Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बीच रूस और बेलारूस एशिया के देशों के साथ आर्थिक और भूराजनीतिक भागीदारियां विकसित करने और आगे बढ़ाने की जुगत लगा रहे हैं.

#रूस-यूक्रेन यूद्ध का अतिरिक्त असर: पश्चिम की पाबंदियों के बीच एशिया को धुरी बनाने की रूसी विदेश नीति
#रूस-यूक्रेन यूद्ध का अतिरिक्त असर: पश्चिम की पाबंदियों के बीच एशिया को धुरी बनाने की रूसी विदेश नीति

पिछले 30 सालों से रूस और बेलारूस पश्चिमी दुनिया में अपना मुकाम तलाशते आ रहे हैं. यूक्रेन के घटनाक्रमों पर पश्चिम के सामूहिक चिंतन को इन्हीं शर्तों और सीमा रेखाओं के ज़रिए देखने की ज़रूरत है.

इतिहास हमें सिखाता है कि “वक़्त और हालात चाहे जैसे भी हों बीत जाते हैं”. लिहाज़ा यथार्थ की बुनियाद पर कूटनीति और संवाद का एक तंत्र खड़ा होना, अब केवल वक़्त का मोहताज रह गया है. हालांकि, ये यथार्थ बुनियादी रूप से एक अलग क़िस्म का होगा. इसके तहत सामूहिक तौर पर पूरी पश्चिमी दुनिया रूसी संघ और बेलारूस की वरीयता सूची के निचले पायदान पर होगी. 

मौजूदा हालातों और चुनौतियों के मद्देनज़र एशिया से क़रीबी बढ़ाना ही रूस और बेलारूस के लिए विकास का इकलौता साधन और बुद्धिमानी भरा उपाय बन चुका है. 

भले ही पश्चिम के साथ रिश्तों का फ़ैसला हो चुका है और सहयोग का मौजूदा अध्याय बंद हो चुका है, लेकिन इससे रूस और बेलारूस के अकेले या अलग-थलग पड़ने की नौबत नहीं आएगी. हालांकि, पश्चिमी जगत के साथ रिश्तों के संदर्भ में रूस और बेलारूस की विदेश नीति पर अनिश्चितकाल के लिए विराम लग जाएगा. स्वाभाविक रूप से अनुकूल हालातों में भी प्रतिबंधों को हटाए जाने की क़वायद में कई सालों का वक़्त लग जाता है. अतीत जैसे रिश्ते दोबारा क़ायम करने की प्रक्रिया हमेशा सुस्त और चुनिंदा स्वभाव की होती है. ज़ाहिर है नए “शीत युद्ध” और “लोहे की दीवारों” का दौर अभी लंबा चलने वाला है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्राथमिकताओं को नए सिरे से गढ़ने के लिए राष्ट्रीय विकास के मोर्चे पर गुणात्मक रूप से एकदम नई तरह की क़वायद की दरकार होगी. रूस-यूक्रेन जंग के नतीजे के तौर पर आख़िरकार रूस और बेलारूस की विदेश नीति में “एशिया को धुरी बनाने” से जुड़ी रणनीति की जड़ें और गहरी हो जाएंगी. साथ ही ये किरदार भूराजनीतिक बनावट के हिसाब से भी सामंजस्य बिठाने लगेंगे. दरअसल मौजूदा हालातों और चुनौतियों के मद्देनज़र एशिया से क़रीबी बढ़ाना ही रूस और बेलारूस के लिए विकास का इकलौता साधन और बुद्धिमानी भरा उपाय बन चुका है. 

ज़ाहिर है कि रूसी हुक़्मरान जंग के संभावित नतीजों को बख़ूबी समझते थे और उन्होंने पूरी सावधानी से इसका हिसाब-क़िताब कर रखा था. इन हालातों में ये मानना तर्कसंगत होगा कि प्रतिबंधों से जुड़ी चुनौतियों पर देर सबेर क़ाबू पा लिया जाएगा. रूसी अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए अपनाए गए उपायों को इस समस्या से कामयाबी से निपटने में मदद पहुंचाने के हिसाब से तैयार किया गया है.

