Published on Oct 18, 2019 Updated 0 Hours ago

ट्रंप सरकार ने नवंबर 2017 में ऐलान किया कि वह ईरान से तेल ख़रीदने वाले देशों पर नए प्रतिबंध लगाने जा रही है. भारत, ईरान से बड़े पैमाने पर तेल ख़रीदने वाले देशों में शामिल था. इसका मतलब यह है कि वह ट्रंप सरकार की इस पहल के निशाने पर आ गया.

अमेरिका के साथ रिश्ते की बुनियाद यह है कि भारत अपने हित में फैसले लेने को आज़ाद है!

हाल फिलहाल में ट्रंप सरकार ने जिस तरह से ईरान परमाणु समझौते से पीछे हटने, ईरान के कच्चे तेल की बिक्री पर पाबंदी लगाने, पेरिस पर्यावरण समझौते से मुंह मोड़ने और काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शंस एक्ट (CAATSA) पास किया उसका भारत पर काफी असर होगा. इसी क्रम में ओआरएफ़ ने अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में ‘इंडिया ऑन द हिल 2019’ कार्यक्रम का आयोजन किया. जहां पर आयोजित एक पैनल डिस्कशन में- ‘नेविगेटिंग यूएस फॉरेन पॉलिसी प्रॉयरिटीज एंड सैक्शंस’ पर चर्चा हुई. इस चर्चा में जेफ़ स्मिथ, ध्रुवा जयशंकर और सुहासिनी हैदर शामिल हुए. इस लेख में हम इसी चर्चा में जिन बातों पर विचार-विमर्श किया गया उसे अपने पाठकों तक पहुंचा रहे हैं.

क्या हैं दोनों देशों के बीच की चुनौतियां?

जेफ़ स्मिथ

मुझे लगता है कि भारत-अमेरिका के रिश्तों के लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पहला कार्यकाल शानदार रहा. ख़ासतौर पर पहले चार साल, जब अमेरिका में ओबामा सरकार का दूसरा कार्यकाल ख़त्म हो रहा था. ट्रंप सरकार के कार्यकाल के पहले साल के दौरान भी दोनों देशों के संबंध काफी अच्छे थे. STA-1, द क्वॉड, 2+2 डायलॉग की शुरुआत, CENTCOM में भारतीय प्रतिनिधि को लाना- ये ऐसे काम थे, जो काफी समय से दोनों देश करना चाहते थे. इसके साथ यह भी मानना होगा कि पिछले डेढ़ साल में भारत-अमेरिका के संबंधों के लिए नई चुनौतियां खड़ी हुई हैं. वैसे, यह कोई बुरी बात नहीं है. इससे यह भी पता चलता है कि पिछले दशक में दोनों देशों के रिश्ते कितने अच्छे रहे हैं. भारत और अमेरिका के संबंधों में इधर जो चुनौतियां खड़ी हुई हैं, उन्हें मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जा सकता है- आर्थिक मसले, तनाव और पाबंदियां व अन्य देश.

पिछले डेढ़ साल में भारत-अमेरिका के संबंधों के लिए नई चुनौतियां खड़ी हुई हैं. वैसे, यह कोई बुरी बात नहीं है. इससे यह भी पता चलता है कि पिछले दशक में दोनों देशों के रिश्ते कितने अच्छे रहे हैं. भारत और अमेरिका के संबंधों में इधर जो चुनौतियां खड़ी हुई हैं, उन्हें मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जा सकता है- आर्थिक मसले, तनाव और पाबंदियां व अन्य देश.

