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अलग-अलग विचारधाराओं के हिंसक उग्रवाद की तरफ़ झुकाव के जो जोखिम हैं, उन के कारकों पर और रिसर्च किए जाने की ज़रूरत है. तभी हम हिंसक उग्रवाद पर पलटवार कर सकेंगे और इस की रोकथाम के मज़बूत उपायों पर अमल कर सकेंगे.
इस विषय में शोध के तीन नए अभिकल्पों का प्रस्ताव-
कट्टरपंथ के प्रति झुकाव, आतंकवाद और हिंसक उग्रवाद के जोख़िम के कारकों का अध्ययन करने वाले ज़्यादातर अध्ययन आम तौर पर ऐसे रिव्यू और विश्लेषण के आंकड़ों पर आधारित होते हैं, जिन्हें दोयम दर्जे का कहा जाता है. हालांकि, हाल के कुछ वर्षों में इस विषय की पड़ताल करने वाले ज़्यादातर अध्ययनों ने साक्षात्कार, सर्वे और प्रयोगों से प्राप्त प्राथमिक आंकड़ों को आधार बनाया है. जैसे-जैसे आतंकवाद से जुड़े तमाम विषयों पर अध्ययन का दायरा बढ़ रहा है, तो ऐसे में इन विषय पर शोध के तीन नए अभिकल्पों पर और ध्यान देने की ज़रूरत है. ख़ास तौर से इस मामले से जुड़े जोख़िम के कारणों और इन से निपटने के लिए कामयाब उपायों को विकसित करने के लिए इस मुद्दे की हमारी समझ को और बेहतर करने की ज़रूरत है. ताकि हिंसक उग्रवाद को रोका जा सके और उस का जवाब भी दिया जा सके. भविष्य में इस बात पर शोध करने वालों को संस्थागत रूप से अपने सैम्पल आम जनता से लेने चाहिए. साथ ही साथ इस बारे में हुए रिसर्च को अलग-अलग संस्कृतियों की मिसालों की तुलना भी करनी चाहिए. जिन से हिंसक उग्रवाद के कारणों और अलग-अलग विचारधाराओं के बीच इन के संबंधों को बेहतर ढंग से समझा जा सके.
आतंकवाद पर रिसर्च करने वाले अक्सर उन लोगों की पुरानी ज़िंदगी के बारे में पड़ताल करते हैं, उन का इतिहास खंगालते हैं, जिन्हें आतंकवाद से संबंधित आरोपों में कोई सज़ा हुई हो, या फिर उन्होंने कोई आतंकवादी हमला किया है. इस तरीक़े से हमें कुछ ख़ास लोगों की विचारधारा को समझने में आसानी होती है, जिनका झुकाव आतंकवाद की तरफ़ होता है. या फिर उन लोगों के तजुर्बों को समझने में आसानी होती है, जो कट्टरपंथी हो जाते हैं. इसके साथ ही साथ, चूंकि इन विश्लेषणों में उन लोगों को शामिल नहीं किया जाता, जिनकी हिंसक उग्रवाद की तरफ़ प्रतिबद्धता नहीं होती, मगर उन की तरफ़ से आतंकवाद के ख़तरों के कारण मौजूद होते हैं. फिलहाल, ऐसे कारणों का पता लगाना संभव नहीं है, जो ये फ़र्क़ कर सके कि खुले तौर पर आतंकवादी विचारधारा के प्रति लगाव रखने वालों और दबे-छुपे ढंग से उग्रवादी विचारधारा को पोसने वालों के बीच क्या अंतर है. ऐसे में ये पता लगाना मुमकिन नहीं होता कि कौन से लोग हैं जो कट्टरपंथी हो जाएंगे और कौन से लोग हैं, जो कट्टरपंथ के दायरे में आने से बच जाएंगे. जब कि आतंकवाद का मुक़ाबला करने के लिए इन कारणों की जानकारी होना बेहद आवश्यक है.
