Author : Hari Bansh Jha

Published on Dec 17, 2018 Updated 0 Hours ago

चिंताजनक बात यह है कि नेपाल में देश का नया नेतृत्व संविधान में वर्णित संघवाद की भावना को व्यवहारिक रूप से लागू करने में सफल नहीं हो सका है।

नेपाल में अब तक बरकरार है संक्रमण का दौर

तीन साल से ज्यादा अर्सा पहले, 20 सितम्बर 2015 को नेपाल का सातवां संविधान लागू किया गया। यह संविधान ऐसे माहौल में लागू किया गया, जहां समाज का एक वर्ग इसके लागू होने की खुशियां मना रहा था, तो दूसरा इसे “काला दिन” करार दे रहा था। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, स्थानीय, प्रांतीय और संघीय चुनाव 2017 में सम्पन्न हो गए थे। उनके बाद, 761 सरकारों का गठन किया गया, जिसमें 753 सरकारें ग्राम परिषद और नगरपालिका स्तर पर, सात सरकारें प्रांतीय स्तर पर और एक सरकार संघीय स्तर पर थी।

चुनावों के बाद कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल(सीपीएन) देश की सबसे मजबूत राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरी, जिसकी उम्मीद किसी को न थी। उसने न सिर्फ संघीय स्तर पर, बल्कि सात में से छह प्रांतों में और साथ ही साथ अधिकांश ग्राम परिषदों और नगरपालिकाओं में सरकार बनाई।

संघीय स्तर पर, सीपीएन को दो-तिहाई बहुमत प्राप्त हुआ। 1959 के बाद से किसी भी राजनीतिक पार्टी को संसद में सीपीएन जितनी सीटें नहीं मिली थीं। यह घटनाक्रम नेपाली कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी भरा था, क्योंकि पिछली संसद में वह देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पा​र्टी थी। राष्ट्रीय जनता पार्टी — नेपाल (आरजेपीएन) और फेडरल सोशलिस्ट फोरम नेपाल (एफएसएफएन) जैसी मधहेश-आधारित राजनीतिक पार्टियों के लिए भी यह उतना ही शर्मिंदगी भरा था, क्योंकि वे तराई क्षेत्र के विशाल हिस्सों में अपना नियंत्रण खोने की कीमत पर केवल प्रांत संख्या-2 और उसकी कुछ ग्राम परि​षदों और नगरपालिकाओं में ही सरकार बना सकीं। उनके लिए यह भी शर्मिंदगी की बात थी कि 2015-16 के मधहेश आंदोलन के दौरान उन्होंने जो मसले उठाए थे, उन्हें संविधान संशोधन के अभाव में हल नहीं किया जा सका।

वैसे देश का पूरा राजनीतिक परिदृश्य सीपीएन के पक्ष में नहीं है। संविधान के प्रति मधहेशी लोगों का मोहभंग निरंतर बना हुआ है। केंद्र में संघीय सरकार को समर्थन देने वाली और राज्य संख्या-2 की सत्तारूढ़ पार्टी मधहेश-आधारित आरजेपीएन ने 19 सितम्बर के संविधान दिवस के अवसर को “काला दिन” के रूप में मनाया।

जैसे इतना ही काफी नहीं था, जिन समूहों ने संविधान लागू होने पर खुशियां मनाई थीं, वे भी सरकार के प्रदर्शन से खुश नहीं थे। और तो और, माधव कुमार नेपाल सहित सीपीएन के कुछ वरिष्ठ नेता तो देश को नई दिशा देने में नाकाम रहने के लिए संघीय सरकार की मुखर आलोचना करने लगे। अभी हाल तक, डॉक्टरों, संचालकों और पत्रकारों जैसे समाज के सभी महत्वपूर्ण वर्ग आंदोलन कर रहे थे, क्योंकि नवनिर्मित देश की मुलुकी ऐन (देश की संहिता)ने उनके व्यवसायों में चूक होने पर कड़ी सजा के प्रावधान किए हैं और जिस तरह से बाजार में विभिन्न चीजों के दाम बढ़े हैं, उससे आम नेपाली जनता हताश दिखाई देती है।

उल्लेखनीय है कि सीपीएन सरकार ऐसा कोई भी उपाय करने में विफल रही है, जो देश की अर्थव्यवस्था के किसी भी महत्वपूर्ण क्षेत्र में उत्पादन या उत्पादकता बढ़ाने में समर्थ हो पाता। दरअसल, आर्थिक विकास की दर, जो 4 फीसदी से नीचे बनी हुई है, उसमें वृद्धि होने के आसार नहीं हैं। रोजगार के नए अवसरों का सृजन नहीं किया गया है। हर गुजरते दिन के साथ दुष्कर्म, भ्रष्टाचार और हिंसा के मामलों में वृद्धि हो रही है।

