पिछले 24 महीनों के दौरान हुई तीन घटनाओं ने दुनिया के साथ भारत के संवाद और उसकी सुरक्षा को चुनौती दी है. पहला तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का वो फ़ैसला था जब उन्होंने अपने काल्पनिक इतिहास से एक नक़्शा उठाया और हिमालय के मौजूदा राजनीतिक समीकरणों को बदलने के लिए एक लाख से ज़्यादा सैनिक नियंत्रण रेखा पर भेज दिए. ये जिनपिंग का अपनी ताक़त दिखाने वाला सनक और ज़िद भरा क़दम था, और इसका नतीजा भारत के साथ चीन की सेना की हिंसक झड़प के रूप में सामने आया. आज भी दोनों देशों के हज़ारों सैनिक एक दूसरे की आंखों में आंखे डालकर खड़े हैं. तब शी जिनपिंग ने जो काम किया था, वो उससे बिल्कुल भी अलग नहीं है, जो हाल के दिनों में पुतिन करते दिखे हैं. पुतिन और ज़िनपिंग, दोनों की ख़्वाहिश है कि वो अपने अपने पुराने या काल्पनिक साम्राज्यों को फिर से स्थापित करें. चीन के क़दम के ख़िलाफ़ वैसे तो दुनिया की प्रतिक्रिया, भारत के प्रति हमदर्दी वाली थी. लेकिन, अगर हम इसकी तुलना रूस द्वारा यूरोप की राजनीति बदलने की कोशिशों के ख़िलाफ़ आक्रामक प्रतिक्रिया से करें, तो ये बेहद नरम मालूम देती है.
पुतिन और ज़िनपिंग, दोनों की ख़्वाहिश है कि वो अपने अपने पुराने या काल्पनिक साम्राज्यों को फिर से स्थापित करें. चीन के क़दम के ख़िलाफ़ वैसे तो दुनिया की प्रतिक्रिया, भारत के प्रति हमदर्दी वाली थी. लेकिन, अगर हम इसकी तुलना रूस द्वारा यूरोप की राजनीति बदलने की कोशिशों के ख़िलाफ़ आक्रामक प्रतिक्रिया से करें, तो ये बेहद नरम मालूम देती है.
तब पश्चिमी देशों ने चीन के साथ अपने आर्थिक संबंध लगातार बनाए रखे थे, और साझीदार और साथी देशों को नुक़सान होने के बावजूद उन्होंने चीन का तुष्टिकरण करना जारी रखा था. यूरोप और एशिया की जियोपॉलिटिक्स का ये अंतर एक बार फिर से बड़े स्याह तरीक़े से उजागर हो गया है. यूक्रेन युद्ध का जितने बड़े पैमाने पर कवरेज हो रहा है. बेपरवाह बयानबाज़ी की जा रही है, उससे साफ़ पता चलता है कि जब जातीयताएं और भूगोल बदल जाते हैं, तो उनके साथ मूल्य और नैतिकताएं किस तरह से बदलती हैं. जब पश्चिमी देशों के पूर्वी साझीदार देश अपने रिश्तों का मूल्यांकन करें, तो उन्हें तल्ख़ सच्चाइयों को ध्यान में ज़रूर रखना चाहिए.
भार पर असर डालने वाली अगली घटना अगस्त 2021 में हुई, जब दुनिया की सबसे ताक़तवर सुपरपावर अमेरिका ने आतंकवादियों के एक गिरोह के साथ एक अनैतिक और त्रासद समझौता कर लिया और रातों रात अफ़ग़ानिस्तान से निकल भागा. महिलाओं के अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं और जिन मूल्यों को आतंकवाद के ख़िलाफ़ उदारवादी युद्ध के दौरान ख़ूब प्रचारित किया गया था, उन्हें अपने फ़ौरी फ़ायदे के लिए एक झटके में ख़ारिज कर दिया गया. लोकतंत्र के वकीलों और कट्टर तालिबान के समर्थकों को अपने हित एक जैसे नज़र आने लगे और दोनों ने मिलकर अफ़ग़ानिस्तान को एक बार फिर 1990 के दशक में धकेल दिया. भारत के लिए अमेरिकी हथियारों से लैस आतंकवादियों का ख़तरा सिर्फ़ एक संभावित चुनौती भर नहीं, अब अपने दरवाज़े पर खड़ी एक बड़ी समस्या बन गया. ये एक ऐसी समस्या है जिससे भारत को अकेले ही निपटना होगा.
