Published on Nov 21, 2018 Updated 0 Hours ago

साफ्ट पावर के अतिरेक के जरिये भारत आज की चुनौतियों का समाधान करने में कामयाब नहीं हो पायेगा और न ही वह आज और कल आने वाले अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम होगा।

सिर्फ सॉफ्ट पावर अभी पर्याप्त नहीं

सॉफ्ट पावर विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण अंग है इसमें कोई दो मत नहीं। लेकिन यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि ये विदेश नीति के जरूरी शर्तों या अंगों में से एक है। हार्ड पावर (सैन्य और आर्थिक शक्ति दोनो) और “स्मार्ट पावर” के उपयोग की क्षमता के बगैर साफ्ट पावर अकेले दम पर विदेश नीति के उद्देश्यों को हासिल नहीं कर पायेगा। वो शख्स अमेरिकी राजनयिक जोसेफ न्ये जूनियर थे जिन्होंने सबसे पहले “स्मार्ट पावर” नामक शब्द का उपयोग किया था।

संगीत, फिल्म, खेल, कला, संस्कृति, प्राचीन ज्ञान, सांस्कृतिक मूल्यों जैसे साफ्ट पावर के अवयवों के उपयोग और उन्हें आगे बढ़ाने पर यद्यपि भारत का ज्यादा ध्यान है ताकि वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाई जा सके।

इसका सबसे नवीनतम उदाहरण महात्मा गांधी के प्रिय भजन वैष्णव जनतो पर आधारित म्यूजिक वीडियो है। दुनिया भर के भारतीय दूतावासों को निर्देश दिये गये थे कि वो महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर उनकी याद में संबंधित देशों की नामी गिरामी शख्सियतों को इस भजन का एक अंतरा गाने के लिए तैयार करें।

हांलाकि, इस तरह के कार्यक्रमों के आयोजन में मूलत: कुछ भी गलत नहीं है लेकिन भारतीय विदेश नीति के समक्ष मौजूद सुरक्षा संबंधी, रणनीतिक और आर्थिक चुनौतियों पर नजर डालें तो क्या इस भजन के गायन में विदेशी हस्तियों को शामिल करने के मामले को इतनी प्राथमिकता देना, भारतीय राजनयिकों के लिए इतना जरूरी था? इस काम को पूरा करने में हुआ खर्च क्या उचित था? चाहे वो पैसे या राजनयिकों के समय और उर्जा के खर्च के रूप में हो। देश के साफ्ट पावर का प्रभाव प्रदर्शित करने के लिए इस तरह के प्रयोगों का क्या कोई फायदा है? दुनिया भर में कितने लोग विदेशी गायकों की गायकी से प्रभावित हुए होंगे? इसमें मेरे कहने का मतलब सिर्फ प्रभावशाली लोगों से नहीं है। भारतीयों के अलावा कितने लोग इस भजन को सुने भी होंगे? दूसरे देशों में भारत के महत्वपूर्ण हितों को साधने में ये भजन कैसे सफल होगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार दुनिया के लगभग सभी महत्वपूर्ण देशों के साथ भारत के संबंध बेहतर बनाने में कामयाब रही है। जहां भी जरूरी महसूस हुआ इसने भारतीय हितों का संरक्षण करने में दृढ़ संकल्प प्रदर्शित किया है। इसका श्रेय प्रधानमंत्री को है कि उन्होंने व्यक्तिगत आग्रहों और अहं के टकरावों को भारतीय हितों को आगे बढ़ाने में आड़े नहीं आने दिया। मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा उनका मजाक उड़ाने या उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले कई पश्चिमी देशों द्वारा उन्हें वीजा देने से अनुचित रूप से इंकार करने के मामलों को नजरअंदाज किया है। दूसरे देशों के साथ भारत कैसे संवाद करे और कैसे संबंध बढ़ाये इस मसले पर मोदी ने देश का विश्वास बढ़ाया है और इसे उर्जान्वित किया है।

साफ्ट पावर के उपयोग और “विश्व गुरू” का तमगा दोबारा हासिल करने की भारत की सनक के कारण बहुत उर्जा बेकार हुई है जिसका इस्तेमाल कहीं और किया जा सकता था। अब “विश्व गुरू” की पहचान का क्या अर्थ है?