चिंताजनक बात यह है कि देश का नया नेतृत्व संविधान में वर्णित संघवाद की भावना को व्यवहारिक रूप से लागू करने में सफल नहीं हो सका है। केंद्र सात राज्य सरकारों और स्थानीय इकाइयों के साथ शक्तियां बांटने के मूड में नहीं लग रहा है। नेपाल के कुल बजट का लगभग 70 प्रतिशत भाग अब भी संघ सरकार के पास है और प्रांतीय तथा स्थानीय इकाइयों को केवल 30 प्रतिशत भाग का आवंटन किया गया है।

इतनी कम धनराशि आवंटित होने के कारण प्रांतीय और स्थानीय सरकारें जनहित में प्राथमिकता वाली परियोजनाओं को आरंभ ही नहीं कर पातीं। इसलिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने के लिए अधिकतर स्थानीय इकाइयों ने अनाप-शनाप कर लगाने शुरु कर दिए हैं। ऐसी गतिविधियों ने स्थानीय करदाताओं को आशंकित कर दिया है।

ऐसी अपेक्षा थी कि संघ की ओर से प्रांतीय और स्थानीय सरकारों के पास लोक सेवक भेजे जाएंगे, लेकिन अब तक इनमें से ज्यादातर को परियोजनाओं का कार्यान्वयन करने के लिए आवश्यक मानव शक्ति नहीं मिल सकी है। इससे यह सन्देह व्यक्त किया जाने लगा है कि केन्द्र संघवाद को सफल बनाने के प्रति गम्भीर है भी या, नहीं।

सत्तारुढ़ पार्टी सीपीएन में भी सब ठीक नहीं है। के पी ओली के नेतृत्व वाली भूतपूर्व कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) और प्रचण्ड के नेतृत्व वाली सीपीएन (माओवादी) के विलय के बावजूद, पार्टी के भीतर वर्चस्व के लिए खींचतान जारी है। और तो और पार्टी के भीतर, ज्यादातर राजनीतिक कार्यकर्ता जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में नाकाम रहने के कारण अपने ही नेतृत्व और सरकार के आलोचक हैं।

इतना ही नहीं, ऐसा लगता है कि नेपाल सरकार ने अपने दो पड़ोसी देशों भारत और चीन के साथ सामरिक सम्बंधों में संतुलन कायम करने की परिपक्वता विकसित कर ली है। हाल ही में, नेपाल के बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (बिम्सटेक) के साथ सैन्य अभ्यास करने से परहेज किए जाने को भारत को अपमानित करने के प्रबल कदम के तौर पर देखा गया। इसके अलावा, 1,200 मेगावॉट की प्रतिष्ठित बूढ़ी गंढक पनबिजली परियोजना के निर्माण का ठेका फिर से चीन की कम्पनी गेझोबा समूह को सौंप दिया गया। इससे पहले पिछले साल नवम्बर में, शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली तत्कालीन नेपाली सरकार ने इस कम्पनी का ठेका रद्द कर दिया था।

चीन की कम्पनी को दोबारा ठेका दिए जाने पर टिप्पणी करते हुए ऊर्जा मंत्री बर्षमान पुन ने कहा कि अरबों डॉलर की परियोजना मजबूरी के कारण चीन की कम्पनी को दोबारा देनी पड़ी। चीन को खुश करने के लिए, उसे बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के अंतर्गत रेलवे और अन्य परियोजनाओं को कार्यान्वित करने की इजाजत देने के लिए अतिरिक्त प्रयास किए गए।

दशकों बाद, नेपाल में राजनीतिक स्थायित्व कायम हुआ है, क्योंकि वहां की जनता ने सीपीएन को केंद्र और साथ ही साथ ज्यादातर प्रांतीय और स्थानीय निकायों में स्पष्ट समर्थन दिया है।लेकिन सरकार इस मजबूत जनादेश का फायदा उठाती नहीं दिखती। इसलिए वर्तमान सरकार के प्रति जनता की आशाएं धूमिल पड़ सकती हैं। इसलिए समय की मांग है कि देश में कानून और व्यवस्था कायम करने तथा निवेश, विकास और रोजगार सृजन के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने के अलावा असंतुष्ट गुटों की आकांक्षाओं को पूरा किया जाए। क्षेत्र में भू-सामरिक संतुलन बनाए रखना भी सरकार का उतना ही महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। इनमें से कुछ मोर्चों पर किसी भी तरह की विफलता, देश में नए सिरे से राजनीतिक अस्थिरता आमंत्रित कर सकती है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.