Author : Kabir Taneja

Published on Jan 14, 2021 Updated 0 Hours ago

अगले कुछ महीनों में यह बेहद अहम होगा कि आखिर कैसे सऊदी अरब और कतर ,और शायद इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यूएई और कतर के रिश्तों में क्या खास निकल कर आता है.

क़तर के साथ संबंध सामान्य करने के पीछे सऊदी अरब की मंशा?

5 जनवरी से शुरू होने वाले 41 वें खाड़ी सहयोग परिषद के शिखर सम्मेलन से एक दिन पहले, कुवैत का राजनीतिक नेतृत्व, जो सऊदी अरब और क़तर के बीच मध्यस्थता करने में जुटा है, ताकि दोहा पर रियाद और अबू धाबी द्वारा लगाए गए 3 साल के लंबे प्रतिबंध को ख़त्म किया जा सके. कुवैत ने घोषणा कर दी है कि अल उला में आयोजित खाड़ी  सहयोग परिषद की बैठक में क़तर के नेता शामिल होंगे.  इस घोषणा के साथ ही आगामी समझौते के रूप में उम्मीद की जा रही है कि दोहा के साथ सऊदी अरब, यूएई, मिस्र और बहरीन फिर से पूर्ण संबंध बहाल करने पर सहमत हो सकते हैं.

इस बात का भले ही सांकेतिक महत्व हो सकता है कि अल उला में क़तर के एमिर शेख तमीम बिन हमद अल थानी के कदम रखते ही उनका स्वागत सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) ने किया जिससे उम्मीद की जा सकती है कि जीसीसी में दोहा के अलग-थलग रहने के दिन अब शायद ख़त्म हो जाएं. इस शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने शेख़ तमीम सऊदी में एक ऐतिहासिक शहर “उशाइगर” नाम वाले विमान से पहुंचे थे, जिस शहर का इतिहास ये बताता है कि यहीं तमीम जैसे प्रमुख जनजाति का पैतृक घर भी रहा है  और तमीम ही वो जनजाति है जिससे अल थानी के परिवार का ताल्लुक़ है.

क्षेत्रीय भूराजनीति

ये बात साल 2017 की है जब आतंकी समूहों को सहायता करने के आरोप में रियाद और अबू धाबी ने जीसीसी की सदस्यता से कतर को बाहर का रास्ता दिखा दिया था जो मुस्लिम ब्रदरहुड की परिकल्पना को साकार करने का एक मास्टरस्ट्रोक था तो इस इलाके के तमाम मामलों में अपनी सक्रियता जताने की कोशिश भी थी. कुछ हद तक, यह कदम एमबीएस और यूएई के शासक प्रिंस मोहम्मद बिन जायद (एमबीजेड) की जोड़ी के प्रभुत्व का इस इलाक़े में शक्ति प्रदर्शन भी कहा जा सकता है क्योंकि इन्हें भी अब पश्चिम एशिया के सबसे प्रभावशाली और शक्तिशाली शख्सियत के तौर पर दुनिया जानने लगी है. हालांकि  इस प्रतिबंध के अंतिम नतीज़े जिस तरह सामने आए उसे लेकर यक़ीनी तौर पर सऊदी अरब और यूएई तैयार नहीं थे. साल 2017 में सऊदी अरब को 13 मांगों की एक सूची सौंपी गई थी जिसमें कथित तौर पर यह बात शामिल थी कि सीरिया में आतंकी संगठन अल क़ायदा को दोहा के द्वारा दी जा रही मदद में कटौती की जाएगी साथ ही समाचार चैनल अल जज़ीरा जो कि क़तर के वित्तीय समर्थन से प्रसारित हो रहा था उसे बंद कर दिया जाएगा.

इस बात में कोई दम नहीं कि इसके लिए भले ही अल उला में संबंधों को सामान्य करने में क़तर को कई रियायतें देनी पड़ी हों. यह बात वाक़ई महत्वपूर्ण है कि एक छोटे से देश ने बगैर किसी घरेलू संकट के इतने दिनों तक आर्थिक प्रतिबंधों को झेला. 

