Author : Sushant Sareen

Published on Feb 18, 2019 Updated 0 Hours ago

कई मायनों में, सुरक्षा बलों के कुछ सबसे भयावह डर सच हो गए हैं।

पुलवामा फ़िदायीन हमला: बेहद ख़तरनाक शुरुआत

कश्मीर घाटी को भारत के दूसरे हिस्सों से जोड़नेवाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर पुलवामा के पास सीआरपीएफ़ के क़ाफ़िले पर हुआ आत्मघाती हमला यक़ीनन भारतीय सुरक्षा बलों को निशाना बनाते हुए सबसे बड़ा जिहादी आतंकी हमला है। इस आर्टिकल को लिखते समय, हमले को लेकर तस्वीर पूरी तरह साफ़ नहीं है। हमले में इस्तेमाल किए गए विस्फोटक, हमले के लिए ज़िम्मेदार पाकिस्तानी आतंकी समूह जैश-ए-मोहम्मद, सुरक्षा में हुई चूक, क्या ये सोची-समझी साज़िश थी या फिर अचानक किया हुआ हमला, ये सभी बातें अब भी ज्ञात नहीं हैं।

शुरुआती रिपोर्टों के मुताबिक़ सीआरपीएफ़ जवानों को ले जा रही बस से जो कार टकराई उसमें 300 किलो से ज़्यादा विस्फोटक लदा था। अगर ये सच है तो फिर इसके आरडीएक्स (RDX) या इस तरह के दूसरे विस्फोटक होने की संभावना कम ही है। ये इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (IED) हो सकता है जो उर्वरक (फ़र्टिलाइजर) जैसे दैनिक इस्तेमाल के चीज़ों से बनता है और जिसका पता लगाना यानी ट्रेस करना मुश्किल होता है। अगर ऐसा है तो इस हमले के निहितार्थ/मायने काफ़ी बड़े हैं, क्योंकि ये जिस तरह के सामर्थ्य की ओर इशारा करता है, उसे समाहित करना मुश्किल है। हमले के लिए जितने विस्फोटक इस्तेमाल किए गए उसके अलावा कम से कम आधे दर्जन लोगों की भागीदारी के बिना इस तरह के हमलों को अंज़ाम नहीं दिया जा सकता। किसी को विस्फोटक का इंतज़ाम करना होता है तो कोई वीकल-बॉर्न IED (VBIED) बनाता है, कोई दूसरा पैसे का जुगाड़ करता है, किसी को इलाक़े की रेकी करने और टागरेट के बारे में जानकारी जुटाने का ज़िम्मा होता है (ये कोई अंदर का शख़्स हो सकता है, अगर ये अचानक किया गया हमला नहीं है तो, जिसकी संभावना बेहद कम है)। दूसरे लोग फ़िदायीन को उकसाने और उसके जज़्बे को बढ़ाने में शामिल होते होंगे। कोई ऐसा होता होगा जो उस जगह की व्यवस्था करता होगा जहां बम असेंबल किया जाता है और हमले को अंजाम देने के लिए दूसरे साजो-सामान एकत्रित किए जाते हों। आम तौर पर जितने ज़्यादा लोग होते हैं, हमले की जानकारी लीक होने की वजह से उसके विफल होने के मौक़े उतने ही बढ़ जाते हैं। लेकिन पुलवामा हमले में ऐसा नहीं हुआ है, इसका मतलब बड़ी ख़ुफ़िया विफलता है। साथ ही इसका मतलब ये भी है कि इस तरह के जघन्य हमले को अंजाम देनेवाला सेल अपने काम में बेहद पेशेवर और कुशल है। सबसे चिंताजनक बात है कि इस हमले को अंजाम देनेवाले सेल के आतंकी अब भी बाहर हैं और अगर जल्द ये सुरक्षाबलों के हाथ नहीं लगते हैं तो दूसरे आतंकी वारदातों को अंजाम दे सकते हैं।

आम तौर पर जितने ज़्यादा लोग होते हैं, हमले की जानकारी लीक होने और उसके विफल होने के मौक़े उतने ही बढ़ जाते हैं। इस बार ऐसा नहीं हुआ है, इसका मतलब बड़ी ख़ुफ़िया विफलता है। साथ ही इसका मतलब ये भी है कि इस तरह के जघन्य हमले को अंजाम देनेवाला सेल अपने काम में बेहद पेशेवर और कुशल है।

जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ेगी, इनमें से कुछ जानकारियां विस्तार से छनकर बाहर आएंगी। फिर भी, इस समय जितनी जानकारी है, वो भारत और कश्मीर क्षेत्र के लिए इस हमले के कुछ गंभीर आकलन के लिए पर्याप्त है।

