Author : Sunjoy Joshi

Published on Jul 18, 2019 Updated 0 Hours ago

तकनीक कि दुनिया की निरंतर उथल-पुथल चारों ओर नाटकीय राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव ला रही है. क्षण भर में लोगों के हाथ में हर सूचना उपलब्ध है और पालक झपकते है हर आदमी इसे प्रसारित करने की क्षमता भी रखता है.

दुनिया को आज ऐसे नए तरह के ग्लोबलाईज़ेशन की ज़रूरत है जो शोषण से मुक्त हो: संजय जोशी

हाल ही में पूर्वी अफ्रीका के रवांडा में ख़त्म हुए “किगाली ग्लोबल डायलॉग” को कई जाने-माने लोगों ने संबोधित किया, जिनमें से एक ओआरएफ के संजय जोशी भी थे. उन्होंने अफ्रीका और अन्य जगहों से इसमें शामिल होने आए रायसीना के साथियों और जानकारों का आभार जताया.

हम यहां संजय जोशी का उद्घाटन भाषण अपने पाठकों के लिए लेकर आए हैं.


रिपब्लिक ऑफ़ रवांडा के माननीय विदेश मंत्री रिचर्ड सेज़ीबेरा, राष्ट्रपति नशीद, राष्ट्रपति तादिच, मंत्रीगण, गणमान्य अतिथि और जानकारों के साथ मैं अफ्रीका व दूसरी जगहों से आए रायसीना के साथियों का किगाली में स्वागत करता हूं. हम सब यहां ऐसे वक्त में जुटे हैं, जब दुनिया में ग्लोबलाइज़ेशन यानि वैश्वीकरण को लेकर एक मायूसी, एक ऊब दिख रही है. इसी मायूसी के चलते दुनिया खुद-ब-खुद अपने आप को अफ्रीकी महाद्वीप की गतिशीलता की और खींचती चली आ रही है.

और क्यों न हो? रवांडा, निराशा पर आशा की जीत का प्रतीक है. यह देश मिसाल है कि कैसे इंसानी जज्ब़े की बदौलत कड़ी से कड़ी त्रासदी और पीड़ा से उभर कर नफ़रत पर जीत हासिल की जा सकती है.

‘किगाली डायलॉग’ उन्नति और विकास के बारे में तो है ही, पर साथ-साथ इस विकास के केंद्र पर स्थित मानवीय इंसान के बारे में भी है.

दुनिया के सबसे अधिक युवा आज अफ्रीका और एशिया में हैं — और इस युवा पीढ़ी में निवेश ही इन हम सब के भविष्य का निर्धारण करेगा. चुनौती यह है कि ये सब आज ऐसे समय में करना है जब 20वीं सदी में पनपे उन्नति और विकास के पोस्ट-इंडस्ट्रियल मॉडल फीके पड़ चुके हैं. हमें अपने लिये स्वयं नए रास्ते बनाने हैं.

आज ग्लोबलाइज़ेशन कटघरे में खड़ा है. वही देश जो सिर्फ़ एक दशक पूर्व बढ़-चढ़ कर इसके गुण गाते थे आज उन्हीं देशों के राजपाट इसे बंदी बनाकर प्रताड़ित करने पर तुले हैं.

तनिक इस थकी और ऊबी हुई विश्व व्यवस्था पर नज़र डालें. आज ग्लोबलाइज़ेशन कटघरे में खड़ा है. वही देश जो सिर्फ़ एक दशक पूर्व बढ़-चढ़ कर इसके गुण गाते थे आज उन्हीं देशों के राजपाट इसे बंदी बनाकर प्रताड़ित करने पर तुले हैं. 20वीं सदी ने ऐसी विश्व व्यवस्था का सपना दिखाया था जिसमें मुक्त व्यापार पर सवार Integrated Value Chains समृद्धि अपने द्वार सभी के लिए खोले खड़ी थी. सपने दिखाकर वह सदी तो नदारद हो गयी किन्तु विश्व को उन्मुक्त करने के बजाय वो हमें आज व्यापार युद्ध की जंजीरों में जकड़ा छोड़ गयी. व्यापार के नियम हों या टेक्नोलॉजी व्यवस्था के – हर ओर संरक्षणवादी बाधाओं का बोल-बाला है. दुनिया एक होने के बजाय छिन्न-भिन्न और बंटी हुई दिख रही है.

पर तनिक अपना परिप्रेक्ष्य बदलिए. दुनिया को वॉशिंगटन डीसी, लंदन, ब्रसेल्स, मॉस्को या बीजिंग के चश्मे से न देखते हुए इसी दुनिया को नैरोबी, खारतूम, नई दिल्ली और मनीला की दृष्टि से देखिये. आपको एक दूसरी दुनिया नज़र आएगी. एक ऐसी विश्व व्यवस्था जिसके केंद्र में मात्र शक्ति संतुलन की खींच-तान या वैश्विक तथा क्षेत्रीय स्तर. पर देशों के बीच एक दूसरे को नियंत्रित करने की होड़ नहीं हैं.

