Author : Elina Noor

Published on Feb 17, 2020 Updated 0 Hours ago

तकनीक अगर आतंकवाद के ख़तरों को कम कर सकती है, तो इसमें इसे बढ़ाने की शक्ति भी बहुत है. आज डिजिटल दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, वो ज़मीनी स्तर पर संरचनात्मक और प्रशासनिक चुनौतियों से ही मिलता-जुलता है.

तकनीक और आतंकवाद: मज़बूत साझीदार

उग्रवादियों ने बार-बार से साबित किया है कि नई तकनीक को अपनाने और उन्हें तोड़-मरोड़ कर पेश करने के मामले में उस्ताद हैं. तकनीक और आतंकवाद का साथ तब से है, जब 1990 के दशक के बाद से जब इंटरनेट ने सार्वजनिक स्थल पर टिमटिमाना शुरू किया था. लेकिन, आज जब दुनिया भर की सरकारें ऑनलाइन आतंकवाद से निपटने का प्रयास अन्य तकनीकी माध्यमों से कर रही हैं, तो ये याद रखने वाली बात होगी कि तकनीक, सिर्फ़ एक अस्त्र है. ये ऐसा औज़ार है जिसका प्रयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी. और ऐसा करने वाले क़ानून की रेखा के इस पार भी मौजूद हैं और उस पार भी.

इंटरनेट के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश के प्रथम चरण में, उग्रवादी संगठनों ने तकनीक का इस्तेमाल अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार, अपने मक़सद को लोगों तक पहुंचाने और ऐसे समुदाय बनाने में किया जो भौगोलिक सीमाओं से परे हों और उनका समर्थन करते हों. गोरे लोगों के बेहतर होने का नस्लवादी दावा करने वाली वेबसाइट स्टॉर्मफ्रंट (Stormfront) इंटरनेट की दुनिया की पहली ऐसी वेबसाइट थी, जो नफ़रत का प्रचार प्रसार करती थी.[1] हालांकि, ये बहुत ही बुनियादी वेबसाइट थी. ये ऐसे ऑनलाइन मंच का काम करती थी, जो दुनिया भर से ऐसे दसियों हज़ार लोगों को अपने साथ जोड़ने का काम करती थी, जिनके विचार इस संगठन से मिलते थे. ये इक्कीसवीं सदी की ऐसी ही वेबसाइट गैब (Gab) की पूर्ववर्ती थी. हालांकि, इसका मक़सद अलग था. इसी तरह, श्रीलंका का आतंकवादी संगठन, लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम यानी लिट्टे ने इंटरनेट का का प्रयोग कर के ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचने और उनसे संवाद स्थापित करने के लिए किया था. और इसके माध्यम से लिट्टे ने दुनिया भर में फैले तमिलों से नैतिक और वित्तीय समर्थन जुटाने का काम किया था.

जैसे-जैसे इंटरनेट का प्रयोग परिपक्वता की ओर अग्रसर हुआ, वैसे-वैसे आतंकवादी संगठनों ने अपनी वेबसाइट पर मल्टीमीडिया, लाइव स्ट्रीमिंग और बच्चों के लिए गेम भी शुरू कर दिए. दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों जैसे फिलीपींस में न्यू पीपुल्स आर्मी ने अपना प्रचार-प्रसार करने के लिए यू-ट्यूब के वीडियो मल्टीमीडिया प्लेटफॉर्म पर डालने शुरू किए. इंडोनेशिया के इस्लामिक संगठन जैसे कि, इस्लामिक डिफेंडर्स फ्रंट ने दानदाताओं से ऑनलाइन संपर्क साधना शुरू किया और इंटरनेट पर रेडियो ब्रॉडकास्ट शुरू किए, जो मोबाइल प्लेटफॉर्म पर भी उपलब्ध थे और अलग-अलग ऑपरेटिंग सिस्टम पर काम करते थे. कुछ वेबसाइटों, जैसे कि अब बंद हो चुकी Arrahmah.com ने विश्वसनीयता की एक पेशेवेर छवि गढ़ी. इस वेबसाइट पर विज्ञापन के लिए जगह उपलब्ध कराई जाती थी. इसके अलावा वेबसाइट चलाने वाली टीम के मुख्य तकनीकी अधिकारी और कॉरपोरेट वक़ीलों की लिस्ट भी वेबसाइट पर उपलब्ध कराई गई थी.

