श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे अपनी पहली विदेश यात्रा पर भारत आए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की. इससे और कुछ नहीं तो दोनों को द्विपक्षीय रिश्तों की समीक्षा का तो मौका मिला ही है. यूं भी पिछले एक दशक में भारत और श्रीलंका ने द्विपक्षीय रिश्तों को लेकर सिर्फ़ बातें की हैं, उन पर कोई एक्शन नहीं लिया. अगर इसमें पिछले तीन दशक में श्रीलंका में हुए युद्ध और हिंसा को जोड़ दें तो लगता है कि दोनों देशों के पास करने को बहुत कुछ है और उन्हें तुरंत इस दिशा में काम शुरू कर देना चाहिए. इस क्षेत्र से बाहर के श्रीलंका के सहयोगियों की वजह से भारत ने उस पर संदेह करना शुरू किया, जो समय के साथ गहराता गया.
शीत युद्ध के दौर में श्रीलंका का गैर-क्षेत्रीय सहयोगी अमेरिका था और हाल के वर्षों में चीन के साथ उसकी खूब छनती आई है. भू-राजनीतिक नज़रिये से देखें तो भारत भी रूस से छिटककर अमेरिका के क़रीब आ गया है और अब वह इस क्षेत्र से बाहर भी प्रभाव कायम करना चाहता है. हालांकि, उसकी यह महत्वाकांक्षा अमेरिका, चीन या पहले से सोवियत संघ जितनी बड़ी नहीं है. शीत युद्ध के बाद जिस तरह से अमेरिका-यूरोप शांति और बातचीत का रवैया अपनाकर अपने दुश्मन चीन की दहलीज वियतनाम तक पहुंच गए, ठीक वही रास्ता भारत भी अपनाना चाहता है. पहले वह काफी हद तक पाकिस्तान और उसके बाद चीन तक केंद्रित था, लेकिन अब भारत की दिलचस्पी इस क्षेत्र के बाहर प्रभाव बढ़ाने में दिख रही है. श्रीलंका के पूर्व और मौजूदा सहयोगियों को लेकर भारत के मन में ख़ुद के पिछले तज़ुर्बे की वजह से आशंकाएं हैं. इस क्षेत्र के बाहर की जो ताक़तें (रूस), जो भारत की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने में मदद करना चाहती थीं, वे शायद हमारे पड़ोस तक पहुंच चुकी थीं, जैसे कि ‘बांग्लादेश युद्ध’ के वक्त सोवियत संघ.
चाहत और आस
राष्ट्रपति गोटाबाया ने श्रीलंका के रक्षा सचिव के पद पर रहने के दौरान ‘ब्लू वॉटर नेवी’ की हसरत जताई थी, लेकिन इसके बावजूद श्रीलंका की दिलचस्पी अभी तक ‘नेबरहुड सिक्योरिटी’ तक सीमित रही है. शीत युद्ध के दौरान श्रीलंका जहां अमेरिका के साथ था, वहीं भारत सोवियत संघ के साथ. उन्होंने अपने हितों की रक्षा के लिए ये सहयोगी चुने थे, जो आपस में प्रतिद्वंद्वी थे. इसी वजह से बार-बार भारत और श्रीलंका के बीच कुछ समस्याएं खड़ी होती रहती हैं.
अब इन दोनों के बीच जो भी बातचीत होगी, वह अतीत से जुड़ेगी. जो बातें भुला दी गई हैं, पर शायद भुलने लायक नहीं हैं, वो आपसी रिश्तों के आड़े आएंगी. बातचीत की मेज पर ऐसे मुद्दे और प्रकरण उठाए जाएंगे. हालांकि, जिस तरह से भारतीय प्रधानमंत्री ज़बरदस्त जनादेश के साथ सत्ता में आए थे, वैसा ही जनादेश गोटाबाया को भी मिला है. इसलिए यह आपसी विवाद सुलझाने का सबसे बेहतर समय है. दोनों नेता अपने देश को नए रास्ते पर ले जा सकते हैं. उन्हें यह पक्का करना होगा कि आज द्विपक्षीय संबंध अतीत की बेड़ियों में न जकड़े जाएं. राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद श्रीलंका सरकार में कुछ लोग कह रहे हैं कि दोनों देश हिंद महासागर का शांति का क्षेत्र घोषित करना चाहते हैं. चीन से जुड़े सुरक्षा मुद्दों पर बातचीत के लिए यह प्रस्थान बिंदु हो सकता है. भारत के साथ श्रीलंका के रिश्तों में अमेरिका की बड़ी भूमिका रह सकती है, जिसका अहसास हमारे पड़ोसी देश को भी है. वहां के पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने पद पर बने रहने के दौरान कई बार कहा था कि पहले तो भारत को श्रीलंका को क्षेत्रीय सहयोगी के रूप में स्वीकार करना होगा. साथ ही, उस पर पूरा भरोसा दिखाना होगा. इसके बाद सुरक्षा मामलों में उसे अमेरिका की छतरी के नीचे लाना पड़ेगा.
