वर्ष 2000 जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हो रहे थे, तब जॉर्ज बुश की सलाहकार कॉन्डोलिज़ा राइस ने एक लेख में लिखा था कि अमेरिका को भारत पर गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है. राइस ने लिखा था कि, ‘चीन के समीकरणों में भारत की बहुत अहमियत है और इसीलिए अमेरिका के समीकरणों में भी भारत को शामिल होना चाहिए.’
इस सोच के पीछे भी एक कहानी है. जब एक राजनीतिक संस्था के तौर पर सोवियत संघ का विघटन हो गया, तो विश्व मंच पर एक नई शक्ति के उभरने के शुरुआती संकेत 1990 के दशक में उस समय देखने को मिले थे, जब एशिया में वित्तीय संकट पैदा हुआ था. उस समय जब एशिया की मज़बूत अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के शेयर बाज़ार एक के बाद एक धड़ा-धड़ गिर रहे थे, तब चीन की मुद्रा युआन इस आर्थिक तूफ़ान के दौरान भी स्थिर थी. चीन ने उस समय अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को 4 अरब डॉलर से अधिक की मदद दी थी. चीन ने ऐसा उस समय किया था, जब अमेरिका अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद करने में अनिच्छुक दिख रहा था. इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में जब चीन के आर्थिक विकास की रफ़्तार तेज़ हो गई, तो अमेरिका ने चीन को भारत के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश की. उस समय, एक लोकतांत्रिक देश के तौर पर भारत, साम्यवादी चीन के ख़िलाफ़ संतुलन बनाने वाले देश के तौर पर देखा जा रहा था.
पिछले दो दशकों में हमने एशिया की सबसे महत्वाकांक्षी राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्तियों का उदय होते देखा है. भारत और चीन के संबंध 1960 के दशक में सीमा पर दो युद्धों के दौर से आगे निकल चुके हैं. आज दोनों ही तर्कशील और परमाणु ताक़त से लैस देश बन चुके हैं. दोनों ही देश अपने आस-पास के क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए टकराव की स्थिति में हैं. हालांकि, दोनों ही देश, आपस में मिल कर सीधे सैनिक संघर्ष की स्थिति आने से बचते रहे हैं.
पिछले दो दशकों में हमने एशिया की सबसे महत्वाकांक्षी राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्तियों का उदय होते देखा है. भारत और चीन के संबंध 1960 के दशक में सीमा पर दो युद्धों के दौर से आगे निकल चुके हैं.
बढ़ती महत्वाकांक्षाएं और उभरता तनाव
शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन एक ऐसे देश के तौर पर उभरा है, जो सबसे आक्रामक है और दुनिया पर अपना दबदबा क़ायम करना चाहता है. शी जिनपिंग के नेतृत्व वाले चीन के रूप में आज अमेरिका को सोवियत संघ के विघटन के बाद की दुनिया में सबसे आक्रामक राष्ट्र से निपटना पड़ रहा है. सोवियत संघ के उलट, चीन के आर्थिक साम्राज्यवाद के चलते अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व अर्थव्यवस्था को तगड़ी चुनौती मिल रही है. इसके अलावा, चीन के कई देशों के साथ सीमा को लेकर विवाद चल रहे हैं. फिर चाहे वो साउथ चाइना सी में हों या फिर भारत के साथ सीमा विवाद. चीन का आक्रामक रुख़ झेल रहे देशों में जापान, भारत और फिलीपींस जैसे उसके दोस्त देश हैं. ज़ाहिर है कि चीन, अमेरिका के दोस्तों को परेशान करके सीधे अमेरिका के प्रभुत्व को ही चुनौती दे रहा है.
तो क्या, कोरोना वायरस की महामारी के चलते दुनिया दो ध्रुवों में बंट जाएगी? क्या इस महामारी के बाद के दौर में भारत और चीन के संबंधों में अमेरिका और सक्रियता से भूमिका निभाएगा? इसकी वजह सिर्फ़ ये नहीं है कि अमेरिका, भारत को एक ऐसे देश के तौर पर देखता है, जो चीन के विरुद्ध संतुलन बनाने का काम करता है. बल्कि, ये एक ऐसा अवसर है, जिसका लाभ उठाकर अमेरिका अपने हितों पर मंडरा रहे ख़तरों से निपटना चाहता है. और इसीलिए, अमेरिका अपने भविष्य में भारत की भूमिका की बढ़ती प्रासंगिकता को पहले से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण मानने लगा है.
अमेरिका, भारत को एक ऐसे देश के तौर पर देखता है, जो चीन के विरुद्ध संतुलन बनाने का काम करता है. बल्कि, ये एक ऐसा अवसर है, जिसका लाभ उठाकर अमेरिका अपने हितों पर मंडरा रहे ख़तरों से निपटना चाहता है.
