Author : Sushant Sareen

Published on Apr 01, 2024 Updated 0 Hours ago

अगर विपक्ष अपना मक़सद हासिल करने में नाकाम रहता है, तो पाकिस्तान कुछ और समय के लिए इमरान को झेलने पर मज़बूर होगा.

पाकिस्तान: नवाज़ शरीफ़ का इमरान ख़ान के ‘चयनकर्ताओं’ के ख़िलाफ युद्ध का ऐलान

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने सेना के निर्देश और प्रभुत्व से चलने वाले ‘हाइब्रिड डेमोक्रेसी’ मॉडल– जो लोकतांत्रिक की तुलना में हाईब्रिड ज़्यादा है – में नाममात्र के ‘चयनित’ प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के नेतृत्व से सीधी भिड़ंत के अपने इरादे का साफ़ तौर पर ऐलान कर दिया है. विपक्ष के बहु-दलीय सम्मेलन (मल्टी-पार्टी कॉन्फ़्रेंस या एमपीसी) को संबोधित करते हुए, नवाज़ शरीफ़ ने एक भाषण दिया जिसमें न केवल मौजूदा व्यवस्था की तीख़ी आलोचना की गई बल्कि इसे उधेड़ कर रख दिया, साथ ही यह पाकिस्तान में प्रचलित विकृत, स्तरहीन और कलंकित ‘लोकतंत्र’ के खिलाफ कार्रवाई के लिए उत्तेजना भरा आह्वान भी था. यह पहला मौका था जब किसी राजनेता ने पाकिस्तानी सेना पर ऐसा खुला, सीधा हमला किया. लेकिन क्या ये ज़ुबानी जंग असली लड़ाई में तब्दील होगी जहां इसका कुछ मतलब होगा – सड़कों पर? क्या विपक्षी दल नवाज़ शरीफ़ का नेतृत्व कुबूल करेंगे? या उबाल कुछ दिनों में बैठ जाएगा और पाकिस्तानी राजनेता वापस वही करने लगेंगे जो वे सबसे अच्छा करते हैं– बूट पॉलिश, पाकिस्तान में बोलचाल का एक आम शब्द जो राजनेताओं की सेना से नज़दीकी और तुष्टीकरण की प्रवृत्ति को देखते हुए उनके लिए इस्तेमाल किया जाता है.

नवाज़ ने राजनीति में सेना के दख़ल, चुनावों में गड़बड़ी और जनमत के अपहरण और आतंकवादी समूहों के साथ इसकी गलबहियां, जिसने पाकिस्तान को भयानक कुख्याति दिलाई, किसी भी पर बोलने से परहेज़ नहीं किया. पूर्व प्रधानमंत्री यूस़ुफ रज़ा गिलानी के 2011 के एक भाषण का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि “सरकार के भीतर सरकार”   नहीं चल सकती है, और कोई भी संस्था [सेना के लिए एक व्यंजना] यह दावा नहीं कर सकती है कि वो सरकार के अधीन नहीं है”, नवाज़ शरीफ़ ने कहा तब से आज हालात बदतर हो गए हैं और अब “सरकार के ऊपर सरकार” है, जो पाकिस्तान की सभी समस्याओं की जड़ है. अपने क़रीब एक घंटे लंबे भाषण में, नवाज़ शरीफ़ पूरी तरह अवज्ञापूर्ण थे और “मैं किसी का हुक़्म नहीं मानूंगा” के तेवर में दिखाई दिए, जो उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल में पहली बार तब प्रदर्शित किया था जब उन्होंने 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति ग़ुलाम इशाक़ ख़ान से टक्कर ली थी. उन्होंने हाइब्रिड सिस्टम की आलोचना की, जिसके लिए उन्होंने कहा कि ये सिस्टम आसिम बाजवा जैसे जनरलों के भ्रष्टाचार से आंखें मूंद लेता है. उन्होंने सवाल उठाया कि अदालतों द्वारा कोई स्वतः संज्ञान नहीं लिया गया, कोई संयुक्त जांच दल गठित नहीं किया गया, नेशनल एकाउंटिबिलिटी ब्यूरो में बाजवा के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज नहीं की गई, अघोषित संपत्ति पाए जाने के बाद भी सेवानिवृत्त जनरल का कोई मीडिया ट्रायल नहीं किया गया, जो कि यह सब राजनेताओं के ख़िलाफ किया जाता है. नवाज़ ने कहा कि किस तरह निष्पक्ष जजों को तंग किया गया और यहां तक ​​कि पद से हटा दिया गया, प्रेस का गला घोंट दिया, अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया, कूटनीति को ‘अनिर्वाचित’, अक्षम और फ़ासिस्ट हाइब्रिड सरकार ने बर्बाद कर दिया. इमरान ख़ान के अस्तित्व को नकारते हुए, नवाज़ शरीफ़ ने घोषणा की कि लड़ाई कठपुतली के खिलाफ नहीं है, बल्कि उन कठपुतली नचाने वालों के ख़िलाफ़ है जिन्होंने पाकिस्तान के बेबस लोगों पर इस सरकार को थोप दिया है. दूसरे शब्दों में, उन्होंने अपने सभी हमलों का खुले तौर पर पाकिस्तान सेना को निशाना बनाया, जिसे उन्होंने देश को बर्बादी के कगार पर पहुंचाने का ज़िम्मेदार ठहराया.

