Author : Ramanath Jha

Published on Sep 18, 2020 Updated 0 Hours ago

देश के महानगरों में जनसांख्यिकीय विशेषज्ञों द्वारा किए गए आबादी के अध्ययनों पर आधारित अनुमानों से आबादी कई गुना अधिक बढ़ गई है.

बड़े शहरों के लिए किस तरह से हो जनसांख्यिकीय नियोजन

देश भर में नगरों के लिए एवं निश्चित ही विश्व के अनेक भागों में भी समय-समय पर विकास योजना (डीपी) बनाई जाती हैं जिन्हें वैकल्पिक रूप में मास्टर प्लान भी कहा जाता है. यह रणनीतिक दीर्घावधि दस्तावेज़ है जिसमें किसी नगर की दृष्टि, लक्ष्यों एवं विकास नीतियों का स्थान संबंधी विवरण होता है.

यह स्थापित प्रथा है कि नई विकास योजना की आरंभिक तैयारी में जनसांख्यिकीय अध्ययन को शामिल किया जाए. डीपी भविष्य के लिए नियोजन होता है जिसमें अमूमन आगामी 20 वर्ष के दौरान वहां आकर बसने वाली आबादी का जनसांख्यिकीय विश्लेषण किया जाता है. फिर इस आबादी की आवश्यकताओं का अनुमान लगाकर विकास योजना में उसके हिसाब से प्रावधान किए जाते हैं. इसे स्वयंसिद्ध माना जाता है विशेषकर भारत के संदर्भ में जहां नगरों में नई आबादी लगातार आकर बस रही है. यह प्रत्यक्ष है कि और अधिक आबादी को अधिक व्यवसायों, अधिक आवासों, अधिक दफ्तरों, अधिक स्वास्थ्य केंद्रों, अधिक खुले स्थानों एवं अन्य भौतिक, सामाजिक एवं मनोरंजन संबंधी बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होगी. यह अनुमान विभिन्न सुविधाओं के मानकों पर आधारित हैं जिन पर काम किया जा चुका है तथा जो नगर नियोजन में स्वीकृत हैं. यह मानक हरेक देश में भिन्न होते हैं. भारत में तो वे राज्य दर राज्य और कभी कभी तो नगर दर नगर भी अलग-अलग हैं. फिर भी समुचित मानक का संदर्भ लेना नगर नियोजन की बुनियादी आवश्यकता है. राष्ट्रीय स्तर पर आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने यूआरडीपीएफआई (नगरीय एवं क्षेत्रीय विकास योजना निरूपण एवं क्रियान्वयन)दिशा निर्देशों की सिफ़ारिश की है जिनमें सुविधाओं के मानक भी शामिल हैं.

राष्ट्रीय स्तर पर आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने यूआरडीपीएफआई (नगरीय एवं क्षेत्रीय विकास योजना निरूपण एवं क्रियान्वयन)दिशा निर्देशों की सिफ़ारिश की है जिनमें सुविधाओं के मानक भी शामिल हैं.

 भारत में अनेक राज्य इन दिशा निर्देशों का पालन करते हैं अथवा संदर्भ बिंदु के लिए इन्हीं का प्रयोग करते हैं. विकास योजना चूंकि भविष्य के लिए नियोजन होता है इसलिए उसमें अमूमन आगामी 20 वर्ष के दौरान वहां आकर बसने वाली आबादी का जनसांख्यिकीय विश्लेषण किया जाता है.

आबादी का अनुमान लगाने के लिए अनेक विधियों का प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि जनसंख्या अध्ययन के जटिल मामले में लिप्त होने के लिए अलग संपूर्ण शैक्षिक विषय स्थापित हो गया है. उदाहरण के लिए, कोहोर्ट सर्वाइवल अर्थात दल उत्तरजीविता विधि के अंतर्गत आबादी के प्रत्येक पांच वर्षीय आयु दल को समयावधि में पांच-पांच वर्ष के अंतराल में होने वाले परिवर्तनों का संज्ञान लिया जाता है. दल जैसे-जैसे गतिशील होता है उसके विभिन्न अवधियों में तरह—तरह से मृत्यु, उर्वरत्व एवं विवाह जैसी परिस्थितियों से प्रभावित होने के आसार भी बनते हैं. पांच वर्ष की समयावधि में प्रत्येक दल की संरचना में जो परिवर्तन सामने आते हैं उनका हिसाब लगाकर उन्हें प्रयुक्त कर लिया जाता है. कंपोनेंट अर्थात संघटक विधि इस अभिधारणा से आरंभ होती है कि किसी भी बसाहट की आबादी में परिवर्तन में दो संघटकों—मृत्यु के मुकाबले अधिक जन्म दर से प्राकृतिक वृद्धि तथा कुल आप्रवासन का योगदान होता है. दोनों संघटकों का अलग-अलग हिसाब लगाकर निष्कर्ष को आधार वर्ष की आबादी में जोड़ देते हैं. वृद्धि दर वाग्विस्तार विधि में पिछले दशकों के लिए वार्षिक घातांक वृद्धि दरों का हिसाब लगाकर कर्व फिटिंग मेथड यानी वक्ररेखीय अनुकूलन विधि द्वारा अनुमन्य अवधि के लिए उनका वाग्विस्तार कर देते हैं. इन एवं अन्य अनेक विधियों का मकसद भविष्य के लिए जनसांख्यिकीय आंकड़े हासिल करना है जिससे बीस वर्ष उपरांत आबादी की सबसे सटीक तस्वीर सामने आ सके. इसके लिए चूंकि अत्यंत परिपक्व विशेषज्ञता आवश्यक है इसलिए जनसंख्या का आंकलन करके विकास योजना बनाने वाले नगर किसी ऐसे पेशेवर समूह अथवा संस्थान की सेवा प्राप्त करते हैं जिसे ऐसे हिसाब एवं अनुमान लगाने में महारत होती है.

