Published on Dec 30, 2021 Updated 0 Hours ago

चीन को तुष्ट करने की श्रीलंका की कोशिश भारत के साथ उसके द्विपक्षीय रिश्तों के लिए ख़तरा पैदा करने वाली है.

श्रीलंका : चीनी राजदूत की जाफना यात्रा भारत के साथ रिश्तों पर दबाव और बढ़ा सकती है

श्रीलंका  के वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे  (Basil Rajapaksa, Sri Lanka) की हालिया दिल्ली यात्रा को लेकर भारतीय मीडिया (Indian Media)  की सकारात्मक रिपोर्टों से, द्विपक्षीय रिश्तों को नयी दिशा मिलने की जो ताजा उम्मीदें बंधी थीं, वे एक बार फिर चकनाचूर होती नज़र आ रही हैं. श्रीलंका में चीन के राजदूत ची झेनहोंग (Qi Zhenhong, Chinese Ambassador) की भारतीय तटों के पार, नस्ली तौर पर संवेदनशील, तमिल बहुल जाफना प्रायद्वीप की अभूतपूर्व यात्रा ने भारत के लिए अतीत के किसी अन्य क्षण के मुक़ाबले ज्यादा बड़ी रणनीतिक चिंता उत्पन्न की है.

श्रीलंका के एक बयान में केवल द्विपक्षीय सहयोग के ‘चार स्तंभों’ का ज़िक्र किया गया, और ये सभी के सभी आर्थिक क्षेत्र से जुड़े थे.

भारतीय मीडिया ने यह तर्क दिया कि बहुत ज़रूरी बन चुके इकोनॉमिक बेल-आउट (economic bailout) के बदले में बढ़ती चीनी मौजूदगी के चलते श्रीलंका के सामने नयी दिल्ली की शर्तों को मानने के सिवाय कोई चारा नज़र नहीं आता. उसने श्रीलंका की संकटपूर्ण आर्थिक स्थिति को अमेरिकी पहल वाली, यूएनएचआरसी केंद्रित राजनीतिक सच्चाइयों से अलग करके देखा है, जहां कोलंबो को वक्त आने पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में रूस के साथ बीजिंग के वीटो वोट की ज़रूरत होगी. और कुछ नहीं तो, श्रीलंकाई राज्य और राजनीतिक प्रतिष्ठान 2009 में ख़त्म हुए कामयाब ईलम युद्ध-चतुर्थ (Eelam War-IV) के दौरान मानवाधिकार उल्लंघनों पर यूएनएचआरसी की विस्तारित सहमति (mandate) को राष्ट्र के अस्तित्व (जैसा कि आज वह है) के लिए ख़तरे के रूप में देखते हैं. इसके मुक़ाबले, आर्थिक संकट भले ही छोटा न हो, पर बीते दिनों की बात है.

बासिल राजपक्षे  अपने भाइयों राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे  और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे  की अगुवाई वाले श्रीलंकाई कैबिनेट के तीसरे सबसे वरिष्ठ सदस्य हैं. वह सत्तारूढ़ श्रीलंका पोडुजाना पेरामुना (SLPP) के मुख्य रणनीतिकार भी हैं. नयी दिल्ली में, भारत ने उनके लिए एक ख़ास मेज़बान सूची तैयार कर रखी थी, जिसमें उनकी भारतीय समकक्ष निर्मला सीतारमण और विदेश मंत्री एस जयशंकर भी शामिल थे. यह संकेत था कि भारत ने, कम-से-कम अब से, श्रीलंका के लिए आर्थिक और रणनीतिक मदद को साथ-साथ देखा है.

तमिलों को सबक सिखाने के मकसद से, 1981 में कोलंबो से भेजे गये सिंहली उपद्रवियों ने, सुरक्षा बलों की मौजूदगी में, इस लाइब्रेरी को ताड़ पत्र की पांडुलिपियों के उसके बेशक़ीमती ख़ज़ाने समेत जलाकर ख़ाक कर डाला था. 

अपनी यात्रा के दौरान बासिल रजपक्षा भारत की भू-रणनीतिक और भू-राजनीतिक नीतियां (जिसमें भू-अर्थव्यवस्था का तत्व अनिवार्य रूप से समाहित है) बनाने वाले भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल से मिले+, जो कि एक वित्त मंत्री के लिए असामान्य बात है. अगर पिछली चर्चाओं में, देश पर लदे चीनी क़र्ज़ के लंबी अवधि की उधारी के जरिये भुगतान में मदद के वास्ते, भारत के लिए पूर्व श्रीलंकाई प्रस्ताव पर विचार हुआ हो, तो सार्वजनिक रूप से इसका कोई ब्योरा नहीं दिया गया. श्रीलंका के एक बयान में केवल द्विपक्षीय सहयोग के ‘चार स्तंभों’ का ज़िक्र किया गया, और ये सभी के सभी आर्थिक क्षेत्र से जुड़े थे. भारत ने सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा. दोनों पक्षों में से किसी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी बैठक न होने के बारे में बात नहीं की, जबकि इसके होने को लेकर मीडिया में काफ़ी अटकलें थीं.