कई मायनों में, सुरक्षाबलों के कुछ सबसे भयावह डर सच हो गए हैं। पुलवामा हमला कश्मीर में दशकों बाद हुआ पहला आत्मघाती हमला है। इससे पहले आख़िरी आत्मघाती हमला क़रीब दो दशक पहले भी जैश-ए-मोहम्मद ने ही किया था, जब एक नौजवान फ़िदायीन ने श्रीनगर में बादामी बाग़ कैन्टोनमेंट के ठीक बाहर विस्फोटक लदी कार समेत ख़ुद को उड़ा लिया था। पुलवामा में हुए इस हमले से पहले जो भी हुए उसे आत्मघाती मिशन कहा जा सकता है, आत्मघाती धमाका (बॉम्बिंग) नहीं। लश्कर-ए-तैयबा/जमात उद् दावा आत्मघाती मिशन/फ़िदायीन हमलों में माहिर हैं, जहां आतंकियों को पता होता है कि बचने की उम्मीद न के बराबर है, लेकिन तकनीकी तौर पर ये आत्मघाती हमले नहीं होते हैं। आत्मघाती धमाके अलग होते हैं क्योंकि ऐसे हमलों में आतंकी को पता होता है कि वो एक मानव बम है और उसका मरना निश्चित है। जैश-ए-मोहम्मद और दूसरे देवबंदी आतंकी समूह आतंकवाद के इस रूप में सबसे आगे हैं।

बड़ा सवाल ये है कि क्या ये कश्मीर में आतंकवाद के नए दौर की शुरुआत है, जहां आत्मघाती धमाके अब आम बात हो जाएंगे। ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब समय के साथ ही साफ़ हो पाएगा। आश्चर्य इस बात की नहीं है कि घाटी में इस तरह का धमाका हुआ, बल्कि हैरत की बात ये है कि इस तरह का हमला होने में इतना लंबा समय लग गया। कुछ विशेषज्ञ कश्मीर में इस तरह के हमलों को लेकर काफ़ी पहले से आगाह करते रहे हैं। इस तरह के आत्मघाती बम विस्फोट की वजहें काफ़ी साफ़ हैं।

बड़ा सवाल ये है कि क्या ये कश्मीर में आतंकवाद के नए दौर की शुरुआत है, जहां आत्मघाती धमाके अब आम बात हो जाएंगे। ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब समय के साथ ही साफ़ हो पाएगा। हालांकि, आश्चर्य इस बात की नहीं है कि घाटी में इस तरह का धमाका हुआ, बल्कि हैरत की बात ये है कि इस तरह का हमला होने में इतना लंबा समय लग गया।

पहला, पिछले कुछ सालों में जैश-ए-मोहम्मद कश्मीर में सक्रिय हो गया है। जैश के पाकिस्तानी आकाओं ने अपने ख़तरनाक मंसूबों के तहत कश्मीर घाटी में जिहाद को पुनर्जीवित करने के लिए संगठन को पुनर्जीवित किया था। कुछ हद तक संगठन पर आंच की वजह से लश्कर-ए-तैयबा और जमात उद् दावा को कश्मीर में बैक सीट पर धकेलने के लिए जैश की ओर से ये क़दम उठाया गया था। 2012-13 से पाकिस्तान में पश्तून तहरीक-ए-तालिबान (TTP) और पंजाबी तालिबान के बीच झगड़ा लगाने की संगठित कोशिश हो रही थी। इसी समय के आस-पास जैश-ए-मोहम्मद का मुखिया मसूद अज़हर एक बार फिर से सक्रिय हो गया। उस समय यह अफ़वाह थी कि जैश-ए-मोहम्मद पंजाबी तालिबान को कश्मीर में फिर से नई दिशा देगा/री-डायरेक्ट करेगा, जहां आतंकवाद की एक नई लहर शुरू हो गई थी। आत्मघाती बम विस्फोट में जैश-ए-मोहम्मद और देवबंदी आतंकवादी समूहों की महारत/विशेषज्ञता को देखते हुए, केवल यह उम्मीद की जानी थी कि यह रणनीति जल्द ही या कुछ समय बाद घाटी में लागू की जाएगी।

दूसरा, जिहादी समूह दूसरे आतंकी समूहों के अनुभव से सीखते हैं। अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, सीरिया और इस्लामी दुनिया के अन्य हिस्सों में जिहादी आतंकी समूहों के पास IEDs और आत्मघाती हमले सबसे घातक हथियार थे, ऐसे में कश्मीर में इसका इस्तेमाल बस कुछ समय की बात थी, जहां नए जिहादी और आतंकवादी अपने पूर्ववर्तियों की तरह दूर-दराज़ के इलाक़े में लड़ने वाले जिहादियों से प्रेरित होते हैं और उनकी रणनीति को आत्मसात करते हैं।

