Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत के “संतुलन साधने वाले रवैये” का नतीजा क्या होगा और चीन के संबंध में भारत के सुरक्षा और भू-राजनीतिक हितों पर इसका क्या असर पड़ेगा?

यूक्रेन संकट पर भारत का रुख़ उसके ‘विदेशी’ संबंधों पर किस तरह से असर डालेगा?
यूक्रेन संकट पर भारत का रुख़ उसके ‘विदेशी’ संबंधों पर किस तरह से असर डालेगा?

क्या यूक्रेन संकट के जवाब में भारत का जवाब ढुलमुल है? शायद नहीं. अगर भारत साफ़ तौर पर किसी भी पक्ष का साथ देता तो उसे अस्वीकृति का सामना करना पड़ता. लेकिन एक उभरती शक्ति के तौर पर भारत की न्यूनतम उम्मीदों के साथ संघर्ष करना परेशानी पैदा करने वाला है. पहले से हटकर आज के समय में संकट के इर्द-गिर्द कूटनीति को तय करने में भारत की भूमिका ज़्यादा हो गई है. उदाहरण के तौर पर, 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर तत्कालीन सोवियत संघ की चढ़ाई का जनता पार्टी के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने सार्वजनिक रूप से समर्थन किया था जबकि इस क़दम से नाराज़ इंदिरा गांधी ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़े के ख़िलाफ़ एक क्षेत्रीय रणनीति की मांग की थी. लेकिन दोनों में से किसी भी रुख़ की वजह से सोवियत सरकार के व्यवहार में बदलाव नहीं आया. 

रूस ने भारत की मांग पर ध्यान देते हुए क़रीब 22,500 भारतीय नागरिकों (यूक्रेन में पढ़ाई कर रहे अंतर्राष्ट्रीय छात्रों में 24 प्रतिशत भारतीय थे) को वापस भेजने में मदद की. दुनिया ने ख़ामोशी से इस संकट को लेकर भारत के कूटनीतिक और साजो-सामान से युक्त जवाब को स्वीकार किया.

आज अर्थव्यवस्था के मामले में भारत के क़रीब आधे आकार वाले रूस के लिए ये मुश्किल होता कि वो यूक्रेन में फंसे भारत के नागरिकों को बाहर निकालने के लिए मानवीय कॉरिडोर बनाने की भारत की मांग को नज़रअंदाज़ कर देता. रूस ने भारत की मांग पर ध्यान देते हुए क़रीब 22,500 भारतीय नागरिकों (यूक्रेन में पढ़ाई कर रहे अंतर्राष्ट्रीय छात्रों में 24 प्रतिशत भारतीय थे) को वापस भेजने में मदद की. दुनिया ने ख़ामोशी से इस संकट को लेकर भारत के कूटनीतिक और साजो-सामान से युक्त जवाब को स्वीकार किया. अब जब कि भारतीय छात्र सुरक्षित तरीक़े से वापस अपने देश आ गए हैं तो भारतीय कूटनीति के इस दौर ने अपना सफ़र पूरा कर लिया है. 

भारत की कूटनीति इस मुकाम तक कैसे पहुंची? 

भारत एक ही समय पर रूस और यूक्रेन- दोनों देशों की तरफ़ झुक नहीं सकता था, इसलिए उसने तटस्थ रहने की कोशिश की. 24 फरवरी को रूस के राष्ट्रपति पुतिन और 26 फरवरी को यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की से प्रधानमंत्री मोदी ने फ़ोन पर बातचीत के दौरान “संवाद,” “हिंसा ख़त्म करने,” और भारतीय नागरिकों की “सुरक्षा” और उनको “सुरक्षित बाहर निकालने और वापसी” की बात की. विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने भी 25 फरवरी को मीडिया से बातचीत में इन्हीं बातों को दोहराया. 