बदले परिप्रेक्ष्य में विश्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती देशों के बीच आपसी संघर्ष नहीं है.

हमें अपना विकास ऐसे वक्त में करना हैजब जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के उभरते परिणामों ने उन्नति के जानेपहचाने रस्तों को अवरुद्ध कर दिया है. जो मार्ग 50 वर्ष पूर्व आज के विकसित देशों के पास उपलब्ध थे वे हमारे लिए बंद होते जा रहे हैं.

विश्व के सामने इससे कई भीषण चुनौतियाँ मुंह खोले खड़ी हैं — गरीबी मिटाना, घर-घर पानी पहुंचाना, स्वास्थ्य और शिक्षा के ज़रिये इंसान की बुनियादी जरूरतें पूरी करना — यही हमारे देशों कि सर्व-प्रथम प्राथमिकता है.

अगर दूसरी कोई प्राथमिकता है तो वह है अपने मानवीय संसाधनों में निवेश ताकि हमारी युवा पीढ़ियों का भविष्य, उनकी चाहतें, उनकी आकांक्षाएं संपन्न हो सकें और विकास के माध्यम से सामाजिक स्थिरता और शांति निरंतर बनी रहे.

हमें यह सब ऐसे वक्त में करना है, जब जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के उभरते परिणामों ने उन्नति के जाने-हचाने रास्तों को अवरुद्ध कर दिया है. जो मार्ग 50 वर्ष पूर्व आज के विकसित देशों के पास उपलब्ध थे वे हमारे लिए बंद होते जा रहे हैं.

क्या इन्हीं चुनौतियों में हम नए मौके ढूंढ पाएंगे? यह मौका है नयी व्यवस्था में उभरती अनेक प्रकार की नयी सेवाओं, नए उत्पादों में निवेश का ताकि ऐसी वैकल्पिक जीवन-शैली की नींव रखी जा सके जो अब तक प्रचलित अपार संसाधन-निर्भरता के दलदल से हमें बाहर निकाल सके. हमारी पूंजी है हमारे मानव संसाधन, हमारी युवा शक्ति जिसके बलबूते हमें स्थिर और टिकाऊ विकास के नए मार्ग का आविष्कार करना है. यह आविष्कार विकसित देशों में नहीं, बल्कि यहीं संपन्न होंगे.

तकनीक कि दुनिया की निरंतर उथल-पुथल चारों ओर नाटकीय राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव ला रही है. क्षण भर में लोगों के हाथ में हर सूचना उपलब्ध है और पलक झपकते ही हर आदमी इसे प्रसारित करने की क्षमता भी रखता है. सूचना का यह बवंडर आज राजनैतिक विघटन को जन्म दे रहा है, कानून और सामाजिक व्यवस्था को बाधित कर रहा है. इस बवंडर का असर बाज़ारों में और उनसे जुड़ी अर्थ-व्यवस्था पर पड़ रहा है. देशों कि संप्रुभता का प्रश्न हो या फिर उनकी सरहदों का, नयी सोच जन्म ले रही है. इनके चलते इंसानी पहचान की पुरानी अवधारणाएं भी बदल रही हैं. इस तूफान का असर हमने पेरिस के येलो वेस्ट्स मूवमेंट में देखा. खारतूम हो या हॉन्गकॉन्ग चारों ओर इसके लक्षण साफ दिख रहे हैं.

तकनीक कि दुनिया कि इस उथल-पुथल के चलते सच तो यह है कि चाहे-अनचाहे, सभी देश एक दूसरे से अटूट बंधन में बंध चुके हैं और एक दूसरे पर निर्भर हैं. आज के दौर की समस्याओं को सुलझाने के लिए ग्लोबलाइज़ेशन को बढ़ाने की ज़रूरत है, न कि इसे सीमित करने की.

वक्त आ गया है Wall Street के सट्टा बाजार में पले-पनपे वैश्वीकरण को भूलने का

पर इस ग्लोबलाइज़ेशन का स्वरूप कैसा हो? वक्त आ गया है कि हम Wall-Street के सट्टा बाजार में पले-पनपे वैश्वीकरण को भूल जाएं. वह बीसवीं सदी का वैश्वीकरण जिसको दावोस कि अंधी बर्फ़ीली वादियों में अभी भी हर जनवरी आधे-अधूरे मन से बढ़ाने की कवायद चलती रहती है. इस वैश्वीकरण की शुरूआत 1990 के दशक में हुई थी और 2008 आते-आते इसने दम भी तोड़ दिया. सोचिए, मात्र 15 साल जीवित रहा यह वैश्वीकरण.