और अब पुतिन ने फ़ैसला किया है कि वो जो बाइडेन को ललकारेंगे और यूरोप को दोबारा बीसवीं सदी की ओर ले जाएंगे. रूस की सेना ने एक संप्रभु राष्ट्र पर सिर्फ़ इसलिए हमला कर दिया, क्योंकि उसके राजनेता अपने देश का प्रभाव उन क्षेत्रों पर बनाए रखना चाहते हैं, जो रूस की राजनीति और उनके प्रस्तावों से लगातार असहमत होते जा रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी संगठन (NATO) के विस्तार के तरीक़े और उसके मक़सद को लेकर रूस की चिंताएं वाजिब हैं. लेकिन, अपना मतभेद ज़ाहिर करने के लिए किसी भी स्वतंत्र देश के ख़िलाफ़ सेना का इस्तेमाल करने और उसकी संप्रभुता का उल्लंघन करने को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है.
रूस की सेना ने एक संप्रभु राष्ट्र पर सिर्फ़ इसलिए हमला कर दिया, क्योंकि उसके राजनेता अपने देश का प्रभाव उन क्षेत्रों पर बनाए रखना चाहते हैं, जो रूस की राजनीति और उनके प्रस्तावों से लगातार असहमत होते जा रहे हैं.
यूक्रेन पर हमले ने भारत को एक बड़ी मुश्किल में डाल दिया है. अब भारत को ये फ़ैसला करना है कि उसके लिए सही क्या है, और वो किस विकल्प को अपने लिए सही मानता है. वैसे तो भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पर वोटिंग से गैर हाज़िर रहा था. लेकिन, उससे पहले भारत के प्रतिनिधि के सख़्त लफ़्ज़ों ने ये बात ज़ाहिर कर दी थी कि भारत अपने हितों को ध्यान में रखते हुए ही कोई फ़ैसला करेगा. मगर, जो पश्चिमी देश भारत को नियमों पर आधारित उदारवादी विश्व व्यवस्था के सदस्य के तौर पर देखना चाहते हैं, और रूस के ख़िलाफ़ आक्रामक बयानबाज़ी के साथ क़दम उठा रहे हैं, उन पश्चिमी देशों केृी नज़र में भारत का ये रुख़ अपर्याप्त है. वोटिंग पर भारत के इस रवैये का अंदाज़ा तो पहले से ही था. मगर ज़्यादा हैरानी तो उन टिप्पणी करने वालों के बयानों और आम लोगों के रुख़ से हो रही है. ऐसा लगता है कि चीन के मुद्दे पर पश्चिम के कमज़ोर से समर्थन और अफ़ग़ानिस्तान में छल-कपट की यादें आज भी लोगों के ज़हन में ताज़ा हैं.
आत्मनिर्भरता ही एकमात्र विकल्प
2003 में इराक़ पर अमेरिकी हमले के दौरान भारत में ज़बरदस्त राजनीतिक परिचर्चाएं हुई थीं और उस समय अमेरिकी दख़लंदाज़ी के ख़िलाफ़ भारत ने जो रुख़ अपनाया था उसके खिलाफ़ आवाज़ उठी थी. इस बार, आम तौर पर तल्ख़ राजनीतिक मतभेदों के बावजूद सभी पक्ष भारत के रुख़ पर सहमत हैं. इस मौक़े पर बहुत से लोगों को अपने विचारों पर दोबारा नज़र डालने की ज़रूरत है.