चीन के कहीं भी आने-जाने पर रोक नहीं

हमेशा व्यस्त रहने वाले श्रीलंकाई मीडिया ने बासिल की भारत यात्रा और उसके बाद राजदूत झेनहोंग की दो-दिवसीय जाफना यात्रा को ज्याद तवज्जो नहीं दी. ये दोनों यात्राएं शायद एक-दूसरे से जुड़ी हुई नहीं थीं. इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है कि क्या यह जाफना यात्रा पहले से प्रस्तावित और स्वीकृत थी, या फिर इस बारे में बाद में सोचा गया. लेकिन राजदूत झेनहोंग ने तमिल बहुल उत्तरी प्रांत को खुश करने वाले क़दमों की जो झड़ी लगायी उसके दो पहलू बिल्कुल स्पष्ट हैं. रिपोर्टों के मुताबिक़, ‘नस्ली मुद्दे’ (ethnic issue) को लेकर भारतीय संवदेनशीलता को देखते हुए, उनका यात्रा कार्यक्रम (भ्रमण स्थलों का चयन) नयी दिल्ली को रणनीतिक और राजनीतिक लिहाज़ से उकसाने के उद्देश्य से था, जिसे जाफना में कुछ गैर-सरकारी तमिलों द्वारा तैयार किया गया था. दूसरा यह कि, इस यात्रा कार्यक्रम को कोलंबो की मंजूरी थी.

श्रीलंका की नौसेना (SLN) ने चीनी प्रतिनिधिमंडल, जिसमें एक सैन्य अधिकारी भी शामिल था, के लिए स्पीड बोट उच्च स्तर से मंजूरी के बाद ही उपलब्ध करायी होंगी. ये स्पीड बोट भारतीय क्षेत्र की सीमा का निर्धारण करने वाले एडम्स ब्रिज आईएमबीएल (International Maritime Border Line) क्षेत्र तक की समुद्र यात्रा के लिए थीं. एक और महत्वपूर्ण घटना यह रही कि, राजदूत झेनहोंग ने कथित रूप से जाफना के आसमान में ड्रोन उड़ाये, जो कि सभी नस्ली समूहों के स्थानीय लोगों के लिए निषिद्ध है. एक श्रीलंकाई तमिल मीडिया रिपोर्ट ने यह भी कहा कि राजदूत और सैन्य अधिकारी एक लघुद्वीप (islet) के इर्द गिर्द दूसरी बार गये. यह लघुद्वीप एक अपेक्षाकृत बड़े द्वीप से ज़मीनी गलियारे के ज़रिये जुड़ा हुआ है.
इन सबको मिलाकर देखें, तो संदेश साफ़ है. समुद्र या आकाश में, ऐसी कोई रणनीतिक जगह (space) नहीं है जिसे श्रीलंका भारत के साथ साझा करता हो और वह चीन की पहुंच से बाहर हो. श्रीलंकाई ज़मीन की बात करें, तो हंबनटोटा बंदरगाह के 99 साल के पट्टे के रूप में, वह पहले से ही चीनी क़ब्जे में है. हालांकि, यह पट्टा कथित तौर पर रणनीतिक दुरुपयोग के ख़िलाफ़ है.

मुश्किल भरे हालात

राजनीतिक मोर्चे पर, राजदूत झेनहोंग और उनकी टीम ने उस नल्लुर कंडास्वामी मंदिर में पूजा-अर्चना की, जहां बड़ी संख्या में तमिल हिंदू प्रवासी पहुंचते हैं, ख़ासकर अगस्त-सितंबर में पड़ने वाले सालाना उत्सव के दौरान. पूजा के दौरान राजदूत ने स्थानीय हिंदू रिवाज़ों का पालन किया. उन्होंने वेष्टि पहना और कमर से ऊपर शरीर को खुला रखा. इस तरह उन्होंने जाफना के उन गुमनाम सांस्कृतिक मठाधीशों को प्रभावित करने की कोशिश की, जिन्होंने ख़ुद को तमिल सामाजिक जीवन और नस्ली राजनीति का देश के भीतर और बाहर से ठेकेदार माना हुआ है.