बहरहाल विश्व व्यापार, अर्थव्यवस्था और वित्तीय व्यवस्थाओं से रूसी संघ को पूरी तरह से अलग-थलग करना नामुमकिन है. पश्चिम की पाबंदियों से डॉलर से परहेज़ करने की क़वायद (de-dollarisation) और तेज़ होती है. इससे विश्व में अमेरिकी मुद्रा का प्रभाव और दबदबा कमज़ोर होता है. साथ ही प्रतिबंधों की हर नई किस्त से न सिर्फ़ रूस और बेलारूस, बल्कि यूरोप और अमेरिका को भी चोट पहुंचती है. इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को और नुक़सान पहुंचता है. 

पश्चिम और रूस के साथ बेहतर रिश्ते बरक़रार रखते हुए भारत आवागमन का केंद्र (transit hub) बनकर उभर सकता है. इससे न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में मदद मिलेगी बल्कि संघर्ष में उलझे पक्षों को अपने टूटे रिश्ते फिर से जोड़ने का मौक़ा भी मिल सकता है.

विदेशी रसद कंपनियों द्वारा आपूर्ति में रुकावट डाले जाने और सप्लायर्स की किल्लत के चलते दुनिया के तमाम हिस्सों के किसान रूस और बेलारूस से खाद की ख़रीद करने से महरूम हो सकते हैं. अभी कुछ अर्सा तक रसद आपूर्ति की लय टूटने से खाद्य पदार्थों की किल्लत और भुखमरी जैसे गंभीर नतीजे देखने को मिल सकते हैं. 

एशिया के दूसरे किरदार

मौजूदा बदलावों का सबसे बड़ा लाभार्थी चीन है. वैसे तो यूक्रेन के घटनाक्रमों पर चीन के रुख़ की अनेक बारीक़ियां हैं, पर आमतौर पर वो रूस के साथ एकजुट खड़ा दिखता है. इस तरह वो पश्चिम को ये जता रहा है कि प्रतिबंधों से नियम-क़ायदों की पालना सुनिश्चित नहीं कराई जा सकती.

 

दूसरे “एशियाई शेरों” के संतुलित रुख़ भी ये दिखाते हैं कि उनके राष्ट्रीय हित यूरोपीय सुरक्षा परिदृश्य को लेकर पश्चिम के नज़रिए से अलग हैं.

 

मौजूदा समीकरणों में भारत की एक अहम भूमिका है. पश्चिम और रूस के साथ बेहतर रिश्ते बरक़रार रखते हुए भारत आवागमन का केंद्र (transit hub) बनकर उभर सकता है. इससे न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में मदद मिलेगी बल्कि संघर्ष में उलझे पक्षों को अपने टूटे रिश्ते फिर से जोड़ने का मौक़ा भी मिल सकता है. साथ ही भारत इस क़वायद के ज़रिए रूस की एशिया नीति में चीन के दर्जे को संतुलित कर सकता है. लिहाज़ा भारत के लिए मौजूदा संकट में तटस्थ बने रहना अहम है. भारत को दूसरे किरदारों के दबाव में नहीं झुकना चाहिए और अपनी सामरिक समझ को वरीयता देनी चाहिए.

बहरहाल पश्चिम के अभूतपूर्व दबाव के मद्देनज़र “एशिया को धुरी” बनाने की रणनीति रूस के लिए आसान क़वायद नहीं होने वाली है. पश्चिम के प्रतिबंध भले ही विनाशकारी न हों लेकिन नुक़सानदेह ज़रूर साबित हो सकते हैं. ऐसा एक से ज़्यादा बार देखने को भी मिल चुका है. 

प्रतिबंधों को लेकर प्रतिक्रिया

रूस का नज़दीकी साथी और सामरिक भागीदार होने के चलते बेलारूस को लगभग सभी प्रतिबंधों के नतीजे भुगतने पड़ रहे हैं. लिहाज़ा दोनों ही देशों को एशियाई साथियों के साथ रिश्तों में प्रतिबंधों से जुड़ी जोख़िमों का बेहद बारीक़ी से आकलन करना होगा. इसके साथ ही रूस और बेलारूस को जोख़िम प्रबंधन और निपटारे के लिए साझा रुख़ भी विकसित करने होंगे.