क्या इसकी ही अंत्येष्टि एक नए किस्म के वैश्वीकरण को जनम दे सकती है?

सदी के अंत में जन्मे तमाम युवा वर्ग को मैं बताना चाहूँगा की ग्लोबलाइज़ेशन का ईजाद ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ ने नहीं किया था. Technology तो मात्र एक माध्यम है. एक ऐसा माध्यम जिसका इस्तेमाल लोगों को एकजुट करने के बजाय उन्हें बांटने के लिए भी बखूबी किया जा सकता है. वास्तव में वैश्वीकरण टेक्नोलॉजी पर नहीं बल्कि लोगों और समुदायों के अंतर-संबंधों से जुड़ा है.

इतिहास पर नज़र डालिए तो आपको इंटरनेट कि इस दुनिया से सदियों पहले, अफ्रीका और एशिया में जन्मा एक अनोखा ग्लोबलाइज़ेशन मिलेगा. यह वैश्वीकरण मात्र 15 वर्ष नहीं बल्कि कई हज़ार वर्षों तक निरंतर बढ़ा-पनपा. यह व्यापार, प्रवास, ग्यान, सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक जीता जागता जाल था जिसने समुदायों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जोड़े रखा. इसकी जड़ें अफ्रीकी-एशियाई आर्थिक और सामाजिक सच्चाईयों से जुड़ी हैं.

यह फेसबुक, ट्विटर, सोशल मीडिया और इंटरनेट से पुराना है. इसके तार 3100 ईसा पूर्व से जुड़े हैं, जब मिस्र अंतरराष्ट्रीय व्यापार का बड़ा केंद्र था. जब पूर्वी भूमध्यसागर और लाल सागर के रास्ते होने वाला व्यापार अफ्रीका को पश्चिम एशिया, भारत, कोरिया और जापान से निरंतर जोड़े हुआ था. वह दुनिया साहसी व्यापारियों, पैगंबरों और विद्वानों की थी, जो 15वीं सदी तक फली-फूली. तब तक यह व्यापार से आगे बढ़ यूरोप, अफ्रीका और एशिया को अपनी गिरफ़्त में ले चुका था. इंसान, उद्यम, उद्योग, उत्पादन, इनोवेशन, व्यापार और कनेक्टिविटी से एक सशक्त अफ्रीकी-एशियाई वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपार बल मिला. अंततः यूरोप भी इसका हिस्सा बना. न सिर्फ हिस्सा बना पर उसी व्यवस्था के सिर चढ़ कर उसने यूरोप के समुद्री रास्तों पर कब्ज़ा जमाया और अपना औपनिवेशिक परचम दुनिया भर में फहरा पाया – और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का केंद्र बिन्दु बन बैठा. इसी वैश्विक व्यापार मार्गों पर सवार उपनिवेश स्थापित किये गए और इन्हीं औपनिवेशकों के मध्य की प्रभुत्व और साम्राज्य के कलह, अंतर्द्वंद और प्रतिद्वंद्विता में नष्ट हो गए. वास्तव में इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे की अफ्रीकी-एशियाई वैश्वीकरण औपनिवेशिक साम्राज्यों की तुलना में बहुत लंबे समय तक चला.

आज एक बार फिर दुनिया बड़े भू-सामरिक बदलावों की कगार पर है. कुछ ही वर्षों में, साल 2021 तक, उभरते देशों का सकल उत्पाद (GDP) समूचे ओईसीडी (OECD) यानी विकसित देशों के समूह से अधिक हो जाएगा. इस एक तथ्य का असर व्यापार युद्ध और पारंपरिक सत्ता-संतुलन की खींच-तान से कहीं अधिक होगा. सत्ता के केंद्र बदलेंगे. यह ऐसा विघटन है जिससे इस भू-भाग की परिकल्पना ही परिवर्तित होगी और औपनिवेशिक भूगोल को भूल कर, एक बार फिर से हम अफ्रीका, एशिया और यूरोप को तीन अलग-अलग महादेशों के रूप में देखना छोड़ कर, एफ्रो-यूरेशिया के एक सुपर-कॉन्टिनेंट के रूप में देखेंगे. इस भौगोलिक क्षेत्र के सामरिक अहमियत समझिये. यह दुनिया का सबसे बड़ा भू-भाग है जिसके न सिर्फ़ हम हिस्सा हैं बल्कि जो दुनिया का केंद्र हैं.

और यही वो कारण है जिसके चलते हम सब यहां इकट्ठा हुए हैं.

