Author : Nanjira Sambuli

Published on Aug 04, 2023 Updated 0 Hours ago

सामूहिक तौर पर इस दशक में सामने आए संकटों से डिजिटल प्रौद्योगिकी की प्रमुखता स्पष्ट हो गई है. राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दायरों में ये प्रभाव ज़ाहिर है.

दो सूरमाओं की भिड़ंत: सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर वर्चस्व, ताक़त और डिजिटल प्रजातंत्र के भविष्य का
दो सूरमाओं की भिड़ंत: सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर वर्चस्व, ताक़त और डिजिटल प्रजातंत्र के भविष्य का

ये लेख रायसीना एडिट 2022 सीरीज़ का हिस्सा है.


डिजिटल सहयोग पर संयुक्त राष्ट्र (UN) महासचिव के उच्चस्तरीय पैनल ने मौजूदा वक़्त को डिजिटल पारस्परिकता का युग क़रार दिया है. इसमें “अपरिचित और अनजान शिखर, बेइंतहा वायदे और हमारी पकड़ ढीली होने के ख़तरे ज़ाहिर तौर पर” सामने हैं. कोविड-19 महामारी और दुनिया भर में एक के बाद एक कई विनाशकारी सोशल मीडिया घटनाओं से ये दलील बेहद मौज़ू लगने लगी है. वैश्विक प्रशासन से जुड़े एजेंडे में पहले से ही मसलों की भरमार है. अब संयुक्त राष्ट्र के पैनल ने इसमें डिजिटल सहयोग को भी शामिल करने का आह्वान किया है. 

उम्मीद के मुताबिक ही सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स सूचनाओं के प्रसार, संचार और संगठन के लिहाज़ से प्रमुख मंच बनकर उभरे हैं. यूक्रेनी सरकार ने दुनिया से संवाद करने और उनसे ज़रूरी कार्रवाई की अपील करने के लिए इन माध्यमों का भरपूर इस्तेमाल किया है.

सामूहिक तौर पर इस दशक में सामने आए संकटों से डिजिटल प्रौद्योगिकी की प्रमुखता स्पष्ट हो गई है. राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दायरों में ये प्रभाव ज़ाहिर है. यूक्रेन में जारी युद्ध इस सिलसिले में ख़ासतौर से अहम हो जाता है. इस जंग से डिजिटलाइज़ेशन और प्रौद्योगिकीय प्रशासन पर असर डालने वाले मसले सुर्ख़ियों में आ गए हैं. उम्मीद के मुताबिक ही सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स सूचनाओं के प्रसार, संचार और संगठन के लिहाज़ से प्रमुख मंच बनकर उभरे हैं. यूक्रेनी सरकार ने दुनिया से संवाद करने और उनसे ज़रूरी कार्रवाई की अपील करने के लिए इन माध्यमों का भरपूर इस्तेमाल किया है. यूक्रेन की जनता भी प्रत्यक्ष रूप से ज़मीनी स्तर की घटनाओं का दस्तावेज़ तैयार करने और दुनिया के सामने उनका बयान करने की क़वायदों में जुटी है. बाहरी दुनिया तत्काल घट रही घटनाओं की जानकारी हासिल करने से बस एक क्लिक दूर है. इस क़वायद में न सिर्फ़ स्थापित मीडिया के समाचार चक्र बल्कि (या शायद उनके कहीं ज़्यादा) उन ऐप्स की भी मदद ली जा रही है, जिनका हम ऑनलाइन ज़रियों से जुगाड़ करते हैं. 