इसके बाद भारत ने अपने रवैये में बदलाव करते हुए “संयुक्त राष्ट्र के चार्टर”, “अंतर्राष्ट्रीय क़ानून”, और “अलग-अलग देशों की संप्रभुता एवं प्रादेशिक अखंडता” की तरफ़ ध्यान दिलाया. 7 मार्च को पुतिन के साथ अपन बातचीत में मोदी ने “संघर्ष को ख़त्म करने” की अपनी मांग को दोहराया और भारतीय छात्रों की सुरक्षा को लेकर “गहरी चिंता” जताई. इसके विपरीत उसी दिन ज़ेलेंस्की से फ़ोन पर बातचीत के दौरान मोदी ने “हिंसा ख़त्म करने” की मांग की और भारतीयों की सुरक्षित वापसी में यूक्रेन की मदद के लिए ज़ेलेंस्की का शुक्रिया अदा किया. 

यूक्रेन की तरफ़ थोड़ा झुकने के बावजूद भारत ने अपने “स्वतंत्र” रवैये को लेकर रूस का समर्थन हासिल किया, वहीं दूसरी तरफ़ भारत की स्थिति में “नियमित बदलाव” को लेकर अमेरिका की स्वीकृति भी हासिल की.

यूक्रेन की तरफ़ थोड़ा झुकने के बावजूद भारत ने अपने “स्वतंत्र” रवैये को लेकर रूस का समर्थन हासिल किया, वहीं दूसरी तरफ़ भारत की स्थिति में “नियमित बदलाव” को लेकर अमेरिका की स्वीकृति भी हासिल की. इसके अलावा अमेरिका ने रूस के साथ भारत के संबंधों को “अलग” और “बिल्कुल ठीक” माना. अमेरिका के विदेशी विभाग ने एक केबल (दूतावास और विदेश मंत्रालय के बीच कूटनीतिक संदेशों का आदान-प्रदान) को भी याद किया जिसमें अमेरिकी राजनयिकों से कहा गया था कि वो अपने भारतीय और अमीराती समकक्षों की इस बात के लिए आलोचना करें कि उनके देश ने यूक्रेन के मुद्दे पर तटस्थ रवैया अपनाया है और ऐसा करके उन्होंने ख़ुद को “रूस के खेमे में” डाल लिया है.  

भारत के रुख़ को लेकर नकारात्मक नज़रिए के बावजूद अमेरिका में भारत के पक्ष में काफ़ी ज़्यादा मीडिया समर्थन भी था. न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा कि भारत को “भू-सामरिक विचारों का ध्यान रखने की ज़रूरत होगी, ख़ास तौर पर चीन के साथ संबंधों के मामले में,” वहीं फॉरेन पॉलिसी मैगज़ीन ने भारत की “मुश्किल कूटनीतिक स्थिति” के साथ सहानुभूति जताई. अमेरिकी न्यूज़ एजेंसी एसोसिएटेड प्रेस (एपी) ने लिखा कि भारत “रूस के हथियारों पर अपनी निर्भरता कम कर रहा है और अपनी रक्षा ख़रीद का दायरा बढ़ा रहा है.”

यूक्रेन युद्ध ने रूस के साथ भारत के संबंधों को जटिल बनाया 

स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक़ 2017-2021 के बीच भारत के रक्षा आयात में रूस का हिस्सा 46 प्रतिशत था जबकि रूस के रक्षा निर्यात का 28 प्रतिशत हिस्सा भारत ने ख़रीदा. आर्थिक प्रतिबंधों के बिना भी रूस अपने हथियारों के एक बड़े हिस्से का निर्यात करने के बदले उसे यूक्रेन युद्ध में लगाएगा. ऐसे में भारत के लिए रूस के हथियारों की ख़रीद करना मुश्किल हो जाएगा. ख़बरों के मुताबिक रूस ने हथियारों की अपनी कमी को दूर करने के लिए चीन से सैन्य साजो-सामान की मदद मांगी है. अगर रूस की तरफ़ से भारत को हथियारों की आपूर्ति और तकनीक का ट्रांसफर रुक गया और इसके  बदले पश्चिमी देशों से आपूर्ति नहीं हुई तो चीन का जवाब देने के लिए तथाकथित गुटबंदी ख़तरे में पड़ जाएगी. 