दीनदयाल उपाध्याय के प्रति सत्तारूढ़ दल की श्रद्धा समझने योग्य है लेकिन यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि उन्होंने जो कुछ भी कहा है उसमें कुछ भी पथप्रवर्तक या क्रांतिकारी नहीं है। अपने समय के पारंपरिक भ्रमित समाजवादी चिंतकों से अलग उन्होंने क्या कुछ कहा है? दीन दयाल उपाध्याय के विचारों के प्रसार के लिए अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों, सम्मेलनों और सेमिनार के आयोजनों से क्या कोई फर्क पड़ेगा? क्या ये संसाधनों की व्यापक बर्बादी नहीं है?

इसी प्रकार, विश्व में योग की मान्यता और पहचान इसलिए नहीं है कि मोदी सरकार इसका प्रचार प्रसार करती है या क्योंकि एक अंतराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है बल्कि इसलिए कि ये वास्तव में व्यायाम का एक अलग रूप है। क्या सरकार को बेमतलब दुनिया भर में योग दिवस मनाने के लिए मारे मारे फिरना चाहिए?

हांलाकि हर सरकार को उसकी विशिष्टताओं और छोटे मोटे अवगुणों के अनुरूप आचरण करने की अनुमति मिलनी चाहिए या इसके लिए उन्हें माफी दे दी जानी चाहिए, जैसा कि कांग्रेस के बारे में कहा जा सकता है जहां पार्टी के वफादार पहले परिवार की स्तुति करने के पहले अपना मुंह नहीं खोल सकते और आडंबर पसंद समाजवादियों को अपनी हास्यास्पद नीतियों और राजनीति को न्यायसंगत साबित करने के लिए राम मनोहर लोहिया या जयप्रकाश नारायण का नाम लेना पड़ता है। समस्या ये हो गयी है कि इस तरह के आयोजनों पर ज्यादा ध्यान देना और इन आयोजनों में अपनी काबिलियत दिखाना प्रशासनिक अधिकारियों का मुख्य उद्येश्य हो गया है। इस तरह, इस्लामाबाद में भारतीय उच्चायुक्त के लिए दूसरे देशों में पदस्थ अपने समकक्षों की तरह पाकिस्तान के निर्वाचित (चयनित) प्रधानमंत्री से सिर्फ मुलाकात करना ही काफी नहीं होगा, बल्कि उसे कुछ अलग करके एक खास माहौल बनाना होगा जैसे वो तोहफे के रूप में एक बल्ला भेंट करना, जिस पर मौजूदा भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्यों के हस्ताक्षर हों। ये रूख हो सकता है पाकिस्तानी सेना के प्रतिनिधि का रूख नरम कर दे। राजनय के अति सरलीकरण के कई उदाहरण हैं जब स्वरूप ने तथ्य पर प्राथमिकता हासिल की है।

ये महत्वपूर्ण है कि भारत और भारतीय प्राचीनकाल की अपनी आश्चर्यजनक उपलब्धियों पर गर्व महसूस करते हैं लेकिन यहां ये भी स्वीकार करना होगा कि भारत सिर्फ अतीत के गौरव के भरोसे ही नहीं बैठा रह सकता। भारत हो सकता है एक समय “विश्व गुरू” रहा हो, हजारों साल पहले, लेकिन आज भारत को अपने मित्रों से अपने दुश्मनों से और विरोधियों से काफी कुछ सीखना है। और भारत के पास उन्हें सिखाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है।

साफ्ट पावर के अतिरेक के जरिये भारत आज की चुनौतियों का समाधान करने में कामयाब नहीं हो पायेगा और ना ही वह आज और कल आने वाले अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम होगा।