इन सबके बीच प्लेटफ़ॉर्मों और टेक कंपनियों ने अभूतपूर्व क़दम उठाए हैं. उनके द्वारा नैतिक मूल्यों से जुड़े निर्णय लिए गए हैं और खुलकर कार्रवाइयां की गई हैं. उन्होंने छूट देने से लेकर नफ़रती बयानबाज़ियों पर नियम तय किए हैं. रूसी राज्यसत्ता से जुड़े मीडिया की सामग्रियों के प्रसार को दबाया गया है. सर्च इंजनों पर कई साइट्स (रूसी दुष्प्रचार से जुड़े) को निचले पायदान पर खिसका दिया गया है. इसके अलावा विज्ञापनों को स्थगित करने से लेकर रूसी उपभोक्ताओं को टेक प्रोडक्ट्स और सेवाओं की बिक्री को टालने की कार्रवाई भी की गई है. बहरहाल, सर्च इंजनों, सॉफ़्टवेयर विक्रेताओं और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों द्वारा लिए गए इन एक-तरफ़ा फ़ैसलों की सावधानी से पड़ताल करने की ज़रूरत है. सबसे पहली बात तो ये है कि इन कार्रवाइयों से टेक कंपनियों के तटस्थ किरदार और महज़ सेवा प्रदाता होने की धारणा को चुनौती मिली है. निजी किरदारों के लिए इसके गंभीर मायने निकलते हैं. दुनिया की सरकारें इन प्लेटफ़ॉर्मों का जिस तरह से इस्तेमाल कर रही हैं, उनसे शक्ति संतुलनों और प्रौद्योगिकीय प्रशासन में बड़े बदलाव के संकेत मिलते हैं. इन क़वायदों के प्रभाव इस युद्ध से कहीं आगे निकल जाएंगे. ऐसा लगता है कि टेक कंपनियों की कार्रवाइयों को पश्चिमी देशों में समर्थन मिल गया है. बहरहाल रूस समेत दूसरे इलाक़ों में इसे किस नज़रिए से देखा जाता है, ये देखने वाली बात होगी. निकट और दूरगामी दृष्टिकोण से इन अहम आयामों पर नज़र बनाकर रखनी होगी. 

दुनिया की सरकारें इन प्लेटफ़ॉर्मों का जिस तरह से इस्तेमाल कर रही हैं, उनसे शक्ति संतुलनों और प्रौद्योगिकीय प्रशासन में बड़े बदलाव के संकेत मिलते हैं. इन क़वायदों के प्रभाव इस युद्ध से कहीं आगे निकल जाएंगे. ऐसा लगता है कि टेक कंपनियों की कार्रवाइयों को पश्चिमी देशों में समर्थन मिल गया है.

लोकतंत्र की कसौटी पर कितने खरे?

इन टेक्नोलॉजी कंपनियों के शक्ति प्रदर्शन से तात्कालिक रूप से कई अहम सवाल उभरकर सामने आते हैं. सियासी तौर पर इस संकट को लोकतंत्र (जो दुनिया भर में ख़तरा झेल रहा है) के लिए संघर्ष के तौर पर परिभाषित किया गया है. इसके बाद डिजिटल लोकतंत्र की बारी आती है और साइबर संसार में यही दांव पर लगा है. निजी किरदारों की इन निर्णायक कार्रवाइयों से सूचना से जुड़े वातावरण पर असर पड़ा है. सार्वजनिक तौर पर इसके नतीजे दूरगामी होने वाले हैं. ऐसे में निजी किरदारों की इन कार्रवाइयों से हमें क्या सबक़ मिलते हैं? क्या इन प्लेटफ़ॉर्मों द्वारा उठाए गए क़दम लोकतंत्र की कसौटी पर खरे उतरते हैं? विश्लेषकों का कहना है कि इन निगमों द्वारा की गई कार्रवाइयों को ज़रूरी बताने के लिए ना के बराबर क़ानूनी ज़रूरतें मौजूद हैं. दरअसल ये कंपनियां एक इकाई के तौर पर प्रौद्योगिकीय पहुंच और विस्तार से जुड़े फ़ैसले लेती हैं. हालांकि इन फ़ैसलों की गूंज साइबर संसार से बाहर तक सुनाई देती है. 

इस संदर्भ में इन निगमों की कार्रवाइयों (या कोई क़दम न उठाने की नीतियों) को लेकर पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़े सवाल खड़े होते हैं. ख़ासतौर से ये सवाल खड़ा होता है कि विकासशील देशों में वो कौन से फ़ैसले ले सकते हैं या दूसरे दायरों और भौगोलिक क्षेत्रों में उनके निर्णय क्या हो सकते हैं? वो किन सरकारों और क़ानूनों के प्रति जवाबदेह हैं? क्या उनके द्वारा उठाए गए क़दम लोकतंत्र की रक्षा के संकेतक हैं?…या फिर हमें ये मानना होगा कि डिजिटल लोकतंत्र के बचाव और उन्हें लागू करने से जुड़ी क़वायदें उन कार्रवाइयों और फ़ैसलों पर आधारित हैं जिनके पीछे की दलीलों के बारे में हमें सामूहिक रूप से पर्याप्त जानकारी नहीं है?

इन कार्रवाइयों से एक बार फिर सूचनाओं के प्रवाह और डिजिटल संचार पर चंद निजी कंपनियों की बेहिसाब ताक़त का इज़हार हुआ है. रूसी सरकार के प्रति निष्ठा रखने वाले मीडिया के संदर्भ में ये निजी कंपनियां अतीत में अपने प्लेटफ़ॉर्म की आवाज़ बुलंद करके लाभ उठाती रही हैं. 