नवाज़ शरीफ़ पूरी तरह अवज्ञापूर्ण थे और “मैं किसी का हुक़्म नहीं मानूंगा” के तेवर में दिखाई दिए, जो उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल में पहली बार तब प्रदर्शित किया था जब उन्होंने 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति ग़ुलाम इशाक़ ख़ान से टक्कर ली थी. उन्होंने हाइब्रिड सिस्टम की आलोचना की, जिसके लिए उन्होंने कहा कि ये सिस्टम आसिम बाजवा जैसे जनरलों के भ्रष्टाचार से आंखें मूंद लेता है. 

नवाज़ शरीफ़ ने ठोस तरीके से अपने इरादे ज़ाहिर करते हुए अपनी प्राथमिकता साफ़ कर दी है, जिसमें समन्वित और सहभागिता से इमरान ख़ान को पद से हटाने के लिए कदम उठाने की जरूरत है, उन्होंने कहा है कि वह एमपीसी में हुई आम सहमति से चलेंगे. कुछ हल्कों में ऐसी चर्चाएं हैं कि नवाज़ शरीफ़ का भाषण पाकिस्तान मुस्लिम लीग– नवाज़ (पीएमएलएन) की तयशुदा रणनीति का हिस्सा है जिसमें नवाज़ शरीफ़ (और उनकी बेटी मरियम) बुरे पुलिस वाले का किरदार निभा रहे हैं, जबकि उनके छोटे भाई और पार्टी के अध्यक्ष शाहबाज़ शरीफ़, अच्छे पुलिस वाले की भूमिका निभा रहे हैं. यह रणनीति इस तरह काम करती है कि नवाज़ आग उगलते हैं और ‘प्रतिष्ठान’ को झकझोर देते हैं, और शाहबाज़ पहुंच कर सौदा कर लेते हैं. दोनों भाई इस रणनीति पर खेल रहे हों, इस संभावना से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन अगर चर्चाओं पर यक़ीन करें तो नवाज़ शरीफ़ ने सैन्य प्रतिष्ठान से बातचीत और संबंध सुधारने के सारे रास्तों को हमेशा के लिए बंद कर दिया है और शाहबाज़ के पास नवाज़ के रास्ते पर चलने के अलावा कोई चारा नहीं है. शाहबाज़ बेशक अपने भाई से अपना रास्ता अलग कर सकते थे, लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञों का दावा है कि शाहबाज़ एक अच्छे प्रशासक तो हैं, लेकिन शायद ही वोट जुटा पाएं. पीएमएलएन का वोट नवाज़ शरीफ़ और उनकी उभरती राजनेत्री बेटी के नाम पर हैं. वे भीड़ को खींच सकते हैं, शाहबाज़ नहीं.

हालांकि, समस्या यह है कि पीएमएलएन को असल में आंदोलन की पार्टी के तौर पर नहीं जाना जाता है. यह पंजाब और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के कुछ हिस्सों में अभी भी सबसे लोकप्रिय पार्टी है, लेकिन इसके कार्यकर्ता और समर्थक सड़क पर आंदोलन चलाने वाली किस्म के नहीं हैं. हालांकि, मरियम नवाज़ जब भी सड़क पर उतरती हैं, भारी भीड़ खींचने में कामयाब रहती हैं– उन्होंने जब पिछली बार पंजाब में रैलियां करना शुरू किया तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था क्योंकि जनता का रुझान देख सरकार घबरा गई थी– कुछ फ़िक्र इस बात को लेकर भी है कि अगर सरकार प्रतिक्रिया करती है तो क्या वो सड़कों पर माहौल बनाए रख पाएंगी. इसका मतलब यह है कि पीएमएलएन को माहौल बनाने के लिए दूसरे विपक्षी दलों की मदद की ज़रूरत होगी जो इमरान ख़ान की सत्ता को पूरी तरह हिला दे.

