Author : Hari Bansh Jha

Published on Jun 21, 2017 Updated 0 Hours ago

वन बेल्ट वन रोड में शामिल होना नेपाल को क्यों भारी पड़ सकता है।

नेपाल के लिए वन बेल्ट वन रोड वरदान यां अभिशाप

वन बेल्ट वन रोड फोरम पर बीजिंग में 14 मई को शुरू हो रहे दो दिन के सम्मेलन से दो दिन पहले नेपाल सरकार ने चीन के साथ ढांचागत समझौते पर दस्तखत कर दिए हैं। काठमांडू में इस समझौते पर नेपाल के विदेश सचिव शंकर दास बैरागी और चीन के राजदूत यो होंग ने दस्तखत किए। इस दौरान उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कृष्ण बहादुर महारा और विदेश मंत्री प्रकाश शरन माहत भी मौजूद थे। महारा के नेतृत्व में देश का प्रतिनिधि मंडल सम्मेलन में भाग लेने भी गया। इसमें दो और मंत्री भौतिक ढांचा मंत्री रमेश लेखक और संचार मंत्री सुरेंद्र कारकी भी शामिल थे। 28 राष्ट्राध्यक्षों और 150 से ज्यादा देशों ने इस सम्मेलन में भाग लिया।

शुरुआत में चीनी सरकार ने प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल को भी ओबीओआर सम्मेलन में भाग लेने का न्यौता दिया था। लेकिन वे इसमें भाग नहीं ले पाए, क्योंकि उसी दिन यानी 14 मई को उन्हें देश में स्थानीय चुनावों में व्यस्त रहना था।

इससे पहले नेपाल लंबे समय तक बीजिंग के दबाव के बावजूद ओबीओआर में शामिल होने से बचता रहा है। संभवतः नेपाल ऐसा करने से इसलिए भी बच रहा था, क्योंकि इसे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले इसके नकारात्मक प्रभाव का अंदाजा था। लेकिन चीन के साथ दस दिन के सैन्य प्रशिक्षण अभ्यास के तुरंत बाद नेपाल सरकार की ओर से ओबीओआर सम्मेलन में भाग लेने का अचानक किया फैसला नेपाल के राजनीतिक पंडितों की समझ में भी नहीं आ रहा।

जैसा कि सभी जानते हैं कि एक खरब अमेरिकी डॉलर की ओबीओआर परियोजना चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पहल है जिसे उन्होंने 2013 में शुरू किया था। योजना के मुताबिक, ओबीओआर को प्राचीन सिल्क रूट की तर्ज पर विकसित किया जाना है। इससे 65 देश जुड़ेंगे जिसके तहत एशिया, पूर्वी अफ्रीका, मध्य-पूर्व और यूरोप के 4.4 अरब लोग आते हैं। ओबीओआर के तहत ही 54 अरब डॉलर की विवादास्पद और महत्वाकांक्षी चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) परियोजना पश्चिमी चीन के कशगार को पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से जोड़ती है जो अरब सागर पर स्थित है और ईरान की सीमा से बहुत सटा हुआ है। यह परियोजना पाकिस्तान के विवादास्पद उत्तरी क्षेत्र से हो कर जाती है जिसको ले कर भारत दावा करता है कि यह इसके जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा है।

नेपाल सरकार ने ओबीओआर पर दस्तखत तो कर दिए हैं, लेकिन अब तक देश में किसी तरफ से इस बात की कोई कोशिश नहीं हुई है कि देश में इसके लाभ-हानि पर कोई व्यापक बहस चलाई जाए। नेपाल के आम लोगों को अंधेरे में रखा गया है और उन्हें इसके अंजाम को ले कर बहुत कम जानकारी है। इतना ही नहीं, नेपाल में कुछ लॉबी इस प्रचार में लग गई हैं कि ओबीओआर से सड़क और रेल जैसी ढांचागत सुविधाएं विकसित करने में काफी मदद मिलेगी जो देश के दीर्घकालिक विकास में बहुत उपयोगी होगा।

हालांकि, अनुभव यही बताता है कि जो देशों ओबीओआर में शामिल हुए हैं, उन्हें अब तक ऐसा कोई लाभ नहीं मिला है। अगर इस परियोजना ने किसी देश के भौगोलिक-रणनीतिक हितों को साधा है तो वह है चीन।

ओबीओआर पर किए गए अध्ययन बताते हैं कि इसमें अनुदान का हिस्सा न्यूनतम है। उदाहरण के तौर पर, सीपीईसी में अनुदान का हिस्सा सिर्फ चार प्रतिशत है और बाकी रकम पाकिस्तान को चीन के व्यावसायिक बैंकों की ओर से काफी ऊंची ब्याज दर पर दी गई है।

