Author : Trisha Ray

Published on Jun 23, 2020 Updated 0 Hours ago

बहुत सी वैश्विक तकनीकी कंपनियां अपने-अपने देशों की सरकारों के साथ नियामयक क़ानूनों को लेकर उलझी हुई हैं. जैसे कि गूगल और फेसबुक के ख़िलाफ़ अमेरिकी संसद इस बात की जांच कर रही है कि वो अपने डेटा, नागरिकों की निजता और एल्गोरिद्म में पारदर्शिता लाएं.

साइबर ‘संप्रभुता’ की राह में हैं अनगिनत ख़तरे और जटिलताएं!

आज इस बात को लेकर पूरी दुनिया में आम सहमति है कि जिस डिजिटल क्रांति से ये अपेक्षा थी कि वो एक उदारवादी तकनीकी आदर्श दुनिया की स्थापना करेगी. उसी डिजिटल क्रांति ने डेटा, सूचना के मूलभूत ढांचे, बौद्धिक संपदा और वित्तीय व मानवीय पूंजी तक पहुंच व नियंत्रण में काफ़ी असमानता को जन्म दिया है. जैसा कि 2018 की अंकटाड (UNCTAD) रिपोर्ट में कहा गया था कि आज पूरी दुनिया की डिजिटल संपत्ति कुछ गिनी चुनी अमेरिकी और चीनी कंपनियों के हाथ में सीमित हो कर रह गई है.

डिजिटल दुनिया की इस व्याख्या ने दो अलग-अलग ध्रुवों वाली परिकल्पनाओं को जन्म दिया है. एक तरफ़ तो डिजिटल उपनिवेशवाद की बात की जा रही है, तो दूसरी ओर साइबर संप्रभुता का प्रश्न भी उठाया जा रहा है. अब जबकि एशिया और अफ्रीका के विकासशील देश, डिजिटल दुनिया के नियम तय करने की प्रक्रिया में भागीदार बन रहे हैं. तो, वो अपनी प्राथमिकताएं भी स्पष्ट रूप से दुनिया के सामने रख रहे हैं. इसके लिए वो अक्सर इन्हीं दो परिकल्पनाओं का सहारा लेते हैं. ऐसे में ये आवश्यक है कि हम डिजिटल उपनिवेशवाद और साइबर संप्रभुता की इन परिकल्पनाओं को ठीक से समझें और उन्हें लेकर जो ग़लत अवधारणाएं हैं, उन्हें भी दूर करने का प्रयास करें.

उभरते हुए विवरण

सूचना और जनसंचार के क्षेत्र में विकास से जुड़े अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में बने संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों के समूह (UN GGE on Cyber) की स्थापना वर्ष 2004 में हुई थी. तब से इस समूह की छह बैठकें हो चुकी हैं. संयुक्त राष्ट्र के साइबर विशेषज्ञों के इस समूह की पांचवीं बैठक इस बात के लिए काफ़ी चर्चित हुई थी कि इसमें एक रिपोर्ट जारी करने तक को लेकर सहमति नहीं बन सकी थी. वर्ष 2018 में संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञ समूह के समानांतर एक ओपेन एंडेड वर्किंग ग्रुप (OEWG) की स्थापना की गई थी. इसका मक़सद डिजिटल संवाद के क्षेत्र में बहुपक्षीय भागीदारों की साझेदारी को बढ़ावा देना था.

साइबर संप्रभुता एक मज़बूत मगर बेहद अस्पष्ट परिकल्पना है. आम तौर पर इसका इस्तेमाल तकनीक संबंधी प्रवाह पर किसी सरकार के नियंत्रण से जोड़ कर देखा जाता है. जहां पर सरकार डिजिटल दुनिया के नियम भी बनाती है और डिजिटल अधिकारों की प्रतिभूति भी देती है

संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञ समूह  (UN GGE) की स्थापना के शुरुआती दिनों में इसमें अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के देशों की नुमाइंदगी बिल्कुल भी नहीं थी. वर्ष 2004 से 2010 के बीच इस विशेषज्ञ समूह में केवल दो अफ्रीकी देशों की भागीदारी थी. दक्षिण अफ्रीका और माली. इसी तरह एशिया के विकासशील देशों की भी इसमें बेहद कम भागीदारी थी. उस समय केवल भारत और मलेशिया जैसे बड़े देश ही संयुक्त राष्ट्र के साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ समूह के सदस्य थे.[1]

अब जबकि साइबर दुनिया, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति, आर्थिक वृद्धि और राष्ट्रीय सुरक्षा के बेहद महत्वपूर्ण तत्व के तौर पर उभर रही है, तो इन भौगोलिक क्षेत्रों के देश साइबर दुनिया के जुड़े नियमों का एक मूलभूत ढांचा खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं. इसके लिए राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर क़ानून बनाए जा रहे हैं. इन क्षेत्रीय और राष्ट्रीय प्रयत्नों का अंतरराष्ट्रीय मंचों पर साइबर दुनिया से जुड़ी दो अन्य परिकल्पनाओं से सीधा और क़रीबी संबंध है. ये दो परिकल्पनाएं हैं-डिजिटल उपनिवेशवाद और साइबर संप्रभुता.