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी जिसने बहु-पक्षीय सम्मेलन का आयोजन किया था, सिर्फ़  शहरी सिंध और दक्षिण पंजाब के कुछ हिस्सों तक सीमित है. फिर भी, यह अपने कार्यकर्ताओं (उनमें से जो भी बचे हैं) को सड़कों पर ला सकती है. लेकिन क्या पीपीपी सिंध में अपनी प्रांतीय सरकार को खतरे में डालना चाहेगी? हालांकि, पीपीपी निश्चित रूप से अपने शीर्ष नेतृत्व के उत्पीड़न या मुकदमा चलाने से इमरान ख़ान सरकार को रोकने के लिए इस पर दबाव बनाना चाहेगी, लेकिन यह चीजों को ऐसे बिंदु पर नहीं ले जाना चाहेगी जहां वह सिंध में अपनी सरकार को गंवा दे. जब भी पीपीपी अपने पंजे निकालती है, तो दोबारा भ्रष्टाचार के मामले उभर आते हैं और बातें शुरू हो जाती हैं कि संघीय सरकार सिंध में पीपीपी के बहुमत को कैसे बदल या ख़त्म कर सकती है. विपक्षी ख़ेमे में एक और प्रमुख पार्टी मौलाना फज़लुर रहमान की अपने नाम के अनुरूप जमीयत उलेमा इस्लाम (जेयूआई-एफ़) है. मौलवियों की पार्टी संसद में बहुत ज़्यादा सीटें नहीं जीत पाती है, लेकिन इसका सड़कों पर उतरने वाला एक प्रतिबद्ध कैडर होता है, जैसा कि पिछले नवंबर में इसने प्रदर्शन किया था. साथ ही यह मस्जिदों के इमामों के एक बड़े तबके को नियंत्रित करती है. लेकिन चालाक मौलाना को अभी भी पीएमएलएन और पीपीपी द्वारा मंझधार में रखा जा रहा है, बल्कि उससे झूठे वादे भी कर रहे हैं, जिससे पिछले साल उसने शक्ति प्रदर्शन से हाथ पीछे खींच लिए थे. इसके अलावा, हाल के महीनों में, पुरानी भ्रष्टाचार की जांच को फिर से शुरू किया गया है. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा और बलूचिस्तान के अन्य बहुत छोटे दल छोटे खिलाड़ी हैं. वे गिनती तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन सिर्फ़ हाशिये पर.

पीएमएलएन भी बिल्कुल अच्छी हालत में नहीं है. पार्टी के प्रथम परिवार के भीतर, नवाज़ तकरीबन निर्वासन में हैं. उनके दो बेटे ग़ैर-राजनैतिक हैं और किसी भी हालत में वापस नहीं आ सकते क्योंकि उन्हें नवाज़ की तरह भगोड़ा घोषित किया हुआ है. 

पीएमएलएन भी बिल्कुल अच्छी हालत में नहीं है. पार्टी के प्रथम परिवार के भीतर, नवाज़ तकरीबन निर्वासन में हैं. उनके दो बेटे ग़ैर-राजनैतिक हैं और किसी भी हालत में वापस नहीं आ सकते क्योंकि उन्हें नवाज़ की तरह भगोड़ा घोषित किया हुआ है. शाहबाज़ का राजनीतिक उत्तराधिकारी हम्ज़ा एक साल से ज़्यादा समय से जेल में है. शाहबाज़  का दूसरा बेटा और उनके दामादों में से एक- दोनों भगोड़े हैं. दोनों के ख़िलाफ भ्रष्टाचार के मामले हैं. हाल ही में नेशनल एकाउंटिबिलिटी ब्यूरो (एनएबी) ने शाहबाज़ पर शिकंजा कसते हुए उन्हें, उनकी बीवी और बेटी को पूछताछ के लिए बुलाया. तहरीक़-ए-इंसाफ (पीटीआई) सरकार ने पाकिस्तान की राजनीति के एक अलिखित नियम को तोड़ा है, जिसमें महिलाओं और बच्चों को राजनीतिक लड़ाई से अलग रखा जाता था. इमरान ख़ान ने अपने विरोधियों पर दबाव बनाने या उन्हें ख़ामोश कराने के लिए उनके परिवारों को निशाने पर लेकर अपने स्तर (या इसका अभाव) का प्रदर्शन किया है. पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद ख़ाक़ान अब्बासी जिन्हें आरोपों में फंसा कर जेल में रखा गया है, अब उनका बेटा एनएबी के निशाने पर  हैं. पंजाब के पूर्व मंत्री राना सनाउल्लाह जिन्हें साफ़ तौर पर मादक पदार्थ के एक फ़र्जी मामले में गिरफ़्तार किया गया था, अब उन पर आय से अधिक संपत्ति का आरोप लगाया जा रहा है. इमरान के क़रीबी दोस्त और अब अलग हो चुके मशहूर उद्यमी जहांगीर तरीन के बेटे को कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के एक मामले में पिता के साथ निशाना बनाया जा रहा है. पूर्व रक्षा और विदेश मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ को जब-तब जेल में डाल देने की धमकी दी जाती है. ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना रुख़ नरम कर लिया है और माना जाता है कि नवाज़ की सेना से टक्कर लेने के बजाय शाहबाज़ की सेना के तुष्टीकरण की नीति के पक्ष में कदम बढ़ाया है. पीएमएल के भीतर साफ़ तौर से दिखाई देने वाला बंटवारा है जो उन लोगों के बीच है जो शाहबाज़ की नरमपंथी विचारधारा के पक्षधर हैं और जो नवाज़ की आक्रामक नीति के पक्षधर हैं. लेकिन ​नरमपंथी समर्थकों को एहसास है कि उनके नरमपंथी रुख़ ने सिर्फ़ ‘चयनित’ सरकार का मनोबल ही बढ़ाया है और उन्हें कुछ गुंजाइश देने के बजाय, और उनका स्थान और सीमित कर दिया है.

