Published on Aug 11, 2020 Updated 0 Hours ago

नदियों के अस्तित्व में इस नये आयाम को जोड़ने का अर्थ ये होगा कि हमें उन जगहों पर नदियों के अधिकारों की व्याख्या करनी पड़ेगी, जहां पर इंसानी बस्तियां आबाद हैं. तभी ऐसी नियामक व्यवस्थाएं विकसित की जा सकेंगी, जिससे नदियों के हितों का मुख्य रूप से संरक्षण हो सके.

क्या नदियों के भी क़ानूनी अधिकार होने चाहिए?

जिस समय देश में कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन लगा हुआ था, तब देश की नदियों में एक नई जान आ गई थी. इस दौरान बहुत सी नदियों के पानी की गुणवत्ता में अलग-अलग जगहों पर उल्लेखनीय सुधार दर्ज किया गया था. जबकि इन्हीं स्थानों पर पहले नदियां झाग और गंदे पानी के नाले सरीखी दिखा करती थीं. लेकिन, लॉकडाउन के दौरान जब आर्थिक गतिविधियां बंद हुईं, तो नदियां साफ़-सुथरी और स्वस्थ नज़र आने लगीं. और पहले के मुक़ाबले नदियों की स्थिति काफ़ी बेहतर हो गई. इससे पहले जब तमाम सरकारों के राज में, अरबों रुपए ख़र्च करके, तमाम योजनाएं बनाकर भी नदियों की सफ़ाई का काम पूरा नहीं हो सका, तो इसे नाउम्मीदी का प्रतीक माना गया था. केंद्रीय हरित ट्राइब्यूनल ने भी नदियों की सेहत में आए इस सुधार को नोटिस किया है. इसके बाद NGT ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) को निर्देश दिया है कि वो गंगा और यमुना में प्रदूषक तत्वों की मात्रा का अध्ययन और विश्लेषण करें. साथ ही बोर्ड ये भी पता लगाए कि उनके पानी के प्रदूषित रहने की वजह क्या है. इसके अलावा एनजीटी ने सीपीसीबी को ये निर्देश भी दिया कि जैसे ही लॉकडाउन खुलता है, और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियां दोबारा शुरू होती हैं, तो ये सुनिश्चित किया जाए कि नदियों को प्रदूषित होने से रोकने के लिए सभी नियम क़ानूनों का सख़्ती से पालन किया जाए. अब जबकि देश अनलॉक-3 की प्रक्रिया से गुज़र रहा है और आर्थिक गतिविधियां धीरे धीरे फिर से रफ़्तार पकड़ रही हैं, तो ऐसे में उचित ये होगा कि हम इस बात की समीक्षा करें कि क्या नदियों को प्रदूषित होने से रोकने के लिए नियमों का पालन करने भर से काम चल जाएगा? इतिहास हमें बताता है कि नियमों का पालन भी तभी होता है, जब कुछ नियामक व्यवस्थाएं असरदार तरीक़े से काम करती हैं. लेकिन, हमारे देश में ये व्यवस्थाएं हमेशा से ही कमज़ोर रही हैं. अब ऐसे हालात में नदियों को बचाने के लिए क्या विकल्प आज़माए जा सकते हैं? क्या हो कि हम नदियों को भी एक वैधानिक हस्ती मानें? क्या नदियों के साथ ये क़ानूनी आयाम जोड़ देने से उनकी सुरक्षा और संरक्षण हो सकेगा?

अधिकारों पर आधारित दृष्टिकोण

भले ही ये बात अजीब लगे, लेकिन हाल के वर्षों में नदियों को व्यक्ति का दर्जा देकर उन्हें कुछ क़ानूनी अधिकारों से लैस करने की प्रक्रिया एक वैश्विक आंदोलन का ही हिस्सा बनता ही जा रहा है. इस सोच को आदिम निवासियों द्वारा क़ुदरत को एक अलग व्यक्तित्व के तौर पर देखने के चलन से प्रेरणा मिली है. इस दृष्टिकोण में ये माना जाता है कि इंसान और क़ुदरती संसाधन एक दूसरे पर निर्भर हैं. और क़ुदरती संसाधन पवित्र हैं. इसकी शुरुआत 2017 में न्यूज़ीलैंड की संसद द्वारा एक क़ानून पारित करने से हुई थी. इस क़ानून के तहत, न्यूज़ीलैंड की तीसरी सबसे लंबी नदी, व्हांगानुई को एक क़ानूनी व्यक्तित्व माना गया था. और नदी को भी वैसे ही अधिकार दिए गए थे, जैसे न्यूज़ीलैंड के किसी आम नागरिक को मिलते हैं. इसे, न्यूज़ीलैंड के मूल निवासियों यानी माओरी समुदाय के विचारों को पश्चिमी सभ्यता के क़ानूनी मूल्यों के मेल के तौर पर देखा गया था. माओरी, इस नदी को अपने ज़िंदा पूर्वज के तौर पर देखते आए हैं. इस क़ानून के बनने से व्हांगानुई नदी को किसी अदालत में सामुदायों द्वारा एक पक्षकार के तौर पर प्रस्तुत करने और उसके अधिकारों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त हुआ था.