इन कार्रवाइयों से एक बार फिर सूचनाओं के प्रवाह और डिजिटल संचार पर चंद निजी कंपनियों की बेहिसाब ताक़त का इज़हार हुआ है. रूसी सरकार के प्रति निष्ठा रखने वाले मीडिया के संदर्भ में ये निजी कंपनियां अतीत में अपने प्लेटफ़ॉर्म की आवाज़ बुलंद करके लाभ उठाती रही हैं. उन्होंने इनके साथ जुड़ावों के स्तर को ऊंचा उठाकर और अपनी लोकप्रियता बढ़ाकर विज्ञापनों से कमाई बढ़ाने के लिए उनका उपयोग किया है. वैसे तो इन कार्रवाइयों के पीछे झूठी और ग़लत सूचनाओं को रोकने की क़वायद मालूम होती है, लेकिन इससे ये संकेत भी मिलते हैं कि सोशल मीडिया की बड़ी कंपनियां ख़ुद ही पंच, पंचायत और सज़ा देने वाले अधिकारी बन गए हैं. वही ये तय करते हैं कि साइबर संसार में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक गतिविधियों के दायरे में क्या-क्या चीज़े आती हैं. मेटा द्वारा नफ़रती भाषणों से जुड़ी छूट दिए जाने के जवाब में रूस ने अपने यहां मेटा प्लेटफ़ॉर्मों (व्हाट्सऐप को छोड़कर) की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया. रूसी अदालतों ने कंपनी को ‘अतिवादी गतिविधियों‘ में शामिल होने का दोषी पाया है. उन्होंने मांग की है कि रूस के ख़िलाफ़ गतिविधियों के लिए इन बड़ी टेक कंपनियों को उत्तरदायी ठहराया जाए. मेटा द्वारा नफ़रती बयानबाज़ियों पर छूट दिए जाने की क़वायद की संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने भी आलोचना की है. दुनिया के अलग-अलग देश इन क़दमों पर तवज्जो बनाकर रखेंगे. हो सकता है कि वो भविष्य में अपने फ़ैसलों की बुनियाद बनाने के लिए और ख़तरों की पहचान के तौर पर इन घटनाओं का इस्तेमाल करें. ज़ाहिर है चाहे-अनचाहे इन तमाम क़वायदों के नतीजे देखने को मिलेंगे. 

नाइजीरिया का उदाहरण

इस सिलसिले में हम अफ़्रीका की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था नाइजीरिया की मिसाल ले सकते हैं. जून 2021 में वहां की सरकार ने ट्विटर पर बेमियादी पाबंदी लगा दी. दरअसल, ट्विटर ने अपनी नीतियों के उल्लंघन के आरोप में राष्ट्रपति मुहम्मदु बुहारी द्वारा किए गए एक पोस्ट को डिलीट कर दिया था. इसके बाद का घटनाक्रम आंखें खोल देने वाला है, जिनसे ये पता चलता है कि ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों के निर्णयों से किस तरह के उत्प्रेरक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं. प्रतिबंध के पक्ष में नाइजीरियाई सरकार की अपनी दलील थी- उसका कहना था कि ट्विटर ने अपने प्लेटफ़ॉर्म के ज़रिए “नाइजीरिया के कॉरपोरेट वजूद को कमज़ोर किया है.“. इस सिलसिले में ट्विटर के तथाकथित “दोहरे मापदंडों” का हवाला दिया गया. साथ ही ट्विटर द्वारा स्थानीय संदर्भों को नहीं समझने की दलील भी दी गई. ट्विटर की कार्रवाई से इन तर्कों को ख़ूब हवा मिली. दरअसल, उस भड़काऊ पोस्ट को डिलीट करने से पहले ट्विटर ने नाइजीरियाई सरकार से किसी तरह का संपर्क क़ायम करना ज़रूरी नहीं समझा था. ट्विटर पर सात महीनों की पाबंदी ने नाइजीरियाई सरकार को वर्चुअल निजी नेटवर्कों पर भी कुछ हद तक रोकटोक की बजाए पूरी तरह से पाबंदी लगाने का मौक़ा दे दिया. इस तरह वहां की सरकार सोशल मीडिया नियमन के कठोर प्रावधानों को आगे बढ़ाने लगी. इस पूरे तमाशे में नाइजीरिया की जनता फंसकर रह गई. संचार और कारोबार से जुड़े अहम साधन महीनों तक उनसे दूर हो गए. वैसे तो ट्विटर पर पाबंदी अब हट चुकी है, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से नाइजीरिया की सरकार ताक़तवर बनकर उभरी है. नाइजीरिया की सरकार ने मांग रखी थी कि ट्विटर उनकी राजधानी अबुजा में अपना स्थानीय कार्यालय खोले, स्थानीय तौर पर टैक्स अदा करे, प्रसारक के तौर पर अपना रजिस्ट्रेशन करवाए और “राष्ट्रीय सुरक्षा और एकजुटता के प्रति संवेदनशील होने का वादा करे.” ट्विटर ने इन तमाम मांगों को चुपचाप स्वीकार कर लिया. 