इस्लामाबाद में ऐसी अफ़वाहें हैं कि अगर इमरान ख़ान सरकार दिसंबर तक हालात काबू करने में और नतीजे देने में सक्षम नहीं हुई, तो उसे हटा दिया जाएगा– ज़ाहिर तौर पर ‘डीप स्टेट’ (सरकार से इतर सत्ता प्रतिष्ठान) अब सरकार के मामलों में घटनाक्रम पर गंभीरता से चिंतित है. 

इस राजनीतिक पृष्ठभूमि के ख़िलाफ़, एमपीसी ने पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के बैनर तले एक सरकार-विरोधी आंदोलन शुरू करने का फैसला लिया है. विपक्ष इमरान ख़ान के इस्तीफ़े की मांग कर रहा है, जो वो जानते हैं कि उन्हें नहीं मिलने वाला. अगले महीने, वे देश भर में संयुक्त विरोध रैलियों की श्रृंखला आयोजित करेंगे और सरकार को सत्ता से बाहर करने के लिए दबाव डालने को जनवरी में एक लॉन्ग मार्च शुरू करने के लिए माहौल बनाएंगे. इसकी टाइमिंग दिलचस्प है– इस्लामाबाद में ऐसी अफ़वाहें हैं कि अगर इमरान ख़ान सरकार दिसंबर तक हालात काबू करने में और नतीजे देने में सक्षम नहीं हुई, तो उसे हटा दिया जाएगा– ज़ाहिर तौर पर ‘डीप स्टेट’ (सरकार से इतर सत्ता प्रतिष्ठान) अब सरकार के मामलों में घटनाक्रम पर गंभीरता से चिंतित है. सेना प्रमुख के इमरान ख़ान के समर्थन के साथ-साथ आसिम बाजवा मामले पर नरम रुख़ के साथ सेना के शीर्ष क्षेत्रों में बेचैनी की अपुष्ट अफ़वाहें भी हैं. इसके अलावा, अगले साल मार्च में सीनेट के चुनाव होने हैं. इमरान ख़ान की पार्टी को इन चुनावों के बाद सीनेट में बहुमत हासिल करने की उम्मीद है, जो इसे और भी नाक़ाबिले-बर्दाश्त बना देगा. जो भी होना है, मार्च से पहले होना है. इसलिए जनवरी सबसे अच्छा समय है, बशर्ते कि विपक्ष सच में इसे गिरा सके, जो कि उसका मक़सद है.

और यहीं समस्या है कि हाइब्रिड सरकार लगभग निश्चित रूप से अपने राजनीतिक विरोधियों के उत्पीड़न को अगले स्तर पर ले जाएगी. इससे पहले की विपक्षी कोई आंदोलन शुरू कर सकें उन्हें ठिकाने लगाने के लिए मुक़दमों– नए और पुराने– की बाढ़ आने की संभावना है. इससे भी बढ़कर जबकि नवाज़ शरीफ़ ने अपने जोशीले भाषण के साथ निश्चित रूप से अपने समर्थकों को जोश से भर दिया होगा, उन्होंने सच में सेना को डरा दिया होगा, और वो इमरान के समर्थन के लिए पूरे ज़ोर से जुट गए होंगे. बेशक, बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि चीजें आगे कैसे बढ़ती हैं. अगर विपक्षी आंदोलन अपेक्षित गति पकड़ है, तो सेना इमरान से छुटकारा पाने और अपनी लड़ाई बाद में लड़ने का फ़ैसला ले सकती है. लेकिन अगर विपक्ष अपना मक़सद हासिल करने में नाकाम रहता है, तो पाकिस्तान कुछ और समय के लिए इमरान को झेलने पर मजबूर होगा.

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