Published on Jun 23, 2021 Updated 0 Hours ago

श्रीलंका के इस क़दम ने आर्थिक और सुरक्षा के मोर्चे पर भारत की चिंताएं और बढ़ा दी हैं

श्रीलंका: कोलंबो पोर्ट सिटी को लेकर भारत की दो चिंताएं; सुरक्षा और कारोबार

श्रीलंका की संसद ने एक क़ानून पारित करके एक विकसित हो रहे विशेष आर्थिक क्षेत्र पर चीन को पूरा नियंत्रण दे दिया है. भारत के लिए दक्षिण के बंदरगाह हंबनतोता को लेकर चिंताएं पहले से ही थीं. अब श्रीलंका के इस क़दम ने आर्थिक और सुरक्षा के मोर्चे पर भारत की चिंताएं और बढ़ा दी हैं. सुरक्षा को लेकर तो भारत की आशंकाएं ज़ाहिर हैं. लेकिन इन प्रोजेक्ट से भारत को जो आर्थिक नुक़सान होंगे, वो जब तक स्पष्ट होंगे, तब तक शायद बहुत देर हो जाएगी. हां अगर भारत रोज़गार पैदा करने और स्कीइंग के प्रशिक्षण जैसे क़दम उठाए तो शायद इससे बचा जा सकता है.

225 सदस्यों वाली श्रीलंका की संसद ने पोर्ट सिटी बिल 148-59 वोट से पारित कर दिया. सत्ताधारी राजपक्षे सरकार ने ये बिल बदलकर पेश किया था, जिसमें बिल पास करने से पहले इसकी वैधानिक की ‘पड़ताल’ सुप्रीम कोर्ट ने की थी. श्रीलंका की इस प्रक्रिया से भारत जैसे देश भी सीख सकते हैं, जहां बिना कोर्ट की राय के पास किए गए क़ानून बरसों तक अदालतों में अटके रहते हैं और इससे क़ानून बनाने का मक़सद ही नाकाम हो जाता है.

अपने मौजूदा स्वरूप में कोलंबो पोर्ट सिटी इकॉनमिक कमीशन बिल, देश के राष्ट्रपति को ये अधिकार देता है कि वो विशेष आर्थिक क्षेत्र के प्रबंधन के लिए सिंगल विंडो मैनेजमेंट कर सकें. ये एसईज़ेड उस 269 हेक्टेयटर ज़मीन पर बना है, जो समुद्र को पाटकर तैयार की गई है. इसमें घरेलू और विदेशी, दोनों ही निवेशकों को टैक्स और शुल्क में भारी रियायतें दी गई हैं. सरकार ने एक राष्ट्रीय जनमत संग्रह या संसद के दो तिहाई बहुमत की शर्त पूरी किए बिना ये बिल पास करा लिया. जिसके बाद एसईज़ेड के प्रबंधन आयोग में विदेशियों को शामिल करने के राष्ट्रपति के अधिकार को लेकर कुछ चिंताएं जताई गईं.

अपने मौजूदा स्वरूप में कोलंबो पोर्ट सिटी इकॉनमिक कमीशन बिल, देश के राष्ट्रपति को ये अधिकार देता है कि वो विशेष आर्थिक क्षेत्र के प्रबंधन के लिए सिंगल विंडो मैनेजमेंट कर सकें.

कोलंबो पोर्ट सिटी की योजना पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे (2005-2015) के शासनकाल में बनाई गई थी. महिंदा राजपक्षे अभी देश के प्रधानमंत्री हैं. उनके भाई और मौजूदा राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के आलोचक कहते हैं कि इस बिल का असली मक़सद चीन को कोलंबो पोर्ट सिटी के प्रबंधन का हिस्सा बनाना था. भारत के नज़रिए से देखें तो ये क़ानून, इसके प्रावधान और इसके पीछे की नीयत, तीनों ही गोटाबाया राजपक्षे सरकार के उन तर्कों के ख़िलाफ़ हैं, जो उसने कोलंबो बंदरगाह के ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल के लिए भारत, जापान और श्रीलंका के बीच हुए त्रिपक्षीय समझौते को इकतरफ़ा तौर पर रद्द करने के लिए दिया था. राजपक्षे सरकार ने यही तर्क अमेरिका के साथ 48 करोड़ डॉलर के निवेश का मिलेनियम को-ऑपरेशन कॉरपोरेशन समझौता न करने के लिए भी दिए थे.