हालांकि, अभी यह देखा जाना बाकी है कि इनमें से कितनी मांगें और किस सीमा तक जाकर दोहा इन्हें मानने के लिए तैयार होगा. लेकिन तमाम मापदंडों के हिसाब से यक़ीनन यह कहा जा सकता है कि क़तर जीसीसी की आंतरिक लड़ाई में विजयी हुआ है. इस बात में कोई दम नहीं कि इसके लिए भले ही अल उला में संबंधों को सामान्य करने में क़तर को कई रियायतें देनी पड़ी हों. यह बात वाक़ई महत्वपूर्ण है कि एक छोटे से देश ने बगैर किसी घरेलू संकट के इतने दिनों तक आर्थिक प्रतिबंधों को झेला. इस दौरान जो बात पहले नहीं देखी या समझी गई थी वो यह थी कि क़तर ने अपने स्थानीय आबादी के साथ-साथ जिन्हें देश निकाला दे दिया था उनमें भी राष्ट्रवाद की ऐसी भावना पैदा की जो क़ाबिले तारीफ़ थी. हालांकि इसके लिए क़तर ने सऊदी और यूएई के कट्टर दुश्मनों ईरान और तुर्की के साथ हाथ मिलाया और इसी का नतीज़ा था कि जून 2017 में क़तर की धरती पर तुर्की की सेना ने कदम रखा और दिसंबर महीना आते-आते क़तर को मदद पहुंचाने के लिए तुर्की की सैनिकों की तादाद बढ़ने लगी. जबकि तेहरान ने उनके देश के आयात पर निर्भर मुल्क़ों को आपूर्ति के शिपमेंट में बढ़ोतरी करनी शुरू कर दी. रिश्तों की ऐसी पृष्ठभूमि में यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि मौज़ूदा वक़्त में आख़िर दोहा इस संतुलन को कैसे नियंत्रित करता है. अंकारा के साथ सैन्य संबंधों में कटौती करना लगभग मुश्किल है ख़ासकर तब जबकि रिश्तों को सामान्य बनाने में यूएई की ख़ामोशी जिसे एमबीएस की छत्रछाया हासिल है, और जो इस क़यास को और ज़्यादा मज़बूत करता है कि क्षेत्रीय भूराजनीति को लेकर एमबीएस और एबीजेड के बीच कई असहमति हैं.

जब अरब समर्थित क्रांति के बाद लंबे समय से मिस्र के तानाशाह होस्नी मुबारक़ को सत्ता से बेदखल किया गया और साल 2012 में  मिस्र में मोहम्मद मोरसी को चुनाव में जीत के लिए एमबी ने समर्थन दिया था तब एमबीजेड ने हज़ारों मिश्र के धर्म प्रचारकों और शिक्षकों को यूएई से बाहर का रास्ता दिखा दिया था 

अबू धाबी के लिए क़तर के साथ सैद्धांतिक स्तर पर संबंधों में आई दरार ज़्यादा गंभीर है. क्योंकि एमबी के लिए दोहा का समर्थन करना एमबीजेड के लिए एक मात्र अतिक्रमण की बिंदु है जिसने इस पूरे इलाक़े में इस्लामी सियासत को आक्रामकता से विस्तार दिया है और एमबी की विरासत को एक तरह से थामा है. जब अरब समर्थित क्रांति के बाद लंबे समय से मिस्र के तानाशाह होस्नी मुबारक़ को सत्ता से बेदखल किया गया और साल 2012 में  मिस्र में मोहम्मद मोरसी को चुनाव में जीत के लिए एमबी ने समर्थन दिया था तब एमबीजेड ने हज़ारों मिश्र के धर्म प्रचारकों और शिक्षकों को यूएई से बाहर का रास्ता दिखा दिया था और बाद में जिन्हें एमबी ने आतंकी समूह घोषित कर दिया. लेकिन जब मोरसी को तख़्तापलट कर सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया तब मिश्र में अब्देल फ़तह अल सीसी के साथ सैन्य शासन की दस्तक सुनाई दी जिसके बाद अबू धाबी ने काहिरा को एमबी के प्रभाव पर अंकुश लगाने के मक़सद से मस्जिदों और उपदेशकों को नियंत्रित करने के लिए दबाव बनाया. लेकिन एमबी के साथ एमबीजेड की शख़्सियत,  व्यक्तिगत और पारिवारिक इतिहास ने इस समूह को ऐसा बना दिया जिससे समझौता कर पाना नेताओं के लिए आसान नहीं था.

