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अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ने और रुपये की कीमत घटने का हवाला देकर पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ायी जा रही हैं।
नवंबर 2014 के बाद पहली बार इस साल मई में कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गयी थी। आंकड़े इंगित करते हैं कि अमेरिका, जापान और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था अपेक्षा से बेहतर प्रदर्शन कर रही है। इस कारण तेल की मांग बढ़ रही है। फिलहाल कच्चे तेल की कीमत 78 डॉलर के आसपास है। इसका दूसरा पहलू यह है कि आपूर्ति को नियंत्रित करके रखा गया है, जो कि तेल उत्पादक देशों के संगठन (ओपेक) की योजना के अनुरूप है।
अमेरिकी उत्पादक भी कीमत और बढ़ने के इंतजार में कम आपूर्ति कर रहे हैं। इस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कीमत के उछाल के कई कारक हैं। इस साल नवंबर में ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध लागू होने की स्थिति ने भी आपूर्ति के स्तर पर असर डाला है।
भारत तकरीबन 1,575 मिलियन बैरल कच्चा तेल हर हाल आयात करता है। डॉलर के दाम बढ़ने से इस आयात खर्च में 1.6 बिलियन डॉलर यानी 10 हजार करोड़ रुपये की वृद्धि का अनुमान है।
इसके साथ रुपये में गिरावट ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। हाल में मुख्य आर्थिक सलाहकार ने कहा है कि एक बैरल तेल की कीमत में 10 डॉलर की बढ़त से सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) की बढ़ोतरी में करीब 0.2 से 0.3 तक की कमी होती है और इससे चालू खाता घाटे में नौ से 10 बिलियन डॉलर की वृद्धि हो जाती है। अगर हम इस समीकरण में रुपये में गिरावट को जोड़ लें, तो भारत में तेल की कीमतें और भी बढ़ सकती हैं।
तेल के मूल्य निर्धारण में कथित ‘डिरेगुलेशन’ ने स्थिति को और भी जटिल बनाया है और भारतीय उपभोक्ताओं का बोझ बढ़ाया है। पिछले साल मई से सरकार ने तेल को डिरेगुलेट किया और उसके बाद से तेल कंपनियां लगभग रोजाना दाम बढ़ा रही हैं।
हिसाब देखें, तो इस साल 22 मार्च और 24 अप्रैल के बीच सात पैसे प्रतिदिन के औसत से कीमतें बढ़ीं। कर्नाटक चुनाव के दौरान 25 अप्रैल से 13 मई के बीच बढ़त रुक गयी, फिर 14 मई से 25 पैसे रोजाना के औसत से कीमतें बढ़ीं। तब से यह बढ़त जारी है। बीते सोमवार को पेट्रोल में 23 पैसे और डीजल में 22 पैसे की बढ़ोतरी हुई है। देश में पेट्रोल 80.73 से 90 रुपये और डीजल 72.83 से 78 रुपये प्रति लीटर के बीच बेचा जा रहा है।
घरेलू अर्थव्यवस्था में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पेट्रोल और डीजल पर भारी शुल्क लगाया जाता है। बीते चार सितंबर को पेट्रोल पर केंद्रीय एक्साइज ड्यूटी 19.48 रुपये और डीजल पर 15.33 रुपये प्रति लीटर थी। कच्चे तेल की कीमत 35.89 रुपये है, जबकि पेट्रोल और डीजल की बुनियादी कीमत 39.34 रुपये और 43.03 रुपये प्रति लीटर है।
बाकी दाम में केंद्रीय शुल्क के अलावा राज्यों के वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) और डीलरों के कमीशन (पेट्रोल के लिए 3.63 रुपये और डीजल के लिए 2.53 रुपये प्रति लीटर) शामिल हैं। इस तरह से दिल्ली में ग्राहक को पेट्रोल में लगभग 45 प्रतिशत और डीजल में 36 प्रतिशत टैक्स के रूप में देना पड़ रहा है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ने और रुपये की कीमत घटने का हवाला देकर पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ायी जा रही हैं। जैसा कि पहले बताया गया है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल महंगा है और रुपये में भी गिरावट जारी है।
लेकिन, यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि 2011 और 2014 के बीच कच्चे तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल से ज्यादा ही रही, फिर भी घरेलू बाजार में आज तेल तब की तुलना में बहुत महंगा है। इसका एक सबसे बड़ा कारण केंद्र और राज्य की सरकारों द्वारा लगाया जानेवाला शुल्क है। इसलिए इन शुल्कों में कुछ कटौती करके महंगे तेल के बोझ से कुछ राहत दी जा सकती है।
लेकिन, यह भी है कि इन शुल्कों से भारी राजस्व प्राप्त होता है। फिलहाल सिर्फ राजस्थान और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने कुछ कमी की है। यह भी संयोग है कि इन दोनों ही राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं और, पर्यवेक्षकाें की मानें, तो इस कटौती का यह एक कारण हो सकता है।
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के दायरे में तेल नहीं आता है और इस कारण यह कुछ गिने-चुने उत्पादों में है, जिनसे राज्य सरकारें अपने लिए कुछ आमदनी जुटा सकती हैं। इसी वजह से अलग-अलग राज्यों में लगाये गये शुल्क अलग-अलग हैं। चूंकि कुछ समय से वैट और जीएसटी के कारण कर-संग्रह ज्यादा केंद्रीय होता जा रहा है, ऐसे में राज्यों के पास राजस्व जुटाने के कम रास्ते हैं।
तात्कालिक रूप से सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोगों को पेट्रोल और डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों से राहत कैसे दी जाये। इसके लिए केंद्र और राज्य के स्तर पर करों में कटौती करना तो जरूरी है ही, साथ ही अर्थव्यवस्था में उन कारकों पर भी नियंत्रण के प्रयास किये जाने चाहिए, जिनके चलते कीमतों में उछाल की स्थिति बनती है।
लेकिन, इस संबंध में केंद्र और राज्य सरकारों की उदासीनता की परिपाटी को देखते हुए निकट भविष्य में इस बात की कम ही संभावना है कि शुल्कों में कोई उल्लेखनीय कटौती की जायेगी। ऐसे में देश की आम जनता पर कई स्तरों पर महंगाई के बोझ के लगातार बढ़ते जाने की आशंका बनी ही हुई है।
ये विश्लेषण मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित हुई थी।
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Abhijit was Senior Fellow with ORFs Economy and Growth Programme. His main areas of research include macroeconomics and public policy with core research areas in ...
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