दुनिया के अलग-अलग हिस्सों, जैसे कि कोलंबिया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका वग़ैरह में भी ऐसे ही क़ानून बनाए गए थे. भारत में भी, उत्तराखंड हाईकोर्ट ने न्यूज़ीलैंड में इस क़ानूनी बदलाव से प्रेरणा लेते हुए गंगा-यमुना, उनकी सहायक नदियों, ग्लेशियर, झरनों और नदियों के जल में योगदान देने वाले कैचमेंट एरिया को एक जीवित क़ानूनी व्यक्ति के तौर पर दर्जा दिया था.

इसके बाद दुनिया के अलग-अलग हिस्सों, जैसे कि कोलंबिया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका वग़ैरह में भी ऐसे ही क़ानून बनाए गए थे. भारत में भी, उत्तराखंड हाईकोर्ट ने न्यूज़ीलैंड में इस क़ानूनी बदलाव से प्रेरणा लेते हुए गंगा-यमुना, उनकी सहायक नदियों, ग्लेशियर, झरनों और नदियों के जल में योगदान देने वाले कैचमेंट एरिया को एक जीवित क़ानूनी व्यक्ति के तौर पर दर्जा दिया था. ताकि, उत्तराखंड में इन नदियों का निरंतर प्रवाह सुनिश्चित किया जा सके. उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में स्पष्ट तौर से ये भी कहा था कि नदियों के ये अधिकार, आम नागरिकों के मूल अधिकारों जैसे ही हैं. ऐसे में अगर नदियों के अधिकारों को चोट पहुंचाने का अर्थ, किसी व्यक्ति को चोट पहुंचाना ही माना जाएगा. हालांकि, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर बाद में रोक लगा दी थी. क्योंकि, उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई थी कि उत्तराखंड हाई कोर्ट के इस आदेश से कई तरह की क़ानूनी और प्रशासनिक पेचीदगियां उत्पन्न हो जाएंगी. राज्य की सरकार ने हाई कोर्ट के आदेश के पालन की राह में जिन चुनौतियों का हवाला दिया था, उनमें अंतरराज्यीय नदियों पर ऐसे क़ानूनों को लागू करने में आने वाली चुनौतियों का ज़िक्र था. उत्तराखंड की सरकार का कहना था कि कई राज्यों से होकर प्रवाहित होने वाली नदी के संरक्षण और उसके क़ानूनी अधिकारों की रक्षा की ज़िम्मेदारी कोई एक सरकार कैसे उठा सकती है? क्योंकि अगर हम इस नदी के संरक्षण के लिए अभूतपूर्व क़दम उठाते हैं. और फिर नदी में बाढ़ आने से दूसरे राज्यों के लोग प्रभावित होते हैं, तो वो लोग उत्तराखंड राज्य के मुख्य सचिव के ख़िलाफ़ मुक़दमे कर सकते हैं. क्योंकि उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश के अनुसार मुख्य सचिव, अपने राज्य की नदियों और क़ुदरती संसाधनों के मुख्य संरक्षक हैं. उत्तराखंड सरकार ने ये प्रश्न उठाया था कि अगर नदी के कारण बाढ़ से प्रभावित हुए लोग मुआवज़े की मांग करते हैं, तो फिर राज्य सरकार को क्या नदी के संरक्षण के एवज़ में इन लोगों को हर्जाना भी भरना पड़ेगा.

उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका दी, उससे उत्तराखंड हाई कोर्ट के नदियों को क़ानूनी अधिकार देने के आदेश में स्पष्टता के अभाव और ये आदेश लागू कराने के कारण उत्पन्न परिस्थितियों के बारे में अनिश्चितता पैदा हो गई थी. हाई कोर्ट के आदेश को पूरी तरह लागू करने के क्या नतीजे होंगे, और इसका कितना बोझ किसे उठाना होगा, ये बात तय नहीं थी. हालांकि, जैसे-जैसे नदियों के इन अधिकारों को प्रकृति के संरक्षण से जोड़ कर देखा जाएगा, वैसे-वैसे नदियों को क़ानूनी अधिकार देने का आंदोलन, हमारे यहां के पर्यावरण संरक्षकों का मुख्य हथियार बन जाएगा, ताकि हम नदियों जैसे क़ुदरती संसाधनों का संरक्षण कर सकें. विश्व स्तर पर भी, क़ुदरतों के वैधानिक अधिकारों को मानने का दायरा बढ़ता जा रहा है. जैसे-जैसे मानव समाज कोविड-19 की महामारी से उबर रहा है, वैसे-वैसे ये बात लोगों को समझ में आ रही है कि क़ुदरती संसाधनों का संरक्षण उन्हीं की ज़िम्मेदारी है. और प्राकृतिक संसाधनों के स्वरूप में बदलाव से उन्हें क्षति पहुंचती है.

