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जीएसटी में इनपुट टैक्स क्रेडिट को लेकर भ्रू की स्थिति है और इसके भारी दुष्परिधाम हो सकते हैं। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी मिल सकता है।
जुलाई 1 आने को है और भारत 12 महीने के अंदर अपने दूसरे सबसे ऐतिहासिक आर्थिक सुधार को लागू करने के लिए तैयार हो रहा है। जिस ऐतिहासिक सुधार की बात हम कर रहे हैं वह है वस्तु व सेवा कर अर्थात् जीएसटी। विमुद्रीकरण यानी कि नोटबंदी का फैला तो यकायक लिया गया था लेकिन जीएसटी पर लंबे समय से काम चल रहा है, इसकी शुरूआती चर्चा एक दशक पहले ही आरंभ हो गई थी। जीएसटी का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है — केंद्र व राज्य सरकारों के कई अप्रत्यक्ष करों को एक कर में तब्दील कर भारतीय कर प्रणाली को दुरुस्त करना। इन सुधारों के फायदों से इंकार नहीं किया जा सकता है। मसलन यह भारत के असंगठित क्षेत्र को मुख्यधारा में शामिल कर देगा। ज्यादा क्षेत्रों में व्यवसायिक लागत गिरेगी, निर्यात को बढ़ावा मिलेगा तथा दोहरे कराधान(डबल टैक्सेशन) के मामलों को कम करने में मदद मिलेगी। लेकिन नई कर प्रणाली के क्रियान्वयन को लेकर अभी कई मुद्दे बाकी हैं। इनपुट टैक्स क्रेडिट का मसला सुलझना बाकी है। जीएसटी सूचना प्रौद्योगिकी प्रणाली को लेकर अनिश्चितता कायम है तथा मुनाफाखोरी विरोधी प्रावधान (एंटी-प्रॉफिटियरिंग क्लॉस) को लेकर भ्रम की स्थिति है। इन सबके चलते यह अच्छा खास आर्थिक प्रयास अंतत: असफल साबित हो सकता है।
एक संभावित मुद्दा जिसे लेकर दिक्कत पैदा हो सकता है वह है जीएसटी केंद्रों पर इनपुट टैक्स क्रेडिट के लिए जरूरी दस्तावेज तथा उस चरण की पहचान करना जहां क्रेडिट अर्जित हो रहा है। इस नई कर व्यवस्था में आपूर्तिकर्ताओं (सप्लायर्स) द्वारा उपभोक्ताओं को टैक्स क्रेडिट जारी करने से पहले कई तरहं के दस्तावेज जमा करवाने होंगे। ग्राहकों के लिए इससे अल्प काल में कार्य पूंजी के प्रवाह में दिक्कत आ सकती है। ज्यादातर व्यवसाय कार्यशील पूंजी (वह नकद राशि जो ग्राहकों से नकदी मिलने तथा आपूर्तिकर्ताओं को नकदी देने के बीच के समय में काम-काज को सुचारू बनाए रखने के लिए इस्तेमाल होती है।) का प्रभावी इस्तेमाल करने में भरोसा रखते हैं।अगर कोई व्यवसायी रोजमर्रा के लिए काम के लिए अपने हाथ में ज्यादा नकदी न रखे तो वह बाकी का पैसा दूसरी गतिविधियों में लगा सकता है। ये गतिविधियां व्यापार के विस्तार से लेकर ब्याज देने वाले बचत बैंक खाते में पैसा जमा करवाने से जुड़ी हो सकती हैं।
टैक्स क्रेडिट पाने के लिए जिस तरहं के दस्तावेज चाहिएं उससे भारतीय उद्यमियों की कार्यशील पूंजी (वर्किंग कैपिटल) को लेकर की गई गणनाएं उलट-पुलट हो सकती हैं। नए नियमों के अनुसार टैक्स क्रेडिट
तभी दिया जा सकेगा जब आपूर्तिकर्ता पूरे दस्तावेज जमा करवा देगा, इसलिए व्यवसायों को इस संबंध में होने वाली देरी के लिए तैयार रहना होगा। इसके लिए उन्हें अतिरिक्त नकदी अपने हाथ में रखनी होगी जिसका मतलब है संभावित विकास व निवेश संबंधी गतिविधियों के लिए उपलब्ध पैसे में कमी। छोटे व्यवसायों को पैसे की जरूरत पूरी करने के लिए उधार भी लेना पड़ सकता है और सबसे खराब स्थिति यह भी हो सकती है कि कई छोटे व्यवसाय अपना काम ही बंद कर दें।