आजादी के बाद के चार दशकों से ज्यादा समय तक भारत ने साफ्ट पावर का उपयोग किया लेकिन उस दौरान उसके पास हार्ड पावर के रूप में ज्यादा कुछ नहीं था और कुछ मामलों में भारत की कमजोर आर्थिक शक्ति आड़े आती थी। भारत अपने लुप्त मनोरथों का रक्षक दिखता था, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान दूसरों को चिढ़ाने वाले देश के रूप में थी जो दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने और उपदेश झाड़कर उनपर धौंस जमाने की कोशिश किया करता था। निश्चित तौर पर भारत वैसे देशों में शामिल था जिनकी ज्यादा हैसियत नहीं थी — बहुत कुछ वेनेजुएला जैसा जहां जड़हीन, अज्ञानी और निर्बुद्धि वामपंथी उदारवादियों का वर्चस्व था जो ह्यूगो शावेज में एक क्रांतिकारी और साम्राज्यवाद विरोधी मसीहा का रूप देखते थे जबकि उसने देश को बर्बाद कर दिया था। वर्ष 1990-91 के आर्थिक सुधारों के बाद भारत को गंभीरता से लिया जाने लगा जिसके रचनाकार मनमोहन सिंह नहीं बल्कि उनके बॉस पीवी नरसिंह राव थे।

अचानक दुनिया ने भारत की क्षमता को पहचाना। पश्चिमी विश्वविद्यालयों और कंपनियों से संबंद्ध भारतीय तकनीकविदों और विशेषज्ञों ने दुनिया के दूसरे देशों को एक महाशक्ति के रुप में भारत के उदय से अवगत कराया। पाकिस्तान को जेहादी नीतियों की वजह से जाना जा रहा था और हॉलीवुड की कई फिल्मों में पाकिस्तानी चरित्रों को आतंकवाद में शरीक शख्स या डब्लूएमडी हमलों की साजिश रचते हुए दिखाया गया था। भारत का स्वागत भारतीयों की बुद्धिमता और उद्यमिता की वजह से हो रहा था, परिवार और शिक्षा के प्रति जिनकी प्रतिबद्धता दिखती थी और जो संबंधित देश का कानून का पालन करने के लिए तैयार थे। ये सब कुछ किसी प्रचार अभियान या भारत को आगे बढ़ाने के लिए नौकरशाही द्वारा संचालित योजनाओं का नतीजा नहीं था। ये सब कुछ मौलिक रूप से घटित हो रहा था और ये कठिन परिश्रम, धैर्य और कुछ प्रयोजनों पर निवेश का परिणाम था और जिनमें शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण था।

पैकेजिंग दुनिया में पहचान बनाने के लिए महत्वपूर्ण है और जरूरी भी। लेकिन अगर बेचा जा रहा उत्पाद अच्छा या एक हद तक उपयोगी नहीं है तो सिर्फ पैकेजिंग ही काफी नहीं है। पिछले कई वर्षों में हासिल उपलब्धियों को खुद का ‘विश्व गुरू’ और विश्व का नेता मान कर गंवाने की बजाय भारत और उसके नेताओं को ये महसूस करने की जरूरत है कि इसे एक एक लंबा रास्ता तय करना है, कई पर्वतों पर चढ़ाई करनी है, कई समंदरों को पार करना है, कई तूफानों और सुरंगों को नजरअंदाज करना और उनका मुकाबला करना है तभी वो सही रूप में ‘विश्व गुरू’ कहलाने का हकदार हो सकता है। और जब ये समय आयेगा तो भारत को इसकी घोषणा करने की जरूरत नहीं पड़ेगी बल्कि ये काम भारत के लिए दूसरे देश करेंगे।

तब तक भारतीयों को गंभीर होने, खुद को नये माहौल के अनुरूप तैयार करने और भारत के पुनर्निर्माण के लिए कठिन मेहनत करने की जरूरत है जिसमें शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाना, कानूनी और न्याय प्रणाली में सुधार करना, प्रशासन को ज्यादा प्रभावी, उत्तरदायी और संवेदनशील बनाना, अर्थव्यवस्था के उत्पादक एजेंटों (निवेशकों, उद्योगपतियों किसानों) को महत्व देना शामिल है। इसके अलावा अधोसंरचना में सुधार और शहरीकरण को बेहतर बनाने जैसे कई महत्वपूर्ण काम होने हैं। ना तो भजन और ना ही योग दिवस ये काम भारत के लिए कर पायेंगे। महत्वपूर्ण और जरूरी मुद्दों से ध्यान हटाकर सजावट और दिखावे पर ध्यान लगाने से भारत का राह और मुश्किल हो जायेगी।

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