फिर भी सच यह है कि भारत के शहरी संदर्भ में जिस प्रकार के उतार-चढ़ाव मौजूद हैं उनके कारण ऐसे अनेक अनुमान सिरे से गड़बड़ सिद्ध हो जाते हैं और कभी-कभी तो अनुमान एवं यथार्थ में अत्यधिक अंतर दिखने लगता है. ऐसा अंतर बेंगलुरू, मुंबई, दिल्ली एवं अन्य अनेक महानगरों के मामले में ख़ास तौर पर दिखाई पड़ता है. उदाहरण के लिए, दिल्ली की आबादी 2011 में बढ़ कर 1.38 करोड़ हो गई जबकि दिल्ली के मास्टर प्लान में साल 2001 में ही आबादी 1.28 करोड़ हो जाने का अनुमान जताया गया था. इसी प्रकार मुंबई की 1967 की डीपी में साल 1981 में आबादी 70.60 लाख हो जाने का अनुमान था. इसके बावजूद 1981 की जनगणना से पता चला कि महानगर की आबादी बढ़कर 82.20 लाख हो गई. भारत के महानगरों में आबादी बढ़ने की रफ्तार जनसांख्यिकीय विशेषज्ञों द्वारा किए गए आबादी के अध्ययनों पर आधारित अनुमान से बहुत अधिक है. आंकलन में ऐसी गलतियां आधे-अधूरे पूर्वानुमानों एवं अवधारणाओं तथा इन पूर्वानुमानों एवं सिद्धांतों में गतिशील नागर परिस्थितियों के समावेश की कठिनाइयों के कारण हो सकती हैं.

चूंकि अत्यंत परिपक्व विशेषज्ञता आवश्यक है इसलिए जनसंख्या का आंकलन करके विकास योजना बनाने वाले नगर किसी ऐसे पेशेवर समूह अथवा संस्थान की सेवा प्राप्त करते हैं जिसे ऐसे हिसाब एवं अनुमान लगाने में महारत होती है.

आबादी बढ़ने के अनुमान में कमी रह जाने के परिणामस्वरूप नगर नियोजकों द्वारा नियोजित बुनियादी ढांचा एवं सुविधाएं आवश्यकता से बहुत कम रह जाती हैं जिनको नगरों द्वारा स्वीकृत मानकों के अनुरूप तय किया जाता है. इसलिए नगरों में महत्वपूर्ण भौतिक, सामाजिक एवं मनोरंजन संबंधी बुनियादी ढांचे जैसे स्कूलों, अस्पतालों, खुले सार्वजनिक स्थलों, सड़कों, सीवरेज तथा ठोस कूड़े को ठिकाने लगाने की सुविधा आदि की कमी पड़ जाती है. नगरों को इस कमी की भरपाई के लिए अमूमन अपने मानक गिराने पड़ते हैं. इसका सीधा सा अर्थ है नगर में रिहाइश के स्तर में गिरावट. भारत में चूंकि नगरों की आबादी बढ़ती रही है और आगे भी अनेक दशक तक बढ़ती जाएगी इसलिए मानकों में भी सतत गिरावट से बचना नामुमकिन है. निर्मित सुविधाओं के मामले में कभी-कभी यह संभव होता है कि उन्हें गिराए बिना भी सुविधाओं के मानकों का स्तर बरकरार रखा जा सके.

उदाहरण के लिए स्कूलों के लिए इमारतों की आवश्यकता होती है. इसका निराकरण ऊंची इमारतें बनाकर उनमें फ़र्श सूचकांक बढ़ाने से अतिरिक्त जगह निकाल कर किया जा सकता है. ज़ाहिर है कि इसकी भी सीमा है क्योंकि बच्चों की संख्या बेहिसाब बढ़ाकर स्कूलों में न तो भीड़ की जा सकती है और न ही गगनचुंबी अट्टालिका बनाकर बच्चों की सुरक्षा पर ग्रहण लगाया जा सकता है. इसका विद्यालय में अन्य संबंधित सुविधाओं पर एवं खेलकूद क्षेत्र में भीड़-भड़क्के के रूप में नकारात्मक असर पड़ता है. इन प्रवृत्तियों से अंतत: शिक्षा की गुणवत्ता एवं बच्चों के समग्र व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में गिरावट आ सकती है. इसलिए बच्चों को अधिक संख्या में समाहित करने के लिए विद्यालय की इमारत का आकार बढ़ाने की प्रक्रिया पर बहुत सोच-समझ कर अमल करना चाहिए.