ओबीओआर परियोजना चीन को यह मौका प्रदान कर रही है कि वह इसमें शामिल होने वाले देशों के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सके। यह चीन को अपने सामान के लिए बाजार भी मुहैया करवाएगी जो अक्सर कमतर गुणवत्ता के होते हैं। इनके सस्ते मूल्य की वजह से स्थानीय उद्योगों के लिए ऐसे सामानों से मुकाबला करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में इन देशों में बेरोजगारी भी बढ़ रही है।

ओबीओआर परियोजनाओं में स्थानीय श्रम का न्यूनतम इस्तेमाल होता है। अपने सहयोग से बनने वाली परियोजनाओं के प्रबंधन के नियंत्रण को ले कर भी चीन अक्सर बहुत आक्रामक रवैया अपना लेता है। श्रीलंका के हमबनतोला पोर्ट और पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट के मामले में यह बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है।

ध्यान देने की बात है स्टील, सीमेंट और अन्य निर्माण सामग्री के देश में अत्यधिक निर्माण की वजह से चीन की मजबूरी है कि वह ओबीओआर परियोजना को बढ़ावा दे। इन सामग्रियों को किसी दूसरी जगह पहुंचा कर चीन को यह सुनिश्चित करना है कि उसकी फैक्ट्रियां चलती रहें और लोगों का रोजगार बना रहे।

ओबीओआर का एक और मकसद पड़ोस के देशों के साथ ही विश्व भर में चीन के प्रभाव को बढ़ाना है। जिन देशों को इसके तहत कर्ज मिलता है, वे अक्सर चीन के हितों की रक्षा के लिए काम करने के दबाव में होते हैं। दक्षिण चीन सागर पर अधिपत्य के दावों के संबंध में लाओस, कंबोडिया, म्यामार और थाइलैंड को अपने साझा रवैये को चीन के दबाव में छोड़ना पड़ा। अगर ये देश चीन की लाइन पर नहीं चलते तो वह इन देशों को ओआरओबी के तहत मिलने वाले कर्ज को रोक सकता था।

ओबीओआर के तहत दिए जाने वाले कर्ज के लिए शर्तें इतनी सख्त हैं कि कई देशों को अब कर्ज के इस जाल से बाहर निकलना बेहद मुश्किल लगने लगा है। कुछ क्षेत्रों में तो यह धारणा भी घर करने लगी है कि यह औपनिवेशीकरण की ओर एक कदम है। यही वजह है कि महज दो-तीन साल की छोटी अवधि में ही ओबीओआर को ले कर लोगों में असंतोष घर करने लगा है। श्रीलंका और नाइजीरिया सहित कई देशों में चीनी कंपनियों के खिलाफ जांच शुरू हो गई है, जो गैरकानूनी तरीकों से सत्ता को प्रभावित कर रही हैं।

चर्चा दुबारा नेपाल पर लाएं तो इस बात की काफी आशंका है कि यह चीन के साथ ओबीओआर से जुड़ी शर्तों से निपटने में नाकाम रहे। ऐसे में यह चीन के कर्ज के जाल में फंस सकता है। इसके तहत तैयार होने वाली ढांचागत परियोजनाओं का भी इसकी अर्थव्यवस्था को लाभ मिलने वाला नहीं है।

ओबीओआर के परिणामों से अच्छी तरह अवगत होने की वजह से भारत इस चीनी पहल के साथ जुड़ने से बचता रहा है। यहां तक कि बीजिंग में इस सम्मेलन में भी भारत सरकार ने कोई भागीदारी नहीं की। कुछ कारोबारी जरूर इसमें निजी हैसियत से शामिल हुए होंगे।

मुमकिन है कि ओबीओआर समझौते के तहत चीन को नेपाल में जो रणनीतिक बढ़त मिलेगी, उससे भारत को अपने पड़ोस में अपना प्रभाव गंवाना पड़े। लेकिन इस तरह नेपाल को अपना नुकसान भी कम ही होगा, क्योंकि यह अपनी संप्रभुता के साथ समझौता कर रहा होगा। प्रचंड सरकार या भविष्य की कोई दूसरी सरकार भी ओबीओआर परियोजनाओं के तहत देश में शामिल होने वाले तत्वों को नियंत्रित करने में असमर्थ हो सकती है। श्रीलंका, पाकिस्तान और अन्य देशों का अनुभव ऐसा ही रहा है। नेपाल में ऐसा नहीं होगा, इसका कोई कारण नहीं है। लेकिन जब तक नेपाल को अपनी गलती समझ में आएगी, संभवतः तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

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