तीसरा और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि कश्मीर में नए आतंकी जिहादी डेथ कल्ट का हिस्सा हैं। इन लोगों को वैसे लोगों को चुनने के लिए परिपक्व किया गया है जो मानव बम बनने के लिए आसानी से तैयार हो जाते हैं। कश्मीर से ऐसे कई रिपोर्ट्स हैं जो मौत की ख़ातिर तैयार युवाओं की निडरता को दिखाते हैं, ऐसे युवा जो सुरक्षाबलों को अपनी छाती पर गोली मारने के लिए उकसाने का साहस करते हैं। साथ ही ऐसे नौजवान खुलेआम और निडर होकर क़ानून की धज्जियां उड़ाते हैं। ऐसे लोगों को मानव बम बनकर शहादत हासिल करने के लिए तैयार करने में ज़्यादा समय नहीं लगता है।

और अंत में, इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि जिहाद के लिए ख़ुद को बलिदान कर रहे युवाओं को सामाजिक स्वीकृति है, जिसमें परिवारों और ख़ास कर माताएं शामिल हैं। ऐसे मां-बाप हैं जो अपने बच्चों को मरने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि उनके बच्चों की शहादत से उनके लिए जन्नत में जगह बन जाएगी। मां-बाप की ऐसी राक्षसी/नारकीय मानसिकता भी कश्मीर में हालात बिगड़ने के लिए ज़िम्मेदार हैं, जो ख़ुद को आग में झोंकने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन अपने बच्चों को जिहाद की आग में भस्म करने के लिए तैयार हैं। इस आग को भड़काने का दुस्साहस पाकिस्तानी एजेंट करते हैं।

इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि जिहाद के लिए ख़ुद को बलिदान कर रहे युवाओं को सामाजिक स्वीकृति है, जिसमें परिवारों और ख़ास कर माताएं शामिल हैं। ऐसे मां-बाप हैं जो अपने बच्चों को मरने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि उनके बच्चों की शहादत उन्हें जन्नत में जगह दिलाएगी।

इसलिए ये आत्मघाती हमला कभी न कभी होना ही था। कुछ रिपोर्टों का दावा है कि कश्मीर में जैश-ए-मोहम्मद के सरगना के भतीजों का सुरक्षाबलों के हाथों मौत का बदला लेने के लिए पुलवामा में हमला किया गया था, लेकिन इसे एक बार का हमला मानना लापरवाही होगी। संभावना है कि नुक़सान का पैमाना वास्तव में इस तरह के दूसरे हमलों के लिए एक सबक़ के रूप में काम करेगा। आने वाले हफ़्तों में जब आम चुनावों की वजह से सुरक्षा बलों को इधर-उधर तैनाती के लिए भेजा जाएगा, तब इस हमले से सबक़ लेते हुए हम ज़्यादा चौकस रहेंगे।

 अनिश्चित सुरक्षा हालातों की वजह से बहुत हद तक संभव है कि घाटी में आम चुनाव को फ़िलहाल टाल दिया जाए। आख़िरकार, पुलवामा हमले ने उन उम्मीदवारों में भारी ख़ौफ़ पैदा कर दिया होगा जिन्हें चुनावी गतिविधियों के दौरान अपना दम-खम लगाना होगा और अपने वोटरों के निकट संपर्क में आना होगा, तब वो सबसे ज़्यादा असुरक्षित होंगे। नेताओं को निशाना बनाकर आत्मघाती हमलों का डर — पाकिस्तानी आतंकी समूहों ने उम्मीदवारों और मतदाताओं को डराने और चुनाव परिणामों को एक विशेष दिशा में मोड़ने के लिए इस कला में महारत हासिल की है — इससे लोकतंत्र का ये अधिकार विनाशकारी हो जाएगा और इसलिए जब तक न सिर्फ़ उम्मीदवारों और मतदाताओं की सुरक्षा, बल्कि सुरक्षा विस्तार भी सुनिश्चित न हो जाए तब तक इसे स्थगित करना ही बेहतर होगा।

