Author : Sushant Sareen

Published on Oct 31, 2020 Updated 0 Hours ago

आगे आने वाले समय में, इमरान खान की सरकार, प्रतिशोध की भावना के साथ विपक्षियों को घेरने की तैयारी कर सकती है. सत्तारूढ़ दल स्पष्ट रूप से घबराया हुआ है

पाकिस्तान: पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने कैसे पार की पाकिस्तानी सेना की ‘नियंत्रण रेखा’?

अब से कोई 43 साल पहले साल 1977 में, पाकिस्तान में सैन्य तख्त़ापलट के तुरंत बाद, जनरल ज़ियाउल हक़ ने अपदस्थ प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को नज़रबंदी से रिहा किया था. ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने अपनी रिहाई के बाद इस बात को ज़ाहिर करने में अधिक वक्त नहीं लगाया कि सत्ता में वापस लौटते ही वो ज़ियाउल हक़ को सबक सिखाने और उनके किए कि सज़ा दिलवाने से पीछे नहीं हटेंगे. रिहाई के बाद भुट्टो जहां भी गए, बड़े पैमाने पर, सार्वजनिक रूप से उनका स्वागत हुआ और इसे देखते हुए, ज़ियाउल हक़ ने उनके लिए क़ब्र का रास्ता तय किया. अंतत: साल 1949 में भुट्टो उस कब्र में दफ़न हुए. इस घटनाक्रम के लगभग चार दशक बाद, पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने भी, एक सेवारत सैन्य और आईएसआई प्रमुख़ के ख़िलाफ़ भुट्टो की राह अपनाने का फैसला किया है.

इस साल 16 अक्टूबर को गुजरांवाला शहर में एक विशाल विरोध रैली को संबोधित करते हुए, नवाज़ शरीफ़ ने सेना के शीर्ष अधिकारियों पर आश्चर्यजनक और तीखे प्रहार किए. उन्होंने सेना प्रमुख जनरल क़मर बाजवा और आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ हमीद का नाम लेते हुए, उन्हें पाकिस्तान में मौजूद समस्यायों और मुश्किलों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया. नवाज़ शरीफ़ ने सेना के शीर्ष नेतृत्व पर आरोप लगाते हए कहा, कि उन्होंने आम लोगों से उनका जनादेश छीनते हुए, पाकिस्तान के असहाय लोगों पर पूरी तरह से एक निकम्मे और अक्षम नेता इमरान खान की सत्ता को काबिज़ करने का काम किया है. यहां तक कि धमकी देने के अंदाज़ में नवाज़ शरीफ़ ने कहा कि, सेना के इन अधिकारियों को अपनी करनी के लिए जवाब देना होगा. नवाज़ शरीफ़ ने दाग़ी और “करोड़ कमांडर” के नाम से मशहूर पूर्व कमांडर असीम बाजवा (जिन्हें कुछ हलकों में ‘चोर’ या ‘चोर कमांडर’ के रूप में भी संदर्भित किया जाता है) पर बलूचिस्तान में बैठी सरकार को अस्थिर करने का आरोप भी लगाया. सीधे शब्दों में कहें तो नवाज़ शरीफ़ ने पाकिस्तान की सेना के शीर्ष जनरलों पर पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 6 के तहत देशद्रोह का आरोप लगाया है.

नवाज़ शरीफ़ ने सेना के शीर्ष नेतृत्व पर आरोप लगाते हए कहा, कि उन्होंने आम लोगों से उनका जनादेश छीनते हुए, पाकिस्तान के असहाय लोगों पर पूरी तरह से एक निकम्मे और अक्षम नेता इमरान खान की सत्ता को काबिज़ करने का काम किया है. 

नवाज़ शरीफ़ कोई राजनीतिक आत्मघाती हमलावर नहीं है. वह किसी भी तरह से मूर्ख भी नहीं है. बाजवा नाम की इन दोनों शख्सियतों को लेकर उनके हमले, सोचे समझे और जानबूझकर किए गए हैं. यह एक उच्च कोटि के जोखिम वाली रणनीति है, जिसमें नवाज़ शरीफ़ सावधानी के साथ एक जुआ खेल रहे हैं. उन्होंने एक पिंजरे को झकझोरा है, और इसके चलते उन्होंने अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है. केवल इमरान खान को निशाना बनाना बेअसर होता, लेकिन बाजवा पर आरोप और उनके ख़िलाफ़ बोलना एक क्रांतिकारी क़दम है. यह कुछ ऐसा है जो सैन्य ताक़तों को यह सोचने पर मजबूर करेगा कि इमरान खान को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करने के अपने असफल राजनीतिक प्रयोग के लिए उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है? क्या सेना अपना नाम, एक असफल सरकार के साथ जोड़ा जाना पसंद करेगी, या फिर वह इस विफल सरकार को हटाकर सत्ता में परिवर्तन का रास्ता चुनेगी? यह एक ऐसा विकल्प है, जो इस रणनीति और इन बयानों के चलते, नवाज़ शरीफ़ ने सेना के सामने रखा है, और जिसे अपनाने के लिए वह सेना को मजबूर कर रहे हैं. लेकिन जैसा कि युद्ध में होता है और राजनीति में भी लागू है, नवाज़ शरीफ़ ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है, और गेंद अब सेना के पाले में है.