भारत के तेल आयात के संदर्भ में ईरान पर पाबंदी का मतलब

ट्रंप सरकार ने नवंबर 2017 में ऐलान किया कि वह ईरान से तेल ख़रीदने वाले देशों पर नए प्रतिबंध लगाने जा रही है. भारत, ईरान से बड़े पैमाने पर तेल ख़रीदने वाले देशों में शामिल था. इसका मतलब यह है कि वह ट्रंप सरकार की इस पहल के निशाने पर आ गया. उस वक्त अमेरिका ने कई सहयोगी देशों को ईरान से मंगाए जा रहे तेल का विकल्प ढूंढने के लिए 6 महीने का वक्त दिया था. पिछले साल मई में जब यह मोहलत ख़त्म हुई, तब मेरी सलाह के विपरीत उन्होंने (अमेरिका ने) भारत सहित किसी भी देश को इस पाबंदी से छूट देने से इनकार कर दिया. यह वह समय था, जब भारत में लोकसभा चुनाव हो रहे थे. मुझे नहीं लगा था कि भारत इतने कम समय में ईरान से खरीदे जा रहे तेल का विकल्प ढूंढ पाएगा, लेकिन जो भी साक्ष्य सामने आए हैं, उन्हें देखकर लगता है कि उसने यह काम कर दिखाया है. इसमें अमेरिका की भी बड़ी भूमिका रही है, जहां से इस बीच भारत को तेल आयात बढ़ा है. 2016 में अमेरिका से भारत को तेल का निर्यात जीरो था, जो 2017 में करीब एक करोड़ बैरल और 2018 में 4.8 करोड़ बैरल पहुंच गया था. 2019 में इसके 10 करोड़ बैरल पहुंचने का अनुमान है. ईरान पर अमेरिकी पाबंदियों से जुड़ा बुनियादी मसला यही है.

CAATSA पाबंदियां और रूस से भारत का डिफेंस इंपोर्ट

दूसरा मसला CAATSA से जुड़ा है. अमेरिकी कांग्रेस ने जुलाई 2017 में यह कानून बनाया था. इसके विधेयक को रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दोनों ही पार्टियों ने आपसी सहमति से पास किया था. दोनों इस बात पर एकमत थे कि अमेरिकी चुनाव में दख़लअंदाज़ी सहित दूसरी कारगुजारियों के लिए रूस को सजा मिलनी चाहिए. वे सरकार को रूस के प्रति सख़्ती बरतने के लिए भी मजबूर करना चाहते थे. इस कानून में कहा गया है कि अगर कोई एंटिटी रूस के साथ रक्षा या इंटेलिजेंस के क्षेत्र में बड़े लेनदेन करती है तो उस पर अमेरिका की तरफ से कई पाबंदियां लगाई जा सकती हैं. इस तरह की करीब 10 संभावित पाबंदियों का ज़िक्र किया गया था और कहा गया था कि अगर कोई रूस के साथ इस तरह का सौदा करता है तो उसे इनमें से पांच पाबंदियों को स्वीकार करना होगा. इससे भारत के लिए समस्या खड़ी हुई, जो अभी भी ज़्यादातर हथियार रूस से ख़रीदता है. वैसे यह भी सच है कि भारत के रक्षा आयात में अमेरिका की हिस्सेदारी बढ़ और रूस की कम हो रही है. इसके बावज़ूद पिछले पांच साल में भारत ने 58 प्रतिशत हथियार रूस से खरीदे हैं. इनमें एस400 एयर डिफेंस सिस्टम प्रमुख है और इस बात पर काफी बहस हुई है कि क्या इस वज़ह से भारत पर आख़िरकार CAATSA के तहत पाबंदियां लगेंगी?

युद्ध से बेहतर होते हैं सैक्शंस

मेरा मानना है कि जब उत्तर कोरिया बिना किसी वज़ह से दक्षिण कोरिया के युद्धपोत पर हमला करके उसे डुबो देता है तो उसे इसकी सजा मिलनी चाहिए. पाबंदी लगाकर उसे यह सजा दी जा सकती है. मेरा यह भी मानना है कि अगर पाकिस्तान इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को समर्थन और पनाह देता है और उनसे दूसरे देशों में हमले करवाता है तो उस पर सैक्शंस लगने चाहिए. ऐसा करने वालों को उनके किए की सजा मिलनी चाहिए. मैं यह भी मानता हूं कि रूस और ईरान ने कई मुश्किलें खड़ी की हैं और शायद वे पाबंदी के हकदार हैं. उन्हें अमेरिका के चुनाव में दख़ल देने, इराक में अमेरिकी सैनिकों को निशाना बनाने और आतंकवादियों को समर्थन देने की सजा मिलनी चाहिए. यह सजा युद्ध के बजाय पाबंदी लगाकर दी जा सकती है क्योंकि यह हमेशा युद्ध से बेहतर विकल्प है.