सामाजिक-राजनीतिक मोर्चे पर भी उतना ही ध्यान देते हुए, चीनी राजदूत उस ख़ास जाफना पब्लिक लाइब्रेरी में गये, जिसे तक़रीबन नस्ली श्रेष्ठता की सीमा तक, भाषाई और सामाजिक पहचान का तमिल प्रतीक माना जाता है. तमिलों को सबक सिखाने के मकसद से, 1981 में कोलंबो से भेजे गये सिंहली उपद्रवियों ने, सुरक्षा बलों की मौजूदगी में, इस लाइब्रेरी को ताड़ पत्र की पांडुलिपियों के उसके बेशक़ीमती ख़ज़ाने समेत जलाकर ख़ाक कर डाला था.

भारत और श्रीलंका से जुड़े समकालीन द्विपक्षीय संदर्भ में एक कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण पहल के तहत, राजदूत झेनहोंग ने उत्तर के उन श्रीलंकाई तमिल मछुआरों से बातचीत की, जो भारतीय मछुआरों द्वारा अपनी नौकाएं, जाल और आजीविका को बर्बाद करने की शिकायत लगातार करते रहे हैं. राजदूत ने स्थानीय मछुआरों को एक लाख डॉलर मूल्य के मछली पकड़ने के उपकरण दान किये. श्रीलंका के मत्स्य पालन मंत्री डगलस देवानंद अपने प्रतिबद्ध मछुआरा वोटरों के साथ चीनी राजदूत की बाट जोह रहे थे,  लेकिन लाभार्थियों की सूची को चीनी दूतावास ने अंतिम रूप दिया.

एडम्स ब्रिज को भारत की तरफ़ ‘राम सेतु’ के नाम से भी जाना जाता है, जो उस हिंदू देवता के सम्मान में है जिन्होंने एक पौराणिक युद्ध में लंका तक पहुंचने और राक्षसों के राजा रावण को मारने के लिए वानर-देवता हनुमान और उनकी जनजाति की मदद से पुल बनाया था.

संयोगवश, बासिल/झेनहोंग की यात्राओं के चंद दिनों बाद ही, श्रीलंका की नौसेना ने दो अलग-अलग घटनाओं में भारत के तमिलनाडु के 55 मछुआरों को गिरफ्तार किया. अगर पहले यह शिकायत थी कि मंत्री देवानंद भारत के साथ मछुआरों के द्विपक्षीय मामले को कोलंबो में अमेरिकी राजदूत मार्टिन टी केली के सामने उठाकर उसका ‘अंतरराष्ट्रीयकरण’ कर रहे हैं, तो अब चीन के राजदूत द्वारा उत्तरी तमिल मछुआरों के साथ सीधे लेन-देन करना और बुरी संभावनाओं के दरवाज़े खोल सकता है. अभी यह मालूम पड़ना बाकी है कि क्या जाफना के मछुआरों के साथ हाल के दिनों की चीनी संलग्नता की तुलना में मंत्री देवानंद की अमेरिकी अधिकारी के साथ बैठक एक मासूम पहल थी.

तात्कालिक संदर्भ में, यह असंभावित नहीं है कि राजदूत झेनहोंग की जाफना यात्रा की छाया भारत-श्रीलंका मछुआरा स्तरीय वार्ता की प्रस्तावित बहाली, और संयुक्त कार्य समूह (Joint Working Group) की आधिकारिक-स्तरीय बैठक पर पड़े. नवंबर में, भारतीय उच्चायुक्त गोपाल बागले श्रीलंकाई तमिल मछुआरों से मिले, और इसके बाद रामेश्वरम में तमिलनाडु के मछुआरों से मुलाकात की, जो कि विरले होता है. वह मुख्यमंत्री एम के स्टालिन से भी मिले. नयी दिल्ली द्वि-स्तरीय वार्ता की बहाली के लिए कोलंबो के जवाब का इंतज़ार कर रही है.

जाफना के अलावा, तमिल बहुल उत्तरी क्षेत्र में चीनी प्रतिनिधिमंडल ने मन्नार की यात्रा भी की. उल्लेखनीय है कुछ समय पहले ही भारत के अडानी ग्रुप के चेयरमैन गौतम अडानी ने अक्षय ऊर्जा (renewable energy) परियोजनाओं की स्थापना की संभावनाएं तलाशने के लिए मन्नार का दौरा किया था. इस मोर्चे पर चीन पहले से ही प्रतिस्पर्धा में है. इन सब को राजपक्षे  शासन के कोलंबो बंदरगाह के ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल (ECT) के जापान के साथ साझा विकास को लेकर तीन देशों के सरकार-केंद्रित एमओयू (MoU) से पीछे हटने के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. एमओयू पर हस्ताक्षर पूर्व की राजपक्षे -विरोधी सरकार के सत्ता में रहने के दौरान (2015-19) हुए थे. इसके बजाय, कोलंबो ने बंदरगाह के वेस्टर्न कंटेनर टर्मिनल (WCT) को मंजूरी दी है, जिसे अडानी ग्रुप द्वारा विकसित किया जाना है.