जनरल बाजवा के नेतृत्व वाले जनरलों के गुट के सामने अब वही स्थिति है, जो ज़ियाउल हक़ के सामने थी. ज़ाहिर है, वो नवाज़ शरीफ़ द्वारा उन पर किए गए इस सीधे हमले को नज़रअंदाज़ और दरकिनार नहीं कर सकते. नवाज़ शरीफ़ ने जनरलों को सीधे निशाना बनाकर उन्हें एक ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां से वापस लौटना उनके लिए मुमकिन नहीं है. अब तक, सेना और उसकी करतूतों को अंजाम देने वाले लोगों को अमूर्त रूप में संदर्भित किया जाता था, जैसे- ख़िलाई मख़लूक़ (एलीयन प्राणी) या फ़रिश्ते. अब इन लोगों को नाम दिया गया है, और सीधे तौर पर उन्हें दोषी ठहराया गया है, वो भी उनके सेवानिवृत्त होने के बाद नहीं बल्कि तब जब वो अपने पद पर हैं. इस बात को बिना किसी सज़ा के नज़रअंदाज़ करने का मतलब होगा कि सेना ने अपने लिए, ताक़त और राजनीतिक संरचना का जो ढांचा पाकिस्तान में बनाया है, उसे बड़ा झटका लगेगा और दशकों में बना सेना का वर्चस्व बिखर जाएगा. नवाज़ शरीफ़ की यह चुनौती, नागरिक समाज और सेना के बीच संबंधों में आमूल-चूल बदलाव करने की क्षमता रखती है. इसके बाद, हर राजनेता सैन्य जनरलों पर टिप्पणी करने और उन्हें आड़े हाथों लेने की हिम्मत महसूस करेगा, क्योंकि एक बार अगर सेना का डर ख़त्म हो जाता है, तो खेल बहुत हद तक सीधा है. सेना को इस बात का अंदेशा है, कि ऐसे में उनका हश्र भी पाकिस्तान की नौकरशाही जैसा ही होगा.

नवाज़ शरीफ़ की यह चुनौती, नागरिक समाज और सेना के बीच संबंधों में आमूल-चूल बदलाव करने की क्षमता रखती है. इसके बाद, हर राजनेता सैन्य जनरलों पर टिप्पणी करने और उन्हें आड़े हाथों लेने की हिम्मत महसूस करेगा, क्योंकि एक बार अगर सेना का डर ख़त्म हो जाता है, तो खेल बहुत हद तक सीधा है.

लेकिन इस समय सेना के सामने बहुत अच्छे विकल्प मौजूद नहीं हैं. वह निश्चित रूप से अपनी कमर कसकर, नवाज़ शरीफ़ के साथ उसी तरह का व्यवहार करना चाहते हैं जो उन्होंने अल्ताफ़ हुसैन के साथ किया था. मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) के प्रमुख अल्ताफ़ हुसैन की पार्टी और उनकी सत्ता को बेरहमी से तबाह कर दिया गया था जब उन्होंने पाकिस्तान को कैंसरग्रस्त और दुनिया के लिए एक अभिशाप कहा था. समस्या यह है कि अल्ताफ़, जो सिंध के दो शहरों में स्थित एक अल्पसंख्यक समूह का प्रतिनिधित्व करते थे, के विपरीत नवाज़ शरीफ़ का पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा के कई हिस्सों में दबदबा है, जो न केवल पाकिस्तान में ताक़त का केंद्र है, बल्कि ये ऐसे इलाक़े, जहां से सेना में बड़ी संख्या में भर्ती होती है.