ईरान और रूस के ख़िलाफ़ पाबंदी के हथियार का आख़िरी हद तक हो चुका है इस्तेमाल

ईरान और रूस के ख़िलाफ़ पाबंदी के हथियार का पहले ही आखिरी सीमा तक इस्तेमाल हो चुका है. हम दोनों देशों के साथ व्यापार नहीं करते. फिर हमारे पास कौन सा रास्ता बचा है? दरअसल, इसके बाद दूसरे देशों को उनके साथ व्यापार करने से रोकने की बात आती है. हालांकि, इस तरह की पाबंदी की नीति से भारत के लिए प्रैक्टिकल और रणनीतिक समस्याएं खड़ी हुई हैं. उधर, भारत को एस400 डिफेंस सिस्टम की बिक्री से रूस की अधिक दिलचस्पी भारत और अमेरिका के रिश्तों में दरार डालने में होगी. ‘रूस से हथियार ख़रीदना बंद नहीं करेगा भारत’

हमें रूस को दंड देने के रास्ते तलाशने होंगे, जो हमारा इरादा भी है. हालांकि, यह काम अपने और सहयोगी देशों के हितों को नुकसान पहुंचाए बगैर करना होगा. मेरा मानना है कि भारत को फिफ्थ जेनरेशन फाइटर जैसी तकनीक नहीं देना उसके लिए सजा है, जिसके कारण उसे एस400 सिस्टम ख़रीदने पर मजबूर होना पड़ा. मुझे नहीं लगता कि रूस और ईरान जैसे देशों को सजा देने के लिए किसी अन्य देश पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए. भारत अभी तक यह नहीं जानता कि एस400 ख़रीदने के लिए क्या उस पर CAATSA के तहत पाबंदी लगाई जाएगी? अमेरिका ने अभी तक यह भी नहीं बताया है कि उसे इस कानून से छूट मिलेगी या नहीं. भारत रूस से हथियार ख़रीदना बंद नहीं करने जा रहा. वह एस 400 के बाद भी उससे कई हथियार ख़रीद चुका है. ऐसे में भारत पर इस कानून के तहत कई उल्लंघनों को लेकर कार्रवाई की नौबत बन आई है, जिसकी समीक्षा की जानी चाहिए. मुझे तो लगता है कि इस मामले से भारत-अमेरिका के रिश्तों में कई प्रैक्टिकल समस्याएं खड़ी हो गई हैं.

भारत और अमेरिका के रिश्ते की बुनियाद यह रही है कि भारत को इसमें अपनी स्ट्रैटिजिक ऑटोनॉमी यानी रणनीतिक स्वायत्तता से समझौता नहीं करना पड़ेगा. इसी वादे की वज़ह से वह भारत को गुटनिरपेक्षता के अतीत से हटने के लिए राजी कर पाया. इसका मतलब यह है कि अमेरिका से नज़दीकिया बढ़ने के बावज़ूद भारत अपने हित में कोई भी फैसला लेने के लिए आज़ाद है.

भारत-अमेरिका के रिश्ते की बुनियाद यह है कि इसमें रणनीतिक स्वायत्तता की क़ुर्बानी नहीं देनी थी

भारत और अमेरिका के रिश्ते की बुनियाद यह रही है कि भारत को इसमें अपनी स्ट्रैटिजिक ऑटोनॉमी यानी रणनीतिक स्वायत्तता से समझौता नहीं करना पड़ेगा. इसी वादे की वज़ह से वह भारत को गुटनिरपेक्षता के अतीत से हटने के लिए राजी कर पाया. इसका मतलब यह है कि अमेरिका से नज़दीकिया बढ़ने के बावज़ूद भारत अपने हित में कोई भी फैसला लेने के लिए आज़ाद है. अमेरिका अपने झगड़ों में भारत को नहीं घसीटेगा, वह उसका मोहरे की तरह इस्तेमाल नहीं करेगा और न ही वह अमेरिका के फ़रमान मानने को मजबूर होगा. अमेरिका ने कमोबेश इस वादे को निभाया है, लेकिन CAATSA से रिश्ते की बुनियाद खतरे में पड़ गई है. इस कानून का हवाला देकर अमेरिका यह कह रहा है कि आप किस देश से खरीदारी कर सकते हैं और किससे नहीं. मुझे लगता है कि इससे भारत के लिए समस्या खड़ी हुई है. इसके हवाले से हम यह कह रहे हैं कि दूसरे देशों के साथ अमेरिका की समस्याओं के आधार पर हम आपको आर्थिक और विदेश नीति से जुड़े फैसले लेने पर मजबूर करेंगे. मैं मानता हूं कि भारत जैसे देश से ईमानदारी और पारदर्शी तरीके से डील किया जाना चाहिए. अगर वह हमारे लिए कुछ करता है तो हमें भी उसके लिए कुछ करना चाहिए. अगर भारत यह कहे कि पाकिस्तान मुश्किलें खड़ी कर रहा है, वह आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है. जब तक अमेरिका उसके साथ रिश्ते रखता है, तब तक हम उसके साथ कोई नाता नहीं रखेंगे तो अमेरिका को यह बात शायद ही गवारा होगी.

