जब इस साल फ़रवरी में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर आए थे. तब वो सियासत के शिखर पर थे. अमेरिका की अर्थव्यवस्था सेहतमंद दिख रही थी. बेरोज़गारी काफ़ी कम हो गई थी और अमेरिकी सीनेट ने उन्हें तब हाल ही में पद के दुरुपयोग और कांग्रेस की राह में बाधाएं डालने के आरोपों से मुक्त किया था.
मगर, केवल तीन महीने बाद ही पूरा मंज़र बदला हुआ नज़र आ रहा है. कोविड-19 की वैश्विक महामारी के कारण, अकेले अमेरिका में ही एक लाख चालीस हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. देश में बेरोज़गारी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है. और, अफ्रीकी मूल के अश्वेत अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड की मिनियापोलिस पुलिस के हाथों हत्या के बाद अमेरिका 100 से ज़्यादा शहरों में विरोध प्रदर्शन भड़क उठे थे.
अमेरिका के राजनीतिक परिदृश्य में पिछले तीन महीनों में जो नाटकीय परिवर्तन हुए हैं, उनका किसी को अंदाज़ा नहीं था. अचानक आए इन बदलावों से अमेरिका की राजनीति के ऐसे मिज़ाज का पता चलता है, जिसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता. अभी दुनिया ऐसे मोड़ पर खड़ी है कि किसी को पता नहीं कि आगे क्या होगा. ठीक यही बात भारत के संदर्भ में भी कही जा सकती है. इन सब बातों से ये ज़रूरी हो जाता है कि इस साल नवंबर महीने में होने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति और संसद के चुनावों का सावधानी से आकलन किया जाए.
पिछले चार साल कैसे गुज़रे
2016 में डोनाल्ड ट्रंप, डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को हरा कर राष्ट्रपति बने थे. अमेरिका के इस सत्ता परिवर्तन ने भारत के सामने कई अनिश्चितताओं को जन्म दिया था. पहला सवाल तो ये था कि अमेरिका अब भारत के साथ व्यापार, अप्रवासी मसले, निवेश और तकनीक को लेकर क्या रुख़ अपनाएगा. दूसरी बात ये थी चीन के साथ संबंध को लेकर अमेरिका की रणनीति क्या होगी. क्या ट्रंप प्रशासन चीन के साथ टकराव मोल लेगा, मुक़ाबला करेगा, सहयोग करेगा या संशय की स्थिति बनी रहेगी. ये विषय भारत के लिए विशेष तौर पर अहम था. क्योंकि चीन को लेकर अमेरिका की रणनीति का केवल भारत पर ही नहीं, पूरी दुनिया पर असर पड़ने वाला था. तीसरा बड़ा सवाल ये था कि राष्ट्रपति ट्रंप आतंकवाद को लेकर कैसा रुख़ अपनाते हैं. ख़ासतौर से अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर. भारत के लिए चौथी अहम बात ये थी कि अमेरिका, वैश्विक संस्थाओं को कितनी अहमियत देने वाला है. और इन संगठनों में भारत की सदस्यता और सक्रियता पर अमेरिकी नीति का क्या असर पड़ेगा.
