडिया को जिम्मेदार ठहराया था। पीड़ित परिवारों को अपने संरक्षण में लेने और व्यवस्थित सूचना प्रणाली स्थापित करने के बारे में सरकार की अपनी मानक परिचालन प्रक्रियाएं न होने के कारण पीड़ित परिवार और पत्रकार प्रधानमंत्री निवास के बाहर आ डटे थे। इसके चित्र कुछ टीवी चैनलों और सभी समाचार-पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुए थे। एक हफ्ते तक कंदहार हवाई अड्डे पर फंसे रहे बंधकों के बदले आतंकवादियों को सौंपने के लिए अपने विदेश मंत्री को भेजने वाली सरकार के प्रति उदारता दिखाने के लिए कोई कह सकता है कि वह स्थिति अभूतपूर्व थी। लेकिन, तब भी संचार माध्यमों पर आरोप मढ़ना केवल इस बात की तीखी आलोचना से बचने का प्रयास था कि जिम्मेदार संगठन पहले तो हवाई जहाज का बलान्नयन नहीं रोक पाए थे और उसके बाद जब वह जहाज भारतीय सीमा के भीतर था तो कार्रवाई करने में असफल रहे थे। मुंबई में 26/11 की घटना ने एक बार फिर बताया कि एक दशक बाद भी स्थिति उतनी ही अराजक थी।

हम आज जानते हैं कि 26 नवंबर 2008 को देर रात उच्चस्तरीय खुफिया अधिकारियों, रक्षाकर्मियों और नौकरशाहों के एक आपदा प्रबंधन समूह की बैठक तब हुई थी जब उन्हें लोगों ने फोन करके ‘टीवी चालू करने’ के लिए कहा था या पत्रकारों ने जानकारी मांगी थी। किसी संकट के समय बैठक करना वास्तव में मानक प्रक्रिया थी। लेकिन उस रात बैठक में मौजूद अधिकारियों ने कहा कि बैठक अव्यवस्थित थी और कोई भी उस समय त्वरित एवं महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम नहीं था। हमले के एक दिन बाद, जब राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के विशेष कमांडो मुंबई में उतरे तब शीर्ष मीडिया समूहों के मालिकों को केंद्र के मुख्य प्रशासनिक क्षेत्र साउथ ब्लॉक में बुलाया गया। सरकार इस बारे में बिलकुल स्पष्ट थी। आतंकियों की पकड़ी गई फोन वार्ताओं से स्पष्ट था कि घटनाक्रम में हर पक्ष की कवरेज राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध थी। वरिष्ठ रक्षा और गृह विभाग के अधिकारियों ने टेलीविजन चैनलों को झिड़की दी। हमलों के तत्काल बाद के घटनाक्रम में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने दो हिंदी समाचार चैनलों — आज तक और इंडिया टीवी को नोटिस जारी किए। हालांकि, आधिकारिक सूत्रों ने स्वीकार किया कि उनके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था कि क्या उन नेटवर्कों ने वास्तव में किसी संकटकालीन परिस्थिति में संचार माध्यमों के लिए बनी किसी मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का उल्लंघन किया था। ऐसे परिस्थितियों में सर्वोत्तम संचार रणनीति तैयार करने के लिए मीडिया मालिकों को विश्वास में लेकर उनके साथ परामर्श से कोई दिशानिर्देश क्यों नहीं बनाए गए थे? असफलताओं की समीक्षा और नई चुनौतियों का सामना करते समय एक सामान्य नियमावली की यह अनुपस्थिति आंखों को खटकने वाली थी। वास्तव में, 26/11 के हमले के बाद ही सरकार और मीडिया उद्योग दोनों कवरेज के लिए नए ढांचे के विकास की ओर बढ़ सके।