भारत के रुख़ का स्वागत करने में रूस ने सिर्फ़ एक बयान जारी किया. रूस के साथ अपने संबंधों को भारत बहुत ज़्यादा महत्व देता है लेकिन क्या रूस भी इतना ही महत्व देता है? 

हम अक्सर रूस के साथ भारत के ऐतिहासिक रक्षा संबंधों की चर्चा करते हैं. लेकिन विरासत के मसले तथ्यों की बुनियाद पर कोरी हवाबाज़ी की तरह हैं. उदाहरण के लिए 1971 में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत के युद्ध के दौरान सोवियत संघ ने भारत नहीं बल्कि अपने हितों के मुताबिक़ काम किया और शुरुआत में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध के भारत के फ़ैसले का समर्थन नहीं किया था. पूर्व राजनयिक और लेखक चंद्रशेखर दासगुप्ता कहते हैं कि सोवियत संघ ने “शिमला शिखर सम्मेलन के बाद तक हथियारों के लिए भारत के अनुरोध पर सकारात्मक जवाब नहीं दिया” ताकि कश्मीर में भारत आगे नहीं बढ़ सके. चूंकि सोवियत संघ और अमेरिका के हित मिल रहे थे, ऐसे में भारत ने पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तान की हार के बाद युद्धविराम का एलान कर युद्ध ख़त्म कर दिया. 

क्या यूक्रेन के मुद्दे पर रूस भारत की सलाह पर ध्यान देगा? युद्ध में भारत की मध्यस्थता और शांतिपूर्ण समाधान हासिल करने की भारत की पेशकश का अमेरिका और यूक्रेन ने समर्थन किया लेकिन रूस ने नहीं. भारत के रुख़ का स्वागत करने में रूस ने सिर्फ़ एक बयान जारी किया. रूस के साथ अपने संबंधों को भारत बहुत ज़्यादा महत्व देता है लेकिन क्या रूस भी इतना ही महत्व देता है? 

अमेरिका का ध्यान अपने हितों पर 

रूस के ख़िलाफ़ अमेरिका की आर्थिक पाबंदी से भारत को रूस की रक्षा आपूर्ति में रुकावट आएगी. आर्थिक प्रतिबंधों के कारण रूस की तरफ़ से एस-400 मिसाइल के निर्यात, अकुला क्लास पनडुब्बी को लीज़ पर देने, ए-203 राइफल के उत्पादन, और भारत के द्वारा ब्रह्मोस मिसाइल का निर्यात जोख़िम में पड़ जाएगा. विदेश सचिव श्रृंगला ने कहा “आर्थिक प्रतिबंधों का हमारे मौजूदा संबंधों पर असर पड़ेगा” लेकिन उन्होंने ये भी जोड़ा कि कैसे असर पड़ेगा, ये बताना अभी जल्दबाज़ी होगी. आर्थिक प्रतिबंधों पर नज़र रखने के लिए अमेरिकी विदेश विभाग में राष्ट्रपति बाइडेन के प्रतिनिधि जेम्स ओ ब्रायन ने कहा कि, आर्थिक प्रतिबंधों के ज़रिए अमेरिका के विरोधियों का जवाब देने के क़ानून (काटसा या सीएएटीएसए) के तहत भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने में अमेरिका को “भू-सामरिक कारणों ख़ास तौर पर चीन के साथ संबंधों” पर विचार करने की ज़रूरत पड़ेगी. लेकिन उनका ये बयान युद्ध से पहले का है, अब भविष्य में क्या होगा ये हम नहीं जानते.  

अगर अमेरिका ने निर्दयता से आर्थिक प्रतिबंधों को लागू किया तो चीन पर रूस की निर्भरता में बढ़ोतरी होगी और ऐसा होने पर रूस और भारत के साथ अमेरिका के संबंध कमज़ोर होंगे.