जेफ स्मिथ हेरिटेज फ़ाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं.


रिश्तों को संभालना ज़रूरी है क्योंकि पार्टनर्स का यही काम है

ध्रुव जयशंकर

ट्रंप की विदेश नीति की 6 खास बातें

अमेरिका में पिछले राष्ट्रपति चुनाव को तीन साल हो चुके हैं, जिसमें ट्रंप विजयी घोषित हुए थे. वहीं, राष्ट्रपति पद की ज़िम्मेदारी संभाले हुए भी उन्हें ढाई साल हो चुके हैं. अगर इस दौरान आप ट्रंप की विदेश नीति पर गौर करें तो कुछ खास बातें ज़हन में आती हैं. पहली, वह मल्टीलेटरलिज्म (बहुदेशीय व्यवस्था) के आलोचक रहे हैं. इसी वज़ह से उन्होंने JCPOA, ईरान परमाणु समझौते, पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट से हटने का फैसला किया. एक हद तक उन्होंने एशिया-पैसिफिक देशों से भी दूरी बना ली है. दूसरी, ट्रंप सहयोगी देशों से अमेरिका का बोझ साझा करने पर जोर देते आए हैं. यह बात ख़ासतौर पर अमेरिका के नाटो, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे सहयोगी देशों के साथ अफगानिस्तान और हिंद महासागर क्षेत्र में भारत पर भी लागू होती है. तीसरी, इराक, सीरिया और शायद अफगानिस्तान में चल रही कथित अंतहीन लड़ाई को ख़त्म करना. चौथी, राजनीतिक मकसद के लिए सैन्य ताकत का इस्तेमाल करने में कम झिझक. आप इसका असर साउथ चाइना सी में देख सकते हैं, जहां नेवीगेशन ऑपरेशंस में आजादी कुछ बढ़ी है. मारक हथियारों के मामले में अफगानिस्तान से लेकर यूक्रेन और सीरिया में भी इसकी झलक दिखती है. कई देशों को लेकर अमेरिका के तेवर तल्ख हैं और चीन, ईरान, रूस और उत्तर कोरिया को ध्यान में रखकर वाइट हाउस सुरक्षा की रणनीति बना रहा है. पांचवां, दूसरे देशों के साथ व्यापार समझौते में अपना पलड़ा भारी रखना, जिसके प्रतीक USMCA और नाफ्टा 2.0 हैं. आखिर में, इमिग्रेशन के नियमों में बदलाव.

ट्रंप के राष्ट्रपति रहने के दौरान कितना ट्रंपवाद बचा रह जाएगा?

एक चीज ज़हन में रखनी होगी कि इसमें से कितना ‘ट्रंपवाद’, ट्रंप के राष्ट्रपति रहने के दौरान बचा रहेगा. इसमें से किन बातों का असर, कम से कम कुछ हद तक, अमेरिका की विदेश नीति पर आगे चलकर पड़ेगा? आप इन नीतियों के संभावित नतीजों को तीन हिस्सों में बांट सकते हैं. इनमें से पहला काफी हद तक पॉजिटिव, दूसरा काफी हद तक निगेटिव और तीसरा मिले-जुले नतीजों का है. अगर इन नीतियों के सकारात्मक असर की बात करें तो सबसे बड़ा मौका हिंद-प्रशांत क्षेत्र और इसके सिक्योरिटी ऑपरेशंस पर पड़ेगा. इनमें से कुछ की शुरुआत ओबामा सरकार के कार्यकाल के आखिर के कुछ वर्षों में हुई थी. ट्रंप सरकार ने इसे और आगे बढ़ाया है. उसने इसे एक नाम दिया है और असरदार बनाया है.