साइबर संप्रभुता एक मज़बूत मगर बेहद अस्पष्ट परिकल्पना है. आम तौर पर इसका इस्तेमाल तकनीक संबंधी प्रवाह पर किसी सरकार के नियंत्रण से जोड़ कर देखा जाता है. जहां पर सरकार डिजिटल दुनिया के नियम भी बनाती है और डिजिटल अधिकारों की प्रतिभूति भी देती है. और ये काम वो इस संदर्भ में लागू अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के दायरे में रहते हुए करती है. फ़रवरी 2020 में हुई ओईडब्ल्यूजी की बैठक में कुछ देशों ने मांग की कि डिजिटल दुनिया पर नियंत्रण के लिए सरकारों को मज़बूत नियम बनाने चाहिए ताकि राष्ट्रीय संप्रभुता और समान संप्रभु अधिकारों को स्थापित किया जा सके. इस मामले में जहां रूस और चीन जैसे देश बहुत मुखर होकर अपनी बात उठा रहे हैं, वहीं दक्षिण अफ्रीका, सीरिया, भारत और फिलीपींस ने भी इन मांगों का समर्थन किया है.

डिजिटल उपनिवेशवाद का अर्थ एक ऐसी प्रक्रिया है, सूचना और संवाद की तकनीक, उभरती तकनीकों, बुनियादी ढांचे और संसाधनों को बड़ी तेज़ी और आक्रामक तरीक़े से नए नए बाज़ारों में प्रतिस्थापित करना है. लेकिन ये प्रक्रिया कुछ गिनी चुनी तकनीकी कंपनियों के हाथ में होती है. और ये कंपनियां कुछ गिने चुने देशों जैसे कि अमेरिका और चीन में स्थित हैं. ये डिजिटल उपनिवेशवाद, साइबर संप्रभुता के क्षेत्र में एक नया आयाम जोड़ देता है. और इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बहुत से देश अपने यहां के बाज़ारों, नियामक उपकरणों और क्षेत्रीय संस्थानों की मदद से डेटा कंपनियों पर ये दबाव बना रही हैं कि वो उनके यहां से जुड़े आंकड़े उनकी सीमा के भीतर की संजो कर रखें. ताकि उनका अपना प्रभुत्व और शक्ति मज़बूती से स्थापित हो सकें. साथ ही साथ उनके नागरिकों के अधिकारों का भी संरक्षण हो सके. नीचे की सारणी में उन सब-सहारा अफ्रीकी देशों, दक्षिण एशिया और दक्षिणी पूर्वी एशिया, भारत, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम और मलेशिया जैसे देशों का ज़िक्र है जो इंटरनेट पर आधारित एप्लिकेशन के बड़े बाज़ार बन कर उभरे हैं. इनमें से कई देशों ने अन्य क्षेत्रीय समझौतों पर दस्तख़त किए हैं. जैसे कि अफ्रीकी यूनियन के लिए मील का पत्थर साबित होने वाला कन्वेंसन ऑन साइबर सिक्योरिटी ऐंड पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (2014) और आसियान फ्रेमवर्क ऑन डिजिटल डेटा गवर्नेंस (2012).

देश डेटा संरक्षण अधिनियम / बिल एक क्षेत्रीय साधन का हस्ताक्षर इंटरनेट उपलब्धता प्रतिशत में 2015 इंटरनेट उपलब्धता प्रतिशत में 2018  जीडीपी रैंक (पीपीपी)
(
वर्ल्ड बैंक)
नियामक गुणवत्ता (विश्व बैंक)
घाना हाँ हाँ 25 39 76 111
भारत हाँ नहीं 17 51 3 118
इंडोनेशिया हाँ हाँ 22 40 7 109
केन्या हाँ नहीं 16 18 71 124
मलेशिया हाँ हाँ 71 81 25 61
नाइजीरिया हाँ नहीं 36 42 24 179
फिलीपींस हाँ हाँ 36 60 27 97
सिंगापुर हाँ हाँ 79 88 38 8
दक्षिण अफ्रीका हाँ हाँ 51 56 29 87
श्री लंका हाँ नहीं 12 34 58 117
थाईलैंड हाँ हाँ 39 57 19 91
वियतनाम नहीं[2] हाँ 45 70 32 139