संकट या युद्ध जैसी स्थितियों में फंसी सरकारों के लिए यह असामान्य नहीं है (और कुछ नौकरशाहों का तर्क है कि 26/11 का हमला युद्ध जैसा ही था) कि वे इससे जुड़ी जानकारियों को आंशिक या पूर्ण रूप से बाहर आने से रोकें। वास्तव में, भारतीय पत्रकारों ने ऐसी स्थितियां कारगिल युद्ध के समय देखी हैं जब सेना, वायुसेना और विदेश मामलों के मंत्रालय द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित दैनिक ब्रीफिंग में संचार माध्यमों को विश्वसनीय जानकारी प्रदान की जाती थी। यह भी कोई रहस्य नहीं है कि दूसरों की ही तरह आतंकवादी समूह भी अपने प्रचार के लिए संचार माध्यमों का उपयोग करते हैं। इतिहास हमें बताता है कि संचार माध्यम जितने महत्वपूर्ण नागरिकों और राज्य के लिए हैं उतने ही उनके लिए भी जो इनके खात्मे के लिए जुटे होते हैं। और, बीते वर्षों में जिन पत्रकारों ने कभी खुद को या अपने कार्यस्थलों के साथ छेड़छाड़ होते देखा है, उन्होंने स्वयं ही इन स्थितियों से सुरक्षा के लिए आचरण के नियमों को बदल लिया है। इसी तरह, 26 नवंबर 2008 के मुंबई हमलों के बाद, भारत के टेलीविजन समाचार चैनलों का स्वायत्त निकाय न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की अध्यक्षता वाली एक समिति का गठन किया जिसने आपातकालीन परिस्थितियों में कवरेज के लिए दिशा-निर्देश प्रस्तुत किए। इन आपातकालीन परिस्थितियों में (सशस्त्र संघर्ष, आंतरिक अशांति, सांप्रदायिक हिंसा, सार्वजनिक अशांति और अपराध) शामिल हैं। आज भी नेशनल ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड एसोसिएशन (एनबीएसए) ही आचार-संहिता लागू करवाने वाली संस्था है जो किसी मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए या दर्शकों की शिकायतों [6] के आधार पर किसी चैनल को नोटिस जारी कर सकती है।

संकट और संघर्ष की स्थितियों के लिए एनबीए दिशानिर्देश

  • कवरेज का परीक्षण ‘सार्वजनिक हितों’ की कसौटी पर किया जाना चाहिए, और इसे वास्तव में सटीक और उद्देश्यपरक होना चाहिए।
  • ऐसी कोई सजीव रिपोर्टिंग नहीं होनी चाहिए जिससे “किसी भी आतंकवादी या आतंकवादी संगठन, या उसकी विचारधारा का प्रचार होता हो या उनके उद्देश्यों के प्रति सहानुभूति या आकर्षण का भाव प्रेरित करती हो।”
  • जीवित बंधक परिस्थितियों और बचाव के दौरान, लंबित बचाव कार्यों अथवा इसमें लगे हुए कार्मिकों या विधियों के संबंध में कोई विवरण नहीं प्रसारित किया जाना चाहिए।
  • मृतकों के प्रति सम्मान का भाव दिखाया जाना चाहिए और टीवी पर कोई वीभत्स दृश्य नहीं दिखाना चाहिए।
  • रिपोर्टरों को पीड़ितों, सुरक्षा बलों, तकनीकी कर्मियों या अपराधियों के साथ सीधे संपर्क में रहने से बचना चाहिए।
  • नेटवर्क को दर्शकों को उत्तेजित कर सकने वाली पुरानी फुटेज के निरंतर / अनावश्यक प्रसारण से बचना चाहिए। (यदि ऐसा कोई फुटेज दिखाया जा रहा है, तो इस पर स्पष्ट रूप से फाइल लिखा होना चाहिए तथा उस पर दिनांक और समय भी इंगित करना चाहिए।)

किसी स्वायत्त निकाय द्वारा स्व-विनियमन हालांकि हमेशा पूरी तरह से दोषमुक्त नहीं होता फिर भी अधिकांश न्यूजरूमों पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। अपनी ही बिरादरी से बाहर कर दिए सजाने का खतरा प्रायः पत्रकारों को नियंत्रित करने में किसी सरकारी प्रयास की तुलना में ज्यादा प्रभावी होता है। नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करता है कि राष्ट्रीय हित और राजनीतिक हितों के बीच की रेखा स्पष्ट रहे। सन् 2015 में भाजपा की सरकार ने 1993 के मुंबई विस्फोटों के मुख्य अभियुक्त के भाई याकूब मेमन [7] की फांसी की कवरेज के सिलसिले में तीन चैनलों को नोटिस भेजे थे। एक अन्य मामले में, सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए जनवरी 2016 में पठानकोट में भारतीय वायुसेना बेस पर हुए हमलों के कवरेज पर एक दिन के लिए एनडीटीवी इंडिया [8] पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की थी। सरकार का आरोप था कि हवाई अड्डे के आसपास के बारे में ‘संवेदनशील जानकारी’ प्रसारित की गई थी। इन दोनों मामलों में, प्रश्नगत नेटवर्क और सत्तारूढ़ दल के बीच खराब संबंधों का इतिहास था और एनबीए की जांच-पड़ताल [9] में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के कारण बताओ नोटिस कहीं ठहर नहीं सके। मीडिया घरानों ने इन नोटिसों का जवाब दिया है लेकिन पठानकोट कवरेज के लिए एनडीटीवी इंडिया पर एक दिन के प्रतिबंध को फिलहाल स्थगित रखा गया है जिसे कभी भी लागू कर देने की संभावना है।

