Author : Renita D'souza

Published on Apr 02, 2024 Updated 0 Hours ago

शहरों में सस्ते किराए के मकानों की एक टूटी-फूटी और कमज़ोर व्यवस्था तो है. लेकिन, जो बाहर से जो सीज़नल मज़दूर आते हैं, उनके लिए किराए पर रहने की सुविधा का भारी अभाव है.

शहरों में सीज़नल अप्रवासी मज़दूरों के लिए किफायती दरों पर किराए के मकानों की सुविधा का सवाल

भारत में आर्थिक सुस्ती का दौर शुरू होने से पहले, यहां की अर्थव्यवस्था को दुनिया में सबसे तेज़ गति से बढ़ रही इकॉनमी कहा जाता था. लेकिन, तब भी भारत अपने देश के करोड़ों नागरिकों को कुछ बुनियादी सुविधाएं देने में असफल रहा था. इसमें आवास की सुविधा भी शामिल है. बल्कि सच तो ये है कि, वर्ष 2012 में आई बारहवीं योजना की टेक्निकल ग्रुप ऑन अर्बन हाउसिंग शॉर्टेज की रिपोर्ट (TG-12) के अनुसार, भारत के शहरों में क़रीब 1.87 करोड़ घरों की कमी है. आशंका इस बात की है कि वर्ष 2030 तक भारत के शहरों में क़रीब 3.8 करोड़ मकानों की कमी होगी. इसकी बड़ी वजह तेज़ी से बढ़ रही शहरों की आबादी है. कोविड-19 की महामारी के कारण शहरी इलाक़ों में रहने वाले अप्रवासी कामगारों को ग़रीबी, भुखमरी और रहने का ठिकाना न होने की समस्या के बोझ ने मार ही डाला.

शहरों में काम की तलाश में आने वाले बाहरी लोगों में सबसे ज़्यादा परेशानी उन लोगों को उठानी पड़ती है, जो कुछ ख़ास सीज़न में काम की तलाश में आते हैं. इन सीज़नल अप्रवासी मज़दूरों के लिए रिहाइश की तलाश करना हमेशा एक चुनौती बना रहता है. शहरों में रह रहे सीज़न अप्रवासी कामगारों के लिए ये समस्या कितनी व्यापक है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आजीविका ब्यूरो के मुताबिक़, शहरों में सीज़नल अप्रवासी मज़दूरों की संख्या लगभग 14 करोड़ है. इन अप्रवासी मज़दूरों की बड़ी संख्या, इमारतों के निर्माण, मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर और कृषि क्षेत्र में काम करती है.

शहरों में काम की तलाश में आने वाले बाहरी लोगों में सबसे ज़्यादा परेशानी उन लोगों को उठानी पड़ती है, जो कुछ ख़ास सीज़न में काम की तलाश में आते हैं. इन सीज़नल अप्रवासी मज़दूरों के लिए रिहाइश की तलाश करना हमेशा एक चुनौती बना रहता है.

हालांकि, कोविड-19 की महामारी के कारण बड़ी संख्या में अप्रवासी कामगारों को अपने मूल स्थानों की ओर लौटने को मजबूर होना पड़ा है. पर, चूंकि कृषि क्षेत्र में इतने अवसर नहीं हैं कि इन सभी हाथों को उसमें काम मिल सके. तो संभावना इस बात की ज़्यादा है कि देर-सबेर ये अप्रवासी मज़दूर एक बार फिर काम की तलाश में शहरों की ओर लौटेंगे. और असंगठिन क्षेत्र में काम करने वाले ये अप्रवासी मज़दूर, शहरों की इकॉनमी की रीढ़ हैं. क्योंकि ये अप्रवासी कामगार देश की अर्थव्यवस्था की खपत बढ़ाते हैं. उनकी कमाई से आमदनी बढ़ती है. और चूंकि कृषि क्षेत्र और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मौसम के हिसाब से खपत की घट-बढ़ होती रहती है. तो ये शहरी अप्रवासी मज़दूर ही हैं, जो अर्थव्यवस्था में खपत के स्थायी चक्र को चलाते हैं. अपने गांवों को लौट गए इन अप्रवासी मज़दूरों को वो लोग भी काम पर वापस आने के लिए मजबूर करेंगे, जिनसे इन कामगारों ने क़र्ज़ ले रखा है. या जिनकी मदद से ये शहरों में काम के मौक़े हासिल कर पाते हैं.