सारणी-1: डेटा संरक्षण क़ानूनों के लिए अपने बाज़ार और संस्थाओं का इस्तेमाल

इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘साइबर संप्रभुता’ और ‘डिजिटल उपनिवेशवाद’ की परिकल्पनाएं पेचीदा विषयों को सरलीकृत भाषा में पेश करने का अच्छा माध्यम हैं. लेकिन, अक्सर इन दोनों परिकल्पनाओं का उपयोग जिन अर्थों में किया जाता है वो साइबर दुनिया और व्यापक डिजिटल विश्व से जुड़े नियमों और क़ानूनों को लेकर बारीक़ चर्चा के मूल पथ से भटक जाते हैं

तो क्या ये व्याख्या का मायाजाल है?

इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘साइबर संप्रभुता’ और ‘डिजिटल उपनिवेशवाद’ की परिकल्पनाएं पेचीदा विषयों को सरलीकृत भाषा में पेश करने का अच्छा माध्यम हैं. लेकिन, अक्सर इन दोनों परिकल्पनाओं का उपयोग जिन अर्थों में किया जाता है वो साइबर दुनिया और व्यापक डिजिटल विश्व से जुड़े नियमों और क़ानूनों को लेकर बारीक़ चर्चा के मूल पथ से भटक जाते हैं. 2013 में ‘आक्रामक चीन’ नाम से लिखे गए एक लेख के मीम में इस बात को बहुत अच्छे तरीक़े से बयां किया गया है. वो इस तरह है… ‘अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक महत्वपूर्ण मगर जिसका बहुत कम अध्ययन किया गया है वो ये है कि जिस गति से ऑनलाइन मीडिया और ब्लॉग की दुनिया के पंडित इस विषय में असंबद्ध परिचर्चा को आगे बढ़ा रहे हैं, वो पारंपरिक बुद्धिमत्ता के दायरे से परे है.’

जहां तक नीतिगत क्षेत्र की बात है तो वहां पर साइबर संप्रभुता का सकारात्मक अर्थ भी निकलता है. इसका अर्थ ये हो सकता है कि बड़ी तकनीकी कंपनियों के चंगुल से तमाम देश अपने साइबर कारोबार को वापस छीन सकें. लेकिन, इसका एक नकारात्मक पहलू भी है, जो डिजिटल अधिकारों और कर्तव्यों को केवल सरकार तक सीमित कर देता है. और अगर सरकारें अपने इस अधिकार का दुरुपयोग करती हैं, तो उसका नतीजा हम इंटरनेट बंद करने, डिजिटल पाबंदियां लगाने और निगरानी करने के तौर पर सामने आते देखते हैं. इसीलिए साइबर संप्रभुता के ये दोहरे मायने गफ़लत पैदा करते हैं. कई विशेषज्ञ तो साइबर संप्रभुता को साइबर सुरक्षा और स्वायत्तता से जोड़ते हैं. वहीं, कुछ विशेषज्ञ इस साइबर संप्रभुता की परिभाषा को असल में तानाशाही व्यवस्था को आगे बढ़ाने के हथियार के तौर पर देखते हैं. जैसे कि चीन की साइबर दुनिया में होते देखा जा सकता है. मज़े की बात ये है कि साइबर संप्रभुता का ‘चीनी मॉडल’ साइबर संप्रभुता के किसी पुराने मॉडल से भी पहले का है और वो इस दिशा में विकसित किए जा रहे किसी भी नए मॉडल से भी परे है. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था हो या पश्चिम के लोकतांत्रिक देश, सभी साइबर दुनिया में सरकार के आधिपत्य को स्वीकार करते हैं.

इसी तरह डिजिटल उपनिवेशवाद एक भारी भरकम व्याख्या है. विशेषज्ञ अक्सर इसे उत्तर दक्षिण के वैश्विक विभाजन के साथ जोड़ कर देखते हैं. हालांकि, सभी साम्राज्यवादी ताक़तें उत्तर के देश नहीं हैं. इसकी सबसे बड़ी मिसाल तो चीन है. और इसी तरह, सारे डिजिटल उपनिवेश भी दक्षिण के देश यानी विकासशील देश नहीं हैं. न ही उनका एक बराबरी से शोषण हो रहा है. ‘डिजिटल उपनिवेशवाद’ की परिभाषा भी कुछ गिने चुने देशों पर फिट बैठती है, जैसे कि अमेरिका या चीन. जो विश्व के अन्य देशों के बरक्स खड़े हैं. जबकि, इस अवधारणा को बढ़ावा देने वालों को ये सोचना चाहिए कि इन देशों के नागरिक भी अपनी सरकारों के हाथों शोषण के शिकार हो रहे हैं. यहां एक बात और भी है. डिजिटल उपनिवेशवाद के क्षेत्र में भी अमेरिका और चीन का रुख़ एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत है. अमेरिका जो कि पुरानी महाशक्ति है वो ख़ुद को डिजिटल उपनिवेशवादी कहलाए जाने को स्वीकार करने को तैार है. वहीं, चीन अपने उपनिवेशवाद को अन्य देशों की स्वायत्तता के नाम पर आगे बढ़ा रहा है.