रियाद का दृष्टिकोण

पिछले सप्ताह व्यापक रूप से पूछा गया एक सवाल कि आख़िर क्यों यूएई के स्टैंड के उलट सऊदी अरब ने जाने का फैसला किया और क़तर के साथ रिश्ते बहाल कर लिए, एक बार फिर भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक वास्तविकताओं की पृष्ठभूमि में सिर उठाने लगा है. क्योंकि एमबीएस के लिए क्षेत्रीय स्तर पर विस्तारवादी योजना का मतलब है कि सुरक्षा और विदेश मामलों में ज़्यादा से ज़्यादा वित्तीय संसाधनों को ख़र्च करना जबकि घरेलू सुधारवादी कार्यक्रम जिन्हें क्राउन प्रिंस ने अमल में लाने की तैयारी की थी उसके लिए वित्तीय कटौती करनी होगी. अब जबकि आने वाले भविष्य में तुरंत ही तेल की कीमतें 60 डॉलर प्रति बैरल पहुंचने की संभावना बेहद कम है तो ऐसे में तेल के पैसों पर आधारित राज्य के पेट्रो-डॉलर के प्रति आकर्षण की लत को ख़त्म करने के लिए बड़ी कीमत चुकाने होगी. जीसीसी में गहराए विवादों का ख़ात्मा, अनौपचारिक रूप से इज़रायल के साथ रिश्तों को सामान्य करना, पश्चिमी देशों से पार्टनरशिप को और मज़बूत करने का मतलब है कि रियाद के पास सिर्फ एक ही भू राजनीतिक टास्क है और वो है ईरान को साधना. सऊदी अरब के समाज को ना सिर्फ आर्थिक बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर भी बदलना एमबी के लक्ष्यों में से एक है तो इसे नज़रअंदाज़ करना भी आसान नहीं है. उनकी यह इच्छा कि उनका मुल्क कट्टरपंथ धार्मिक राज्य की छवि से बाहर निकल सके, उनके ही तय किए लक्ष्य कि सऊदी अरब की तरह ही दुबई भी एक केंद्र के रूप में स्थापित हो सके के ठीक उलट है. बगैर वैश्विक दृष्टिकोण में आए भारी बदलाव के दुबई को दुनिया के चुनिंदा वित्तीय केंद्र के रूप में विकसित कर पाना एक बड़ी चुनौती है और पहले से ही एमबीएस इस संबंध में एक बुरी शुरुआत करने का भार वहन कर रहे हैं. क्योंकि सऊदी अरब के लिए अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं के मुकाबले वो इन बातों के लिए सुर्ख़ियां बटोर रहे हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों में अपने परिवार के कई सदस्यों को जेल की सलाख़ों के पीछे भेज दिया तो महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी एक्टर्स को उकसाने के साथ ही सऊदी पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या में शामिल रहे हैं.

खाड़ी देशों के दृष्टिकोण से यह घटना इस बात की ओर इशारा करता है कि अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन भी इस एकता के पक्ष में होंगे. जीसीसी विवादों का निपटारा कर रियाद ख़ुद को इज़रायल समेत अमेरिका के सामने ईरान के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे देशों की सूची में खड़ा कर सकता है.

