इस सप्ताह के भारत-अमेरिका 2+2 डायलॉग को सबसे अच्छे ढंग से शायद विदेश मंत्री एस जयशंकर का यह जवाब परिभाषित करता है, जो उन्होंने भारत के रूस से तेल आयात के एक सवाल पर दिया : ‘हमारी [भारत की] एक महीने की ख़रीद उससे कम ही होगी जितनी यूरोप एक दोपहर में करता है.’
मतभिन्नताओं के बावजूद काम करने को तैयार
भारत में बहुत से लोगों ने इसे रूस के साथ ऊर्जा संबंधों के मुद्दे पर नयी दिल्ली को आजिज कर रहे अमेरिका को दिये गये बिल्कुल दुरुस्त जवाब के रूप में देखा है. और अमेरिका में बहुत से लोग इसे यूक्रेन संकट गहराने के बावजूद, रूस को लेकर भारत के अपनी ही लाइन पर चलने के रूप में देखेंगे. लेकिन जयशंकर बिल्कुल स्वाभाविक सी बात बयान कर रहे थे और यह साफ़ कर रहे थे कि यूरोप में सामने आ रहे संकट को देखने का नयी दिल्ली और वाशिंगटन का अपना-अपना दृष्टिकोण है.
2+2, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा बातचीत के लिए टोन सेट करने के साथ 3+3 में बदल गयी, का बड़ा संदेश यह था कि दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र एक परस्पर स्वीकार्य परिणाम तक पहुंचने के लिए अपनी मतभिन्नताओं पर काम करने को तैयार हैं.
इन सबके बावजूद, इस सप्ताह की 2+2, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा बातचीत के लिए टोन सेट करने के साथ 3+3 में बदल गयी, का बड़ा संदेश यह था कि दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र एक परस्पर स्वीकार्य परिणाम तक पहुंचने के लिए अपनी मतभिन्नताओं पर काम करने को तैयार हैं.
हाल के हफ़्तों में सुर्ख़ियों में रूस-यूक्रेन संकट पर भारत और अमेरिका के मतभेद छाये रहने के बावजूद, दोनों देशों ने हाल के वर्षों में बनी गति पर भरोसा जारी रखने और बड़ी रणनीतिक तस्वीर को ओझल नहीं होने देने की अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित किया है.
यूक्रेन के ख़िलाफ रूसी युद्ध और इसके वैश्विक प्रभावों से यक़ीनन कतरा कर नहीं निकला जा सकता था और वे एजेंडा का एक बड़ा हिस्सा थे, लेकिन भारत-अमेरिका की द्विपक्षीय साझेदारी आज अपने भीतर ढेरों मुद्दे समेटे हुए हैं जिनमें कोविड-19 को लेकर प्रतिक्रिया, महामारी-बाद आर्थिक पुनरुद्धार, जलवायु संकट और टिकाऊ विकास, बेहद अहम और उभरती तकनीकें, सप्लाई चेन का लचीलापन, शिक्षा, अप्रवासी समुदाय तथा रक्षा एवं सुरक्षा शामिल हैं.
डायलॉग के दौरान अंतरिक्ष स्थितिपरक जागरूकता (space situational awareness) के सहमति ज्ञापन (एमओयू) पर दस्तख़त हुए, क्योंकि दोनों देश बाह्य अंतरिक्ष और साइबर स्पेस में सहयोग गहरा करना चाहते हैं, ताकि वे इन दोनों ‘युद्ध क्षेत्रों’ में क्षमताएं विकसित कर सकें.
इस संलग्नता का विस्तार और गहराई बेजोड़ हैं तथा इस साझेदारी के चालक तत्व अभूतपूर्व दर से वृद्धि करते रहे हैं. यह रिश्ता कम से कम इस मामले में अद्वितीय है कि यह दो स्तरों से संचालित होता है : रणनीतिक अभिजात्य वर्ग के स्तर पर और लोगों-से-लोगों के स्तर पर.
बाह्य अंतरिक्ष और साइबर स्पेस में सहयोग गहरा
इस सप्ताह के डायलॉग के दौरान अंतरिक्ष स्थितिपरक जागरूकता (space situational awareness) के सहमति ज्ञापन (एमओयू) पर दस्तख़त हुए, क्योंकि दोनों देश बाह्य अंतरिक्ष और साइबर स्पेस में सहयोग गहरा करना चाहते हैं, ताकि वे इन दोनों ‘युद्ध क्षेत्रों’ में क्षमताएं विकसित कर सकें. भारत और अमेरिका के बीच रक्षा साझेदारी का तेज़ी से बढ़ना जारी है. अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन ने रेखांकित किया कि दोनों देशों ने ‘अपनी सेनाओं की परिचालन पहुंच का विस्तार करने और पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में ज्यादा निकट समन्वय के लिए नये अवसरों की पहचान’ की है. उन्होंने साफ़ तौर पर यह भी ज़िक्र किया कि भारत से लगी सीमा पर चीन ‘दोहरे उपयोग वाला बुनियादी ढांचा’ बना रहा है और अमेरिका भारत के संप्रभु हितों की रक्षा के लिए उसके ‘साथ खड़ा रहना जारी’ रखेगा. यह उन दो देशों की भाषा नहीं हो सकती जो रणनीतिक लिहाज़ से अलग राह पर हों.