राजपक्षे बंधुओं को ईसीटी और एमसीसी के मुद्दे पूर्व प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे के नेतृत्व वाली दक्षिणपंथी उदारवादी सरकार से विरासत में मिले थे. विक्रमसिंघे सरकार ने अंतिम समझौते के बिना इन प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दे दी थी. राजपक्षे सरकार के लिए दोनों ही विकल्प खुले हुए थे. या तो वो इन प्रोजेक्ट पर आगे बढ़ते हुए आख़िरी समझौते करते, या फिर एक संप्रभु सरकार के किए हुए वादे से सिर्फ़ इसलिए मुकर जाते, क्योंकि ये प्रोजेक्ट चीन से नहीं जुड़े थे. श्रीलंका की सरकार अपने यहां एसईज़ेड स्थापित करने के लिए भारतीय दवा कंपनियों को कभी हां, कभी ना करती आई है. इससे भी कोई प्रोजेक्ट सिरे नहीं चढ़ सका.

शिकार और शिकारी की मिसाल

जिस तरह श्रीलंका ने ईसीटी-एमसीसी प्रोजेक्ट रद्द किए, उसी तर्ज पर राजपक्षे सरकार को सीपीसी को भी राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करके बंदरगाह शहर के प्रशासन में ‘विदेशियों’ के ख़िलाफ़ मज़बूती से खड़े होना चाहिए था. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. विपक्षी सांसदों ने इस बिल के ख़िलाफ़ वोट दिया, लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि, ‘इससे देश में विकास का नया दौर शुरू होगा.इसलिए हम चाहते हैं कि ये काम ठीक से हो.’

विपक्षी दलों का दोमुहांपन तो हंबनतोता के मसले पर भी ज़ाहिर हो गया था, जब यूनाइटेड नेशनल पार्टी के प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे ने अपनी पूर्ववर्ती राजपक्षे सरकार पर क़र्ज़ के बदले हिस्सेदारी का समझौता करके श्रीलंका की ज़मीन चीन को सौंपकर, देश को ‘चीन के क़र्ज़ के लदल’ में धकेलने का आरोप लगाया था. वहीं ख़ुद विक्रमसिंघे सरकार, हाइवे बनाने के लिए चीन से बड़े पैमाने पर क़र्ज़ ले रही थी. इस वक़्त का विपक्ष ‘समागी जना बलावेगाया’ भी पुराने गठबंधन से अलग हुआ गुट ही है. इसके नए नेता सजित प्रेमदासा हैं. लेकिन, विपक्षी गुट की नीतियों में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि अपने ही कारणों से बंटी हुई तमिल राजनीति और अप्रासंगिक हो चुकी मुख्यधारा की विपक्षी पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना को छोड़ दें, तो श्रीलंका का विपक्ष चीन को लेकर दोहरी नीति पर चलता दिख रहा है

पोर्ट सिटी/ क़ानून के आलोचक ये भी कहते हैं कि चीन ने श्रीलंका को हंबनतोता बंदरगाह के सालाना कारोबार और राजस्व को लेकर बेवक़ूफ़ बनाया था और असली आमदनी वैसी नहीं हुई, जिसका ख़्वाब दिखाया गया था. तीसरी दुनिया के देशों में चीन के ऐसे ही अन्य निवेशों के अनुभव को देखते हुए, इन आलोचकों को आशंका है कि कहीं पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट भी हंबनतोता की ही तरह ‘क़र्ज़ का दलदल’ न बन जाए.

रोज़गार और निवेश

सीपीसी के संशोधित बिल पर संसद में बहस की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री महिंदा ने अमेरिका द्वारा अगले पांच वर्षों में 15 अरब डॉलर के निवेश के वादे को दोहराया था. वहीं, सरकार के प्रतिनिधियों ने एक संसदीय समिति को बताया था कि एक स्थानीय निवेशक ने 10 करोड़ डॉलर का निवेश किया है. हालांकि, ये नहीं पता है कि उसका कोई विदेशी वित्तीय साझीदार है, और ऐसा कोई है तो वो कौन हो सकता है.