फ़रवरी की शुरुआत में बेलारूस और रूसी संघ राज्य के सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट दमित्री मेज़ेन्तसेव ने पश्चिम के प्रतिबंधों और पाबंदियों पर साझा प्रतिक्रिया का प्रस्ताव रखा था. इनमें आर्थिक एकीकरण, समान रूपरेखा वाले उद्यमों के साथ योजनागत रूप से मेलजोल बनाना, नामुनासिब प्रतिस्पर्धा से परहेज़, क्षेत्रीय सहयोग का विस्तार और गहरा करना और नए बाज़ारों में साझा विस्तार जैसे उपाय शामिल हैं. 11 मार्च को एलेक्ज़ेंडर लुकाशेंको और ब्लादिमीर पुतिन ने मॉस्को में हुई बैठक में इन योजनाओं की पुष्टि कर दी. 

सितंबर 2021 में बेलारूस और रूस की सरकारों के प्रमुखों के बीच प्रतिबंधों पर साझा रुख़ को लेकर पहले ही सहमति बन चुकी थी. ये पूरी क़वायद संघ राज्य, स्वतंत्र राज्यों के राष्ट्रमंडल (CIS) और यूरेशियाई आर्थिक संघ (EAEU) के भीतर एकीकरण की प्रक्रिया के और गहरे होने और उनमें सामंजस्य बिठाने पर आधारित है. इसके तहत यूरेशिया की व्यापक भागीदारी के निर्माण और अटलांटिक से प्रशांत महासागर तक एक आर्थिक क्षेत्र के गठन की क़वायद शामिल है. 

रूस और बेलारूस के बीच क़रीबी तालमेल का माहौल है. ऐसे में संघ राज्य के ढांचे के भीतर “एशिया को धुरी बनाने” की नीति के तहत अहम आर्थिक कारकों के बढ़ते तालमेल से एक संघ के निर्माण को रफ़्तार मिल सकती है.

रूस और बेलारूस के बीच क़रीबी तालमेल का माहौल है. ऐसे में संघ राज्य के ढांचे के भीतर “एशिया को धुरी बनाने” की नीति के तहत अहम आर्थिक कारकों के बढ़ते तालमेल से एक संघ के निर्माण को रफ़्तार मिल सकती है. ये पश्चिमी प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ एक औज़ार बन सकता है.

आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि “एशिया को धुरी बनाने” की रूस की नीति ने 2013 में ढांचागत तरीके से और सही मायनों में आकार लिया था. एशिया-प्रशांत क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाओं के तेज़ी से बढ़ते विकास से फ़ायदा उठाने की ज़रूरत के चलते इसे आधिकारिक तौर पर जायज़ ठहराया गया था. इस नीति के तहत रूस न सिर्फ़ यहां के देशों के साथ रिश्तों को बल दे रहा है बल्कि इन देशों द्वारा मुहैया कराए जा रहे संसाधनों के इस्तेमाल से अपने सुदूर पूर्व और साइबेरिया के इलाक़ों की सामाजिक आर्थिक समस्याओं के समाधान की भी कोशिशें कर रहा है.

   

यूरेशियाई आर्थिक संघ को “वन बेल्ट, वन रोड” की चीनी पहल के साथ जोड़कर “एशिया को धुरी बनाने” से जुड़ी साझा क़वायद के तौर पर शुरू करना आगे के लिए एक उपाय हो सकता है. मई 2021 में सर्वोच्च यूरेशियाई आर्थिक परिषद की बैठक में बेलारूस के राष्ट्रपति एलेक्ज़ेंडर लुकाशेंको ने पहली बार इस विचार का प्रस्ताव रखा था. उन्होंने इस दिशा में काम में तेज़ी लाने और इसपर अमल की गुज़ारिश भी की थी.