2017 में जब डोकलाम में भारत और चीन, सीमा को लेकर आमने सामने थे, तब का अमेरिका का रवैया और लद्दाख में सीमा पर हिंसक संघर्ष को लेकर अमेरिका का रुख़, दोनों की तुलना करें तो फ़र्क़ साफ़ नज़र आता है. हाल के वर्षों में भारत ने चीन के साथ अपने विवादों में काफ़ी स्पष्टवादिता से काम लिया है. ज़मीनी स्तर पर भारत ने दृढ़ता दिखाई है. सीमा पर मज़बूती से डटे रहने के साथ-साथ भारत ने कूटनीतिक स्तर पर शांतिपूर्ण प्रतिक्रिया देने का काम किया है. और शोर-शराबे से बचने की कोशिश की है. जहां तक समुद्री क्षेत्र के विवाद हैं, तो चीन के आक्रामक रवैये के कारण विवादों का समाधान अटक गया है. लेकिन, भारत ने डोकलाम में मज़बूती से अपने रुख़ पर क़ायम रहते हुए, जिस तरह अमेरिका के प्रभावी दख़ल के बिना ही समस्या का समाधान किया, वो अपने आप में चीन से निपटने की एक मिसाल है.
इस दशक के दौरान हमने चीन और अमेरिका के संबंधों को एक नई दिशा में जाते हुए भी देखा है. पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने, ‘एशिया प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन फिर से स्थापित करने’ की नीति अपनाई थी. लेकिन, ओबामा की ये नीति चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकने में पूरी तरह से असफल रही थी. इसके उलट, चीन ने अमेरिका पर अपना विश्वास भी कम कर दिया था. डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद, दोनों देशों के बीच टकराव और बढ़ गया. ख़ास तौर से व्यापार कर, कारोबार और इससे संबंधित अन्य विवादों को लेकर चीन और अमेरिका लगातार संघर्ष करते रहे. अब चूंकि चीन ने अमेरिका के साथ अपने अच्छे संबंधों के कई रास्ते ख़ुद ही बंद कर लिए हैं. तो, नई परिस्थितियों में अमेरिका, इस क्षेत्र में भारत की भूमिका का विस्तार होते हुए देख रहा है. पिछले तीन वर्षों में अमेरिका का भारत की ओर झुकाव काफ़ी बढ़ा है. 2017 में डोकलाम संकट के बाद, दोनों देशों नें हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चार देशों के सहयोग (QUAD Talks) का संवाद बढ़ाया है. सैन्य क्षेत्र में सहयोग के लिए भारत और अमेरिका ने COMCASA जैसे समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. तो साउथ चाइना सी में जापान, भारत और फिलीपींस अमेरिका के साथ मिलकर गश्त को बढ़ा रहे हैं. सामरिक स्तर पर भारत और अमेरिका के बीच जिस तरह से सहयोग बढ़ा है, उससे साफ़ है कि कभी कभार किन्हीं विषयों पर दोनों देशों के बीच होने वाले सहयोग का दौर अब पीछे छूट चुका है. अब दोनों देश एक दूसरे को स्थायी सामरिक सहयोगी के तौर पर देख रहे हैं.
अमेरिका ये मानता है कि व्यापार और सीमा को लेकर चीन के साथ भारत के संबंध बेहद पेचीदा हैं. हाल ही में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हुआ संघर्ष भारत को अपने दोस्तों का चुनाव करने में निर्णायक भूमिका निभाएगा.
ये कोई रहस्य नहीं है कि अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कई मुद्दों पर भारत के साथ मतभेदों का खुलकर इज़हार करते रहे हैं. फिर चाहे वो व्यापार कर का मामला हो, ईरान का मुद्दा हो या कारोबार का मसला. हालांकि, जहां तक चीन के साथ भारत के विवाद की बात है, तो ट्रंप ने इस मामले में भारत का समर्थन ही किया है. जबकि, अमेरिका ये मानता है कि व्यापार और सीमा को लेकर चीन के साथ भारत के संबंध बेहद पेचीदा हैं. हाल ही में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हुआ संघर्ष भारत को अपने दोस्तों का चुनाव करने में निर्णायक भूमिका निभाएगा. अमेरिका के सांसद इलियट एल. एंजेल, अमेरिकी संसद के निचले सदन की विदेश नीति संबंधी समिति के प्रमुख हैं. एंजेल ने कहा कि, ‘वो भारत के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन के आक्रामक रुख़ को लेकर बेहद चिंतित हैं. चीन ने एक बार फिर ये साबित किया है कि वो अपने पड़ोसी देशों के साथ विवादों को अंतरराष्ट्रीय नियम क़ायदों के अनुसार बातचीत से सुलझाने के बजाय डरा-धमका कर अपनी दादागीरी जमाने में अधिक विश्वास रखता है.’
अमेरिका का पुराना ख़्वाब: दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाना
चीन ने भारत के साथ उस समय सीमा विवाद पर आक्रामक रुख़ अपनाया है, जब पूरी दुनिया में उसकी विश्वसनीयता लगातार कमज़ोर हो रही है. दिलचस्प बात ये है कि ऐसा ठीक उस समय हो रहा है जब अमेरिका को लग रहा है कि भारत में वो क्षमता और इच्छा है कि वो इस क्षेत्र में अधिक सक्रिय भूमिका निभाए.