डिजिटल दुनिया में आतंकवाद के प्रचार-प्रसार का दूसरा दौर सोशल मीडिया अवतरण के साथ हुआ. बहुत से आतंकवादी संगठनों ने ट्विटर और फ़ेसबुक पर अपनी मौजूदगी को दर्ज कराना शुरू कर दिया. कई दहशतगर्द संगठनों ने तो एक ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कई-कई अकाउंट बना लिए. उदाहरण के लिए Arrahmah.com ने इंडोनेशिया में बहासा भाषा में अपना फ़ेसबुक अकाउंट खोला तो. मध्य-पूर्व के देशों के लिए अरबी भाषा में फ़ेसबुक अकाउंट बनाया. इसके अलावा दक्षिणी पूर्वी एशिया समेत अन्य देशों में अपनी पैठ बनाने के लिए इसने अंग्रेज़ी भाषा में भी फ़ेसबुक पेज बना लिया. ये सोशल मीडिया अकाउंट चलाने वाली टीम मीडिया में अपनी घोषणाओं के लिए अलग-अलग पेज का प्रबंधन करती थी. इसके अलावा युवाओं से संपर्क करने के लिए टीम अन्य मंचों पर भी काम कर रही थी. इसमें कोई शक नहीं है कि अल-क़ायदा की टीम ने बड़ी सावधानी से मीडिया अभियानों की संरचना की. जो 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में आतंकवादी हमले के बाद उसके बहुत काम आए. अल-क़ायदा के इन डिजिटल अभियानों ने इससे पहले के सभी आतंकवादी संगठनों के डिजिटल प्रयासों को बौना ठहरा दिया. उस घटना के एक दशक से भी ज़्यादा समय बाद, उसकी मीडिया और इंटरनेट से जुड़ी रणनीति को दाएश ने बहुत पीछे छोड़ दिया. दाएश को बेहद निर्दयी और ख़ूनी वीडियो पोस्ट करने की क्षमताओं के लिए जाना जाने लगा.

आतंकवादी संगठनों का इंटरनेट के माध्यम से अपना दुष्प्रचार, भर्ती और अपने आतंकवादियों से संवाद करने को तो हम सब बख़ूबी जानते हैं. इसके अलावा भी, आतंकवादी संगठन इंटरनेट को ज़्यादा व्यवहारिक कामों के लिए प्रयुक्त कर रहे हैं. जैसे कि आतंकवादी हमलों का षडयंत्र रचने, सहयोग करने और आतंकवादियों से संपर्क करने के लिए इंटरनेट का प्रयोग हो रहा है.[2] 2000 के दशक की शुरुआत से मध्य तक ये आतंकवादी संगठन, ई-मेल की निगरानी की कोशिशों को धता बताने में सफल हो रहे थे. इसके लिए वो कई अकाउंट खोलते थे. साथ ही वो संदेशों को भेजने के बजाय ड्राफ़्ट में सेव करके उनके माध्यम से एक-दूसरे से संपर्क करते थे. जब ये संदेश पढ़ लिए जाते थे, तो इन्हें डिलीट कर दिया जाता था. आज एनक्रिप्टेड मैसेज और चैटिंग के चैनलों ने क़ानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों के लिए इस चुनौती को और भी बढ़ा दिया है. फिर वो रफ़्तार हो या दायरे का पैमाना.

जब तक तकनीक में ये क्षमता है कि वो आतंकवादी घटनाओं को क़ैद करके, उनका प्रसारण करके, इन हमलों की नाटकीयता को बढ़ा सके. तब तक आतंकवादी तकनीक का इस्तेमाल इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करते रहेंगे.

