Published on Oct 23, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत — जो परम्परागत रूप से मालदीव में प्रभावशाली भूमिका निभाता आया था चुनाव के पहले की घटनाओं को लेकर उलझन में रहा।

मालदीव चुनाव: चीन की हार या भारत की जीत?

हाल ही में सम्पन्न हुए मालदीव के राष्ट्रपति पद के चुनाव के नतीजों ने वहां के अंदरूनी और बाहरी पर्यवेक्षकों को अचरज में डाल दिया है। मालदीव के निर्वाचन आयोग ने मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी के इब्राहिम मोहम्मद सालेह की जीत की घोषणा की है। सालेह को निर्वतमान राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन से 38,484 वोट ज्यादा मिले।

निर्वाचन आयोग के प्रमुख ने कहा कि इस दौरान चुनाव से संबंधित किसी तरह की अनियमितता नहीं हुई या ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली, जो चुनाव के नतीजों को प्रभावित कर सकती हो। सोमवार को राष्ट्रपति यामीन के हार कबूल कर लेने के साथ ही राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित सालेह का रास्ता साफ हो गया। सालेह विपक्षी दलों के साझा उम्मीदवार थे। यह चुनाव तीन पार्टियों— मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी, जम्हूरी पार्टी और धार्मिक अधालत पार्टी — ने मिलकर लड़ा। निर्वाचित राष्ट्रपति राजनीति के पुराने दिग्गज हैं, जबकि उनके डिप्टी, जम्हूरी पार्टी के फैजल नसीम राजनीति में नया चेहरा है।

अनेक अखबारों ने चुनाव के नतीजों प्रभाव के बारे में तुरत-फुरत आकलन किया जो ज्यादा सही नहीं था। बेशक कुछ अपवाद भी थे, जिन्होंने सावधानी बरतने का आह्वान किया।इसके बावजूद ज्यादतर ने साधारणतया यही कहा कि यामीन की हार चीन के लिए बुरी और भारत के लिए अच्छी खबर है।

दरअसल, नए नेता का निर्वाचन चीन के लिए भले ही कुछ हद तक आघात हो सकता है, लेकिन हकीकत तो यह है कि मालदीव की आवश्यकताओं की कसौटी पर पूरी उतरने की चीन की आर्थिक क्षमताओं के कारण मालदीव, चीन को खोना नहीं चाहेगा। मालदीव में भारत के लिए भले ही कितनी ही सदभावना हो, लेकिन भारत के पास उतनी क्षमता नहीं है कि वह चीन की जगह ले सके। अगर आसान शब्दों में कहें, तो बुनियादी ढांचा तैयार करने और क्षेत्रीय सम्पर्क स्थापित करने के मामले में भारत का रिकॉर्ड कुछ खास अच्छा नहीं रहा है।

नए नेता का निर्चाचन चीन के लिए भले ही कुछ हद तक आघात हो सकता है, लेकिन हकीकत तो यह है कि मालदीव की आवश्यकताओं की कसौटी पर पूरी उतरने की चीन की आर्थिक क्षमताओं के कारण मालदीव, चीन को खोना नहीं चाहेगा।

लेकिन, यकीनन राष्ट्रपति यामीन के कार्यकाल के दौरान प्रचरित रही प्रबल भारत-विरोधी भावनाएं अब नहीं रहेंगी। नई सरकार को भारत और चीन के बीच बेहतर संतुलन कायम करने के लिए बाध्य होना होगा और साथ ही सालेह सरकार को आर्थिक एवं सामरिक रणनीतियों के बीच भी संतुलन कायम करना होगा।

हालांकि चीन के विदेश मंत्रालय ने मालदीव के बारे में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में कहा,

राष्ट्रपति पद के चुनाव सुचारु रूप से सम्पन्न कराने के लिए मालदीव को और राष्ट्रपति चुने जाने के लिए श्री सालेह को बधाई। हम मालदीव की जनता के फैसले का सम्मान करते हें और आशा करते हैं कि मालदीव स्थिरता और विकास बरकरार रखेगा। चीन और मालदीव के बीच परम्परागत रूप से मैत्रीपूर्ण रिश्ते हैं।

यामीन को खासतौर पर चीन के करीबी और कुछ हद तक भारत विरोधी के तौर पर देखा गया। यामीन के कार्यकाल के दौरान, चीन-मालदीव आर्थिक और निवेश संबंध तेज गति से बढ़े और उनके कार्यकाल में दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता हुआ। साथ ही, फरवरी में, ऐसी खबरें थीं जिनमें पश्चिमी प्रवालद्वीप पर माकुनूधू में जाइंट ओशन ऑब्जर्वेशन स्टेशन की स्थापना करने की चीन की योजना के बारे में चर्चा की गई थी, जिसे लेकर भारत चौकन्ना हो गया था।