भारत में चूंकि नगरों की आबादी बढ़ती रही है और आगे भी अनेक दशक तक बढ़ती जाएगी इसलिए मानकों में भी सतत गिरावट से बचना नामुमकिन है. निर्मित सुविधाओं के मामले में कभी-कभी यह संभव होता है कि उन्हें गिराए बिना भी सुविधाओं के मानकों का स्तर बरकरार रखा जा सके.

सार्वजनिक ख़ुले स्थानों के मामले में यह समस्या और भी बड़ी हो जाती है क्योंकि वह पुनर्निर्मित स्थल होते हैं. उदाहरण के लिए यदि 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले किसी शहर की आबादी 10 लाख है और प्रति व्यक्ति 10 वर्ग मीटर खुले सार्वजनिक स्थल (यूआरडीपीएफआई दिशा निर्देशों के अनुसार) का प्रावधान किया जाता है तो उसके क्षेत्रफल में से कुल 10 वर्ग कि.मी. जगह को सार्वजनिक खुला स्थल अभिसूचित करना होगा. चालीस साल बाद यदि उस नगर की आबादी बढ़कर 20 लाख हो जाती है और सार्वजनिक खुले स्थल संबंधी यूआरडीपीएफआई दिशा निर्देशों का पालन करना आवश्यक है तो उसके लिए 20 वर्ग कि.मी. क्षेत्र का प्रावधान करना होगा. ऐसे में यदि नगर के निर्मित ढांचों में उसकी ज़मीन खप चुकी होगी तो बढ़ी आबादी के लिए सार्वजनिक खुले स्थल वास्ते जगह कहां से आएगी? ऐसा ही अमूमन हो भी रहा है जिसके परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति सार्वजनिक खुले स्थल का मानक 10 वर्ग मीटर से घटकर पांच वर्ग मीटर प्रति व्यक्ति रह जाएगा. मुंबई में साल 2015 में एकदम यही परिस्थिति बन गई जब डीपी में प्रति व्यक्ति सार्वजनिक खुले स्थल के मानक को 4 वर्ग मीटर से घटाकर 2 वर्ग मीटर प्रति व्यक्ति किया जाने लगा तो नागरिकों ने इसका ज़बरदस्त विरोध किया. इन प्रदर्शनों के मद्देनज़रडीपी का वह प्रारूप रद्द किया गया तथा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को नया प्रारूप दस्तावेज़ बनाने का आदेश देना पड़ा.

उक्त परिस्थिति के लिहाज़ से देखें तो विकास योजना में जनसांख्किीय अनुमान लगाने के लिए मेरा प्रस्ताव है कि स्वीकृत मानकों पर आधारित मेरे नामकरण के अनुसार ‘ ऑप्टिमम मैथड’ यानी अधिकतम विधि अपनायी जानी चाहिए. इसका अर्थ है कि किसी नगर में बसने वाली अधिकतम संभावित आबादी का हिसाब मानकों के आधार पर लगा लिया जाए तथा फिर उपलब्ध ज़मीन का उस ‘कुल आबादी’ के लिए नए सिरे से प्रयोग नियोजित किया जाए. इससे मानकों का पालन और जीने की गुणवत्ता दोनों का स्तर बरकरार रखा जा सकेगा.

किसी नगर में बसने वाली अधिकतम संभावित आबादी का हिसाब मानकों के आधार पर लगा लिया जाए तथा फिर उपलब्ध ज़मीन का उस ‘कुल आबादी’ के लिए नए सिरे से प्रयोग नियोजित किया जाए.

शहरों में बसने की इच्छुक अतिरिक्त आबादी का दबाव नगरों पर बढ़ता ही रहेगा. इसे व्यवस्थित करने के लिए दुतरफा रणनीति की आवश्यकता होगी. नगर को स्थापित मानकों के अनुसार अतिरिक्त आबादी को बसाने के लिए अपनी सीमा में अतिरिक्त भूमि शामिल करके विकास करना होगा. इसके साथ ही नगरों को अपने मानकों में कटौती की हरेक कोशिश का विरोध तथा विकास नियंत्रण संबंधी अपने नियमों में परिवर्तन से इंकार करना होगा क्योंकि उनसे नगर में आबादी के और घनत्व पर असर पड़ता है.

यह एकदम स्पष्ट है कि उपरोक्त विधि का पालन तभी संभव है जबकि सरकार और नियोजक विकास की संभावना वाले अन्य नगरों में आर्थिक परिस्थितियों एवं बुनियादी ढांचे का निर्माण करें. विकेंद्रित नगर नियोजन की बुनियाद पर ही टिकाऊ शहरीकरण संभव है. इसके बग़ैर देश के चुनिंदा महानगरों में तो आबादी का घनत्व बढ़ता ही जाएगा जिससे उनमें जीने की गुणवत्ता का और क्षरण होगा तथा लंबी अवधि में उनमें रहना दूभर होता जाएगा.

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