भले ही अल्ताफ़ की तरह नवाज़ शरीफ़ भी सेना की पहुंच से बाहर हैं, लेकिन वह अपनी विशाल ताक़त का इस्तेमाल कर, उनके ख़िलाफ़ जा सकते हैं, खासतौर पर पीएमएल-एन (PML-N) के ख़िलाफ़. इसका मतलब है कि पीएमएल-एन को तोड़ने की कोशिश करना, उसके शीर्ष नेताओं को हांकना, उनके ख़िलाफ़ फर्जी मामले बनाना, मीडिया पर न केवल इस बात के लिए दबाव बनाना कि उन्हें अपनी बात कहने का मौका न मिले बल्कि विपक्षी नेतृत्व के ख़िलाफ़ एक व्यापक अभियान का संचालन करना. इसके साथ ही समझौतों और प्रलोभनों की पेशकश कर, दूसरी विपक्षी पार्टियों को पीएमएल-एन के साथ जाने से रोकना और नवाज़ शरीफ़ के राजनीतिक आधार को नष्ट करने के लिए जो कुछ भी संभव हो वह करना. समस्या यह है कि पूर्व सैन्य तानाशाह जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी यही सब करने की कोशिश की थी और वास्तव में वह कुछ हासिल करने में क़ामयाब नहीं रहे थे. इसके अलावा होगा ये कि इस तरह की गतिविधियां फिर भी उस समस्या को संबोधित नहीं करेंगी, जो सत्ता पर काबिज़ एक असफल नेता के सेना के ‘चुनाव’ से जुड़ी है.

ज़ाहिर है, इमरान खान का बचाव करना या उनके पक्ष में आगे आना, सेना के लिए उचित या उल्लेखनीय विकल्प नहीं है. इस फैसले के चलते, सेना पहले से ही भीषण आलोचना झेल रही है. इससे भी बुरी बात यह होगी कि विपक्षी दलों के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की कार्रवाई से ऐसी प्रतिक्रिया पैदा हो सकती है, जिसे संभलना सेना के लिए मुश्किल हो, या स्थिति उनके नियंत्रण से बाहर हो जाए. पहले से ही, इमरान खान के समर्थन को लेकर सेना की छवि धूमिल हो रही है, और उनके लापरवाह शासन से पैदा हुई सभी समस्याओं के लिए सेना को दोषी ठहराया जा रहा है. सेना के भीतर भी बेचैनी और असहजता बढ़ रही है. यह स्थिति जनरल परवेज़ मुशर्रफ के अंतिम दिनों की स्थिति से कोई खास अलग नहीं हैं, जब सेना के अधिकारी और सैनिक सार्वजनिक रूप से अपनी वर्दी पहनने में शर्मिंदगी महसूस करते थे. यह कुछ ऐसा है जिसे शीर्ष नेतृत्व अगर नज़रअंदाज़ करता है, तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.

विपक्ष की गुजरांवाला रैली उनके शक्ति प्रदर्शन का एक बड़ा मौका था. किसी को इस बात की उम्मीद नहीं थी कि इस रैली के अगले दिन से, इमरान इतिहास बन जाएंगे. लेकिन इस रैली ने अपने मकसद को पूरा करते हुए, मौजूदा सरकार और सत्ता के ख़िलाफ़ आंदोलन का बिगुल बजा दिया है. इस रैली ने इस बात को साबित किया है कि सेना द्वारा चुने गए इस मौजूदा ‘शासन’ के ख़िलाफ़ आधार बन रहा है, और लोगों में यह भावना घर कर रही है कि सरकार अपना काम नहीं कर रही है. सेना स्पष्ट रूप से सरकार के ख़िलाफ़ उमड़ती इन भावनाओं के प्रति सचेत होगी, क्योंकि सरकार किसी भी रूप में अपना काम करने में सफल नहीं रही है. लेकिन सेना भी फिलहाल असमंजस की स्थिति में है. उसके लिए बेहतर रणनीति यह रहेगी कि सेना इमरान खान से समर्थन वापस ले और चीज़ों को अपने आप ढहने दे. यह कुछ हद तक सेना की छवि को बेहतर बनाने का काम करेगा. समस्या यह है कि अगर ऐसा होता है तो शीर्ष सैन्य अधिकारियों की स्थिति क्या होगी? एक हद तक, बाजवा और उनके साथियों की किस्मत अब इमरान खान से जुड़ी हुई है, और पाकिस्तान का इतिहास यह दिखाता है, कि मौका रहते कोई भी आत्म-सम्मान के साथ सर झुकाने का विकल्प नहीं चुनता है. बाजवा, इमरान का साथ छोड़कर, स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन इससे उनकी स्थिति कमज़ोर होगी, क्योंकि वह अब कई तरह से विवादों में घिर चुके हैं. इसका मतलब यह है कि बेवकूफ़ी का क़दम उठाने का उनका लालच, जैसे- इमरान खान का बचाव करना, और बढ़ जाएगा. लेकिन इसके अपने नतीजे और अनपेक्षित परिणाम होंगे, जिसमें सेना की छवि का धूमिल होना भी शामिल है.