अमेरिका की तरफ़ से भारत को रक्षा निर्यात में बढ़ोतरी को देखते हुए शायद आर्थिक प्रतिबंधों में देरी होगी. 2008 में भारत को अमेरिकी रक्षा निर्यात बेहद मामूली था लेकिन 2019 में ये बढ़कर 15 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया. 2017-2021 के बीच 12 प्रतिशत बाज़ार भागीदारी के साथ अमेरिका भारत के लिए तीसरा सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता है. इसके अलावा अगर अमेरिका ने निर्दयता से आर्थिक प्रतिबंधों को लागू किया तो चीन पर रूस की निर्भरता में बढ़ोतरी होगी और ऐसा होने पर रूस और भारत के साथ अमेरिका के संबंध कमज़ोर होंगे. अमेरिका के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ जॉन मीरशीमर ने कहा कि, “हमें चीन से निपटने के लिए यूरोप के बाहर आना चाहिए. चीन के ख़िलाफ़ हमारे गठबंधन में रूस भी एक हिस्सा है.”

चीन पहुंचेगा शिखर पर? 

ऑस्ट्रेलियन स्ट्रैटजिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल शूब्रिज ज़ोर देकर कहते हैं, “पुतिन और शी जिनपिंग की हरकतों की वजह से यूरोप और इंडो-पैसिफिक अब एक ही सामरिक प्रणाली हैं.” इंडो-पैसिफिक से हटकर यूरोप की तरफ़ अमेरिका का ध्यान चीन का सामना कर रहे भारत के लिए जोख़िम भरा है. रूस के कमज़ोर होने से अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति खोखली होगी. एस-400 मिसाइल समझौते पर पाबंदी लगाने से भारत को चीन का मुक़ाबला करने में कैसे मदद मिलेगी? चीन दक्षिणी चीन सागर या फिर भारत के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भी उकसावे वाली कार्रवाई कर सकता है. 

4 फरवरी को अपने साझा बयान में चीन और रूस ने संकल्प किया कि “विदेशी ताक़तों के द्वारा उनके साझा आस-पास के क्षेत्रों में सुरक्षा और स्थायित्व को कमज़ोर करने की कोशिशों” का मुक़ाबला किया जाएगा. इसका अर्थ ताइवान और यूक्रेन के संदर्भ में था. यूक्रेन पर हमले के लिए भले ही चीन रूस को बढ़ावा नहीं दे रहा था लेकिन हो सकता है कि उसने रूस के क़दम को लेकर सहमति जताई होगी. भारत जिस तरह का बहुध्रुवीय विश्व चाहता है, उसको चीन पर रूस की आर्थिक निर्भरता खोख़ला करती है. अमेरिका और रूस के आगे शक्तियों के बिख़राव की बात कहना तो आसान है लेकिन करना मुश्किल. 

भारत जिस तरह का बहुध्रुवीय विश्व चाहता है, उसको चीन पर रूस की आर्थिक निर्भरता खोख़ला करती है. अमेरिका और रूस के आगे शक्तियों के बिख़राव की बात कहना तो आसान है लेकिन करना मुश्किल.

भारत सिर्फ़ अपने हितों की परवाह कर सकता है और ये निरंतर वास्तविकता और चेतावनी है. आने वाले समय में चीन की तरफ़ से न सिर्फ़ ताइवान बल्कि लद्दाख में भी ज़्यादा दबाव का सामना करना पड़ सकता है. कुछ लोगों का कहना है कि यूक्रेन युद्ध से सबक़ लेते हुए चीन भविष्य में मौक़ा देखकर पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर को स्वतंत्र देश घोषित कर सकता है. ऐसे में भारत को रणनीति और साधनों के मामले में आत्ममंथन करने की ज़रूरत है. जैसे-जैसे हिमालय की बर्फ़ पिघलेगी, वैसे-वैसे भारत को बड़े पैमाने पर जवाब देने के लिए क़दम उठाना होगा. भारत को चीन पर दबाव बनाने के लिए रूस को लगातार अपने पाले में रखना होगा. साथ ही चीन के ख़िलाफ़ साझेदार के रूप में अमेरिका को भी अपनी तरफ़ करना होगा. 

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