अगर सरकार ने भारत के साथ ईसीटी समझौता रद्द करने का कारण ताक़तवर श्रमिक संगठनों का कड़ा विरोध बताया था, तो ये भी कहा गया कि श्रमिक संगठन तभी पीछे हटे थे, जब उनसे पोर्ट सिटी के प्रस्ताव से बड़े पैमाने पर नई नौकरियां मिलने का वादा किया गया. संसद में अपने भाषण में महिंदा राजपक्षे ने सीपीसी प्रोजेक्ट से बड़े पैमाने पर नौकरियां पैदा होने की बात दोहराई थी. इनमें, प्रोजेक्ट निर्माण के दौरान दो लाख नौकरियां और 85 हज़ार कुशल, अर्ध कुशल और अकुशल लोगों को स्थायी नौकरी मिलने की बात कही गई थी. ये आंकड़े प्रभावशाली हैं, क्योंकि अन्य देशों में काम करने वाले उन श्रीलंकाई नागरिकों के स्वदेश लौटने की संभावना है, अगर वो महामारी के बाद भी नहीं लौटे हैं. इन अप्रवासी कामगारों के भेजे गए पैसे श्रीलंका के विदेशी निवेश का अहम हिस्सा हैं.

रोज़गार के ये आंकड़े पिछले साल नवंबर में पेश 2021 के बजट जैसे ही हैं. इससे ये पता लगता है कि श्रीलंका की सरकार की आर्थिक और युवाओं की उम्मीदें सबसे ज़्यादा सीपीसी पर टिकी हैं. लेकिन इसमें एक दिक़्क़त है. इस विधेयक के बारे में संसद में चर्चा करते हुए युवा मामलों के मंत्री नमल राजपक्षे ने युवाओं से कहा कि पोर्ट सिटी की नौकरियां पाने के लिए उन्हें, ‘ज़रूरी हुनर’ सीखना होगा. अगर ये पैमाना इस बात का इशारा था कि वहां की ज़्यादा वेतन वाली ऊंचे पदों की नौकरियां चीनी नागरिकों (या अन्य विदेशियों) को मिलेंगी, तो इसका ज़िक्र मंत्री ने नहीं किया.

पिछले एक दशक या इससे भी ज़्यादा समय से श्रीलंका में चीन ही सबसे बड़ा निवेशक रहा है. इसमें घरेलू कारोबारी भी शामिल हैं. अपनी आदत के मुताबिक़, चीनी निवेशक सारे उपकरण और कामगार अपने देश से लेकर आए. 

पिछले एक दशक या इससे भी ज़्यादा समय से श्रीलंका में चीन ही सबसे बड़ा निवेशक रहा है. इसमें घरेलू कारोबारी भी शामिल हैं. अपनी आदत के मुताबिक़, चीनी निवेशक सारे उपकरण और कामगार अपने देश से लेकर आए. इससे स्थानीय कंपनियों और नौकरी चाहने वालों को अपने ही देश के निर्माण और उससे होने वाली आमदनी में हिस्सा नहीं मिला. ये श्रीलंका की लगातार बिगड़ी आर्थिक हालत की एक बड़ी वजह है, जो कोरोना महामारी से और ख़राब हो गई है. अब शायद इसी कमी को पोर्ट सिटी समझौते से दुरुस्त करने की कोशिश की जा रही है.