भारत के सामने कई बड़े सवाल खड़े हैं. पहला तो यही कि क्या सामरिक स्वायत्तता का मतलब निरपेक्षता है या फिर इसका मतलब किसी भी समय पर ये चुनाव करना है कि देश के लिए सबसे अच्छा विकल्प क्या है? क्या हम साझीदार देशों की भारत से बढ़ती हुई सामरिक अपेक्षाओं की अनदेखी कर सकते हैं? हम अपने आर्थिक और सुरक्षा संबंधी फ़ैसलों से दूसरे देशों पर किस तरह से निर्भर होते जा रहे हैं? इनमें से कौन सी निर्भरता ऐसी है, जो हमारे हितों के ख़िलाफ़ जाती है? और जब हम इस बहुपक्षीय दुनिया में अपने विकल्पों का चुनाव कर रहे हैं, तो इस पहलू को किस तरह अपने फ़ैसलों में शामिल कर सकते हैं?
आख़िर में एक सवाल अमेरिका और यूरोप की अगुवाई वाली व्यवस्था से भी है. रूस के सैन्य दुस्साहस पर तो वो बहुत सख़्त रुख़ अपनाते हैं. आर्थिक संबंधों, साइबर और सूचना अभियानों का दांव निश्चित रूप से असरदार रहा है. मगर बड़ा सवाल ये है कि बात जब चीन के क़दमों की आएगी, तो क्या तब भी उनका ये रुख़ क़ायम रहेगा? या फिर एशिया की घटनाओं का मूल्यांकन, मुनाफ़े पर ज़ोर देने वाले नज़रिए से ही देखा जाता रहेगा?
भारत के सामने कई बड़े सवाल खड़े हैं. पहला तो यही कि क्या सामरिक स्वायत्तता का मतलब निरपेक्षता है या फिर इसका मतलब किसी भी समय पर ये चुनाव करना है कि देश के लिए सबसे अच्छा विकल्प क्या है?
लेकिन, महामारी के वर्षों और भारत के लिए चुनौती बनने वाली तीन महत्वपूर्ण जियोपॉलिटिकल घटनाओं के दौरान, जो सबसे बड़ा सबक़ सीखने को मिला है वो ये है कि, पिछली सदी में हुए विश्व युद्ध के बाद दुनिया को लेकर हमारी जो समझ थी, हमारे समाजों की जो बुनियाद थी और युद्ध के बाद लगभग भारत की आज़ादी के साथ साथ जो विश्व व्यवस्था विकसित हुई, अब वो सब दफ़्न हो चुके हैं. चीन और अमेरिका, और अब अमेरिका और रूस के टकराव के दौरान हम हर चीज़ को हथियार बनते देख रहे हैं. इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों की सीधी साधी आपूर्ति श्रृंखला, दवाएं बनाने में इस्तेमाल होने वाले छोटे छोटे तत्व, टीकों की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें, ऊर्जा और गैस की ग्रिड, बैंकिंग की स्विफ्ट व्यवस्था (SWIFT), करेंसी और खनिज तत्व हों या दूसरी छोटी छोटी चीज़ें, आज सभी को राजनीतिक दबाव बनाने, युद्ध लड़ने या फिर दूसरों के हितों को चोट पहुंचाने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है.
दुनिया की कुल जनसंख्या के छठे हिस्से से आबाद भारत को आत्मनिर्भर होने के लिए बड़ी चतुराई से ख़ुद को दुनिया के अन्य देशों के साथ जोड़ना होगा, और भी क़रीब से जुड़े वैश्विक नेटवर्क का हिस्सा बनना होगा.
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आत्मनिर्भरता की अपील की अहमियत और भी बढ़ गई है, और विडंबना ये है कि दुनिया की कुल जनसंख्या के छठे हिस्से से आबाद भारत को आत्मनिर्भर होने के लिए बड़ी चतुराई से ख़ुद को दुनिया के अन्य देशों के साथ जोड़ना होगा, और भी क़रीब से जुड़े वैश्विक नेटवर्क का हिस्सा बनना होगा. भरोसेमंद कनेक्टिविटी, संसाधनों और उपकरणों के अलग अलग स्रोत और लचीले वित्तीय और व्यापारिक समझौते अब सिर्फ़ कोरी नारेबाज़ी नहीं, बल्कि भारत की सामरिक ज़रूरत बन चुकी है. इसके लिए भारत को अपने कारोबारी समुदाय, क़ानून निर्माताओं और सभी भागीदारों के बीच आम सहमति बनानी होगी.
ये लेख मूल रूप से हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ था.
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