सेना स्पष्ट रूप से सरकार के ख़िलाफ़ उमड़ती इन भावनाओं के प्रति सचेत होगी, क्योंकि सरकार किसी भी रूप में अपना काम करने में सफल नहीं रही है. लेकिन सेना भी फिलहाल असमंजस की स्थिति में है. उसके लिए बेहतर रणनीति यह रहेगी कि सेना इमरान खान से समर्थन वापस ले और चीज़ों को अपने आप ढहने दे.

इमरान खान के साथ बने रहने का मतलब यह भी है कि सेना को उनकी असफलताओं के लिए ज़िम्मेदारी लेनी होगी. इसमें इमरान खान की वह महान राजनीतिक प्रतिभा भी शामिल है, जिसके ज़रिए उन्होंने विपक्ष को एकजुट कर, एक मंच पर लाने का, असंभव काम कर दिखाया है. इमरान ने इस काम को, विपक्ष के प्रति अपमानजनक, अशोभनीय, विरोधी और आक्रामक रवैया अपनाकर किया. वह इन हरकतों का परिणाम भुगतने से शायद बच भी जाते अगर उन्होंने काम करने वाली और सुशासन से चलने वाली सरकार दी होती और पाकिस्तान के आम लोगों की ज़िंदगी को कुछ हद तक बेहतर बनाया होता. लेकिन इसके उलट, उनकी शासन व्यवस्था, जीवित स्मृति में अब तक की सबसे ख़राब शासन व्यवस्था है, और रोज़ी-रोटी से जुड़े मुद्दों- मुद्रास्फ़ीति, रोज़गार, सार्वजनिक उपयोगिताओं के प्रावधानों पर उनका प्रदर्शन इतना ख़राब है कि इसने विपक्ष को लामबंद होने का बेहतरीन मौका दिया है. वह भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बातें कर लोगों का ध्यान खींचने में माहिर हैं, यह बात सर्वविदित थी, लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर उनके चुनिंदा दृष्टिकोण ने उन्हें इस हथियार से भी दूर कर दिया है.

गुजरांवाला में, विपक्षी नेताओं ने सेना को निशाना बनाने के लिए उसकी विफलताओं का इस्तेमाल किया. नवाज़ शरीफ़ ने सही जगह प्रहार करते हुए, अपने भाषण की शुरुआत, पाकिस्तान में लोगों की रोज़मर्रा ज़िंदगी में बढ़ रहे आर्थिक संकट से किया. नवाज़ शरीफ़ का दूसरा हमला, राष्ट्रीय सुरक्षा के मु्द्दे पर था, विशेष रूप से भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर पर अपनी पकड़ मज़बूत बनाने को लेकर. नवाज़ शरीफ़, मौलाना फज़लुर रहमान, बिलावल भुट्टो, सभी ने इमरान खान के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है, और उन पर कश्मीर को लेकर भारत के साथ सौदा करने का आरोप लगाया है. मौलाना ने गिलगित बल्तिस्तान पर कब्ज़ा करने की पाकिस्तानी योजना को भी नाकामी करार दिया. यह कुलमिलाकर सेना के लिए चीज़ों को जटिल बनाने वाली परिस्थिति है.

नवाज़ शरीफ़ ने सही जगह प्रहार करते हुए, अपने भाषण की शुरुआत, पाकिस्तान में लोगों की रोज़मर्रा ज़िंदगी में बढ़ रहे आर्थिक संकट से किया. नवाज़ शरीफ़ का दूसरा हमला, राष्ट्रीय सुरक्षा के मु्द्दे पर था, विशेष रूप से भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर पर अपनी पकड़ मज़बूत बनाने को लेकर.

आगे आने वाले समय में, इमरान खान की सरकार, प्रतिशोध की भावना के साथ विपक्षियों को घेरने की तैयारी कर सकती है. सत्तारूढ़ दल स्पष्ट रूप से घबराया हुआ है, और परेशान है. ऐसे में उसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया विपक्ष को प्रताड़ित करने की होगी. लेकिन जो बात मायने रखती है, वह ये है कि सेना क्या रुख अपनाती है. यदि सेना ख़ुद को इस सब से दूर रखती है, तो इसका मतलब होगा कि वह इमरान खान से ख़ुद को दूर कर रही है. यह अपने आप में इस बात का संकेत होगा कि इमरान के लिए खेल अब ख़त्म हो गया है, और इससे विपक्षी दलों के आंदोलन को और हवा मिलेगी. दूसरी ओर, यदि सेना इमरान की सरकार का समर्थन करती है, तो यह क़दम उनकी विफलता को और भी मज़बूत से उजागर करेगा, और सभी जानते हैं कि यह सेना के लिए किसी आपदा से कम नहीं होगा.

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