सीज़नल अप्रवासी मज़दूरों की आवास संबंधी समस्या को समझने के लिए ज़रूरी है कि हमें पहले हर सीज़न में ग्रामीण क्षेत्रों से रोज़गार की तलाश में आने वाले लोगों के समय चक्र को समझने की ज़रूरत है. ऐसे अप्रवासी मज़दूर कई बार कुछ दिनों के लिए काम करने शहर आते हैं, तो कई बार वो कुछ महीनों तक शहरों में रहकर काम करते हैं. या फिर एक साल में कई बार काम करने के लिए आते और जाते हैं. इसके अलावा सीज़नल अप्रवासी कामगारों को जिस तरह के काम शहरों में करने पड़ते हैं, वो भी सीज़न के हिसाब से बदलते हैं और अस्थायी क़िस्म के रोज़गार के अवसर होते हैं. आम तौर पर सीज़नल अप्रवासी कामगार असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. इसी कारण से उनकी आमदनी कम होती है. अनियमित होती है. और, उसमें काफ़ी अनिश्चितता भी होती है. न तो उनके रोज़गार की कोई गारंटी होती है और न ही उन्हें सामाजिक सुरक्षा का कोई आवरण हासिल हो पाता है.

ऐसे अप्रवासी कामगार अस्थायी बस्तियों में रहने को मजबूर होते हैं. जैसे कि झुग्गियों और मलिन बस्तियों में. कई बार तो इन्हें फुटपाथ, पार्क या अन्य खुले इलाक़ों पर बसर करने तक को मजबूर होना पड़ता है. इस वजह से वो अक्सर पुलिस के हाथों शोषण और ज़बरदस्ती अपने ठिकाने से निकाले जाने जैसी समस्याएं भी झेलते हैं. उनको पानी, बिजली, शौचालय और सीवेज प्रबंधन जैसी मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मिल पाती हैं. इस कारण से उनकी उत्पादकता और बेहतर स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है.

चूंकि उन्हें कभी कभार या सीज़नल तौर पर ही काम मिल पाता है. और  ऐसे में कम आमदनी होने के कारण वो केवल सस्ते रिहाइशी इलाक़ों में रहने का ख़र्च ही उठा सकते हैं. तो उनके लिए ऐसी आवासीय सुविधाएं विकसित करने की ज़रूरत है, जो सस्ती हों और किराए पर आसानी से मिल जाएं. और जो सबसे अधिक चिंता की बात है, वो ये कि सस्ती दरों पर किराए के मकानों की सुविधा है तो, मगर ये पूरा सिस्टम इतना कमज़ोर और टूटा-फूटा है कि वो कभी कभार काम के लिए शहर आने वालों के काम आ ही नहीं सकता. क्योंकि, उनकी रिहाइशी ज़रूरते अलग तरह की होती है. ऐसे में जो किराए के आवास शहरों में आम तौर पर उपलब्ध होते हैं, उनसे इन सीज़नल अप्रवासी कामगारों का भला नहीं हो सकता है.

आरुषा होम्स प्राइवेट लिमिटेड, काफ़ी समय से कम आमदनी वाले अप्रवासी मज़दूरों को सस्ती दरों पर किराए की आवासीय सुविधा उपलब्ध कराती रही है. जिससे कि वो शहरों में काम करने के दौरान सम्मानजनक तरीक़े से ज़िंदगी बसर कर सकें.

मौसमी अप्रवासी मज़दूरों को किराए पर आवास की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए सघन प्रयासों का अभाव रहा है. लेकिन, छोटे मोटे स्तर पर ये कोशिशें होती देखी गई हैं. ऐसी ही एक पहल का यहां ज़िक्र करना बनता है. आरुषा होम्स प्राइवेट लिमिटेड, काफ़ी समय से कम आमदनी वाले अप्रवासी मज़दूरों को सस्ती दरों पर किराए की आवासीय सुविधा उपलब्ध कराती रही है. जिससे कि वो शहरों में काम करने के दौरान सम्मानजनक तरीक़े से ज़िंदगी बसर कर सकें. इस पहल ने मज़दूरों को ये सुविधा दी है कि वो घर ख़ाली करते हुए पूरा किराया एक साथ दे दें. या अपनी सुविधा के अनुसार किराए का भुगतान करें. इसके लिए कंपनी ने किराया अदा करने की अलग-अलग स्कीम चला रखी हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वालों की ज़रूरतों और किराया दे पाने की क्षमताओं को ध्यान में रख कर तैयार की गई हैं. इनके माध्यम से अलग-अलग सामाजिक आर्थिक तबक़े से ताल्लुक़ रखने वालों को सस्ती दरों पर किराए की आवासीय सुविधा मुहैया कराई जाती है.