सभी मामलों को लेकर ट्रंप प्रशासन का रवैया और अमेरिका के साथ भारत के संबंधों के चलते ये बात सुनिश्चित हुई कि या तो इन विषयों पर दोनों देशों में आपसी सहयोग बढ़ेगा या फिर पहले हुए नुक़सान की कम से कम भरपाई तो हो सकेगी. ट्रंप प्रशासन ने मुक्त हिंद-प्रशांत क्षेत्र की जो सामरिक नीति अपनाई, उसकी मुख्य वजह चीन से मुक़ाबले वाला रिश्ता थी. इससे भारत को कई मायनों में लाभ मिला. जैसे कि अमेरिका और भारत के बीच द्विपक्षीय रक्षा सहयोग बढ़ा और सामरिक विषयों पर दोनों देशों के बीच समन्वय भी बेहतर हुआ. ट्रंप प्रशासन ने भारत के उच्च तकनीक हासिल करने की राह में आने वाली क़ानूनी बाधाएं दूर कीं. इसकी शुरुआत तो ओबामा के राष्ट्रपति रहते हुए ही हो गई थी. डोनाल्ड ट्रंप ने इसे और आगे बढ़ाने का काम किया. बहुपक्षीय संगठनों और अफ़ग़ानिस्तान के मोर्चे पर भी भारत और अमेरिका के बीच समन्वय बेहतर हुआ है. इसमें कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान को लेकर अमेरिका और भारत के रिश्तों में कुछ मुश्किलें ज़रूर आईं. क्योंकि, अमेरिका भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू से तोलने की नीति पर चलता रहा है. अप्रवासियों के मसले पर ज़रूर अमेरिकी संसद में टकराव के चलते क्रांतिकारी बदलाव नहीं लाए जा सके. वहीं, व्यापार की बात करें, तो ट्रंप सरकार ने भारत की ऊंची व्यापार कर दरों के चलते सीधे निशाने पर लिया. फिर भी, वाणिज्य के मसले पर टकराव के बावजूद, दोनों देशों के बीच कुल व्यापार ट्रंप प्रशासन के पूरे कार्यकाल के दौरान लगातार बढ़ता ही रहा है. साथ ही साथ भारत के पक्ष में व्यापार घाटा कम भी हुआ है.
ईरान पर अमेरिका के दोबारा प्रतिबंध लगाने का सीधा असर भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ा. भारत और अमेरिका के बीच दूसरा पेचीदा मसला रूस को लेकर सामने आया. अमेरिकी कांग्रेस ने रूस के साथ ट्रंप के संबंध बेहतर करने के प्रयासों को झटका दे दिया
हालांकि, भारत और अमेरिका के रिश्ते में बाद में दो पेचीदगियां ज़रूर उभर कर सामने आई. पहली तो ईरान के प्रति ट्रंप प्रशासन की सख्त नीति थी. इसकी शुरुआत अमेरिका द्वारा ईरान के साथ परमाणु समझौते से ख़ुद को एकतरफ़ा तौर पर अलग करने से शुरू हुई थी. ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (JCPOA) नाम का ये समझौता ट्रंप के पूर्ववर्ती बराक ओबामा ने किया था. ईरान पर अमेरिका के दोबारा प्रतिबंध लगाने का सीधा असर भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ा. भारत और अमेरिका के बीच दूसरा पेचीदा मसला रूस को लेकर सामने आया. अमेरिकी कांग्रेस ने रूस के साथ ट्रंप के संबंध बेहतर करने के प्रयासों को झटका दे दिया. इसके लिए अमेरिकी संसद ने जो क़ानून बनाया उसे काउंटरिंग अमेरिकन एडवर्सरीज़ थ्रो सैंक्शन्स (CAATSA) कहा गया. इसके अंतर्गत अमेरिका ने उन देशों पर पाबंदी लगाने की धमकी दी, जो रूस के साथ बड़े रक्षा समझौते करते हैं. भारत, रूस के रक्षा उत्पादों के निर्यात का सबसे बड़ा विदेशी ग्राहक है. अमेरिकी संसद के क़ानून बनाने के बाद ऐसा लगा कि भारत इस क़ानून का संभावित टारगेट है. इसके साथ साथ एक ट्रंप के राज में अमेरिका की नीति में एक बदलाव और देखने को मिला. डोनाल्ड ट्रंप को अन्य देशों के अंदरूनी मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसका भारत को फ़ायदा ये हुआ कि विवादिक नागरिका संशोधन क़ानून का मसला हो या फिर जम्मू-कश्मीर से संविधान की धारा 370 हटाने का परिवर्तन, अमेरिका की प्रतिक्रिया बहुत आक्रामक नहीं रही.