नई संभावनाएं

नदियों को क़ानूनी किरदार का दर्ज़ा देना, निजी क़ानूनी अधिकारों के आयाम से अलग होगा. क्योंकि नदियां ऐसी चीज़ हैं जिन्हें सुरक्षा और संरक्षण की ज़रूरत है. और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए इंसानों की गतिविधियों को सीमित करना होगा. क़ानून को दिए जा रहे इस नए आयाम के अंतर्गत क़ानूनी संरक्षकों के माध्यम से) नदियों का सशक्तिकरण इस तरह किया जा सकेगा कि वो अपने हितों की रक्षा के लिए वैधानिक लड़ाई लड़ने में सक्षम हो सकें. इसके माध्यम से  हम पर्यावरण क़ानूनों और दिशा निर्देशों की व्याख्या के मौजूदा तरीक़े में भी बदलाव ला सकेंगे. क्योंकि अब तक पर्यावरण संरक्षण और इससे जुड़े दिशा निर्देश केवल मानवीय दृष्टिकोण से ही देखे जाते थे. लेकिन अब इनकी व्याख्या में नया आयाम जुड़ जाने से नदियों के अधिकारों की इस तरह से व्याख्या हो सकेगी, जिसके केंद्र में मानव हित नहीं, बल्कि नदियों की भलाई होगी. और इससे जुड़ी नियामक व्यवस्थाएं भी नदियों के हितों के संरक्षण को केंद्र में रखकर विकसित की जा सकेंगी.

जैसे-जैसे नदियों के इन अधिकारों को प्रकृति के संरक्षण से जोड़ कर देखा जाएगा, वैसे-वैसे नदियों को क़ानूनी अधिकार देने का आंदोलन, हमारे यहां के पर्यावरण संरक्षकों का मुख्य हथियार बन जाएगा, ताकि हम नदियों जैसे क़ुदरती संसाधनों का संरक्षण कर सकें.

इस क़दम के बहुत व्यापक और बहुआयामी नतीजे देखने को मिलेंगे. जैसे कि, नदियों में पर्यावरण के अनुरूप पानी के बहाव को क़ानून के अनुसार सुनिश्चित करना. या नदियों में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (BOD) की स्वीकार्य सीमा में बदलाव करना. नदियों के किनारों को सुसज्जित करने और विकास के कार्यों की नए सिरे से इस आधार पर समीक्षा करना कि इन प्रोजेक्ट से नदियों के अधिकारों का हनन तो नहीं होगा. अब तक इन सभी तथ्यों और नियमों को मानवीय हितों को ध्यान में रखते हुए तय किया जाता रहा है. या फिर, इंसान इन बातों को ध्यान में रख कर ये नीति निर्धारण करते हैं कि नदियों और इकोसिस्टम के लिए क्या भला होगा. हालांकि, यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि जो मानवीय गतिविधियां नदियों के संसाधनों का उपयोग करके संचालित होती हैं, वो तब तक जारी रखी जा सकती हैं, जब तक नदियों की सेहत पर नकारात्मक असर न हो. या फिर उनसे नदियों को ऐसा नुक़सान न हो, जिसकी कभी भरपाई न की जा सके. पर्यवेक्षकों का ये भी कहना है कि नदियों के संरक्षण में ये नया आयाम जुड़ने से  नदियों और इंसानों के बीच संरचनात्मक संबंध विकसित होंगे. इनसे नदियों का अबाध प्रवाह सुनिश्चित हो सकेगा. नदियों पर आधारित जीव जंतुओं का भी संरक्षण हो सकेगा. नदियों तक पानी पहुंचाने वाले कैचमेंट एरिया और नदी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी अन्य सभी तत्वों का इस तरह से संरक्षण हो सकेगा, जिससे ख़ुद इंसानों के व्यापक हितों की रक्षा हो सकेगी.