पश्चिम एशिया में बढ़ा सहयोग

पश्चिम एशिया एक और क्षेत्र है, जहां कन्वर्जेंस बढ़ रहा है और इसका बहुत अधिक नोटिस नहीं लिया गया है. अमेरिका में आप इस क्षेत्र को मिडल ईस्ट कहते हैं. पश्चिम एशिया में हो रहे इस बदलाव की वज़ह यहां के क्षेत्रीय पहलू हैं. दूसरी चीजों के अलावा, यहां ज़्यादातर जीसीसी देशों के बीच या जीसीसी देशों और इजरायल के बीच कन्वर्जेंस बढ़ रहा है. हालांकि, इससे भारत के लिए इस क्षेत्र में अमेरिका के सहयोगी देशों के साथ रिश्ते मजबूत बनाने का अवसर बना है. कुछ क्षेत्रों में द्विपक्षीय रिश्ते काफी मजबूत हुए हैं. मुझे लगता है कि STA-1 एलीवेशन इसका स्पष्ट संकेत है. ऊर्जा क्षेत्र में भी सहयोग बढ़ रहा है. इसलिए ये सारी चीजें सकारात्मक हैं.

कुछ क्षेत्रों में द्विपक्षीय रिश्ते उलझ गए हैं

नकारात्मक असर भी बिल्कुल स्पष्ट हैं. ईरान के बारे में ऊपर काफी चर्चा हो चुकी है और हम उसके परिणाम झेल रहे हैं. रूस एक और मसला है. यहां इस बात का ज़िक्र जरूरी है कि पूर्व विदेश सचिव रेक्स टिलरसन और पूर्व रक्षा सचिव मैटिस ने कांग्रेस के सामने भारत को छूट देने की वकालत की थी. इससे पता चलता है कि अमेरिका को इन पाबंदियों से भारत पर पड़ने वाले असर का अहसास है. हालांकि, कुछ क्षेत्रों में द्विपक्षीय रिश्ते बहुत उलझ गए हैं. क्लाइमेट चेंज पर सहयोग अब एजेंडा में ऊपर नहीं है. इमिग्रेशन का मामला भी पेचीदा हो गया है. हालांकि, कुछ घरेलू घटनाक्रमों की वज़ह से अभी तक इसके सबसे बुरे नतीजे हमारे सामने नहीं आए हैं.

भारत अफगानिस्तान में जो काम कर रहा था, वह अमेरिका के अफगानिस्तान के नए सिरे से निर्माण के एजेंडा के मुताबिक था. ऐसे में अगर आज ट्रंप वहां भारत को बड़ी भूमिका निभाने को कह रहे हैं तो मैं इसे पॉजिटिव संकेत मानता हूं, भले ही दोनों देशों के बीच सहयोग अपेक्षित स्तर का न रहा हो.

आख़िर में, मिले-जुले वर्ग में मैं अफगानिस्तान का ज़िक्र करना चाहूंगा. हम इस मामले में 10 साल पहले से काफी लंबा सफर तय कर चुके हैं. मुझे याद है कि तब अमेरिकी अधिकारियों ने भारत को अफगानिस्तान से दूर रहने को कहा था. इसका मक़सद अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी की अनदेखी करना नहीं था. सच तो यह है कि वहां भारत अफगानिस्तान में जो काम कर रहा था, वह अमेरिका के अफगानिस्तान के नए सिरे से निर्माण के एजेंडा के मुताबिक था. ऐसे में अगर आज ट्रंप वहां भारत को बड़ी भूमिका निभाने को कह रहे हैं तो मैं इसे पॉजिटिव संकेत मानता हूं, भले ही दोनों देशों के बीच सहयोग अपेक्षित स्तर का न रहा हो. उधर, अमेरिका वैश्विक व्यापार के नियमों को नए सिरे से परिभाषित करने की जो कोशिश कर रहा है, उससे भारत को कुछ लाभ हो सकता है, जिसका चीन के साथ भारी व्यापार घाटा है.