हालांकि शुरुआती प्रतिक्रिया के एक दिन बाद, चीन, मालदीव के विपक्षी नेताओं, खासतौर पर नशीद की प्रत्यक्ष तौर पर “मालदीव में चीन के उत्पादों में पारदर्शिता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के अभाव को लेकर उनकी वाणिज्यिक संभावनाओं पर सवालिया निशान लगाने के लिए” आलोचना करने से खुद को रोक नहीं सका। चीन के विदेश मंत्रालय ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “क्या मालदीव और चीन के बीच सहयोग हो सकता है या नहीं या दोनों देशों को लाभ पहुंच सकता है या नहीं, यह बात दोनों देशों की जनता पर निर्भर करेगी। इसे कुछ खास लोगों द्वारा बदनाम नहीं किया जा सकता।”

पिछले रविवार को सम्पन्न हुए चुनाव के नतीजों में कुछ आंतरिक और बाहरी बदलावों को प्रभावित करने की क्षमता है। आंतरिक रूप से, अब तक पांच राजनीतिक कैदी रिहा किए जा चुके हैं तथा आने वाले दिनों और हफ्तों में और भी लोगों की रिहाई हो सकती है। बाहरी बदलाव महत्वपूर्ण हो सकते हैं। साल के प्रारंभ में, पूर्व विदेश मंत्री अहमद नसीम ने यामीन के शासन की शैली पर विचार करते हुए सलाह दी थी, “यह महज लोकतंत्र के लिए नहीं, बल्कि समूचे हिंद महासागर क्षेत्र की शांति, सुरक्षा और स्थायित्व के बारे में है।”

आश्वस्त होने के लिए, मालदीव की नई सरकार चीन से संबंधित योजनाओं के बारे में नए सिरे से विचार करना चाहेगी, क्योंकि एमडीपी नेता नशीद विचार है कि बहुत से लोगों का मानना है “चीन ने उनके देश को ‘ऋण जाल’ में घसीट लिया है और विपक्ष के नेतृत्व वाली भावी सरकार को चीनी ऋणों के बारे में नए सिरे से बातचीत करनी होगी।”

मालदीव की नई सरकार चीन से संबंधित योजनाओं के बारे में नए सिरे से विचार करना चाहेगी।

मौजूदा घरेलू राजनीतिक संकट इस साल फरवरी में मालदीव के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को न मानने के लिए यामीन के फैसले के साथ शुरु हुआ। इस फैसले में “विपक्षी नेताओं को कैद करने के सरकार के कदम को संविधान और अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करार दिया गया था।” न्यायालय ने सरकार को नशीद सहित नौ विपक्षी नेताओं की रिहाई का आदेश भी दिया था। जिसके बदले में यामीन ने देश में आपात स्थिति की घोषणा कर दी और फिर इस अवधि को 45 दिन तक बढ़ा दिया गया। इस दौरान यामीन ने दो न्यायाधीशों, सैंकड़ों कार्यकर्ताओं और पूर्व राष्ट्रपति मॉमून गय्यूम सहित विपक्ष के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। 45 दिनों के बाद 22 मार्च को यामीन ने आपात स्थिति समाप्त कर दी।

नशीद सहित अनेक विपक्षी नेताओं का दावा था कि यामीन ने आपातकाल समाप्ति की घोषणा इसलिए की क्योंकि वह पहले ही न्यायपालिका और संसद पर अपना अधिपत्य जमा चुके थे। संकट की शुरुआत से ही नशीद और अनेक विपक्षी ​नेताओं को निर्वासित होना पड़ा था और अब उनका माले में लौटना तय हो चुका है।

भारत, जो परम्परागत रूप से मालदीव में प्रभावशाली भूमिका निभाता आया था चुनाव के पहले की घटनाओं को लेकर उलझन में रहा। भारत ने राष्ट्रपति गय्यूम की सरकार का इस हद तक समर्थन किया था कि उसने 1988 में अपनी फौजे भेजकर मालदीव सरकार के खिलाफ एक विद्रोह के प्रयास को भी नाकाम किया था। लेकिन यामीन के नेतृत्व में मालदीव, भारत के दायरे से बाहर हो गया। उसने चीन की बेल्ट एंड रोड पहल का समर्थन किया और चीन से नजदीकियां बढ़ाता गया।

नवनिर्वाचित सरकार हालांकि चीन की अर्थिक सहायता की बदौलत चलने वाली कुछ परियोजनाओं को रद्द करने और उन पर पुनर्विचार करने जैसे कदम उठा सकती है, लेकिन मालदीव पर चीन का प्रभाव ज्यादा कम होने के आसार नहीं हैं, क्योंकि चीन की जगह ले सकने वाला कोई नहीं है। भारत भले ही ऐसा न चाहता हो, लेकिन उसके पास उतनी क्षमता नहीं है। इतना ही नहीं, मालदीव के विपक्षी दलों द्वारा बार—बार की गई गुहार के बावजूद भारत के कुछ कर पाने में अक्षम रहने या कुछ कदम उठाने का इच्छुक न होने से भी उसकी विश्ववसनीयता को झटका लगा है। इन परेशानियों को दूर करने में भारत को खासी मशक्कत करनी होगी।

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