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ये ज़रूरी है कि रूस और जर्मनी लगातार बिगड़ते संबंधों को दुरुस्त करने के लिए क़दम उठाएं. ऐसे कई क्षेत्र हैं, जिनमें दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने के अवसर हैं. तमाम चुनौतियों के बावजूद दोनों देशों को चाहिए कि वो व्यवहारिक संबंधों का सिलसिला बनाए रखें.
अक्टूबर में यूरोपीय संघ (EU) ने रूस के विपक्षी नेता एलेक्सी नावलनी को ज़हर देने के मामले में वहां के छह अधिकारियों पर प्रतिबंध लगा दिए. इन रूसी अधिकारियों के यूरोपीय संघ की यात्रा करने पर पाबंदी और संपत्तियां ज़ब्त करने की पहल फ्रांस और जर्मनी ने की थी. इससे कुछ दिन पहले ही ऑर्गेनाइज़ेशन फ़र द प्रोहिबिशन ऑफ़ केमिकल वेपन्स (OPCW) ने इस बात की पुष्टि की थी कि नावलनी के ख़ून से लिए गए नमूनों में प्रतिबंधित केमिकल नोविचोक के कण पाए गए थे. इससे नावलनी को ज़हर देना केमिकल वेपन्स कन्वेंशन के उल्लंघन का मामला बन गया. इससे पहले जर्मनी, फ्रांस और स्वीडन की प्रयोगशालाएं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंची थीं. 20 अगस्त को एक विमान यात्रा के दौरान बीमार पड़ने के तीन दिन बाद, नावलनी को इलाज के लिए बर्लिन लाया गया था.
रूस ने नावलनी को ज़हर देने के आरोप का उच्च स्तर पर विरोध किया है. ख़ुद राष्ट्रपति पुतिन ने इस मामले की संयुक्त जांच का प्रस्ताव रखा था.
यूरोपीय संघ ने रूसी अधिकारियों पर ये प्रतिबंध, रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव की सख़्त चेतावनी के बाद भी लगाए, जिसमें लावरोव ने कहा था कि अगर यूरोपीय संघ ये प्रतिबंध लगाता है, तो रूस EU के साथ अपने संबंधों को ठंडे बस्ते में डाल देगा. रूस ने नावलनी को ज़हर देने के आरोप का उच्च स्तर पर विरोध किया है. ख़ुद राष्ट्रपति पुतिन ने इस मामले की संयुक्त जांच का प्रस्ताव रखा था.
नावलनी को ज़हर देने के मामले में, जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल पर रूस के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाने का दबाव बन रहा था. ख़ुद मर्केल ने रूस से इस मामले में तब स्पष्टीकरण मांगा था, जब वो रूस को बड़ा संकेत देते हुए नावलनी को देखने अस्पताल पहुंची थीं. इसके साथ रूस पर प्रतिबंध की हालिया चर्चा से ये सवाल उठ रहे हैं कि इन बातों का रूस और जर्मनी के संबंधों पर कैसा असर पड़ेगा, क्योंकि ये संबंध यूरोप के साथ रूस के संवाद की अहम कड़ी हैं.
यूरोपीय संघ के इन प्रतिबंधों से कुछ रूसी अधिकारियों पर ही असर पड़ेगा. लेकिन, इससे रूस पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाई गई पाबंदियों का दायरा और बढ़ जाएगा. अमेरिका और यूरोपीय संघ ने यूक्रेन संकट, 2014 के MH14 विमान हादसे, 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में दख़लंदाज़ी और 2018 में ब्रिटेन में रूस के पूर्व एजेंट स्क्रिपाल को ज़हर देने के बाद रूस पर कई प्रतिबंध लगाए थे, जो अब तक जारी हैं. वास्तविकता ये है कि पूर्व रूसी जासूस सर्गेई स्क्रिपाल को दो संदिग्ध रूसी एजेंट्स द्वारा नोविचोक ज़हर देने के बाद ही, यूरोपीय संघ ने इस व्यवस्था की शुरुआत की थी, जिसके तहत ‘प्रतिबंधित हथियारों’ द्वारा रासायनिक हमले करने वालों पर पाबंदी लगाकर उन्हें दंडित किया जा सके, फिर चाहे वो किसी भी देश के हों.