आगे चलकर हमें दोतरफा सवालों से जूझना होगा- इसमें से कितना स्ट्रक्चरल यानी ढांचागत है और कितना अमेरिका की विदेश नीति का हिस्सा बनेगा. हो सकता है कि इसमें से कुछ चीजों के लिए कानून बनाया जाए और यह सिर्फ अगले साल अमेरिका में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव के कारण ही नहीं होगा. मेरा मानना है कि जिन चीजों को लेकर दोनों के बीच मतभेद हैं- व्यापार, रूस, ईरान और अफगानिस्तान इनमें प्रमुख हैं- उनमें भी दोनों देशों ने नुकसान को सीमित रखने का रास्ता ढूंढ लिया है. मुझे लगता है कि पार्टनर्स यही करते हैं.

ध्रुव जयशंकर ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के यूएस इनिशिएटिव के डायरेक्टर हैं.


दक्षिण एशिया नीति

सुहासिनी हैदर

जब अमेरिका यह कहता है कि वह अफगानिस्तान से बाहर निकल रहा है तो वह दूसरों के आने का रास्ता बना रहा है

ट्रंप इफेक्ट का क्या मतलब है? इसका मतलब अंतरराष्ट्रीय विश्व व्यवस्था से पीछे हटना, अमेरिका ने जिन चीजों को लेकर प्रतिबद्धता जताई थी उनसे मुंह मोड़ना है. इस लिस्ट में क्लाइमेट चेंज, ईरान, TPP, UNESCO, मानवाधिकार जैसी चीजें शामिल हैं. जब अमेरिका यमन के घटनाक्रमों से मुंह मोड़ लेता है, पश्चिम एशिया को लेकर बेरुखी दिखाता है और अफगानिस्तान से बाहर निकलने की बात करता है तो वह दूसरों के दख़ल के लिए रास्ता भी बना रहा है. यह तो हुआ इस मामले का एक पहलू. भारतीय नज़रिये से चीन

एक भारतीय होने के नाते चीन के साथ मुझे तीसरी चुनौती दक्षिण एशिया में दिखती है. इस क्षेत्र में चीन सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, हर देश में अंदर तक घुस चुका है. ऐसे में जब मैं अमेरिका की कई मुद्दों से पीछे हटने और दूसरों के लिए जगह खाली करने को देखती हूं तो मेरे सामने चीन का उभार भी आता है, जिससे मुझे द्विपक्षीय स्तर पर डील करना होगा.

अगर भारत के नज़रिये की बात करें तो मैं चीन को उस तरह से नहीं देख सकती, जैसे अमेरिका मुझे दिखाना चाहता है. वह हिंद-प्रशांत के आईने से चीन को हमें देखने को कहता है, जबकि हमारे लिए इसकी एक सचाई समुद्री क्षेत्र को लेकर है. हमारी सीमा चीन के साथ लगी है. वह भी एक बड़ा सच है और जैसा कि डोकलाम संकट ने हमें याद दिलाया था कि यह 3,000 किलोमीटरलंबी है. एक भारतीय होने के नाते चीन के साथ मुझे तीसरी चुनौती दक्षिण एशिया में दिखती है. इस क्षेत्र में चीन सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, हर देश में अंदर तक घुस चुका है. ऐसे में जब मैं अमेरिका की कई मुद्दों से पीछे हटने और दूसरों के लिए जगह खाली करने को देखती हूं तो मेरे सामने चीन का उभार भी आता है, जिससे मुझे द्विपक्षीय स्तर पर डील करना होगा. भारत उससे किसी अलायंस के हिस्से के तौर पर नहीं निपट रहा है. दूसरी तरफ, मेरे सामने चीन-रूस का गठजोड़ है, जो और क़रीब आ रहा है.