यही कारण है कि डिजिटल उपनिवेशवाद और साइबर संप्रभुता की परिकल्पनाएं इस तथ्य की अनदेखी कर देती हैं कि किसी भी देश का साइबर विषयों पर जो रुख़ होता है वो आर्थिक, प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों के आधार पर तय होता है

यही कारण है कि डिजिटल उपनिवेशवाद और साइबर संप्रभुता की परिकल्पनाएं इस तथ्य की अनदेखी कर देती हैं कि किसी भी देश का साइबर विषयों पर जो रुख़ होता है वो आर्थिक, प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों के आधार पर तय होता है. मिसाल के तौर पर, भारत में डेटा संरक्षण की मांग अक्सर सिविल सोसाइटी की तरफ़ से उठती है. उनकी मांग होती है कि डिजिटल क्षेत्र के प्रशासन के लिए ऐसे नियम बनाए जाएं जिससे सरकार के उनका दुरुपयोग कर पाने की संभावनाएं ख़त्म न भी हों तो कम से कम सीमित तो हो सकें. वहीं दक्षिण अफ्रीका में जहां पर नियामक संस्थाओं पर भरोसा अधिक है, वहां पर डेटा संरक्षण की मांग तब उठती है, जब कई दक्षिण अफ्रीकी कंपनियों के डेटा चोरी हो जाते हैं. जिसके कारण से दक्षिण अफ्रीका के करोड़ों नागरिकों की निजी जानकारियां सार्वजनिक हो गईं. वहीं, यूरोपीय संघ में डेटा संरक्षण की मांग का आधार निजी अधिकार को फिर से हासिल करना होता है. तो, अमेरिकी बाज़ार में ये मांग उठने के पीछे डेटा तक पहुंच बढ़ाना प्रमुख मक़सद होता है.

डिजिटल उपनिवेशवाद और साइबर संप्रभुता की परिकल्पनाओं में एक और कमी ये है कि इसमें राष्ट्रीय हितों और बड़ी तकनीकी कंपनियों के हितों को आपस में जोड़ कर देखा जाता है. बहुत सी वैश्विक तकनीकी कंपनियां अपने-अपने देशों की सरकारों के साथ नियामयक क़ानूनों को लेकर उलझी हुई हैं. जैसे कि गूगल और फेसबुक के ख़िलाफ़ अमेरिकी संसद इस बात की जांच कर रही है कि वो अपने डेटा, नागरिकों की निजता और एल्गोरिद्म में पारदर्शिता लाएं. हालांकि, जिन देशों में ये कंपनियां काम करती हैं, उन्हें यही अधिकार बराबरी से नहीं दिए जाते. जैसे कि इंडोनेशिया में डेटा को स्थानीय स्तर पर जमा करने की शर्तों में ढील दे दी. कहा जा रहा है कि इंडोनेशिया में ये क़दम अमेरिका के दबाव के बाद उठाया गया. जबकि डिजिटल मूलभूत ढांचे की निर्माता स्थानीय कंपनियां इस क़दम का विरोध कर रही थीं.

इसीलिए एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों में जिस तरह से डिजिटल उपनिवेशवाद और साइबर संप्रभुता को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जा रहा है, उससे एक बात साफ़ है. साइबर दुनिया के नियम केवल चीन और अमेरिका के अलग-अलग खांचों में फिट बैठें ये ज़रूरी नहीं है. इसलिए ये दोनों ही परिकल्पनाएं भले ही तकनीक की भौगोलिक सामरिक परिक्षेत्र में संघर्ष से उत्पन्न हुई हों. लेकिन, इन्हें हर देश की अपनी ख़ास ज़रूरतों और महत्वाकांक्षाओं के नज़रिए से देखे जाने की ज़रूरत है.


[1] As well as China, as a P-5 member

[2] Vietnam’s Cybersecurity and Consumer Protection Acts include elements of privacy, localisation and data security.

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