एक बार फिर “मेज़ेन्तसेव फ़ॉर्मूला” पर ग़ौर करें तो ये स्वाभाविक है कि प्रस्तावित तालमेल वाले रुख से संघ राज्य में साझा प्रयासों और संसाधनों का कुछ निश्चित भौगोलिक दिशाओं में केंद्रीकरण होगा. इससे नए बाज़ार समूहों के साझा विकास के लिए निश्चित तौर पर नए अवसर पैदा होंगे. इनमें एशिया-प्रशांत का इलाक़ा भी शामिल है. 

हालांकि, बेलारूस की विदेश नीति के तहत एशियाई हितों को बढ़ावा देने की क़वायद को पश्चिमी जगत में हमारे पारंपरिक राष्ट्रीय हितों को अंतिम और अपरिवर्तनीय रूप से नामंज़ूर किए जाने के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. इस सिलसिले में ऐसी एहतियात ज़रूरी है. हालांकि, हाल के वर्षों में पश्चिमी जगत के साथ ऐसी क़वायदों में आमूलचूल रूप से यथार्थवादी दृष्टिकोण आ गया है. वैसे फ़िलहाल इस पर विराम लग गया है.

 

बहरहाल बेलारूस और रूस के संघ राज्य की पश्चिमी सरहद पर उभरते नए “लोहे की दीवारों” से हमारे देशों के समाज, राज्यसत्ता और कारोबार के एकजुट होने का बेहतरीन अवसर हासिल हो रहा है. इसके ज़रिए वो भविष्य को लेकर अपना प्रामाणिक दृष्टिकोण तैयार कर सकते हैं. साथ ही एक राष्ट्रीय विचार प्रस्तुत कर सकते हैं. कुल मिलाकर इनकी बुनियाद पर एक नई अर्थव्यवस्था और जीवन शैली खड़ी करने की प्रक्रिया की शुरुआत कर सकते हैं.

प्रतिबंधों से जुड़े तमाम पेचों और घुमावों के बीच बेलारूस की प्राथमिकता है यूक्रेन में शत्रुतापूर्ण कार्रवाइयों पर विराम लगाने के लिए सक्रिय रूप से मदद पहुंचाना. इसके बाद चरणबद्ध रूप से शांति स्थापना, संकट का निपटारा और हालात में स्थिरता से जुड़ी क़वायदों की बारी आती है.

मौजूदा हालात की तमाम बारीक़ियों, पेचीदगियों और अनिश्चितताओं के बीच अपना अस्तित्व सुनिश्चित करने का बेहतरीन समाधान है- दूसरे एशियाई देशों के साथ जुड़ावों और कामकाज में और गहराई लाना. हालांकि, इस सिलसिले में एक अन्य अतिवादी हालात में फंसने से परहेज़ करना भी अहम हो जाता है. वो हालात है- पश्चिम के साथ रिश्तों में आई टूट के अंजामों से निपटने के लिए पूर्व पर उसी तरह की निर्भरता वाली स्थिति में फंस जाना. बहरहाल सामरिक रूप से सबसे टिकाऊ उपाय है रूस के साथ भाईचारा रखने वाले पूर्व सोवियत संघ के देशों के समर्थन वाला एक संतुलित और आत्मनिर्भर विकास.

फ़िलहाल, प्रतिबंधों से जुड़े तमाम पेचों और घुमावों के बीच बेलारूस की प्राथमिकता है यूक्रेन में शत्रुतापूर्ण कार्रवाइयों पर विराम लगाने के लिए सक्रिय रूप से मदद पहुंचाना. इसके बाद चरणबद्ध रूप से शांति स्थापना, संकट का निपटारा और हालात में स्थिरता से जुड़ी क़वायदों की बारी आती है. बेशक़ इस दिशा में कोई भी उपलब्धि हासिल करना बेहद कठिन साबित होने वाला है. इस प्रक्रिया में वक़्त लगने वाला है. इसके लिए सभी किरदारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति और गहरी सियासी सूझबूझ की दरकार होगी. 

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