रूसी नागरिकों और तमाम क्षेत्रों पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए इन तमाम प्रतिबंधों को रूस स्थायी और अवैध मानता है. इनसे रूस की विदेश नीति संबंधी व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया है. रूस को लेकर भविष्य की कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण, इन प्रतिबंधों की उपयोगिता पर भी सवाल उठे हैं. नावलनी को ज़हर देने के बाद, रूस के कुछ व्यक्तियों को निशाना बनाकर लगाई गई ये पाबंदियां, आरोपों और शिकायतों की उस लंबी सूची का हिस्सा बन गई हैं, जो पिछले एक दशक के दौरान यूरोप और रूस एक दूसरे से करते आए हैं.
इन प्रतिबंधों के असर को लेकर जो एक और चिंता जताई गई थी, वो थी नॉर्ड स्ट्रीम 2 को लेकर थी. नॉर्ड स्ट्रीम 2 जर्मनी और रूस को बाल्टिक सागर से होकर जोड़ने वाली एक पाइपलाइन है, जो पूरी होने के क़रीब है. वर्ष 2019 में EU-27 ने अपनी ज़रूरत की 44.7 प्रतिशत प्राकृतिक गैस का आयात रूस से किया था, जबकि तेल का आयात 28 प्रतिशत था.
पूर्व रूसी जासूस सर्गेई स्क्रिपाल को दो संदिग्ध रूसी एजेंट्स द्वारा नोविचोक ज़हर देने के बाद ही, यूरोपीय संघ ने इस व्यवस्था की शुरुआत की थी, जिसके तहत ‘प्रतिबंधित हथियारों’ द्वारा रासायनिक हमले करने वालों पर पाबंदी लगाकर उन्हें दंडित किया जा सके, फिर चाहे वो किसी भी देश के हों.
जहां तक जर्मनी की बात है, तो ये आंकड़े क्रमश: 31.5 और 40 प्रतिशत थे. रूस के नज़रिए से देखें, तो एशियाई बाज़ारों को उसके प्राकृतिक संसाधनों का निर्यात बढ़ा ज़रूर है, लेकिन आज भी यूरोप ही उसके लिए प्रमुख बाज़ार है. अमेरिका और यूरोपीय संघ के कुछ देश, लंबे समय से ये तर्क देते रहे हैं कि इस नई पाइपलाइन से रूस से गैस आयात पर यूरोप की निर्भरता और बढ़ जाएगी.
अब तक जर्मनी, रूस पर अत्यधिक निर्भरता की चिंताओं को ख़ारिज करता रहा है और ये कहता रहा है कि उसे नॉर्ड स्ट्रीम 2 से आने वाली गैस की ज़रूरत है, जिससे वो कम लागत में अपने यहां स्वच्छ ईंधन का उपयोग बढ़ा सके. जब नावलनी को ज़हर देने का मामला सामने आया था, तो पहली बार जर्मनी ने इशारा किया था कि वो नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन के भविष्य को लेकर चर्चा करने को तैयार है.
हालांकि, नॉर्ड स्ट्रीम 2 से होने वाले लाभ को देखते हुए, और इसका निर्माण अंतिम चरण में होने के कारण इस पाइपलाइन प्रोजेक्ट को रोकने का विकल्प, दोनों पक्षों के बीच एक अलोकप्रिय विकल्प है. इस बात को हम नॉर्ड स्ट्रीम 2 पर अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का दायरा बढ़ाने पर जर्मनी की प्रतिक्रिया से समझ सकते हैं. जर्मनी ने कहा था कि उसे अपने ऊर्जा आयात को लेकर स्वतंत्र रूप से फ़ैसले करने का हक़ है. रूस भी इस प्रोजेक्ट को लेकर प्रतिबद्ध है और कहता रहा है कि प्रतिबंधों के बावजूद वो पाइपलाइन का निर्माण पूरा करेगा. पुराने ट्रैक रिकॉर्ड और प्रोजेक्ट के काफ़ी आगे बढ़ जाने के कारण, नॉर्ड स्ट्रीम 2 प्रोजेक्ट बंद करने की आशंका कम ही है.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान यूरोपीय संघ और रूस के बीच तनाव बढ़ने के बावजूद, जर्मनी ने बार बार दोहराया है कि पाइपलाइ का प्रोजेक्ट जारी रहेगा. ये जर्मनी की उस कोशिश का हिस्सा है, जिसके तहत नॉर्ड स्ट्रीम 2 से जुड़े अपने आर्थिक और कारोबारी फ़ैसलों की प्रक्रिया को राजनीतिक घटनाक्रम से अलग रखना चाहता है. जर्मनी के साथ विशेष व्यापारिक और निवेश संबंधों के बारे में पुतिन भी यही कहते हैं कि ये संबंध दोनों देशों के राष्ट्रीय हितों के अनुकूल हैं.