सावधानी बरतने की ज़रूरत है

बेहद शानदार और अनंत संभावनाएं होने के बावजूद, नदियों के संरक्षण में क़ानूनी आयाम जोड़ने की दिशा में आगे बढ़ने से पहले काफ़ी सावधानी बरतने की ज़रूरत होगी. सबसे पहले तो नदियों के अभिभावक बनने का विचार अस्पष्ट है. जहां तक व्हांगानुई नदी की बात है, तो उसके संरक्षण का अभिभावक बनने की ज़िम्मेदारी आदिम निवासी यानी इवी समुदा के लोग निभा रहे हैं. इस समुदाय के लोग लंबे समय से नदी के हितों के संरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे थे. इनके अलावा ख़ुद न्यूज़ीलैंड की सरकार को भी नदी के अधिकारों की रक्षा की ज़िम्मेदारी उठानी थी. लेकिन, उत्तराखंड हाईकोर्ट का आदेश, इस मामले में हौसला बढ़ाने वाला नहीं लगता. गंगा और यमुना के संरक्षण की ज़िम्मेदारी नमामि गंगे परियोजना के कुछ नोडल अधिकारियों के कंधों पर डाल दी गई थी. इस काम में में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने क़ानूनी समझ रखने वाले दो ग़ैर प्रशासनिक व्यक्तियों को भी अभिभावक बनाया था. जबकि क़ानूनी संरक्षक का काम बेहद महत्वपूर्ण होता है. ऐसे में किसी अनुचित व्यक्ति या संस्था को ये ज़िम्मेदारी सौंपने से पूरे मक़सद पर ही पलीता लगने का अंदेशा है.

नदियों को क़ानूनी अधिकार देने से केंद्र सरकार को राज्यों के बीच एक सहयोगात्मक व्यवस्था और संस्थाओं का विकास करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा. जिससे कि, नदियों के अभिभावक की भूमिका बख़ूबी निभाई जा सके.

इसी तरह, नदियों को क़ानूनी अधिकार देने के क़दम के उलटे नतीजे भी निकल सकते हैं. क्योंकि अगर कोई समुदाय नदियों के संरक्षण से मुंह फेर ले और ये सोचने लगे कि नदी अपने हितों का ख़याल रख पाने में सक्षम है, तो नदियों की सुरक्षा की चुनौती बढ़ जाएगी. एक और सावधानी जो बरतनी चाहिए वो ये है कि नदियों को पूरी तरह से इंसान की ज़िम्मेदारियों से मुक्त करके स्वतंत्र न्यायिक हस्ती के तौर पर स्थापित करना उचित नहीं होगा. क्योंकि, ये तो मानवाधिकार देने जैसा होगा. इसके बजाय, ज़ोर इस बात पर होना चाहिए कि नदी का भी एक क़ानूनी अधिकार है. और इस हिसाब से क़ानून में ऐसे बदलाव किए जाने चाहिए, ताकि नदी के संरक्षण की ज़रूरतों की पूर्ति हो सके. इसके अलावा, भारत में इंटीग्रेटेड वाटर सिस्टम गवर्नेंस के तहत एक स्वतंत्र और बहुत से विशेषज्ञों वाले नदी बेसिन प्राधिकरण के अभाव में कई राज्यों में एक साथ बहने वाली नदी के संरक्षण और उसके पुनर्जीवन की ज़िम्मेदारी को लेकर विवाद खड़े होने का डर होगा. हालांकि, इस चुनौती का दूसरा पहलू ये भी हो सकता है कि नदियों को क़ानूनी अधिकार देने से केंद्र सरकार को राज्यों के बीच एक सहयोगात्मक व्यवस्था और संस्थाओं का विकास करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा. जिससे कि, नदियों के अभिभावक की भूमिका बख़ूबी निभाई जा सके. आम तौर पर ये काम रिवर बेसिन अथॉरिटी करती है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 262 के अंतर्गत, केंद्र सरकार को इस बात का पूरा अधिकार है कि वो ऐसे क़दम उठा सके.

इसीलिए, पर्यावरण के अधिकार क्षेत्र में आ रहे ये परिवर्तन, जो नदियों को क़ानूनी अधिकार देते हैं, वो केवल नदियों को साफ़ सुथरा करने के मक़सद से कहीं बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हैं. इससे एक नयी परिचर्चा की शुरुआत हो सकती है. और, हम नदियों का किस तरह से उपयोग करते हैं, उस सोच में भी इस वजह से बदलाव लाया जा सकता है. हालांकि, हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि हमारे यहां इस अनजान दिशा में बढ़ने के लिए पर्याप्त विशेषज्ञों और रिसर्चरों का अभाव है. इसका अंदाज़ा हमें उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश से भली भांति हो जाता है. सबसे अहम बात ये है कि नदियों को क़ानूनी अधिकार देने और उनके संरक्षण का अनुपालन कराने के लिए नई संस्थाओं का निर्माण करना होगा. और ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ेगी, जिससे कि हम न्यूज़ीलैंड की व्हांगानुई नदी की तरह, कोविड-19 के बाद के दौर में अपने देश की नदियों को भी साफ़ सुथरा और स्वस्थ बना सकें.

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