जैसे को तैसा और उससे ज्यादा

चीनी राजदूत की जाफना यात्रा कोलंबो स्थित उनके दूतावास के उस ट्वीट के एक पखवाड़े के अंदर हुई है, जिसमें जाफना प्रायद्वीप के बाहर स्थित द्वीपों पर तीन एडीबी-वित्तपोषित पवन एवं सौर ऊर्जा परियोजनाओं को ‘थर्ड-पार्टी’ सुरक्षा चिंताओं के आधार पर निलंबित करने का एलान किया गया. अनकहा इशारा भारत की ओर था. इन परियोजनाओं के क्रियान्वयन में शामिल चीनी फर्म की ओर से बाद में जारी बयान से उत्पन्न भ्रम की स्थिति का साफ़ होना अब भी बाकी है. संकेत ये थे कि सुरक्षा के लिहाज़ से संवेदनशील उन परियोजनाओं के लिए, कोलंबो एक करोड़ अमेरिकी डॉलर की क्रेडिट लाइन की भारत की पूर्व जवाबी-पेशकश को स्वीकार करेगा.

इसे लेकर संदेह बना हुआ है कि क्या चीनी राजदूत की जाफना यात्रा एडीबी-वित्तपोषित परियोजना जैसे वाणिज्यिक मामलों को लेकर श्रीलंकाई प्राथमिकताओं में भारत की कथित दखलअंदाजी के सीधे प्रतिशोध में थी. लेकिन अपने पड़ोस में भारतीय सुरक्षा चिंताएं, जिसका नाम चीन है, वास्तविक वजहों से हैं. इससे भी बढ़कर यह कि चीनी राजदूत की ओर से इस नयी सरगर्मी को कोलंबो का वरदहस्त मिला हुआ दिख रहा है. नयी दिल्ली की नज़र अब उन पूर्वी त्रिंकोमाली ऑयल टैंक फार्म्स में अचानक बढ़ी चीनी दिलचस्पी के संकेतों पर रहेगी, जिन्हें भारत विकसित करने को लेकर उत्सुक है और जिसका ज़िक्र 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते के परिशिष्ट (Appendix) में भी है.

राजदूत झेनहोंग ने एडम्स ब्रिज की नौका यात्रा के बाद एक रणनीतिक निहितार्थ वाले बयान में कहा, ‘यह एक समापन है, लेकिन यह एक शुरुआत भी है’. एडम्स ब्रिज को भारत की तरफ़ ‘राम सेतु’ के नाम से भी जाना जाता है, जो उस हिंदू देवता के सम्मान में है जिन्होंने एक पौराणिक युद्ध में लंका तक पहुंचने और राक्षसों के राजा रावण को मारने के लिए वानर-देवता हनुमान और उनकी जनजाति की मदद से पुल बनाया था

जाहिर है, ‘शुरुआत’ शब्द में भारत के लिए एक रणनीतिक धमकी है जो संभवत: हंबनटोटा से बढ़कर है. नस्ली मुद्दे और मछुआरों के विवाद में जो संभावनाएं निहित हैं, उसे देखते हुए यह धमकी राजनीतिक-कूटनीतिक (politico-diplomatic) लिहाज़ से अधिक है. उत्तर में विभाजित तमिल राजनीति, श्रेष्ठता की अपनी बिरादराना लड़ाई में ज्यादा ही व्यस्त है और अभी तक उसने राजदूत झेनहोंग के दौरे की अनदेखी नहीं की है. जो भी हो, इस यात्रा के साथ कोलंबो का भारत के ख़िलाफ़ चीनी कार्ड चलना एक बढ़ती वास्तविकता बन चुका है. इसके नतीजे ढूंढ़ने ज्यादा दूर नहीं जाना है. अब यह स्थिति नहीं रह गयी है कि श्रीलंका को भारत कभी हासिल करे, तो कभी गंवाए. इसके बजाय, अब मामला श्रीलंका के भारत को गंवाने का है- और सभी संबंधित नतीजों के साथ संभवत: यह अच्छे के लिए है.

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