इस बीच जैसे जैसे नावलनी को ज़हर देने की घटना के प्रभाव सामने आ रहे हैं, उनमें रूस और जर्मनी के संबंधों में लगातार गिरावट आने की बात से इनकार नहीं किया जा सकता है. सोवियत संघ के विघटन के बाद के दो दशकों के दौरान रूस और जर्मनी के संबंध काफ़ी अच्छे रहे थे. राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही मोर्चों पर रिश्तों का विकास हुआ था. लेकिन, पिछले एक दशक में दोनों ही पक्षों में असंतोष का माहौल बढ़ा है.
जहां तक रूस की बात है, तो यूक्रेन के संकट और रूस द्वारा क्रीमिया के अधिग्रहण से पहले ही, पश्चिमी देशों के साथ उसके संबंधों में दरार आने लगी थी. उसके बाद से ही यूरोपीय संघ के प्रति रूस में निराशा का माहौल बढ़ा है. इसके प्रमुख कारणों में, नैटो का पूरब की ओर विस्तार, पूर्व सोवियत गणराज्यों में लोकतांत्रिक क्रांतियां और मिसाइल डिफेंस को लेकर मतभेद शामिल हैं. सच तो ये है कि मौजूदा हालात में जर्मनी और यूरोपीय संघ दोनों की इस बात के लिए आलोचना होती रही है कि वो 2014 में यूक्रेन के साथ समझौते को लेकर रूस की प्रतिक्रिया का ‘पूर्वानुमान’ लगाने में असफल रहे थे. जबकि रूस अब ये मानने लगा है कि व्लादिवोस्टोक से लेकर पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन तक ग्रेटर यूरोप का उसका विज़न अब तार्किक नहीं रहा.
इन चुनौतियों के बावजूद विद्वान ये मानते हैं कि यूरोपीय संघ के अन्य देशों के उलट, जर्मनी अभी भी रूस के साथ अपने संबंध में एक संतुलन बनाकर चल रहा है. यूक्रेन के संकट के बाद, यूरोप की तरफ़ से एंजेला मर्केल ही थीं, जो लगातार पुतिन के संपर्क में रही थीं. जर्मनी ने समस्या के सैन्य समाधान का विकल्प अपनाने और रूस को दोबारा उकसाने के प्रस्ताव का विरोध करते हुए जर्मनी ने हमेशा ही मिंस्क युद्धविराम समझौते के लिए रूस के साथ वार्ता को तरज़ीह दी.
लेकिन, इसका अर्थ ये नहीं है कि जर्मनी की नीति पूरी तरह से अमेरिका और यूरोपीय संघ की रूस संबंधी नीति से अलग है, और जैसा कि पहले भी कहा गया कि वर्ष 2014 से ही जर्मनी, रूस के ऊपर लगाए गए कड़े प्रतिबंधों में भागीदार रहा है. ख़ास तौर से यूक्रेन संकट के बाद जर्मनी की नीति में बदलाव आया था, जब रूस के साथ क़रीबी आर्थिक संबंध के बावजूद, जर्मनी की सरकार ने अपने यहां की बिज़नेस लॉबी को रूस पर लगाए जा रहे कड़े प्रतिबंधों का समर्थन करने के लिए मना लिया था.
चूंकि जर्मनी, यूरोपीय संघ और अटलांटिक के आर-पार की गठबंधन व्यवस्था का अभिन्न अंग है, तो इस बात की संभावना कम ही है कि वो रूस के प्रति नरमी वाली अलग नीति पर चलेगा. ये परिस्थिति इस वजह से और भी पेचीदा हो गई है कि जर्मनी को रूस से कई शिकायतें हैं.
चूंकि जर्मनी, यूरोपीय संघ और अटलांटिक के आर-पार की गठबंधन व्यवस्था का अभिन्न अंग है, तो इस बात की संभावना कम ही है कि वो रूस के प्रति नरमी वाली अलग नीति पर चलेगा. ये परिस्थिति इस वजह से और भी पेचीदा हो गई है कि जर्मनी को रूस से कई शिकायतें हैं. जैसे कि जर्मनी ने 2015 में अपनी संसद की हैकिंग, फ़ेक़ न्यूज़ के ज़रिए अपने यहां अप्रवासियों के ख़िलाफ़ भावनाएं भड़काने और बर्लिन में एक पूर्व चेचेन बाग़ी कमांडर की हत्या के लिए रूस को ज़िम्मेदार ठहराया था. इन घटनाओं से जर्मनी और रूस के बीच अविश्वास और बढ़ा है. इन आरोपों से रूस के इनकार पर जर्मनी में किसी को विश्वास नहीं है.