आरुषा होम्स को अपने इस काम के दौरान अक्सर कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. उसका मुनाफ़ा बेहद कम है. और कई बार तो उसके भी लाले पड़ जाते हैं. जिस तरह की सेवा आरुषा होम्स उपलब्ध करा रही है, उसकी चुनौतियों से इतर इस कंपनी को एक कारोबारी संस्था के तौर पर ही देखा जाता है. इसका असर ये होता है कि कंपनी को बिजली और पानी की क़ीमत ऊंची दरों पर अदा करनी पड़ती है. किराए के लिए ली जाने वाली इमारतों की भारी क़ीमत, कई बार तो उसकी तय क़ीमत कुल लागत का साठ प्रतिशत तक पहुंच जाती है. इसके अलावा मकान ख़ाली रहने का जोखिम भी कंपनी को उठाना पड़ता है. क्योंकि, वो सीज़नल अप्रवासी मज़दूरों को आवास उपलब्ध कराती है. और वो कभी भी आते जाते रहते हैं. इससे, कंपनी की आमदनी और मुनाफ़े पर काफ़ी बुरा असर पड़ता है. अगर कारोबार की शुरुआत में ही मुनाफ़े को चोट पहुंचने लगे, तो उससे किसी भी कारोबार के लंबे समय तक चलने की संभावनाएं अपने आप ही कम हो जाती हैं. अधिक लागत और कम मुनाफ़े का ये दुष्प्रभाव तब और बढ़ जाता है, जब कंपनी को वित्तीय संस्थाओं से सहयोग नहीं मिल पाता है. अब जबकि सरकार अपने स्तर पर सीज़नल अप्रवासी मज़दूरों की रिहाइश संबंधी दिक़्क़तों को दूर कर पाने में नाकाम रही है. ऐसे में सरकार को चाहिए कि वो आरुषा होम्स जैसी कंपनियों को हर तरह से मदद मुहैया कराने की कोशिश करे.

सरकार की आवासीय योजनाएं और सामाजिक आवासीय सुविधा प्रदान करने के प्रयास आज़ादी के बाद के ज़माने से ही बहुत सीमित स्तर पर काम करने के रहे हैं. अपनी योजनाओं के तहत, सरकार जिन लोगों को आवास उपलब्ध कराती है, उनसे ये अपेक्षा करती है कि वो इसकी लागत का बोझ ख़ुद उठाएं और उसके मालिक बन जाएं. बल्कि, सच तो ये है कि सरकार ने सस्ती दरों पर किराए के मकान उपलब्ध कराने के बाज़ार को विकसित होने से भी रोक रखा है. क्योंकि, सरकार की ओर से किराए संबंधी भयानक क़ानूनों को बिना किसी बदलाव के जारी रखा गया है. किराए पर क़ाबू पाने की मौजूदा व्यवस्था के चलते किराया कम है. और अक्सर मकान मालिकों को अपना मकान ख़ाली कराने के लिए काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है. और ये बड़ी वजह है कि आज भारत के बहुत से शहरों में सस्ती दरों पर किराए की आवासीय सुविधाओं उपलब्ध नहीं हैं. कोविड-19 के बाद पैदा हुए अप्रवासी कामगारों के संकट ने, भारत सरकार को उसकी इस नाकामी का एहसास कराया है कि वो सामाजिक तौर पर आसानी से हासिल हो सकने वाली रियायती आवासीय सुविधा, कामगारों को मुहैया करा पाने में असफल रही है. अब सरकार इस दिशा में कुछ क़दम उठा रही है.

भारत सरकार के आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने सस्ती दरों पर किराए के मकान (Affordable Rental Housing Complexes ARHC) उपलब्ध कराने की शुरुआत की है. ये सेवा सरकार प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) की उप-योजना के तौर पर देने की कोशिश कर रही है. इस योजना को दो मॉडल के माध्यम से लागू किया जा रहा है. पहले मॉडल के अंतर्गत सरकार की JNNURM योजना के अंतर्गत बनाए गए 1.8 लाख मकानों का इस्तेमाल अप्रवासी कामगारों को किराए पर देने के लिए किया जाएगा. इसके लिए या तो निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी की जाएगी. या फिर, सरकारी अधिकारियों के माध्यम से अप्रवासी मज़दूरों को ये मकान किराए पर दिए जाएंगे. दूसरे म़ॉडल के तहत, सरकार निजी या सरकारी कंपनियों के माध्यम से, अपने मालिकाना हक़ वाली ख़ाली ज़मीनों पर मकानों का निर्माण करेगी. फिर उन्हें किराए पर दिया जाएगा. इन मकानों के संचालन और रख-रखाव का ज़िम्मा निर्माण करने वाली सरकारी या निजी कंपनियों का ही होगा. इन शहरी आवासीय परिसरों को 25 साल बाद, संबंधित शहरी स्थानीय निकायों को सौंपना होगा.

