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उस संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण है जिसने भारत में पानी के झगड़े की शुरुआत की और लंबे समय तक बनाये रखा ताकि ऐसे झगड़ों से बचा जा सके
लंबे वक़्त से ये अटकलें लगती रही हैं कि पानी पर नियंत्रण के लिए दो देशों में युद्ध होगा, ख़ास तौर पर उन नदियों को लेकर जिसका पानी दो देशों में बहता है. लेकिन इस आशंका के विपरीत ऐसा देखा गया है कि देश के भीतर ऐसे विवाद ज़्यादा मौजूद हैं और ये आर्थिक और सामाजिक तौर पर काफ़ी ज़्यादा नुक़सानदेह हैं. भारत में अंतर्राज्यीय नदी के पानी को लेकर वक़्त-वक़्त पर राज्यों के बीच ऐसी दुश्मनी काफ़ी दिखी है. भारत में संघीय राजनीतिक ढांचा होने की वजह से देश में ऐसे विवादों को समझने के लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ संबंधित राज्य सरकारों का दृष्टिकोण बेहद महत्वपूर्ण है.
भारत में अंतर्राज्यीय नदी के पानी को लेकर वक़्त-वक़्त पर राज्यों के बीच ऐसी दुश्मनी काफ़ी दिखी है. भारत में संघीय राजनीतिक ढांचा होने की वजह से देश में ऐसे विवादों को समझने के लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ संबंधित राज्य सरकारों का दृष्टिकोण बेहद महत्वपूर्ण है.
कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी विवाद, रावी-ब्यास नदी जल विवाद और कृष्णा नदी की घाटी में मौजूद राज्यों के बीच लड़ाई भारत में बड़े विवादों के उदाहरण हैं जो नदी के पानी को लेकर संघीय शासन के सामने बड़ी चुनौती हैं.
पिछले कुछ वर्षों में ट्रिब्यूनल के गठन के द्वारा केंद्र सरकार की तरफ़ से इस मुद्दे के समाधान के लिए बड़े क़दम उठाए जाने के बावजूद कई बड़ी रुकावटें जैसे संस्थागत कमी, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, ऐसी लंबी लड़ाई की पर्यावरणीय और आर्थिक क़ीमत के अधूरे मूल्यांकन ने लगातार इस मुद्दे को लेकर संघीय सहयोग पर आधारित एक दीर्घकालीन और संपूर्ण समाधान नहीं होने दिया. ऐसे झगड़ों से बचने के लिए उस संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण है जिसने भारत में पानी के झगड़े की शुरुआत की और लंबे समय तक बनाये रखा. इसके लिए इस मुद्दे के इर्द-गिर्द तीन बेहद महत्वपूर्ण संरचनात्मक अस्पष्टता पर ध्यान देने की ज़रूरत है जिनकी वजह से अभी तक झगड़े होते हैं.
सबसे पहले, भारत में नदी जल विवाद को लेकर विधायी और संवैधानिक प्रक्रिया के विकास की ओर गंभीर अस्पष्ट दृष्टिकोण है. इसकी वजह से जहां तक अंतर्राज्यीय नदियों के प्रबंधन की बात है तो केंद्र और राज्यों के बीच संस्थागत मिले-जुले अधिकार का वितरण किया गया है. इसके कारण संघीय क्षेत्राधिकार में अस्पष्टता है. ऐतिहासिक तौर पर कहें तो आज़ादी से पहले दो बड़े साम्राज्यवादी क़ानूनों- भारत सरकार अधिनियम 1919 और भारत सरकार अधिनियम 1935- ने अंतर्राज्यीय नदी विवादों से जुड़े संवैधानिक-क़ानूनी परिस्थितियों को आकार दिया.
इसके तहत नदी के पानी के “इस्तेमाल” का अधिकार राज्यों को है जबकि अंतर्राज्यीय नदियों पर क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी केंद्र को दी गई है. केंद्र और राज्यों के अधिकारों में इतने महीन अंतर की वजह से क्षेत्राधिकार की अस्पष्टता झलकती है. इसलिए अंतर्राज्यीय नदी के पानी के विवादों को लेकर क्षेत्राधिकार में असमंजस की स्थिति बनती है.