इसके अतिरिक्त, पुलिस अधिकारियों को आज नई और सबके लिए उपलब्ध उन तकनीकों से भी जूझना पड़ता है, जिनका प्रयोग आतंकवादी हमलों में किया जा रहा है. अक्टूबर 2019 की शुरुआत में योम किप्पुर दिवस पर जर्मनी के एक यहूदी पूजा स्थल पर हमला करने वाले आतंकवादी ने घर में हथियार बना कर उनके 3डी-प्रिंटेड तत्वों का इस्तेमाल किया था.[3] हालांकि, ये तत्व मूल रूप से हथियार के कल-पुर्ज़े तो नहीं कहे जा सकते. फिर भी, इस घटना ने इस बात को उजागर किया कि भविष्य में आतंकवाद का स्वरूप कैसा होगा, वो हमारे सामने है. ऐसा कहा जाता है कि 2017 में दाएश ने इराक़ में हमले के लिए हथियारबंद ड्रोन्स का प्रयोग करना शुरू कर दिया था. इसके अलावा इस संगठन ने मुजाहिदीन के मानवरहित विमानों वाली यूनिट की स्थापना की भी घोषणा की थी.[4] जैसे-जैसे इन गैजेट्स का उत्पादन बढ़ेगा और इनकी क़ीमतें घटेंगी. तो अलग-अलग आतंकवादी और संगठनों की इन नई तकनीकों में दिलचस्पी और उपयोगिता बढ़ेगी. भले ही आज भी छुरे और ट्रक को हथियार बना कर आतंकवादी हमले करना आसान और सस्ता विकल्प हो. लेकिन, इसमें कोई दो राय नहीं कि हमलों के लिए इन नई तकनीकों के इस्तेमाल में कुछ आतंकवादियों की दिलचस्पी भी बढ़ेगी.

आतंकवाद आख़िरकार अपनी विचारधारा को हिंसक माध्यम से प्रस्तुत करने का तमाशा है. इस बात को दाएश ने बड़ी निर्दयता से उजागर किया है. हिंसक उग्रवाद को बढ़ावा देने वाले, तकनीक का प्रयोग करके आतंकवादी हमलों का प्रचार करने, इनका षडयंत्र रचने और ऐसे हमले आसान बनाने में करते हैं. लेकिन, आतंकवाद को असरदार बनाने के लिए, मतलब कि दहशत को दूर-दूर तक फैलाने के लिए, छुपी हुई सांप्रदायिकता के प्रचार प्रसार के लिए और समाज के व्यवहार में परिवर्तन के माध्यम से नीतियों में बदलाव लाने के लिए, आतंकवादी हमले करना ज़रूरी होता है. जब तक तकनीक में ये क्षमता है कि वो आतंकवादी घटनाओं को क़ैद करके, उनका प्रसारण करके, इन हमलों की नाटकीयता को बढ़ा सके. तब तक आतंकवादी तकनीक का इस्तेमाल इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करते रहेंगे. जिस आतंकवादी ने, पिछले वर्ष न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिद जाने वाले 51 लोगों की हत्या कर दी थी. उसने इस जघन्य हत्याकांड का फ़ेसबुक पर लाइव प्रसारण किया था. उसने जिस हथियार से इन लोगों की हत्या की, उस पर एक कैमरा लगाया हुआ था. इससे पहले 1972 में जब ब्लैक सेप्टेम्बर ग्रुप ने म्यूनिख ओलंपिक में 11 एथलीटों और एक पुलिस अधिकारी की हत्या की थी, तो उसका भी टीवी पर लाइव टेलीकास्ट पूरी दुनिया में किया गया था.