भारत सरकार के आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने सस्ती दरों पर किराए के मकान (Affordable Rental Housing Complexes ARHC) उपलब्ध कराने की शुरुआत की है. ये सेवा सरकार प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) की उप-योजना के तौर पर देने की कोशिश कर रही है.

किराए के मकान वाले ये आवासीय परिसर एक बेडरूम और दो बेडरूम वाले होंगे. इनके साथ लिविंग रूम, किचन, बाथरूम और शौचालय भी होगा. इनका निर्माण 30 से 60 वर्ग मीटर कारपेट एरिया में होगा. इसके अलावा इन आवासीय परिसरों में छात्रावासों जैसी सुविधाओं का भी निर्माण होगा. जिनके रसोई घर, बाथरूम और शौचालय कॉमन होंगे.

सरकार की सस्ती दरों पर आवासीय परिसर (ARHC) बनाने की इस योजना की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि ये किराए की अलग-अलग दरों का बोझ उठा सकने वालों की ज़रूरतें पूरी कर पाती है या नहीं:

  • जैसे कि वैसे कामगार जो न्यूनतम बुनियादी ग़ैर आवासीय सामानों का उपभोग करने के बाद बची रक़म से किराए का भुगतान करने में सक्षम हों.
  • इसका एक आयाम ये भी है कि किन लोगों को संगठित क्षेत्र से क़र्ज़ मिल सकता है.
  • सस्ती दर पर मकान देने का एक अर्थ ये भी है कि शहरों के बाहर सस्ती दरों पर उपलब्ध ज़मीन की लागत वसूल हो सके. और साथ ही साथ वहां से सबसे क़रीबी रोज़गार स्थल जाने के लिए सस्ती दर पर परिवहन के माध्यम भी मुहैया कराए जाएं.
  • इन सस्ते मकानों में रहने वाले लोगों को पर्याप्त जगह, पानी की आपूर्ति, बिजली, साफ़-सफ़ाई की सुविधा, सीवेज मैनेजमेंट और पार्क जैसी खुली जगह की सुविधा भी मिल सके.
  • सरकार को एक ऐसी भूमिका निभानी होगी जिससे कि वो इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाले अन्य वर्गों की मददगार बन सके. और ऐसी संस्थाओं के साथ मिलकर व्यापक स्तर पर आवासीय सुविधाओं का विस्तार कर सके. जिससे, वो अप्रवासी कामगारों और ख़ास तौर पर मौसमी मज़दूरों को शहरों में रहने का सम्मानजनक ठिकाना उपलब्ध करा सके.

जहां तक ARHC जैसी सरकारी योजनाओं का सवाल है, तो ये एक सही दिशा में उठाया गया क़दम है. लेकिन, सिर्फ़ इस योजना से अप्रवासी मज़दूरों और ख़ास तौर से सीज़नल कामगारों की आवास संबंधी ज़रूरतें नहीं पूरी की जा सकतीं. सरकार को एक ऐसी भूमिका निभानी होगी जिससे कि वो इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाले अन्य वर्गों की मददगार बन सके. और ऐसी संस्थाओं के साथ मिलकर व्यापक स्तर पर आवासीय सुविधाओं का विस्तार कर सके. जिससे, वो अप्रवासी कामगारों और ख़ास तौर पर मौसमी मज़दूरों को शहरों में रहने का सम्मानजनक ठिकाना उपलब्ध करा सके. इस ज़रूरत से संबंधित इकोसिस्टम के सभी संभावित भागीदारों की समस्याओं और ज़रूरतों को समझने की आवश्यकता है. ज़रूरत इस बात की भी है कि, आवास संबंधी समस्या के सामाधान के लिए डिज़ाइन के स्तर पर टिकाऊ विकल्पों को बड़े पैमाने पर तलाशा जाए. ऐसा इकोसिस्टम विकसित करने के लिए एक संपूर्ण ब्लूप्रिंट तैयार करने की आवश्यकता है. इसके लिए सरकार को चाहिए कि वो अप्रवासी मज़दूरों और सीज़नल कामगारों के लिए सस्ती दरों पर किराए के मकान उपलब्ध कराने को लेकर संवाद की शुरुआत करे. इस मामले से जुड़े अन्य साझेदारों को प्रेरित करने के लिए सरकार को ये क़दम जल्द से जल्द उठाने की ज़रूरत है. तभी अप्रवासी और सीज़नल मज़दूरों के रहने की सुविधाओं के निर्माण की शुरुआत हो सकेगी.

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