हालांकि अधिकांश मामलों में सबूत इशारा करते हैं कि भारत में निजी समाचार प्रसारण माध्यमों ने संकटकालीन रिपोर्टिंग दिशानिर्देशों का उनके अस्तित्व में आने के बाद से पालन किया है। संकट में संचार के लिए सरकार बेहतर सुरक्षा रणनीतियों और उन्नत मानक संचालन प्रक्रियाओं का विकास करे न करे, मीडिया ने पिछली गलतियों और अनुभवों से सीखा है। जब एनबीए के दिशानिर्देशों की घोषणा हुई थी तो सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने उनका स्वागत करते हुए उन्हें ‘सही दिशा में कदम’ बताया था और स्वीकार किया था कि मुंबई हमलों के घटनाक्रम से सरकार और संचार माध्यमों, दोनों, को सबक मिले थे। 26/11 के बाद के एक दशक में, दंगों और आतंकवादी हमलों की रिपोर्ट, जिसमें पठानकोट में भारतीय वायु बेस और जम्मू-कश्मीर में उरी में एक सैन्य शिविर पर हमला शामिल है, ने व्यापक रूप से इस प्रतिबद्धता का संकेत दिया है। ऐसा ही 2012 में दिल्ली के सामूहिक बलात्कार कांड की कवरेज, या उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक दंगों की कवरेज के दौरान भी देखा जा सकता है, जहां न्यूजरूम ने संभावित रूप से संवेदनशील जानकारी प्रसारित करने पर नियंत्रण करने की कोशिश की।

व्यापक रूप से, कुछ मामूली अपवादों के साथ, समाचार नेटवर्क घटनास्थल से सजीव दृश्यों और संवाददाताओं से मिलने वाले समाचारों के संदर्भ में संयम प्रदर्शित करते हैं। लेकिन, आज बड़ी चुनौती, विचारधाराओं से जुड़े एंकरों के साथ स्टूडियो में होने वाली बहसें और धर्म या राजनीतिक पक्षधरता के आधार पर नफरत फैलाने वाले सोशल मीडिया समूहों का तेज प्रसार है। सोशल मीडिया राष्ट्रीय बहसों में लोगों की राय को आकार देने और/या लोगों को किसी लक्ष्य के प्रति प्रेरित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण बलगुणक रहा है, परंतु पूरी दुनिया में कानून प्रवर्तन और खुफिया एजेंसियों को ​​उत्तेजना और कट्टरपंथ फैलाने की इसकी क्षमता से निपटना पड़ रहा है। विभिन्न प्लेटफार्मों को नियंत्रित करने वाले विभिन्न राष्ट्रीय कानूनों और आत्म-नियमन की बहुत कम संभावना के बीच इस नई चुनौती से निपटने के लिए भारतीय एजेंसियां पूरी तरह से तैयार नहीं हैं। फिलहाल, हिंसा जैसी स्थितियों में उनके पास तत्काल प्रतिक्रिया के रूप में मोबाइल इंटरनेट सुविधाओं को बंद करने का हथियार है। अनुभव बताते हैं कि यह प्रतिक्रिया भी अपेक्षा से काफी कम परिणामदायक है। इन स्थितियों से आगे बढ़ने का रास्ता अतीत की ओर ही संकेत करता है कि इस जटिल मीडिया वातावरण में संस्तरित प्रतिक्रियाओं को विकसित करने के लिए सभी हितधारकों – सरकारों, मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया संगठनों – के बीच वार्तालापों और संवाद की आवश्यकता है। अंततः, लोकतंत्र में, जनता की राय को आकार देने में न तो मीडिया की भूमिका को कम करके आंका जा सकता है और न ही इसके प्रभाव का अवमूल्यन किया जा सकता है।


[1] Claudine Beaumont, Mumbai attacks: Twitter and Flickr used to break news, The Telegraph, 26 November 2008. (accessed on 16 October 2018)

[2] Brian Stelter and Noam Cohen, Citizen Journalists Provided Glimpses of Mumbai Attacks, The New York Times, 29 November 2008. (accessed on 14 October 2018)

[3] @dupree_, 26 November 2008.

[4] @shrinagesh #Mumbai, 26 November 2008.

[5] Murthy, Dhiraj, “Twitter: Microphone for the Masses?” Media, Culture & Society 33, no. 5 (July 2011) pp 779–89 (accessed on 13 October 2018).

[6] NBA to form emergency protocol for coverage of crisis situations, Exchange4media, 11 December 2008. (accessed on 14 October 2018)

[7] P. Vaidyanathan Iyer, Explain why you shouldn’t face action for Yakub’s execution coverage: Govt notice to 3 channels, Indian Express, 8 August 2015. (accessed on 15 October 2018)

[8] Take NDTV India off air on November 9 for Pathankot: I&B panel, Indian Express, 4 November 2018. (accessed on 11 October 2018)

[9] Harveen Ahluwalia, NDTV India ban draws condemnation from editors, journalists, Livemint, 4 November 2018. (accessed on 13 October 2018)

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