ट्विटर पर सात महीनों की पाबंदी ने नाइजीरियाई सरकार को वर्चुअल निजी नेटवर्कों पर भी कुछ हद तक रोकटोक की बजाए पूरी तरह से पाबंदी लगाने का मौक़ा दे दिया. इस तरह वहां की सरकार सोशल मीडिया नियमन के कठोर प्रावधानों को आगे बढ़ाने लगी

अगर इन प्लेटफ़ॉर्मों के कर्ता-धर्ता इसी तरीक़े से काम करते रहे तो डिजिटल लोकतंत्र एक सपना बनकर रह जाएगा. इन प्लेटफ़ॉर्मों और पश्चिमी दुनिया से बाहर के देशों की सरकारों के झगड़ों से ये बात साफ़ हो चुकी है. इन प्लेटफ़ॉर्मों की सेवाएं इस्तेमाल करने वाले लोग भिन्न-भिन्न भौगोलिक हालातों, राजनीतिक-आर्थिक माहौल और पेचीदगियों में निवास करते हैं. बहरहाल, ये प्लेटफ़ॉर्म अपने कामकाज में इन बातों की अनदेखी करते रहते हैं. ऐसे में सरकारों द्वारा इन प्लेटफ़ॉर्मों को ठप करने या उनपर पाबंदियां आयद करने के रुझान में तेज़ी आ सकती है. इन क़वायदों को आगे बढ़ाने के लिए साइबर सुरक्षा, निजता और डेटा सुरक्षा से जुड़े नए क़ानूनों और नियमन पास किए जा सकते हैं. पुराने क़ानूनों में संशोधनों का भी सहारा लिया जा सकता है. विडंबना ये है कि क़ानूनों और नियमनों में ऐसे बदलाव से उन स्वतंत्रताओं का ही अतिक्रमण होगा जिनकी हिफ़ाज़त करने की उनसे उम्मीद रहती है. 

एक आदर्श के तौर पर डिजिटल लोकतंत्र की वैधानिकता अब सवालों के घेरे में है. इसके चलते प्रौद्योगिकीय प्रशासन में राज्यसत्ताओं की प्रतिकूल कार्रवाइयां या प्रतिक्रियाएं देखने को मिल सकती हैं.

दो ताक़तवरों की लड़ाई में कमज़ोर पिसकर रह जाता है. यूक्रेन में जारी जंग के बीच सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों द्वारा उठाए गए क़दमों की मार सबसे ज़्यादा वहां के नागरिकों पर पड़ी है. नाइजीरिया में भी ऐसा ही देखने को मिला था. यूक्रेन युद्ध के दौरान सियासी और वैचारिक विभाजनों के आर-पार सूचनाओं के आदान-प्रदान को रोकने वाली दीवार खड़ी कर दी गई. पारस्परिक सूचना वातावरण पर इसका दूरगामी असर होगा. भविष्य में इसके विनाशकारी प्रभाव देखने को मिल सकते हैं. एक आदर्श के तौर पर डिजिटल लोकतंत्र की वैधानिकता अब सवालों के घेरे में है. इसके चलते प्रौद्योगिकीय प्रशासन में राज्यसत्ताओं की प्रतिकूल कार्रवाइयां या प्रतिक्रियाएं देखने को मिल सकती हैं. हक़ीक़त ये है कि ऐसी तमाम बड़ी कंपनियां कई घरेलू क़ानूनों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. दुनिया की कई हुकूमतें डिजिटल दायरों और टेक क्षेत्र के बड़े खिलाड़ियों पर अपनी ताक़त का धौंस जमाने को बेताब हैं.  ऐसे में सियासी तौर पर तनाव भरे संदर्भों में कठोर क़ानूनों और नियमनों के निर्माण और मंज़ूरी की प्रक्रिया में तेज़ी आ सकती है. अगर डिजिटल युग का आग़ाज़ ऐसा है तो अंजाम तक पहुंचने की क़वायद बेहद मुश्किल होने वाली है. 

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