कुल मिलाकर कहें तो, ट्रंप के चुनाव जीतने का, भारत और अमेरिका के संबंधों के नौ प्रमुख मुद्दों पर काफ़ी असर पड़ा. नवंबर 2020 के चुनाव में ये सभी मसले दांव पर होंगे. सामरिक पहलू की बात करें तो, इसमें चीन, रूस, अफग़ानिस्तान पाकिस्तान और ईरान मध्य पूर्व को लेकर अमेरिकी नीति की काफ़ी अहमियत होगी. द्विपक्षीय संबंधों की बात करें, तो अमेरिका और भारत के बीच व्यापार, अप्रवास, निवेश, तकनीक और मूल्यों के विषय काफ़ी महत्वपूर्ण होंगे.
रिपब्लिकन बनाम डेमोक्रेटिक पार्टी की प्राथमिकताएं
अगर नवंबर 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन जीतते हैं, तो इससे भारत को कई मसलों पर राहत मिलेगी. बिडेन प्रशासन के दौरान दोनों देशों के संबंध न केवल ज़्यादा संरचनात्मक और स्थिर होंगे. बल्कि, व्यापार घाटे को लेकर ट्रंप प्रशासन की अधीरता, अवैध अप्रवासियों की तादाद घटाने की ज़िद और ईरान को अलग थलग करने की नीतियों को अमेरिका के प्राथमिकता देने की संभावना कम होगी. इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर डोनाल्ड ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति चुने जाते हैं, तो वो अप्रवासियों को रोकने, व्यापार को नए सिरे से संतुलित करने के साथ साथ ईरान के मसले पर अपना रुख़ और कड़ा कर लेंगे. इससे भारत की स्थिति और असहज हो जाएगी. इसके अलावा, अगर डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी की जीत होती है, तो नए राष्ट्रपति,भारत के साथ सहयोग के एक अन्य बड़े मसले यानी जलवायु परिवर्तन, हरित ऊर्जा और स्थायी विकास के मुद्दे को दोबारा प्रमुखता देंगे. ट्रंप प्रशासन ने इन मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल रखा है.
अगर नवंबर 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन जीतते हैं, तो इससे भारत को कई मसलों पर राहत मिलेगी. बिडेन प्रशासन के दौरान दोनों देशों के संबंध न केवल ज़्यादा संरचनात्मक और स्थिर होंगे.
लेकिन, डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी की जीत से भारत के लिए कई अन्य मसलों पर चिंता बढ़ जाएगी. अगर जो बाइडेन राष्ट्रपति बन जाते हैं, तो एक बार फिर से अमेरिकी सरकार, दक्षिण एशिया में भारत-पाकिस्तान को एक दर्जे में रखने की कोशिश करेगी. हालांकि, ये 1990 जैसी स्थिति तो नहीं होगी. लेकिन, जो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद डेमोक्रेटिक पार्टी का वामपंथी धड़ा, नागरिकता संशोधन क़ानून और जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को लेकर भारत की आलोचना करने में मुखर हो सकता है.
जहां तक अन्य विषयों की बात है, जैसे कि निवेश और तकनीक साझा करने के मुद्दे, तो 2020 के अमेरिकी चुनावों का भारत पर प्रभाव बहुत कम ही स्पष्ट होगा. इन सभी विषयों में से सबसे महत्वपूर्ण ये होगा कि चीन को लेकर अमेरिका की नीति क्या रहने वाली है. डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के साथ व्यापार युद्ध छेड़ दिया था, जिसने चीन को चौंका दिया था. व्यापार से इतर भी ट्रंप ने कई ऐसे क़दम उठाए हैं जिनसे अमेरिका और चीन की अर्थव्यवस्थाओं के बीच नज़दीकी कम हो. इसमें छात्रों के माध्यम से तकनीकी हस्तांतरण का विषय भी शामिल है. इसके साथ साथ ट्रंप ने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप और विश्व स्वास्थ्य संगठन से भी अमेरिका को अलग कर लिया है. हालांकि, अमेरिका के इन क़दमों की कड़ी आलोचना की जा रही है. डेमोक्रेटिक पार्टी ने वैज्ञानिक रिसर्च और विकास के फंड में कटौती करने के लिए भी ट्रंप प्रशासन की आलोचना की है. क्योंकि नई तकनीक के विकास से ही अमेरिका, चीन का मुक़ाबला कर पाने की बेहतर स्थिति में होगा. वैसे तो चीन को एक प्रतिद्वंदी के तौर पर देखने की सोच अमेरिका की दोनों ही पार्टियों में बढ़ी है. लेकिन, अभी भी रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों में इस बात को लेकर मतभेद है कि चीन से मुक़ाबला कैसे किया जाए. इसके अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा, मानवाधिकार और गुप्तचर समुदाय के ऐसे कई अमेरिकी विशेषज्ञ हैं, जो चीन और अमेरिका के बीच सहयोग और समन्वय बढ़ाने की वक़ालत करते रहे हैं.