जब किसी आतंकवादी को सज़ा सुनाई जाती है, तो फ़ैसला सुनाते वक़्त उन व्यक्तियों के बारे में जानकारी नहीं जुटाई जाती, जो सीधे तौर पर हमला नहीं करते. लेकिन, वो भी मानसिक स्वास्थ्य और अलग-थलग पड़ने की चुनौतियों का सामना करते हैं. अक्सर समाज का एक बड़ा तबक़ा इन मुश्किलों से दो-चार होता है.
मिसाल के तौर पर अकेले आतंकवाद फैलाने वाले 119 लोगों की जब पृष्ठभूमि खंगाली गई. तो, पता ये चला कि इन में से 31.9 फ़ीसद दहशतगर्द किसी न किसी ज़हनी बीमारी के शिकार थे, या फिर उन्हें कोई पर्सनैलिटी डिसऑर्डर था. 119 में से आधे से ज़्यादा कट्टरपंथियों के बारे में बताया गया कि वो सामाजिक रूप से अलग-थलग थे. इन पड़ताल से शायद ये नतीजा निकाला जाए कि सामाजिक अलगाव और दिमाग़ी बीमारियों के शिकार लोग हिंसक उग्रवाद की तरफ़ झुक सकते हैं. लेकिन, इन लोगों के दहशतगर्द बनने की विशेष वजहों की या तो अनदेखी होने या फिर इन बिंदुओं पर ज़्यादा ज़ोर दिए जाने का भी डर होता है. क्योंकि जब किसी आतंकवादी को सज़ा सुनाई जाती है, तो फ़ैसला सुनाते वक़्त उन व्यक्तियों के बारे में जानकारी नहीं जुटाई जाती, जो सीधे तौर पर हमला नहीं करते. लेकिन, वो भी मानसिक स्वास्थ्य और अलग-थलग पड़ने की चुनौतियों का सामना करते हैं. अक्सर समाज का एक बड़ा तबक़ा इन मुश्किलों से दो-चार होता है.
शोध के वो अभिकल्प जो इन नियंत्रण समूहों को अपने रिसर्च का हिस्सा बनाते हैं, वो अपनी स्टडी में इन कमियों को दूर कर लेते हैं. वो आम जनता और आतंकवाद फैलाने वालों और हिंसक उग्रवाद की तरफ़ झुकाव रखने वालों से संभावित जोखिम के कारणों की तुलना करते हैं. मिसाल के तौर पर धुमद, कैन्डिलिस, क्लियरी, जायर और ख़लीफ़ा ने एक ऐसा अध्ययन किया था, जिस में आतंकवाद के लिए सज़ा पाने वाले लोगों, हत्या के लिए सज़ा पाने वाले अपराधियों और समुदाय के ऐसे लोगों के बीच तुलनात्मक अध्ययन किया था, जिन्हें किसी आपराधिक गतिविधि के लिए सज़ा नहीं मिली थी. इन लोगों के अध्ययनों से निकले तमाम निष्कर्षों में जो सब से अहम बात सामने आई, वो ये थी कि आतंकवाद के लिए सज़ा पाने वाले हों, या फिर हत्या के मुज़रिम, दोनों के बचपन का इतिहास, शोषण और जज़्बाती अनदेखी में गुज़रने वाला था. हालांकि, आम लोगों के बीच से लिए गए नमूने और जो सज़ायाफ्ता (दंडित) आतंकवादी थे, उन के जवाब बचपन के बर्ताव में बीमारी का संकेत देते थे. इस से इस बात का इशारा मिलता है कि अगर किसी का बचपन शोषण और उठा-पटक का शिकार रहा है. तो, उस के आतंकवादी बनने की आशंका बढ़ जाती है.