भले ही चुनाव आयोग और सरकार तय शेड्यूल के मुताबिक़ ही घाटी में लोकसभा चुनाव कराने का फ़ैसला करे, लेकिन अगर लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा का चुनाव होता है तो यह बेहद आश्चर्यजनक होगा। जब तक कि अगले कुछ हफ़्तों में सुरक्षा हालात में नाटकीय तौर पर सुधार नहीं होता है, तब तक राज्य में चुनाव की संभावना बेहद कम है। ऐसी स्थिति में संभावना है कि राष्ट्रपति शासन को कम से कम छह महीने के लिए बढ़ा दिया जाएगा। सुरक्षाबल भी राज्य में राष्ट्रपति शासन के पक्ष में ही होंगे, क्योंकि अगर कश्मीर में आतंकियों के सफ़ाये का व्यापक अभियान लॉन्च करना है तो किसी पार्टी की सरकार में ये काम असंभव होगा, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कश्मीरी नेताओं का झुकाव विकेट के दोनों ओर खेलने में होता है, यानी एक ओर वो अलगाववादी/जिहादी तत्वों को प्रश्रय देते हैं, उनकी ख़ुशामदगी करते हैं और दूसरी ओर भारत के संविधान की शपथ लेते हैं। पहले ही, हमने महबूबा मुफ़्ती जैसे तथाकथित मुख्यधारा के नेताओं को अपने वोट बैंक मज़बूत करने के लिए अलगाववादियों और आतंकियों के परिवारों से मिलते देखा है। दूसरे कश्मीरी नेता भी यही खेल खेल रहे हैं। पुलवामा हमले के बाद सुरक्षाबलों के ऑपरेशन में तेज़ी आना लाज़िमी है, तब ऐसे चेहरों से सुरक्षबलों के ऑपरेशन्स पर डबल डाउन होने की उम्मीद कुछ हद तक तनाव देनेवाला है।

अनिश्चित सुरक्षा हालातों की वजह से बहुत हद तक संभव है कि घाटी में आम चुनाव को फ़िलहाल टाल दिया जाए।

जहां तक ​​केंद्र सरकार का सवाल है, उसके पास कार्रवाई करने से बचने की गुज़ाइश बेहद कम हैं, न केवल घर के आतंकी मॉड्यूल के ख़िलाफ़, बल्कि नियंत्रण रेखा (LoC) के पार आतंकवादियों के मास्टरमाइंड और उनके आकाओं के ख़िलाफ़ भी। सरकार को कुछ कार्रवाई करते हुए दिखना होगा। इसलिए ग्लवज़ को उतारना होगा मतलब हाथ खोलने होंगे और पिछले कुछ महीनों में सुरक्षा बलों द्वारा दिखाए गए कुछ अति संयम को तोड़ना होगा। इसका मतलब सिर्फ़ आतंकियों के ख़िलाफ़ तेज़ कार्रवाई और अंडरग्राउंड संस्थाओं के ओवरग्राउंड वर्कर्स के ख़िलाफ़ ज़्यादा ताक़तवर नीति लागू करना ही नहीं, बल्कि ट्रूप मूवमेंट और डिप्लॉइमेंट पर सख़्त स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOPs) को फिर से लागू करना भी है। यह कश्मीर में बहुत लोकप्रिय चीज़ नहीं होगा। लेकिन चूंकि न तो सुरक्षा बलों में वोटों की स्पर्धा होगी और न ही केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की घाटी में कोई बड़ी राजनीतिक हिस्सेदारी है, इसलिए वे लोकप्रियता खोने के बारे में बहुत ज़्यादा चिंता नहीं करेंगे। हालांकि क्षेत्रीय पार्टियों के लिए इन चीज़ों की अनदेखी कर आगे बढ़ना संभव नहीं होगा। इसलिए, भले ही सामान्य संदिग्धों द्वारा सामान्य तौर पर विरोध होंगे, लेकिन देश के बिगड़े मूड को देखते हुए और केंद्र सरकार के सामने की राजनीतिक और सुरक्षा मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए ज़्यादातर लोग घाटी से उठनेवाले विरोध की आवाज़ को नहीं सुनेंगे।

ज़ाहिर है, कश्मीर अब तेज़ी से पतन की ओर है। चीज़ें बेहतर होने से पहले बेहद ख़राब होने जा रही हैं। अगर केंद्र सरकार स्मार्ट है (एक बड़ा अगर) तो इस असाधारण और बहुत बड़े झटके का इस्तेमाल कश्मीर में कई चीज़ों को दुरुस्त करने के अवसर के रूप में कर सकती है, जिसमें उस इकोसिस्टम को ख़त्म करना भी शामिल है तो अलगाववादियों और आतंकियों को रीवॉर्ड देती है, लेकिन वफादारों को दंडित करती है। लेकिन अगर सरकार कश्मीर की समस्याओं से आहिस्ता-आहिस्ता शांतिपूर्वक और सामरिक स्तर पर निपटने का फ़ैसला करती है तो यह त्रासदी केवल एक बड़ी त्रासदी की अगुआ होगी।

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