पिछले कुछ समय से जीसीसी की आंतरिक विवादों के प्रति सऊदी के दृष्टिकोण में जो बदलाव आए हैं जिसे अमेरिका से समर्थन भी मिल रहा है, क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के वरिष्ठ सलाहकार और उनके दामाद जेयर्ड कुशनर जो लगातार जीसीसी के रिश्तों के सामान्य होने के लक्ष्य को पूरा करने में जोर शोर से जुटे हुए हैं. इन कोशिशों की आधिकारिक उपलब्धि वाशिंगटन में सितंबर 2020 में इज़रायल, यूएई, बहरीन के बीच दस्तख़त किए गए अब्राहम संधि के तौर पर सामने भी आ चुकी है. खाड़ी देशों के दृष्टिकोण से यह घटना इस बात की ओर इशारा करता है कि अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन भी इस एकता के पक्ष में होंगे. जीसीसी विवादों का निपटारा कर रियाद ख़ुद को इज़रायल समेत अमेरिका के सामने ईरान के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे देशों की सूची में खड़ा कर सकता है. और तो और इज़रायल और खाड़ी देशों की आंकाक्षाओं को पूरा करते हुए ईरान के साथ न्यूक्लियर डील जिससे ट्रंप ने खुद को अलग कर लिया था उसमें फिर से अमेरिका के शामिल होने के जो-बाइडेन प्रशासन की किसी भी कोशिश का मुक़ाबला कर सकेगा.

भारतीय हित

इस बीच, पश्चिम एशिया की तेजी से बदलती हुई भू-राजनीतिक परिदृश्य और कोरोना महामारी की वैश्विक चुनौतियों के बीच भारत इस क्षेत्र में मज़बूती से अपने संबंधों को नई दिशा देने में क़ामयाब हुआ है. यक़ीनन भविष्य की सियासी समीकरणों के मद्देनज़र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले महीने ही क़तर के एमिर से रिश्तों को नई सोच दी है.  इतना ही नहीं इसके कुछ दिनों बाद ही विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दोहा का दौरा किया था. खाड़ी देशों की शांति और स्थायित्व भारत के लिए बेहद अहम है और इस तरह की कूटनीतिक हस्तक्षेप जिसमें ओमान, यूएई, सऊदी अरब, बहरीन और कुवैत का दौरा भारत सरकार के वरिष्ठ लोगों द्वारा किया जाना शामिल है. इतना ही नहीं इसके तहत खाड़ी मुल्क़ों में भारतीय नागरिकों की वापसी भी शामिल है जो कोरोना महामारी के बाद स्वदेश लौट गए थे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में क़तर के निवेश को लेकर भी चर्चा की है और इसके लिए टास्क फोर्स भी बनाया है क्योंकि दुनिया में छोटे देश होने के बावजूद अपने विशाल गैस के प्राकृतिक संसाधनों के चलते क़तर आर्थिक रूप से बेहद संपन्न है

इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में क़तर के निवेश को लेकर भी चर्चा की है और इसके लिए टास्क फोर्स भी बनाया है क्योंकि दुनिया में छोटे देश होने के बावजूद अपने विशाल गैस के प्राकृतिक संसाधनों के चलते क़तर आर्थिक रूप से बेहद संपन्न है. यह ध्यान रखने वाली बात है कि निवेश के मौकों को लेकर खुली चर्चा, एक विशिष्ट टास्क फोर्स को साकार करने में जीसीसी में पैदा हुए आंतरिक मनमुटाव ने भी अपनी भूमिका अदा की है. क्योंकि नई दिल्ली ने यूएई और सऊदी अरब से अपने रिश्तों को मज़बूत करने की कोशिश की है जिससे की सभी पक्षों के साथ परंपरागत कूटनीतिक संतुलन स्थापित किया जा सके.

निष्कर्ष

ज़ाहिर है अगले कुछ महीने सऊदी और क़तर के रिश्तों को लेकर असल परीक्षा होने वाली है और इससे भी महत्वपूर्ण कि आखिर यूएई और क़तर के बीच संबंधों को  लेकर क्या कुछ नया सामने आता है. जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि आख़िर रिश्तों को सामान्य करने में दोहा को किस स्तर तक रियायतें देनी होगी. और इससे भी अहम यह कि दोहा एक तरफ खाड़ी देशों के साथ अपने संबंधों को कैसे निभाता है और दूसरी ओर ईरान और तुर्की के साथ उसके रिश्ते कैसे आकार लेते हैं तब जबकि ईरान और तुर्की ने दोहा को तब मदद पहुंचाई है जबकि उसे इसकी बेहद ज़रूरत थी.

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