आज की नयी हक़ीक़तों के साथ इस द्विपक्षीय संलग्नता की आगे की राह गढ़ते हुए, अब अमेरिका की बारी है कि वह टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के साथ-साथ सह-उत्पादन और सह-विकास के ज़रिये भारत के रक्षा विनिर्माण अड्डे (मैन्यूफैक्चरिंग बेस) के निर्माण में उसकी मदद करे.
भारत और अमेरिका यूक्रेन संकट पर मतभिन्नता रखेंगे, यह काफ़ी समय से स्पष्ट रहा है. आख़िर, रूस इस रिश्ते में कोई नया कारक तो है नहीं. वर्षों से, भारत-रूस रक्षा संबंध ने चुनौतियां पेश की हैं. नयी दिल्ली द्वारा मॉस्को से एस-400 त्रियुम्फ मिसाइल रक्षा प्रणाली की ख़रीद के संदर्भ में काट्सा (The Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act) कानून लंबे समय से भारत-अमेरिका के बीच चर्चा का हिस्सा रहा है.
हालांकि अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकन ने ‘संभावित प्रतिबंधों या संभावित छूटों के संबंध में अभी तक कुछ तय नहीं किया था’, जो वाशिंगटन में इस बात पर साफ़ स्वीकृति लगती है कि भारत को प्रतिबंधित करने के किसी क़दम का मतलब होगा रिश्ते को दशकों पीछे धकेल देना. अपने ढंग से, यूक्रेन संकट ने भारत-अमेरिका साझेदारी के लिए भी नये अवसर खोले. अमेरिका की राजनीतिक मामलों की अवर विदेश मंत्री विक्टोरिया नुलैंड ने भारत की हालिया यात्रा के दौरान यह माना कि ‘रक्षा आपूर्ति के लिए भारत की रूस पर निर्भरता अत्यंत महत्वपूर्ण है’ और यह ‘सोवियत संघ और रूस से एक ऐसे वक़्त में समर्थन की विरासत है जब अमेरिका भारत के प्रति उतना उदार नहीं हुआ करता था.’ लेकिन आज की नयी हक़ीक़तों के साथ इस द्विपक्षीय संलग्नता की आगे की राह गढ़ते हुए, अब अमेरिका की बारी है कि वह टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के साथ-साथ सह-उत्पादन और सह-विकास के ज़रिये भारत के रक्षा विनिर्माण अड्डे (मैन्यूफैक्चरिंग बेस) के निर्माण में उसकी मदद करे.
भारत का स्पष्ट रुख़
यूक्रेन संकट पर भारत के रुख़ को कइयों ने तटस्थ या यहां तक कि गुट-निरपेक्ष बताया है. लेकिन यह बहुत पहले से ही भारत द्वारा अपनायी गयी ‘गुट-निरपेक्ष’ मुद्रा नहीं है. भारत का रुख़ इन स्पष्ट सिद्धांतों पर आधारित है जो न सिर्फ़ हिंद-प्रशांत में महत्वपूर्ण हैं, बल्कि यूक्रेन संकट में भी लागू होते हैं- राष्ट्रों की क्षेत्रीय अखंडता व संप्रभुता, यूएन चार्टर और अंतरराष्ट्रीय कानून के लिए सम्मान. नयी दिल्ली अपने अति-महत्वपूर्ण हितों को आगे बढ़ाने के लिए मौजूदा हालात का इस्तेमाल नये अवसर तलाशने के लिए करना चाहती है – चाहे वह अमेरिका से भारत के साथ अपने रक्षा सहयोग पर नये सिरे से विचार करने के लिए कहना हो या फिर अपनी आर्थिक ज़रूरतों के लिए रूस से रियायती तेल ख़रीदना.
भारत सार्वजनिक रूप से रूस की निंदा करने के लिए अनिच्छुक है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में मतदान से अलग रह कर, बार-बार यूएन चार्टर और यूक्रेन को अपनी मानवीय मदद का हवाला देकर, वह अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट कर रहा है.
भारत सार्वजनिक रूप से रूस की निंदा करने के लिए अनिच्छुक है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) में मतदान से अलग रह कर, बार-बार यूएन चार्टर और यूक्रेन को अपनी मानवीय मदद का हवाला देकर, वह अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट कर रहा है. वे अभूतपूर्व बदलाव से गुज़र रही एक अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में भारत के एक अगुवा खिलाड़ी के बतौर उभरने के बारे में हैं.
सच्चे अर्थों में रणनीतिक साझेदार
भारत और अमेरिका आज सच्चे अर्थों में रणनीतिक साझेदार हैं. लेकिन परिपक्व बड़ी ताकतों के बीच साझेदारी कभी पूर्ण मतैक्य नहीं खोजती है. यह निरंतर संवाद सुनिश्चित कर मतभेदों को संभालने और इन मतभेदों को नये अवसर गढ़ने में लगाने का मामला है. 2+2 का यह ताज़ा संस्करण इस भावना को प्रभावी ढंग से बयान करने में सफल रहा है.
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