क्राइस्टचर्च के आतंकवादी हमले के बाद महज़ दो महीने बाद, न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा आर्डर्न और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों ने मिल कर क्राइस्टचर्च कॉल नाम की एक बैठक बुलाई थी. ये बहुत से साझीदारों का एक मिला-जुला प्रयास है. जिसके अंतर्गत सरकारें और ऑनलाइन सर्विस प्रोवाइडर आपस में मिल कर और सिविल सोसाइटी के सहयोग से काम करते हैं. जिसमें अकादमिक और रिसर्च समुदाय भी शामिल होता है. ये सब मिलकर आतंकवादियों से षडयंत्रों को नाकाम करने और जो हिंसक उग्रवाद के कंटेंट ऑनलाइन उपलब्ध हैं, उनके ख़िलाफ़ लोगों को आगाह करते हैं.[5] क्राइस्टचर्च कॉल, ग्लोबल इंटरनेट फ़ोरम टू काउंटर टेररिज़्म, द ग्लोबल काउंटरटेररिज़्म फ़ोरम, टेक अगेंस्ट टेररिज़्म और अक़ाबा प्रॉसेस द्वारा अब तक किए गए काम को ही आगे बढ़ा रहा है.

एक सामूहिक प्रयास के तौर पर क्राइस्टचर्च कॉल उचित मालूम होता है. क्योंकि हिंसक उग्रवाद के जो कंटेंट उपलब्ध हैं, उनसे वास्तविक रूप से ख़तरा है. वैसे भी साइबर दुनिया को चलाने वाले कई साझीदार हैं. हालांकि, कई लोगों ने क्राइस्टचर्च कॉल को लेकर आशंकाएं भी ज़ाहिर की हैं. क्योंकि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करता है. इन आशंकाओं को देखते हुए हमारे सामने एक चुनौती स्पष्ट होती है. और वो है कि अलग-अलग न्यायिक अधिकार क्षेत्र मिल कर काम करें, ताकि आतंकवादी या उग्र हिंसक तत्वों को ऑनलाइन दुनिया में सीमित किया जा सके. उनका सामना किया जा सकें. हालांकि, अब क्राइस्टचर्च आतंकवादी हमले का वीडियो फुटेज शेयर करना न्यूज़ीलैंड में अपराध है. (ये न्यूज़ीलैंड के आपत्तिजनक और प्रतिबंधित तत्वों से जुड़े क़ानून के विरुद्ध है.)[6] फिर भी दुनिया के अलग-अलग देशों में इस बात की अलग परिभाषाएं हैं कि क्या आपत्तिजनक है और क्या नहीं.

इसी तरह, डिजिटल स्पेस में आतंकवादी गतिविधियों को रोकने का सारा दारोमदार ऑनलाइन सेवाएं उपलब्ध कराने वालों पर डाल दिया गया है. उन पर दबाव बनाया जाता है कि वो आपत्तिजनक और क्षति पहुंचाने वाले कंटेंट को अपने प्लेटफॉर्म से हटाएं और उनका प्रसार होने से रोके. इसमें कोई दो राय नहीं कि इस काम में तकनीकी कंपनियों की भी ज़िम्मेदारियां हैं. ताकि वो ऑनलाइन दुनिया में उकसाने वाले आतंकवादी प्रोपेगैंडा के प्रचार प्रसार को सीमित करें. उनका महिमामंडन होने से रोके. आज इन ऑनलाइन साइटों पर जितनी बड़ी संख्या में पोस्ट और वीडियो हर मिनट के दौरान शेयर किए जा रहे हैं, उसका मतलब है कि, ये कंपनियां आतंकवादी दुष्प्रचार को नियंत्रित करने का पहला मोर्चा हैं. ये सच है कि 2017 में फ़ेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट, ट्विटर और यू-ट्यूब ने ग्लोबल इंटरनेट फ़ोरम टू काउंटर टेररिज़्म (GIFCT) की स्थापना की थी. तब से जीआईएफसीटी का काफ़ी विस्तार हो चुका है. अब नौ अन्य तकनीकी कंपनियां इस फ़ोरम में शामिल हो चुकी हैं. जो आपस में मिल कर काम करती हैं. ताकि, ये सब मिलकर आतंकवादियों और हिंसक उग्रवादियों द्वारा ऑनलाइन पोस्ट किए जाने वाले आपत्तिजनक कंटेंट के प्रचार-प्रसार को रोक सकें. हालांकि, ऐसी आतंकवादी प्रचार सामग्री की चुनौती से निपटने के लिए समाज के हर तबक़े की भागीदारी बढ़ाने के लिए GIFCT ने दिसंबर 2019 में घोषणा की थी कि इसको नए सिरे से संगठित किया जाएगा. और अब पुनर्संरचना के बाद GIFCT एक स्वतंत्र संगठन बन जाएगा. फिर ये तकनीकी कंपनियों के तमाम साझीदारों के साथ-साथ, सिविल सोसाइटी, सरकार, सरकार और अकादमिक संगठनों के साथ मिल कर काम करेगा.[7]