सीमा पर चीन के कड़ा रुख़ अपनाने से एक महत्वपूर्ण बात ये होगी कि चुनावी साल में अमेरिका के दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दलों, डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी का चीन और भारत के संबंध के बारे में रुख़ बदलेगा. वॉशिंगटन के हेरिटेज फाउंडेशन के विश्लेषक जेफ स्मिथ कहते हैं कि, ‘अमेरिका में भविष्य में किसी भी दल की सरकार बने, कोई भी अमेरिकी नेता अब ये उम्मीद नहीं करता कि चीन के साथ संवाद बढ़ाने से चीन का रवैया बदलेगा, वो ज़्यादा मुक्त देश बनेगा और अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करेगा. अब डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति हों या रिपब्लिकन किसी को ऐसा नहीं लगता.’ स्मिथ का कहना है कि अगर जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति चुने जाते हैं, तो भी चीन के विरुद्ध अभी अमेरिका ने जो कड़ा रुख़ अपनाया हुआ है, उसमें कोई बदलाव देखने को मिलेगा.
इस बदले हुए माहौल में जब दुनिया पर कोविड-19 का संकट छाया हुआ है, तो भारत को ये अपेक्षा है कि अमेरिका एक बार फिर विश्व का नेतृत्व संभालेगा. मिसाल के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन को लेकर भारत और अमेरिका का रुख़ बिल्कुल अलग अलग है. भारत, जहां WHO में बड़े सुधारों की मांग कर रहा है. वहीं, डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका को विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग कर लिया है. ये ऐसे विवाद हैं, जिन्हें भारत और अमेरिका को मिलकर सुलझाना होगा. क्योंकि, भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्ष वर्धन, विश्व स्वास्थ्य संगठन के बोर्ड के अध्यक्ष चुने जा चुके हैं. ऐसा भी हो सकता है कि अमेरिका अपने समर्थन के एवज़ में भारत से ये अपेक्षा करेगा कि वो चीन से मुक़ाबला करने में उसका साथ दे. जिससे इस क्षेत्र में अमेरिका के हितों का संरक्षण हो सके.
हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता पर चोट और ताइवान को लेकर अपने राष्ट्रवादी रुख़ के चलते चीन को शायद अब ये परवाह ही नहीं है कि पश्चिम में उसके कितने दोस्त देश रहते हैं. जब चीन ने हॉन्गकॉन्ग के विरोध प्रदर्शनों पर सख़्ती अपनायी तो वो भारत के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भी आक्रामक बना हुआ है.
उठा-पटक और बदलाव के इस दौर में दिए जाने वाले संदेश ही निर्णायक रुख़ का इशारा करने में सक्षम हैं. ट्रंप ने G-7 देशों के संगठन का विस्तार करने की अपनी ख़्वाहिश खुल कर ज़ाहिर की है वो इस संगठन में भारत, रूस, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया को शामिल करना चाहते हैं. अमेरिका के इस क़दम से चीन का चिढ़ जाना स्वाभाविक है. आज भारत, एशिया में चल रहे वैश्विक कूटनीतिक संघर्ष के बीच में पड़ गया है. हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता पर चोट और ताइवान को लेकर अपने राष्ट्रवादी रुख़ के चलते चीन को शायद अब ये परवाह ही नहीं है कि पश्चिम में उसके कितने दोस्त देश रहते हैं. जब चीन ने हॉन्गकॉन्ग के विरोध प्रदर्शनों पर सख़्ती अपनायी तो वो भारत के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भी आक्रामक बना हुआ है. ऐसे में ट्रंप और अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने जब भारत को चीन के ख़िलाफ सहयोग का प्रस्ताव दिया, तो चीन को लगा कि उसकी मुश्किल बढ़ सकती है. जिसके बाद उसने भारत के साथ बातचीत से सारे मसले सुलझाने का बयान दिया. क्योंकि भारत और चीन के सीमा विवाद में अमेरिका के कूद पड़ने से विवाद का शक्ति संतुलन भारत की ओर झुकता दिख रहा है.
एक बात ये भी है कि कोरोना वायरस की महामारी ने चीन को अपने भविष्य को लेकर असुरक्षित और अनिश्चित बनाने का काम किया है. ऐसे में भारत के साथ विवाद में जब उसे लगा कि अमेरिका, भारत के साथ खड़ा है, तो ये तथ्य आगे चल कर चीन को इस मसले को बातचीत से सुलझाने के लिए विवश करेगा. जैसे-जैसे दुनिया कोरोना वायरस के प्रकोप से उबर रही है, वैसे-वैसे अमेरिका इस क्षेत्र में और सक्रिय भूमिका निभाने की ओर बढ़ रहा है. जिसमें वो भारत का भी सहयोग चाहता है. वर्ष 2000 में कॉन्डोलिज़ा राइस ने एक सटीक भविष्यवाणी की थी, ‘भारत अभी बड़ी ताक़त नहीं बना है, लेकिन इसमें एक शक्तिशाली देश के तौर पर उभरने की क्षमता है.’ आज भारत के पास ये अवसर है कि चीन के साथ सीमा विवाद के दौरान वो अमेरिका के साथ अपनी दोस्ती को और मज़बूत करे और विश्व स्तर पर उसके साथ सहयोग बढ़ा ले.
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