ईरान के साथ व्यापार बंद करने की क़ीमत

जरा इस पर गौर करिए कि हमसे क्या मांग की गईः ईरान से कच्चा तेल मत खरीदो, जबकि भारत को किसी अन्य देश की तुलना में ईरान से तेल ख़रीदने पर कम लागत आती है. इसका मतलब सिर्फ ईरान के तेल का भारत के हाथ से निकलना ही नहीं है, जो हमारी रिफ़ाइनरीके लिए सबसे मुफीद है. इसके साथ, ईरान से अन्य व्यापार भी बंद हो गए हैं. ईरान का भारत के लिए रणनीतिक महत्व भी है. हालांकि, इस पाबंदी के कारण भारत के लिए इसका लाभ उठाना भी मुश्किल हो गया है.

हर मांग की एक क़ीमत होती है

हमसे अगली मांग में वेनेजुएला से तेल ख़रीदना बंद करने को कहा गया. चलो ठीक है, इसमें कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन आखिर आप हमसे एक मांग कर रहे हैं. आप हमसे दो में से किसी एक को ऐसे वक्त में चुनने को कह रहे हैं, जब तेल की क़ीमत अचानक बढ़ गई है और हमारे विकल्प सीमित होते जा रहे हैं. आप कहते हैं कि हुवावे को 5जी ट्रायल की मंजूरी मत दो. इसके बाद आप हम पर रूस से मिसाइल सिस्टम नहीं ख़रीदने का दबाव बनाते हैं. जनवरी 2008 के बाद से हमसे ऐसी मांगें की गईं और इनमें से हर मांग की क़ीमत थी. हमें बताया गया है कि आपके पास ये सीमित विकल्प हैं और इनमें से ही आपको चुनाव करना होगा. अमेरिका के कहने पर अगर हुवावे को भारत 5जी ट्रायल से रोकता है तो हमें चीन को उसकी क़ीमत अदा करनी पड़ेगी. चीन के साथ मोलभाव में हमारा पक्ष कमजोर पड़ जाएगा. जैसा कि मैंने कहा, यह काम हम स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं, लेकिन उसकी क़ीमत अदा करनी पड़ेगी.

भारत जैसा देश ख़ुद को नेगोसिएशन से अलग-थलग नहीं रख सकता

दो साल पहले, 2017 में ट्रंप ने अफगानिस्तान के लिए एक दक्षिण एशिया नीति का ऐलान किया था. यह तीन चीजों पर आधारित था. इसमें से एक बात यह थी कि अमेरिका, अफगानिस्तान से तय समय में बाहर नहीं निकल पाएगा. आतंकवाद के मामले में वह पाकिस्तान को आगाह करेगा और वह भारत-अफगानिस्तान के साथ मिलकर काम करेगा. जब इस पर बातचीत शुरू हुई तो इनमें से कोई भी स्तंभ खड़ा नहीं था. इसके बाद हमें बताया गया कि नेगोसिएशन चार स्तंभों पर आधारित थी. इसमें तालिबान के साथ युद्धविराम, अफगानिस्तान में अलग-अलग समूहों के बीच बातचीत, आतंकवाद को रोकने की प्रतिबद्धता और अफगानिस्तान के अंदर आतंकवादी संगठनों पर लगाम और अमेरिका का वहां से अपनी सेना को वापस बुलाना शामिल था. मैं आपसे यह सच स्वीकार करना चाहूंगी कि मुझे नहीं पता कि ये स्तंभ आखिर गए कहां. सच तो यह है कि भारत जैसा देश खुद को ऐसे बातचीत से अलग-थलग नहीं रख सकता. आगे क्या होने जा रहा है, आपको उसे बताना होगा. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो हमसे भरोसे की उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा. इन बातों पर यकीन करके आपकी हां में हां मिलाना मुश्किल होता जा रहा है, लेकिन इसके बावज़ूद हम इन मुद्दों को अलग रखने को तैयार हैं क्योंकि भारत और अमेरिका एक दूसरे को आज कहीं बेहतर समझते हैं. हम साथ मिलकर काम करने को तैयार हैं. यह बात सही है कि हम एक दूसरे को समझते हैं, लेकिन मुझे यह भी लगता है कि हम अपनी दुनिया को जितना हम अंदर से देखते हैं, उतना ही ज़रूरी उसे बाहर से देखना भी होता है.

सुहासिनी हैदर द हिंदू की डिप्लोमैटिक एडिटर हैं.

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