डिजिटल दुनिया में जो कुछ भी होता है, वो असल में वास्तविक दुनिया की संरचनात्मक और प्रशासनिक चुनौतियों को ही प्रतिबिंबित करता है.

अतएव, तकनीक केवल एक माध्यम है. और ऑनलाइन दुनिया की हर चुनौती का समाधान ऑनलाइन ही हो, ये ज़रूरी नहीं है. जिस तरह तकनीकी कंपनियों को राजनीतिक दबाव और नियमों के माध्यम से इस बात के लिए मजबूर किया गया है कि वो आतंकवाद के ऑनलाइन ख़तरे से निपटें. अपनी आतंकवाद और हिंसक उग्रवाद को बढ़ावा देने की भूमिका और ज़िम्मेदारी के बारे में फिर से सोचें. उसी तरह अन्य भागीदारों, जिस में राजनीतिक और धार्मिक नेता भी शामिल हैं, को भी ऐसा करने के लिए उन पर दबाव बनाया जाना चाहिए. जब भी हम किसी एक व्यक्ति के ऑनलाइन दुनिया के असर से आतंकवाद को अपनाने की बात करते हैं. तो हमें वास्तविक नेटवर्क की ख़ामियों और असली दुनिया के उन कारणों पर भी विचार करना चाहिए, जो ऐसा होने देने से रोकने में असफल रहे. आतंकवाद के बहुत से प्रेरक तत्व जो ऑनलाइन संवाद के माध्यम से उपलब्ध होते हैं. उनके अलावा हिरासत में लिए गए आतंकवादियों की पूछताछ और उनके इंटरव्यू से सामने आई बातें ऐसे कई बिंदुओं की ओर इशारा करती हैं. जैसे कि समाज की संरचनात्मक असमानताएं, अन्याय एवं ऑफ़लाइन दुनिया में मौजूद बेहद अपमानजनक माहौल का इसमें बड़ा रोल होता है.

यहां ये बात ध्यान देने योग्य है कि इनमें से कई शिकायतों को तकनीक के माध्यम से और भी बढ़ावा मिलता है. जिनका ऊपरी तौर पर इस्तेमाल सुरक्षा बढ़ाने के नाम पर होता है. इसमें ड्रोन हमलों का विवादास्पद इस्तेमाल शामिल है. जिन्हें आतंकवादियों को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल में लाने का तर्क दिया जाता है. इसके अलावा निगरानी के लिए सरकारों द्वारा तकनीक का बढ़ता प्रयोग भी शामिल है. हालांकि, निगरानी के लिए लगाए जाने वाले कैमरों का मक़सद सुरक्षा को बढ़ावा देना है. ताकि किसी समुदाय विशेष के लचीलेपन को बढ़ाया जा सके. ऐसी कम से कम एक मिसाल अवश्य है जिसमें ये देखा गया है कि इन कैमरों से जिस समुदाय की सुरक्षा का इरादा था, वो ही इससे नाराज़ हो गया. इसके अलावा ऐसे अन्य कई घातक उदाहरण हैं, जहां सरकारें संस्थागत तरीक़े से अपने नागरिकों पर नज़र रखती हैं.[8] वो भी आतंकवाद से लड़ने के नाम पर. और इनका नतीजा ये होता है कि सरकारों के सामने नई नई तकनीकों, जैसे मशीन लर्निंग और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस. जिनके कारण प्रशासन की नई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं.