मंत्री नमल ने जिन परेशानियों का ज़िक्र किया, उनका हवाला, प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे द्वारा वित्त मंत्री के रूप में पेश किए गए बजट 2021 के शुरुआती पैराग्राफ में भी है. इसमें युवाओं के कौशल प्रशिक्षण पर बहुत ज़ोर दिया गया है. लेकिन, इसमें केवल पोर्ट सिटी से ही रोज़गार मिलने की बात नहीं है. चीन के अलावा, इस क्षेत्र में एफडीआई लाने वाले अन्य देश श्रीलंका के कौशल विकास कार्यक्रम पर बारीक़ नज़र बनाए हुए होंगे, क्योंकि पिछले एक दशक के दौरान भारत की दो अलग अलग सरकारों द्वारा किए गए ऐसे ही वादों का मामूली हिस्सा तक पूरा नहीं हो सका. ये श्रीलंका के पोर्ट सिटी के अलावा अन्य प्रोजेक्ट को सिंगल विंडो से मंज़ूरी मिलने की प्रक्रिया का भी इम्तिहान होगा. इस मामले में भारत का प्रदर्शन भी निराशाजनक रहा है.

अगर सीपीसी वाक़ई चल पड़ता है, और ख़ासतौर से वादे के मुताबिक़ नौकरियां मिलती हैं. परिवारों और सरकार की आमदनी बढ़ती है, तो राजपक्षे परिवार देश की राजनीति और अगले चुनाव में अजेय हो जाएगा. ये बांग्लादेश और भारत के बीच ‘दोस्ताना मुक़ाबले’ से बिल्कुल अलग है, जहां बांग्लादेश आज दक्षिण एशिया में सबसे तेज़ी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था है.

क्या अभी भी ‘भारत पहले’ है?

पोर्ट सिटी विधेयक पास होने के दौरान, राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने चीन का नाम लिए बिना कहा था कि ‘किसी को भारत की सुरक्षा के लिए ख़तरा नहीं बनने दिया जाएगा’. टोक्यो के निक्केई फोरम 26वीं ‘द फ्यूचर ऑफ़ एशिया’ के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘हम भारत की सुरक्षा संबंधी चिंताओं और संवेदनाओं को समझते हैं.हम भारत और अन्य क्षेत्रीय साझीदारों के साथ मिलकर ये सुनिश्चित करेंगे कि हिंद महासागर सभी देशों के हित के लिए सुरक्षित बना रहे.’

गोटाबाया ने ये भी दोहराया कि श्रीलंका चीन के साथ आर्थिक संबंध मज़बूत करता रहेगा. उन्होंने हंबनटोटा प्रोजेक्ट का भी बचाव किया, जिसके लेन-देन के समझौते को एक वक़्त उन्होंने ही रद्द करने का प्रस्ताव रखा था. लेकिन, सत्ता में आने के बाद उन्होंने इसे एक ‘कारोबारी समझौता’ क़रार दिया था. अभी ये बात समझ से परे है कि श्रीलंका का विपक्षी गठबंधन SJB/UNP जो भविष्य में सत्ता में आने की उम्मीद रखता है, वो भी मोटे तौर पर यही नज़रिया रखता है. हालांकि, भारत की सुरक्षा के मसले पर उनका वादा कम से कम काग़ज़ पर तो राजपक्षे सरकार से भी खोखली लगती है. क्योंकि, जब मौजूदा विपक्ष सत्ता में था, तब भारत के सामने ऐसा कोई मुद्दा नहीं उठा था, जिससे उनके इस वादे को परखा जा सके.

राष्ट्रपति गोटाबाया का भारत की सुरक्षा को लेकर अपना वादा दोहराने को मालदीव, श्रीलंका और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की त्रिपक्षीय बैठक से जोड़कर देखा जा सकता है, जो पिछले साल दिसंबर में हुई थी. तब तीनों देशों ने ‘समुद्री सुरक्षा समझौते’ को और व्यापक बनाते हुए इसे समुद्री और सुरक्षा के समझौते में बदला था, जिसका सचिवालय कोलंबो तय हुआ था. इस समझौते का मतलब गोटाबाया के विदेश सचिव रिटायर्ड नौसेना एडमिरल जयंत कोलंबगे की उस नीति की शुरुआत था, जिसे अगस्त 2019 में उन्होंने ‘भारत प्रथम’ की विदेश एवं सुरक्षा नीति कहा था. लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि श्रीलंका द्वारा अपने आर्थिक और सुरक्षा हितों को ‘बार-बार बदलने’ से भारत की चिंताएं बढ़ गई हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.