हर संस्कृति में आतंकवाद के प्रति रुख़, आतंकवादी विचार और बर्ताव अलग-अलग तरह से सामने आते हैं. जो लोग दहशतगर्दी की तरफ़ झुक जाते हैं, वो अक्सर अपनी तबीयत वाले परिवेशों से प्रभावित होते हैं.
हिंसक उग्रवाद से निपटने के लिए जो अभियान शुरू किए जाते हैं, वो अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय निकायों के स्तर तक से शुरू होते हैं. इन के पीछे राजनीतिक किरदारों के साथ-साथ आम नागरिकों का भी अहम रोल होता है. ऐसा करना, उचित फ़ैसला लगता है. क्योंकि, इस तकनीक की उपयोगिता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुकी है कि जब अलग-अलग समुदाय इन उपायों को अपनाते हैं, तो इसके बेहतर नतीजे होते हैं. हालांकि, यहां ये ध्यान देने वाली बात है कि हिंसक उग्रवाद के जोखिमों के कारकों की पहचान एक सांस्कृतिक परिवेश में होती है. और इन के आधार पर हिंसक उग्रवाद की रोकथाम या उस का मुक़ाबला करने के जो उपाय तैयार किए जाते हैं, उन का किसी अन्य समुदाय या परिवेश में भी यही असर हो, ये ज़रूरी नहीं है. आम तौर पर ऐसा होता भी नहीं है. किसी ख़ास संस्कृति के परिवेश में हिंसक उग्रवाद के जोखिमों को मिसाल के तौर पर सवाल के रूप में देखा जाना चाहिए. इस की व्यवस्थागत तरीक़े से पड़ताल करना अभी बाक़ी है. ऐसे में अलग-अलग सांस्कृतिक परिवेशों में आतंकवाद पैदा होने पर जो रिसर्च होती है, वो काफ़ी कारगर साबित हो सकती है. इन तमाम अध्ययनों के नतीजे ये इशारा करते हैं कि हर संस्कृति में आतंकवाद के प्रति रुख़, आतंकवादी विचार और बर्ताव अलग-अलग तरह से सामने आते हैं. जो लोग दहशतगर्दी की तरफ़ झुक जाते हैं, वो अक्सर अपनी तबीयत वाले परिवेशों से प्रभावित होते हैं. और सपाट शब्दों में कहें तो, भारत, जापान, कुवैत और अमेरिका में महिलाओं और पुरुषों के बीच हिंसा को लेकर जो रवैया है, वो अलग-अलग तरह का पाया गया है. हालांकि, यहां हमें ये भी मानना होगा कि हिंसक उग्रवाद की तरफ़ लोगों को धकेलने के कुछ कारण ऐसे भी होते हैं, जो सभी संस्कृतियों में समान रूप से पाए जाते हैं. ओबैदी और उन के साथियों ने अपने शोध में ये दिखाया था कि ख़तरों की हक़ीक़ी और प्रतीकात्मक धारणाओं ने यूरोपीय और मध्य पूर्व के देशों में रहने वाले मुसलमानों के बीच हिंसा के विचार की स्वीकार्यता बढ़ाने में मदद की. वहीं, यूरोप और अमेरिका के ग़ैर मुस्लिम समुदायों के बीच इसके उलट प्रभाव देखे गए. जहां मुसलमानों से हिंसा को वाजिब मानने की सोच को लोगों की मंज़ूरी मिलती दिखी.
अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद से आतंकवाद से जुड़े जो भी अध्ययन हुए हैं, उन का केंद्र बिंदु धार्मिक और जिहाद से प्रभावित विचारधारा के चलते कट्टरपंथ और हिंसक उग्रवाद के प्रति बढ़ता झुकाव रहा है. इन झुकावों का नतीजा अक्सर अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट (ISIS) जैसे संगठनों के प्रति समर्थन के रूप में दिखा है. इस की तुलना में वामपंथी और दक्षिणपंथी विचारधारा, राष्ट्रवाद और एक मुद्दे पर आधारित आतंकवाद के कारणों की पड़ताल पर बहुत कम ही ध्यान दिया गया है. इस का एक नतीजा ये भी हुआ है कि विभिन्न वैचारिक समूहों के संबंधों और आपसी संवाद की वजह से पैदा होने वाला हिंसक उग्रवाद अनदेखी का शिकार हुआ है. इसे प्रतिक्रियात्मक कट्टरपंथी झुकाव होना कहा जाता है. मसलन, यही कारण है कि हम जिहाद प्रेरित आंदोलनों और तौर-तरीक़ों से प्रभावित होकर जो दक्षिणपंथी आतंकवादी समूह हमले करते हैं, उन के ऐसे हिंसक क़दमों के पीछे के कारणों के बारे में हम कम ही जानते हैं. अगर हम अल-क़ायदा और आईएसआईएश का समर्थन करने वालों और मुस्लिम विरोधी कट्टरपंथियों की सोशल मीडिया पोस्ट का तुलनात्मक विश्लेषण करें, तो एक चौंकाने वाली बात जो सामने आती है, वो ये है कि विपरीत ध्रुवों पर खड़े ये समूह एक-दूसरे से सीखते हैं (मसलन संवाद की रणनीति). ये विपरीत विचारधाराओं वाले समूह आपस में शायद ही कभी संवाद करते हैं. लेकिन, जैसे कि विरोधी खेमे से किसी घटना को अंजाम दिया जाता है. तो विपरीत वैचारिक खेमे के लोग बड़ी तीखी प्रतिक्रिया देते हैं.
अहम बात ये है कि हिंसक उग्रवाद के जोखिम अलग-अलग विचारधाराओं का पालन करने वालों के बीच भी एक जैसे हो सकते हैं. मिसाल के तौर पर, बौहाना और उन के साथी, अपने अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित अकेले काम करने वाले उग्रवादी, किसी अन्य विचारधारा के कट्टरपंथी अनुयायियों से कोई ख़ास अलग नहीं होते हैं. ख़ास तौर से किसी हमले से पहले अपने ग़ुस्से पर क़ाबू पाने में. और इस का कई बार नतीजा ये हुआ है कि वो क़ैद में भी हिंसक नज़र आए हैं. जैसा कि हम ने पहले भी बताया कि अलग-अलग संस्कृतियों के उन विशेष जोखिमों का अध्ययन ज़रूरी हो जाता है, जो हिंसक उग्रवाद की बुनियाद तैयार करते हैं. इस विषय में चेरमैक और ग्रुनेवाल्ड की व्यापक रिसर्च में ये बात सामने आई थी कि अलग-अलग विचारधाराओं को मानने वालों से जोखिम के अलग-अलग कारक होते हैं. यानी, वामपंथी हिंसक उग्रवाद के समर्थकों के उलट अल-क़ायदा का समर्थन करने वालों को दिमाग़ी बीमारी होने की आशंका ज़्यादा पायी गई थी. इन हिंसक उग्रवादियों के सेना की ट्रेनिंग किए होने की संभावना ज़्यादा थी. जब कि इन के नियमित रूप से कॉलेज जाने की मिसालें कम ही देखने को मिलीं. ऐेसे में अलग-अलग विचारधाराओं के हिंसक उग्रवाद की तरफ़ झुकाव के जो जोखिम हैं, उन के कारकों पर और रिसर्च किए जाने की ज़रूरत है. तभी हम हिंसक उग्रवाद पर पलटवार कर सकेंगे और इस की रोकथाम के मज़बूत उपायों पर अमल कर सकेंगे. इन बिंदुओं पर हुए शोध के आधार पर ही हिंसक उग्रवाद की चुनौती का सामना करने की व्यापक रणनीति बनाई जा सकेगी.
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Dr. Sandy Schumann is a social and political psychologist: she is a Post-doctoral Research Associate at University College London Department of Security and Crime Science.
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