इसका अर्थ ये होता है कि नवंबर 2020 के चुनाव में ट्रंप जीतें या जो बाइडेन, भारत के लिए अच्छे अवसर भी आएंगे और कुछ मुश्किलें भी खड़ी होंगी. डोनाल्ड ट्रंप के साथ अच्छा तालमेल होने के बावजूद हम अप्रवासियों के मसले पर मुश्किलों का अंदाज़ा लगा सकते हैं. भले ही ट्रंप, अपने भारत दौरे से काफ़ी प्रभावित हुए थे. लेकिन, अगर वो चुनाव जीतते हैं, तो ये चुनौतियां तो भारत के सामने आएंगी ही. वहीं, अगर जो बाइडेन चुनाव जीतते हैं तो भारत को लेकर अमेरिकी नीति में स्थिरता और स्पष्टवादिता आनी तय है. लेकिन, कई विषयों पर अमेरिका के पारंपरिक रुख़ की वापसी भी संभव है.
पूर्वानुमान लगाना जल्दबाज़ी होगी
तीन महीने पहले ही अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को लेकर भविष्यवाणी करना मूर्खता होगी. ये लगभग तय है कि जो बिडेन को लोकप्रिय वोट मिलेंगे. क्योंकि ट्रंप की लोकप्रियता की रेटिंग लगातार गिर रही है. और पिछले सात में से छह राष्ट्रपति चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशियों को ही जनता के वोट ज़्यादा मिलते आए हैं. लेकिन, इलेक्टोरल कॉलेज को जीतना ज़्यादा महत्वपूर्ण है और ये अलग ही चुनौती है. अमेरिका का अगला राष्ट्रपति कौन होगा, इसका फ़ैसला देश के 50 से अधिक राज्य नहीं करेंगे. बल्कि हो सकता है कि केवल सात राज्य ही मिलकर ये तय करें कि अगले चार साल तक अमेरिका पर कौन राज करेगा. ट्रंप को उम्मीद है कि वो रिपब्लिकन पार्टी के पारंपरिक गढ़ों जैसे कि एरिज़ोना, जॉर्जिया और उत्तरी कैरोलिना में अपना प्रभुत्व बनाए रखेंगे. इसके अलावा वो फ़ैसला करने वाले स्विंग स्टेट यानी फ्लोरिडा और ओहायो में भी जीतने की उम्मीद रखते हैं. और, हो सकता है कि 2016 में उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के गढ़ कहे जाने वाले जिन तीन राज्यों, पेन्सिल्वेनिया, मिशिगन या विस्कॉन्सिन में जीत हासिल की थी, उसमें से कम से कम एक में चौंकाने वाली जीत हासिल कर लें.
आमतौर पर मौजूदा राष्ट्रपतियों को चुनाव में बढ़त हासिल रहती है. वरना रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशियों के बीच मुक़ाबला बराबरी का ही रहता है. लेकिन, अमेरिका के पिछले तीन राष्ट्रपति चुनावों ने अनिश्चितता को जन्म दिया है. 2008 में रिपब्लिकन पार्टी के जॉन मैक्केन, अगस्त महीने में अच्छी बढ़त बनाए हुए थे. लेकिन, सितंबर में वित्तीय संकट ने डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी बराक ओबामा का फ़ायदा कराया. इसी तरह, 2012 के चुनाव में ओबामा को रिपब्लिकन पार्टी के मिट रोमनी पर अच्छी बढ़त हासिल थी. लेकिन, चुनाव से पहले टीवी पर पहली परिचर्चा के आधार पर रोमनी ने ओबामा की बढ़त को काफ़ी कम कर दिया था. वहीं, 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में आख़िरी दिन तक हिलेरी क्लिंटन की जीत के संकेत मिल रहे थे. अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के ये हालिया संकेत इशारा करते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों का पूर्वानुमान लगाना तब तक जल्दबाज़ी होगी, जब तक दोनों पार्टियां इस साल के अंत में अपने अपने सम्मेलन नहीं आयोजित कर लेतीं.