क्रियान्यवन से जुड़ी एक और समस्या जीएसटी प्रणाली से जुड़ी टेक्नॉलाजी भी है। जीएसटी का एक प्रमुख आधार उसका इंटीग्रेटिड टेक्नॉलॉजी नेटवर्क है (जिसे जीएसटीएन कहते हैं)। यह नेटवर्क दस्तावेजों के समुद्र को अपने में समेटेगा, डेबिट व क्रेडिट की अंतहीन गणनाओं का हिसाब रखेगा। यह एक महत्वाकांक्षी प्रयायस है जिसके अंतर्गत इस प्लेटफार्म पर सात करोड़ उपयोगकर्ताओं के खाते होंगे। लेकिन अभी तक कोई भी यह स्पष्ट नहीं कह पा रहा है कि जीएसटी के 1 जुलाई को लागू होने के साथ ही यह नेटवर्क भी पूरी क्षमता के साथ काम करने लगेगा।
जीएसटीन में भरोसा अपने आप में पहले से ही एक चिंता का विषय है। इस संदर्भ में ज्यादातर निजी स्वामित्व वाले संगठनों में पारदर्शिता के अभाव से समस्या पैदा हो सककी है। अगर जीएसटी नेटवर्क 1 जुलाई को ठीक से काम नहीं कर पाया तो यह वित्तीय सुधार शुरू होने से पहले ही लुढ़क जाएगा।
तीसरा विषय जो जीएसटी पर अमल करने में रोड़ा अटका सकता है वह है मुनाफा-विरोधी प्रावधान। जब अन्य देशों में अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधार किए गए तो व्यवसायों ने अपनी कीमतों में कोई परिवर्तन नहीं किया और कर प्रणाली में बदलाव से हुई बचत को अपने मुनाफे को बढ़ाने में इस्तेमाल किया। लेकिन जीएसटी में कर प्रणाली से होने वाले बदलाव से नाजायज़ मुनाफे को रोकने के लिए एक प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार व्यवसायों को कर प्रणाली में बदलाव के कारण मिले फायदे को उपभोक्ताओं को देना होगा। लेकिन इस धारा में कहीं भी मुनाफा-विरोधी गतिविधयों पर नजर रखने की व्यवस्था का जिक्र नहीं है। राज्स्व सचिव हसमुख अधिया के अनुसार यह धारा और इस संबंध में की जाने वाली आगामी जांच ‘विश्वसनीय शिकायतों’के आधार पर की जाएगी।
मुनाफाखोरी विरोधी इस एंटी-प्रॉफिटियरिंग धारा का प्रभाव व्यवसायों और उपभोक्ताओं दोनों पर पड़ेगा। निजी क्षेत्र को डर है कि इस धारा का दुरुपयोग चुनिंदा लोगों को निशाना बनाने के लिए किया जाएगा क्योंकि इसमें कर अधिकारियों के पास व्यक्तिपरक निर्णय लेने की छूट होगी। दूसरी ओर उपभोक्ताओं को डर है कि इससे पारदर्शिता में कमी आएगी तथा इस धारा का इस्तेमाल चलताउ ढंग से किया जाएगा। इसमें राजनीतिक संबंधों और भ्रष्टाचार की भूमिका भी होगी। इस प्रकार स्पष्टता के अभाव से जीएसटी के बारे में जनता की सोच नकारात्मक बनती है।
जीएसटी को लेकर जिन तीन समस्याओं की बात की गई है उन सबका एक ही समाधान है और वह है — समय। जीएसटी नेटवर्क से संबंधित समस्या सुलझ सकती है अगर टेस्टिंग व आॅडिटिंग के लिए और समय दिया जाए। इसी प्रकार मुनाफाखोरी विरोधी प्रावधान को लेकर पैदा हो रही समस्याओं को भी समय सीमा मिलने पर व्यापक जागरूकता तथा कीमत निरीक्षण प्रणाली स्थापित कर दूर किया जा सकता है। दस्तावजों की आवश्यकता तथा छोटे व्यवसायों के नकदी प्रवाह पर पड़ने वाले उनके प्रभाव से निपटना ज्यादा मुश्किल है। संभवत: नियम बनाने वालों को इनपुट टैक्स क्रेडिट तथा इसके लिए जरूरी दस्तावेजों पर दोबारा विचार करने की जरूरत है।
जीएसटी एक महत्वाकांक्षी योजना है और मोदी की सरकार ने इसके क्रियान्यवन के लिए महवाकांक्षी योजना बनाई है। लेकिन सबसे बुद्धिमतापूर्ण काम फिलहालल यही होगा कि इसे लागू करने में कुछ महीने का समय और लिया जाए ताकि जिस तरहं जल्दबाजी में किए गए विमुद्रकरण से समस्याएं पैदा हुई थीं, वैसी समस्याएं दोबारा पैदा न हों। जीएसटी का क्रियान्वयन अगर खराब रहा तो इसका नकारात्मक असर अगले कई सालों तक भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा।
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