इस परिस्थिति ने उस प्रस्ताव का आधार रखा जिसके तहत नदी के पानी का “इस्तेमाल” जहां राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है, वहीं अंतर्राज्यीय नदी के पानी पर क़ानून और राज्यों के बीच नदी के पानी के बंटवारे से जुड़े विवाद पर केंद्र का विशेषाधिकार है और उसे इस मामले में कार्रवाई की शुरुआत करनी होगी. 1950 में बने भारत के संविधान में भी ऐसा है. इसके तहत नदी के पानी के “इस्तेमाल” का अधिकार राज्यों को है जबकि अंतर्राज्यीय नदियों पर क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी केंद्र को दी गई है. केंद्र और राज्यों के अधिकारों में इतने महीन अंतर की वजह से क्षेत्राधिकार की अस्पष्टता झलकती है. इसलिए अंतर्राज्यीय नदी के पानी के विवादों को लेकर क्षेत्राधिकार में असमंजस की स्थिति बनती है. अंतर्राज्यीय नदी के “पानी के इस्तेमाल” की परिभाषा गतिशील और बहुआयामी है, वहां एक राज्य के द्वारा उठाए गए क़दम दूसरे राज्य के नदी के पानी तक पहुंच को प्रभावित कर सकते हैं, ऐसे में नदी के पानी का इस्तेमाल किसी एक राज्य के हित तक सीमित नहीं है. इस संदर्भ में अंतर्राज्यीय नदी के पानी का सही ढंग से बंटवारा सुनिश्चित करने में केंद्र की उचित भूमिका क्या होगी, ये एक परेशान करने वाला सवाल बना हुआ है. वो भी उस देश में जहां अंतर्राज्यीय नदी के पानी को लेकर लंबे समय से ‘संघर्ष वाला संघवाद’ बना हुआ है.
अंतर्राज्यीय नदी के पानी के विवाद को लेकर क़ानूनी-संवैधानिक अस्पष्टता के अलावा ऐतिहासिक और भौगोलिक कारणों ने भी अस्पष्टता को बढ़ावा दिया है. आज़ादी के बाद नये बने राज्यों ने भी विवाद को जन्म दिया. भारत बेहद विविधता वाले राज्यों का देश है जिसमें दो तरह के राज्य हैं- एक वो जो सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन थे और दूसरे वो जिनका शासन राजा-महाराजा चलाते थे. राजा-महाराजा वाले राज्यों को जब भारत में मिलाया गया तो राज्यों की सीमाओं में भी बदलाव किया गया जिसमें पहचान की राजनीति और राष्ट्रीय एकता के हितों को ध्यान में रखा गया. राज्यों की प्रादेशिक सीमा में इस तरह के राजनीतिक बदलाव में अक्सर इन राज्यों की प्राकृतिक ऐतिहासिक विविधता का ध्यान नहीं रखा गया.
राष्ट्रीय एकता की चिंता संविधान सभा की सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, ख़ास तौर से बंटवारे के दौरान हिंसा की पृष्ठभूमि में. राज्यों के बीच नदी के पानी के बंटवारे का मुद्दा उस वक़्त अपेक्षाकृत कम विवादित था.
“कृत्रिम” प्रादेशिक सीमा बनाकर राज्यों के इस तरह गठन से बहुत से लोगों को ठेस पहुंची जिसका घाव भर नहीं पाया. ये बात तेलंगाना को लेकर सिम्हाद्री के अध्ययन से भी पता चलती है. इस तरह “प्राकृतिक संसाधनों के वितरण की दूसरी शर्तों जैसे नदियों या इन संसाधनों के ऊपर संभावित विवादों के ऊपर देश की एकता की प्रधानता को तरजीह दी गई.” दिलचस्प बात ये है कि संविधान सभा की बहस बताती है कि संविधान निर्माताओं की प्राथमिकता में अंतर्राज्यीय नदी विवादों को काफ़ी कम जगह मिली जिसकी वजह से इस मुद्दे पर सीमित बहस और चर्चा हुई. राष्ट्रीय एकता की चिंता संविधान सभा की सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, ख़ास तौर से बंटवारे के दौरान हिंसा की पृष्ठभूमि में. राज्यों के बीच नदी के पानी के बंटवारे का मुद्दा उस वक़्त अपेक्षाकृत कम विवादित था. उसके बाद भारत में राज्यों की सीमा में बदलाव होता रहा जिसका आधार सांस्कृतिक और राजनीतिक था. इसमें इन क्षेत्रों के ऐतिहासिक और पर्यावरणीय हालात पर बहुत ज़्यादा विचार नहीं किया गया. इन बदलावों ने मौजूदा अधिकार क्षेत्र और संसाधनों के बंटवारे के समझौते को जटिल कर दिया जिनमें अंतर्राज्यीय नदी पानी के विवाद भी शामिल हैं. इसकी वजह से अंतर्राज्यीय विवाद शुरू हो गया. राज्यों के पुनर्गठन की वजह से नदी के पानी पर दावे को लेकर विवाद को भी बढ़ावा मिला. इसका एक उदाहरण कावेरी विवाद है. दिलचस्प बात ये है कि दक्षिण एशिया के एक और देश नेपाल ने अपने प्रांतों का प्रादेशिक बंटवारा नदियों की घाटी के आधार पर किया है. लेकिन नेपाल के साथ भारत की तुलना ठीक नहीं होगी क्योंकि दोनों पड़ोसी देशों के बीच आकार और जटिलता को लेकर बहुत अंतर है.
