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इतिहास गवाह है कि संरक्षणवाद (घरेलू इंडस्ट्रीज़ को नुकसान से बचाने के मक़सद से विदेशों से हो रहे आयात पर ज़्यादा टैक्स लगाने की रणनीति) का रास्ता वैश्विक मंदी की ओर ले जाता है। नोबेल विजेता पॉल क्रुगमैन के मुताबिक ट्रेड वॉर यानी कारोबार युद्ध के चलते हमेशा दुनिया के कारोबार और उसकी असली कमाई पर बुरा असर पड़ता है।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने कनाडा, यूरोप और चीन के सामान पर सबसे ज़्यादा टैरिफ़ लगा दिया है, इसके निशाने पर ख़ासकर के 200 बिलियन डॉलर का चीनी सामान है, जिस पर 10% ड्यूटी लगाई गई है। चीन ने भी पलटवार किया है और दोनों देशों ने एक-दूसरे पर 34 मिलियन डॉलर का टैरिफ़ लगा दिया है। ट्रम्प की संरक्षणवादी नीति जुलाई 2018 से लागू की जा रही है और अब इस नीति ने अमेरिकी उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया है।
वजह ये है कि आयात पर टैरिफ़ बढ़ने से ज़्यादातर कंपनियों की लागत बढ़ गई है और उनके पास सामानों का दाम बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। स्टील और एल्युमीनियम पर ज़्यादा शुल्क से पड़ने वाली मार का असर आखिरकार ग्राहकों के हिस्से में आता है। ऐसे में डिमांड घटती है और उसका सीधा असर अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।
हांलाकि राष्ट्रपति ट्रम्प के लीडरशिप में अमेरिकी अर्थव्यवस्था बेहतर कर रही है और जुलाई 2018 में बेरोज़गारी 3.9% पर सबसे निचले स्तर पर है। ट्रम्प की नीतियों ने पूरे अमेरिका में बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा की हैं, जिसकी बातें वो बार-बार करते हैं। अनुमान है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था साल 2018 में रिकॉर्ड 3 फीसदी से बढ़ेगी। हांलाकि महंगाई बढ़ने लगी है, सालाना मूलभूत महंगाई दर 1.9 से बढ़कर जल्द ही 2% के लक्ष्य तक पहुंच जाएगी। महंगाई बढ़ने की वजह है कार से लेकर ट्रैक्टर, डिशवॉशर से लेकर सॉफ़्ट ड्रिंक (कोका कोला) तक बनाने वाली कंपनियों की लागत बढ़ने से उनका मुनाफ़ा घटना। एल्युमीनियम और स्टील पर ड्यूटी बढ़ा दी गई है और इन कंपनियों के सामान एल्युमीनियम और स्टील से ही बनते हैं। कम मुनाफ़े की वजह से इन कंपनियों के स्टॉक घटने का ख़तरा है। इसका नतीजा ये होगा कि लागत बढ़ने का असर ख़रीददारों पर पड़ेगा, कंपनियां अपने सामान के लिए पहले से ज़्यादा पैसे लेंगी। जैसा वॉशिंग मशीन बनाने वाली जानीमानी कंपनी व्हर्लपूल कर रही है।
टैरिफ़ के चलते लागत बढ़ने से महंगाई बढ़ेगी और ऐसे में यूएस फेडरल रिज़र्व को समय से पहले ही बार-बार ब्याज़ दरें बढ़ानी पड़ेंगी, टैरिफ़ ऐसे समय बढ़ाए गए हैं जब कंपनियां पहले ही बढ़े हुए खर्चों से जूझ रही हैं। ख़ासकर के मज़दूरों को अब ज़्यादा पैसे देने पड़ रहे हैं। ऐसे में ब्याज़ दर बढ़ने और उधार लेना महंगा पड़ने की स्थिति में ताज़ा रिकवरी उस स्तर तक नहीं पहुंच पाएगी जिसके बारे में ट्रम्प बढ़ा-चढ़ाकर बातें करते हैं।
कुछ कंपनियां लागत बढ़ने के बावजूद ग्राहकों पर इसका बोझ नहीं डाल सकती हैं क्यों कि ऐसे में उन्हें डिमांड के घटने का डर है। मिसाल के तौर पर जनरल मोटर्स। ट्रम्प के टैक्स कम करने के चलते जनरल मोटर्स को पहले फ़ायदा हुआ अब वो कीमतें नहीं बढ़ा रहे हैं। जिन ग्राहकों को लग रहा है कि भविष्य में कीमतें बढ़ सकती हैं वो जनरल मोटर्स की महंगी गाडि़यां खरीद रहे हैं, अभी तक ऐसी कंपनियों के लिए अच्छी बात है लेकिन लंबे समय तक ऐसा चलता रहेगा इसकी गुंजाइश कम है क्योंकि जब ब्याज़ दर बढ़ने की वजह से कर्ज़ लेना मुश्किल हो जाएगा तो डिमांड कम हो जाएगी।