इन सभी घटनाक्रमों को मिलाकर देखें, तो ऐसा लगता है कि रूस और यूरोपीय संघ के बीच बढ़ती दूरी का अर्थ ये है कि भले ही जर्मनी ने कूटनीतिक और वार्ता का विकल्प खुला रखा है, लेकिन अब वो यूरोप में रूस के वार्ताकार की विशेष भूमिका नहीं निभा रहा है.
अब जबकि जर्मनी रूस के साथ अपने संबंध में संतुलन बनाने में जुटा है और जैसे जैसे रूस अपनी नीतियों में बदलाव करके अपना ध्यान यूरेशिया पर केंद्रित कर रहा है, तो दोनों ही पक्षों की एक दूसरे से जो अपेक्षाएं हैं वो घट रह हैं. किसी भी पक्ष ने अपने उस रुख़ में बदलाव की इच्छाशक्ति नहीं ज़ाहिर की है, जिसके कारण हाल के वर्षों में दोनों देशों के संबंधों में एक ठहराव और एक दूसरे के मामलों में दख़लंदाज़ी के इल्ज़ाम लगते रहे हैं. ऐसे में नावलनी के हालिया मामले के दोनों देशों के बीच टकराव का एक और मुद्दा बनने की आशंका है, न कि इसे एक मौक़े की तरह इस्तेमाल करते हुए दोनों देशों अपने रुख़ में बदलाव लाने के आसार हैं, जिससे तनातनी का मौजूदा माहौल आगे भी जारी रहने की संभावना है.
विश्व व्यवस्था में अनिश्चितता को देखते हुए, ये ज़रूरी है कि रूस और जर्मनी अपने ख़राब होते संबंधों को सुधारने के लिए कुछ क़दम उठाएं. रूस और जर्मनी के बीच आपसी सहयोग के कई अवसर हैं, जिनके लिए दोनों देशों को चुनौतियों के बावजूद सहयोग के व्यवहारिक रास्ते पर चलना चाहिए. विशेष भूमिका निभाने की महत्वाकांक्षा के बजाय इसी ‘साझा हित’ साधने की कोशिश ही दोनों देशों के रिश्तों को नई दिशा देगी. इसका इशारा हाल ही में पुतिन ने वाल्दाई डिस्कशन क्लब में अपने बयान में किया था.
दोनों देशों के क़रीबी संबंधों का सबसे बड़ा कारक यहां दोनों देशों के आर्थिक और ऊर्जा संबंध हैं. वर्ष 2018 में जर्मनी, रूस का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार था. यूरोपीय संघ के सभी देशों में जर्मनी ही है, जो रूस के सामानों का सबसे बड़ा आयातक भी है और सबसे बड़ा निर्यातक भी है.
विश्व व्यवस्था में अनिश्चितता को देखते हुए, ये ज़रूरी है कि रूस और जर्मनी अपने ख़राब होते संबंधों को सुधारने के लिए कुछ क़दम उठाएं. रूस और जर्मनी के बीच आपसी सहयोग के कई अवसर हैं, जिनके लिए दोनों देशों को चुनौतियों के बावजूद सहयोग के व्यवहारिक रास्ते पर चलना चाहिए.
इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय और वैश्विक महत्व के कई ऐसे मामले हैं, जिनके लिए दोनों देशों के बीच नियमित कूटनीतिक संवाद की ज़रूरत है. यूक्रेन पर नॉर्मंडी फॉर्मूले के प्रमुख वार्ताकार होने के अलावा, ईरान के साथ परमाणु समझौते से अलग होने के अमेरिका के इकतरफ़ा फ़ैसले के बाद, इस समझौते को ज़िंदा रखने में भी रूस और जर्मनी के साझा हित हैं. यूरोप की स्थिरता में भी दोनों देशों के संबंधों की महत्वपूर्ण भूमिका है.
ये बातें रूस और जर्मनी के बीच सहयोग के विशिष्ट और अच्छी तरह से परिभाषित क्षेत्र तय करती हैं, जिनमें सहयोग से हालात को स्थिर बनाया जा सकता है. इससे रूस और जर्मनी के बीच अधिक सीमित, मुद्दों पर आधारित सहयोग होगा. दोनों पक्षों के बीच पूरी तरह से कूटनीतिक संवाद ख़त्म होने से बेहतर तो ये सीमित सहयोग होगा.
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Nivedita Kapoor is a Post-doctoral Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...
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