Image © Ramesh Lalwani/Getty
इसके अलावा ये भी दलील दी जाती है कि अंतर्राज्यीय नदी के पानी के विवादों की जड़ में साम्राज्यवादी संरचनात्मक और राजसी बनावट को जारी रखना है. साम्राज्यवादी दौर के नियमों और अंतर्राज्यीय नदी समझौतों को स्वीकार कर लिया गया है. मौजूदा संदर्भ में भी उनकी मदद ली जाती है जबकि स्वतंत्रता के बाद से राज्यों की संरचना और प्रादेशिक सीमा में काफ़ी हद तक बदलाव आ गया है. मौजूदा समय में अंतर्राज्यीय पानी के विवादों के निपटारे में ऐसे ग़लत नियमों और समझौतों की मौजूदगी और इस्तेमाल से मामला और जटिल बन जाता है.
अंतर्राज्यीय नदी विवादों के मामले में इंसाफ़ को लेकर केंद्र द्वारा बनाए गए ट्रिब्यूनल और भारत के सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका के बीच संस्थागत अस्पष्टता भी बनी है. 1935 के अधिनियम से हटकर भारत के संविधान ने अनुच्छेद 262 में कहा है कि संसद एक क़ानून बनाएगी जिसके तहत अंतर्राज्यीय पानी विवाद में सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप नही करने दिया जाएगा. इसकी वजह से संवैधानिक तौर पर ऐसी स्थिति बनी है जहां सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं दे सकता जबकि अनुच्छेद 131 के तहत सुप्रीम कोर्ट को अंतर्राज्यीय विवादों के साथ-साथ केंद्र-राज्य विवादों में भी इंसाफ़ देने का अधिकार है. वहीं दूसरी तरफ़, अनुच्छेद 136 सुप्रीम कोर्ट को ये अधिकार देता है कि वो सभी ट्रिब्यूनल और आयोगों के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ अपील की सुनवाई करे. इस तरह जहां अनुच्छेद 262 सबसे बड़ी अदालत को अंतर्राज्यीय नदी के पानी के विवादों पर फ़ैसला देने से रोकता है वहीं अनुच्छेद 136 सुप्रीम कोर्ट को ट्रिब्यूनल के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील सुनने का अधिकार देता है. इस तरह संविधान के एक प्रावधान से जहां सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसला देने पर रोक है वहीं इसके बावजूद अंतर्राज्यीय नदी पानी के विवादों के निपटारे में ट्रिब्यूनल के साथ सुप्रीम कोर्ट निर्णायक फ़ैसला देने वाली संस्था है. इसकी वजह से एक संस्थागत अस्पष्टता का निर्माण होता है कि भारत में अंतर्राज्यीय नदी के पानी के विवाद में ट्रिब्यूनल या सुप्रीम कोर्ट में से किस संस्था को अंतिम फ़ैसला सुनाने का अधिकार है.
भारत के संविधान ने अनुच्छेद 262 में कहा है कि संसद एक क़ानून बनाएगी जिसके तहत अंतर्राज्यीय पानी विवाद में सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप नही करने दिया जाएगा. इसकी वजह से संवैधानिक तौर पर ऐसी स्थिति बनी है जहां सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं दे सकता
इतिहास इस तथ्य का गवाह है कि इस तरह की अस्पष्टता एक-दूसरे से जटिल रूप से जुड़ी रही है और इसने भारत में अंतर्राज्यीय नदी के पानी के विवाद पर संवैधानिक बनावट, संस्थागत जवाब के साथ-साथ राजनीतिक मेल-जोल के रूप को प्रभावित किया है. अंतर्राज्यीय नदी पानी विवाद (संशोधन) बिल, 2019 और प्रस्तावित नदी घाटी प्रबंधन बिल, 2018 दो आने वाले क़ानून हैं जो भारत में अंतर्राज्यीय नदी के पानी के संचालन की संरचना में सुधार और बदलव करेंगे. लेकिन ये समझना ज़रूरी है कि अच्छे इरादे के बावजूद ज़्यादा उत्तरदायी और असरदार नदी के पानी के संचालन के तौर-तरीक़ों की ओर कोई ठोस क़दम उतार-चढ़ाव वाला रहेगा जब तक कि इन गहरी अस्पष्टता को निष्पक्ष तरीक़े से लगातार समझा नहीं जाता.
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Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...
Read More +Sayanangshu Modak was a Junior Fellow at ORFs Kolkata centre. He works on the broad themes of transboundary water governance hydro-diplomacy and flood-risk management.
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