अमेरिका में ब्याज़ दरों के बढ़ने का असर उभरते बाज़ारों को छोड़कर दुनियाभर के FII यानी फॉरेन इंस्टीट्यूशनल इंवेस्टमेंट पर होगा और ये असर लौटकर अमेरिका भी वापस आएगा। पहले ही भारतीय स्टॉक मार्केट से FII बाहर निकल रहे हैं (2018 की शुरुआत में ही 7 बिलियन डॉलर) इसके चलते लगातार विदेशी निवेश आने में दिक़्क़त हो रही है जिससे स्टॉक मार्केट अस्थिर हो रहा है। ऐसे में भारतीय स्टॉक मार्केट में निवेशकों से आने वाले फंड के सिकुड़ने का ख़तरा है। इससे नया इंवेस्टमेंट रुक सकता है। पूंजी बाज़ार में अस्थिरता भारत के लिए अच्छी बात नहीं है क्योंकि चुनावी साल में भारत ऊंची दर से विकास चाहता है लेकिन ऐसे हालात में फॉरेन इंस्टीट्यूशनल इंवेस्टमेंट के बाहर निकल जाने का डर है। अगर फेडरल रिज़र्व इस साल की संभावित दो बढ़त के मुक़ाबले ब्याज दर बढ़ता है तो रुपये का गिरना जारी रहेगा, तेल खरीदना महंगा पड़ेगा और इससे मौजूदा वित्तीय घाटा बढ़ेगा।
ट्रम्प के चीन पर ज़्यादा टैरिफ़ लगाने से चीन दूसरे देशों से आयात के लिए मजबूर होगा, इससे भारत को ज़्यादा फ़ायदा होने की उम्मीद नहीं है क्यों कि चीन अपनी ख़ास ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन देशों पर फोकस करेगा जहां से उसे वो सामान मिल सकते हैं। चीन अमेरिका से ख़ासतौर पर कृषि आधारित उत्पाद खरीदता है और भारत उसे सोयाबीन निर्यात कर सकता है लेकिन एशिया पैसिफिक ट्रेड एग्रीमेंट के तहत चीन ने 8549 प्रकार के सामान पर ड्यूटी घटा दी है। जिसे भारत को पहले ही फ़ायदा मिल रहा है। इन सामानों में केमिकल, कपड़े, स्टील, एल्युमीनियम और इलाज संबंधी प्रोडक्ट शामिल हैं।
हाल के हफ़्तों में चीन की अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी हो रही है। पिछले कुछ महीनों में चीन का ट्रेड सरप्लस भी घटा है। युआन में 6% की गिरावट आई है और वो 6 महीने के निचले स्तर तक पहुंच गया है। टर्की से एल्युमीनियम और स्टील खरीदने पर लगे प्रतिबंध के बाद टर्किश लीरा में गिरावट आई है।
इतिहास गवाह है कि संरक्षणवाद (घरेलू इंडस्ट्रीज़ को नुकसान से बचाने के मक़सद से विदेशों से हो रहे आयात पर ज़्यादा टैक्स लगाने की रणनीति) का रास्ता वैश्विक मंदी ओर ले जाता है। नोबेल विजेता पॉल क्रुगमैन के मुताबिक ट्रेड वॉर के चलते हमेशा दुनिया के कारोबार और उसकी असली कमाई पर बुरा असर पड़ता है। चीन साफतौर पर इस ट्रेड वॉर के चलते नुकसान उठा रहा है क्योंकि वो अमेरिकी मांग बहुत ज़्यादा निर्भर है और सख़्त कदम उठाने पर उसे नुकसान हो रहा है। 2017 में चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 375 बिलियन डॉलर का है। अमेरिका चीन से 505 बिलियन डॉलर का सामान खरीदता है ऐसे में निर्यात में गिरावट का सीधा असर चीन पर पड़ रहा है।
चीन की यूरोपियन यूनियन से दोस्ती की कोशिशें भी रंग नहीं ला रही हैं। यूरोपीय देश नेशनल सिक्योरिटी के नाम पर चीनी निवेश की सख़्ती से छानबीन कर रहे हैं। यूरोपीय देश पिछले कुछ सालों में तेज़ी से बढ़े चीनी निवेश को लेकर चिंतित हैं।
तेल की बढ़ी कीमतें भी वैश्विक मंदी लाने में भी भूमिका अदा करेंगी। अमेरिका भारत के मुख्य ट्रेड पार्टनर मे से एक है। ऐसे में ज़रूरी है कि ट्रेड बैलेंस बनाए रखने के लिए नए टैरिफ़ न लगाए जाएं। अमेरिका और भारत दोनों देश कारोबारी मसलों को सुलझाना चाहते हैं, भारत ने 29 अमेरिकी प्रोडक्ट्स पर 235 मिलियन डॉलर का टैरिफ़ लगाया है क्यों कि अमेरिका ने स्टील और एल्युमीनियम पर ज़्यादा टैरिफ़ लगा दिया है। अमेरिका भारत के निर्यात में सब्सिडी और डेटा लोकलाइजेशन पर RBI के उस आदेश को लेकर सवाल उठा रहा है जिसमें कहा गया है कि भारत में काम करनी वाली कंपनियां अपने सर्वर को भारत में स्थापित करें।
जब तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था अच्छा कर रही है तब तक राष्ट्रपति ट्रम्प साफतौर पर विजेता नज़र आएंगे लेकिन अगर बढ़ी हुई ब्याज़ दर की वजह से महंगाई बढ़ती है और इससे किसी तरह की मंदी आती है तो दुनिया को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे क्यों कि डॉलर और फेडरल रिज़र्व की पॉलिसी का असर दुनियाभर में देखने को मिलता है।
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Jayshree Sengupta was a Senior Fellow (Associate) with ORF's Economy and Growth Programme. Her work focuses on the Indian economy and development, regional cooperation related ...
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