बढ़ती युवा आबादी के भंडार से इस क्षेत्र के देशों में ऊर्जा का जो संचार हो रहा है, उसी उर्जा से न सिर्फ़ अफ्रीका की बल्कि नए विश्व की नई कहानी लिखी जा रही है. एक ऐसी कहानी जिसका ध्येय दुनिया को टिकाऊ उन्नति और विकास का नया मार्ग दिखा सके. “किगाली ग्लोबल डायलॉग” का उद्देश्य अफ्रीका से उभरती इन नयी आवाजों को एक विश्व स्तरीय मंच देना है. उन आवाजों का मंच जो हालिया इतिहास की झिझक से पल्ला झाड़ दुनिया की सशक्त आवाज़ बनने को तत्पर हैं. तभी यहां 53 देशों के 300 से अधिक ज़हीन लोग जमा हुए हैं.

अनिश्चितता और संशय से ग्रस्त आज की दुनिया आर्थिक मंदी का सामना कर रही है. जिसे टाल पाना असंभव है उस पर्यावरण संकट से जूझ रही है. जिन देशों ने इन समस्याओं को जन्म दिया है उनके हाथ इनका निदान संभव नहीं है, अगर आशा की किरण कहीं है तो वह इसी क्षेत्र से है.

ORF अफ्रीका में अपने साझेदारों के साथ इन्हीं समस्याओं के समाधान के लिए प्रतिबद्ध है. आख़िर कैसे, वैश्विक विमर्श को अफ्रीका में इस तरह से लाये जाएं ताकि उस विमर्श के केंद्र में अफ्रीका के लोग और समाज रहे.

आवश्यकता हैं समाज एक नए तरह के ग्लोबलाइजेशन की जिससे उन्नति और विकास को तो गति मिले पर यह दूसरों के शोषण पर आधारित न हो. एक ऐसा विकास जो लोगों, समुदायों, संस्कृतियों और हमारी विश्व धरोहर को आधार बना कर न कि उसकी कीमत पर हो. 

इसी के चलते हमने इसी वर्ष “सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी” शुरू किया है जो पॉलिसी रिसर्च के मंच के रूप में काम करेगा. यह ऐसी और साझा प्रयासों को बल देगा जो हमें अपने दौर की चुनौतियों के पार ले जा सके.

इस साल मार्च में कीनिया में सस्टेनेबिलिटी के लिए पहली भारत-अफ्रीकी साझेदारी का आयोजन भी हमने किया था जिसमें 11 देशों से 40 से अलग संस्थाओं ने शिरकत की थी.

पिछले महीने मोरक्को के तंजीर में हमने अपने पार्टनर्स के साथ तक़नीक और समाज पर चर्चा के लिए CyFy अफ्रीका के दूसरे चरण का आयोजन किया था.

ज़रूरत है समाज में एक नए तरह के ग्लोबलाइज़ेशन की जिससे उन्नति और विकास को तो गति मिले पर यह दूसरों के शोषण पर आधारित न हो. एक ऐसा विकास जो लोगों, समुदायों, संस्कृतियों और हमारी विश्व धरोहर को आधार बना कर हो, न कि उसकी कीमत पर.

नए वैश्वीकरण कि जड़ें उतनी ही गहरी होनी चाइए जितनी उस से जुडने वाले समुदायों कि हैं — ये ऐसे समुदाय और समाज हैं जो कालांतर से बरकरार रहे हैं और जिन्होंने अपने जीवन काल में सैंकड़ों साम्राज्यों, बादशाहतों और राष्ट्रों को सत्ता के शिख़र पर चढ़ते और उसी शिख़र से गुमनामी के अंधेरों में खो जाते देखा है. इसी उठान और पतन के बीच परंपराओं और समुदायों ने हमें सिखाया कि इस धरती पर सभी का सम्मिलित तौर पर सामूहिक अधिकार है.

जी हाँ हमें टेक्नोलॉजी कि शक्ति पर भी भरोसा है. हम उम्मीद करते हैं कि आज इसकी मदद से हम अपने सामूहिक तार आपस में जोड़ कर पहले की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत और अधिक शक्ति संपन्न समुदायों की नींव रख सकते हैं.

लगातार बदलती दुनिया में अफ्रीका हमेशा से मानव सभ्यता का गर्भगृह रहा है. आज वह इस सभ्यता का भविष्य बनने की ओर अग्रसर हैं. हम उम्मीद करते हैं कि जब कोहरा छंटेगा, तब 21वीं सदी को व्यापार युद्धों और सत्ता-संतुलन कि कुटिल कूटनीतियों के लिए नहीं याद किया जाएगा. बल्कि, अगर याद किया जाएगा तो विश्व के सामने खड़ी निश्चित चुनौतियों का, एक दूसरे के साथ मिलकर हल निकालने के लिए याद किया जाएगा…

इसी ओर से मैं आपको तीन दिन तक चलने वाली चर्चा और विमर्श के लिए शुभकामनाएं देता हूं.

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