एशिया, मध्य-पूर्व के देशों, यूरोप और अन्य क्षेत्रों के ये उदाहरण हमें महत्वपूर्ण संकेत देते हैं कि तकनीक के माध्यम से सुरक्षा उपलब्ध कराने की वजह से किस तरह अत्यंत अधिक निगरानी का ख़ामियाज़ा असुरक्षा के रूप में सामने आता है.[9]

जब हम ये देखते हैं कि उग्रवादी संगठनों ने कितने लंबे समय से डिजिटल दुनिया में अपना कब्ज़ा जमा रखा है. और वो इसका शोषण कर रहे हैं. तो, तकनीक और आतंकवाद के इस घातक गठजोड़ को लेकर परिचर्चा की आवश्यकता और बढ़ती जाएगी. हालांकि, यहां ये भी महत्वपूर्ण है कि ऐसी परिचर्चाएं बेहद सीमित दायरे में न हों. ताकि आतंकवाद और तकनीक के इस घातक कॉकटेल से निपटने के लिए लंबे समय के लिए नीतियां और रणनीति को व्यापक रूप से बनाया जा सके. आज तकनीक में अगर ये क्षमता है कि ये आतंकवाद से लड़ने में मददगार हो. तो इसमें ये ताक़त भी है कि वो आतंकवाद के ख़तरों को बढ़ा दे. डिजिटल दुनिया में जो कुछ भी होता है, वो असल में वास्तविक दुनिया की संरचनात्मक और प्रशासनिक चुनौतियों को ही प्रतिबिंबित करता है. अंत में ये कहना सही होगा कि आतंकवाद आज आतंकवाद नहीं होता, अगर इसके पीछे राजनीतिक उत्प्रेरण के तत्व न होते. इसका अर्थ ये है कि आतंकवाद से निपटने का उचित तरीक़ा ये होगा कि हम सबसे पहले राजनीति और प्रशासन की चुनौतियों से निपटें. न कि हम सिर्फ़ इन चुनौतियों को सामने रखने वाले ऑनलाइन तकनीकी माध्यमों से जूझते रहें.


[1] Stormfront”, Southern Poverty Law Center.

[2] United Nations Office of Drugs and Crime in collaboration with United Nations Counter-Terrorism Implementation Task Force, The Use of the Internet for Terrorist Purposes (Vienna: United Nations, September 2012).

[3] Beau Jackson, “Interview with the ICSR: A 3D printed gun was not used in the Halle terror attack”, 3D Printing Industry, October 18,2019.

[4] Joby Warrick, “Use of weaponized drones by ISIS spurs terrorism fears”, The Washington Post, February 17, 2017.

[5] More information on the Christchurch Call is available on its website maintained by the Ministry of Foreign Affairs and Trade, New Zealand.

[6] For an explanation of what constitutes “objectional material” under the laws of New Zealand, see “Objectionable and restricted material”, Department of Internal Affairs, New Zealand Government.

[7] Monica Bickert and Erin Saltman, “Our work continues”, Global Internet Forum to Counter Terrorism, December 20, 2019.

[8] Jon Coaffee and Peter Fussey, “Constructing resilience through security and surveillance: The politics, practices, and tensions of security-driven resilience,” Security Dialogue 46(1), 86-105.

[9] See, e.g. Isobel Cockerell, “Inside China’s Massive Surveillance Operation”, Wired, May 9, 2019 and Christopher Bing and Joel Schectman, “Project Raven: Inside the UAE’s secret hacking team of American mercenaries”, Reuters, January 30, 2019.

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