अमेरिकी संसद को भूलने की ग़लती न करे
आख़िर में सबसे अहम बात ये है कि पूरा ध्यान राष्ट्रपति चुनाव पर होने की वजह से लोग अक्सर भूल जाते हैं कि नवंबर में ही अमेरिकी संसद के भी चुनाव होने जा रहे हैं. इन चुनावों में अमेरिकी संसद के निचले सदन यानी हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स की सभी सीटों पर चुनाव हो रहे हैं. ये चुनाव हर दो साल में होते हैं. इस बात की पूरी उम्मीद है कि डेमोक्रेटिक पार्टी, संसद के निचले सदन में अपना बहुमत बनाए रख पाने में सफल होगी.
जब 1980 के दशक में, या फिर 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद भारत और अमेरिका के संबंध ख़राब थे, तो कई अमेरिकी सांसदों ने भारत से संबंध बेहतर करने की वक़ालत की थी. इसके साथ साथ जब दोनों देशों के बीच संबंध अच्छे थे, तो अमेरिकी कांग्रेस ने हमेशा इसे संशय की नज़र से देखा
लेकिन, अमेरिकी संसद के उच्च सदन यानी सीनेट का चुनाव ज़्यादा महत्वपूर्ण होगा. अगर, डेमोक्रेटिक पार्टी क़रीबी मुक़ाबले (एरिज़ोना, कोलोरैडो, मेन, मिशिगन, मोंटाना, नॉर्थ कैरोलिना और जॉर्जिया) वाली सात में से छह सीटों पर जीत हासिल कर लेती है, तो उन्हें अमेरिकी संसद के ऊपरी सदन में बहुमत हासिल हो जाएगा. इससे संसद के दोनों सदनों पर डेमोक्रेटिक पार्टी का नियंत्रण हो जाएगा. और वो विधायी कामकाज को पूरी तरह से नियंत्रित कर सकेंगे. अगर ट्रंप चुनाव जीत भी जाते हैं, तो डेमोक्रेटिक पार्टी सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में ट्रंप की पसंद के उम्मीदवारों के नाम ख़ारिज कर सकती है. और ट्रंप के ख़िलाफ़ राष्ट्रपति पद के दुरुपयोग के आरोपों की दोबारा जांच शुरू कर के उनके ऊपर दबाव बना सकती है.
भारत के लिए अमेरिकी संसद से संबंध महत्वपूर्ण बने रहेंगे. क्योंकि अमेरिकी संसद के पास किसी भी महत्वपूर्ण नीतिगत फ़ैसले को वीटो करने का अधिकार होता है. पारंपरिक रूप से अमेरिकी संसद, भारत के साथ संबंध में माध्यम की भूमिका निभाती आई है. जब 1980 के दशक में, या फिर 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद भारत और अमेरिका के संबंध ख़राब थे, तो कई अमेरिकी सांसदों ने भारत से संबंध बेहतर करने की वक़ालत की थी. इसके साथ साथ जब दोनों देशों के बीच संबंध अच्छे थे, तो अमेरिकी कांग्रेस ने हमेशा इसे संशय की नज़र से देखा. जैसे कि जब, जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने भारत के साथ नागरिक परमाणु समझौता किया, तब अमेरिकी संसद का रुख़ भारत के प्रति सख़्त हो गया था. इन सबके बावजूद, इस साल के अमेरिकी संसद के चुनाव, ख़ासतौर से बेहद मामूली संतुलन वाली सीनेट के चुनावों का भारत के हितों से वैसे ही सीधा ताल्लुक़ होगा, जैसे राष्ट्रपति चुनावों के साथ जुड़ा हुआ है.
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