कर्ज़ का जाल और कुछ अन्य सवाल
जो बात श्रीलंका पर लागू होती है, वह अन्य पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में भी भारत के काम आ सकती है. इसके लिए वित्तीय मदद को लेकर भारत को चीन की तरह ही प्रतिबद्धता दिखानी होगी. अगर कोई चीन के कर्ज़ के जाल में फंसा है तो भारत को उससे बाहर निकलने का रास्ता दिखाना होगा और उसकी आर्थिक मदद करनी होगी. अगर यह मान लें कि भारत, श्रीलंका को चीन के गिरफ़्त से आज़ाद नहीं करा पाता तो उसने ‘शांति के क्षेत्र’ वाले उसके विचार पर गंभीरता से सोचना होगा.
आपसी भरोसा बनाएं दोनों देश
शीत युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत की अहमियत घट गई थी. अब ऐसा नहीं है. इसलिए भारत ऐसी राजनयिक पहल के केंद्र में हो सकता है और सामरिक चिंताओं को वह इस क्षेत्र के बाहर के अपने सहयोगियों पर छोड़ सकता है. इसका मतलब है कि पहले तो दो देश आपसी भरोसा बनाएं और बाद में पूरे क्षेत्र के साथ इसी तरह के संबंध स्थापित करें. उन्हें आगे चलकर आपसी सहयोग की सारी संभावनाएं तलाशनी चाहिए और इस प्रक्रिया में उसका परीक्षण भी किया जाना चाहिए. भारत और श्रीलंका संयुक्त रक्षा सहयोग समझौता कर सकते हैं, लेकिन शायद इसमें वक्त लगेगा. भारत, श्रीलंका और मालदीव हर दो साल पर ‘दोस्ती’ अभियान के तहत संयुक्त तटरक्षक अभ्यास का दायरा बढ़ा सकते हैं. तीनों देशों की सुरक्षा चिंताएं समान हैं. इससे उन्हें इसके लिए शुरुआती मंच मिल सकता है. तीनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (NSA) के बीच क़रीब 10 साल पहले इस पर बातचीत हुई थी, लेकिन इस मामले में अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई है.
सूचनाओं का आदान-प्रदान ज़रूरी
भारत के पड़ोसी देशों में इसका अहसास बढ़ रहा है कि उन्हें क्षेत्र के बाहर की किसी बड़ी ताकत की तुलना में एक दूसरे की कहीं अधिक जरूरत है. वे जानते हैं कि बाहर की बड़ी ताकत के दखल देने से स्थिति खराब होगी और उनके हाथ कुछ नहीं लगेगा. भारत और श्रीलंका के बीच भले ही अभी आपसी भरोसे का इम्तिहान चल रहा है, लेकिन उन्हें एक दूसरे को इस क्षेत्र से बाहर की अपनी गतिविधियों की जानकारी देनी चाहिए और वे इस पर आपस में बातचीत भी कर सकते हैं. इसमें आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक सभी मुद्दों को शामिल किया जाना चाहिए. हो सके तो भारत तो श्रीलंका को हथियारों की आपूर्ति भी करनी चाहिए. युद्ध के दौरान श्रीलंका इस बारे में भारत को सूचनाएं दिया करता था. भले ही इसके खत्म होने के बाद शांति के दौर में उसने यह काम न किया हो. श्रीलंका को तब इसका भी अहसास था कि भारत उसे हथियारों की सप्लाई करने की स्थिति में नहीं है.
युद्ध के आखिरी चरण में जब इजरायल और पश्चिमी देशों ने उसे हथियारों की सप्लाई बंद कर दी, तब उसके पास इसके लिए पाकिस्तान और चीन के अलावा अन्य विकल्प नहीं बचे थे. श्रीलंका की राष्ट्रपति तब चंद्रिका भंडारनायके कुमारतुंगा (CBK) थीं. भले ही वह एक दशक से अधिक समय से राजपक्षे से नफरत करती आई थीं, लेकिन हथियारों के मामले में यह कदम उनके राज के दौरान ही उठाया गया था. भंडारनायके के राष्ट्रपति काल में साल 2001 से 2004 तक रानिल विक्रमसिंघे प्रधानमंत्री थे और उन्होंने भी ऐसा ही किया. वैसे, भंडारनायके और विक्रमसिंघे में बनती नहीं थी. कुछ ऐसा ही हाल में राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और उनके प्रधानमंत्री के साथ हुआ था. कहने का मतलब यह है कि राजपक्षे उतने ही श्रीलंका केंद्रित हैं, जितने हाल के वर्षों में वहां के अन्य नेता रहे हैं.
पिछले साल श्रीलंका के मौजूदा प्रधानमंत्री और पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे भारत यात्रा पर आए थे. तब उन्होंने आपसी संबंधों के लिए युद्ध काल के तीन शीर्ष नेताओं वाले मॉडल को अपनाने की सलाह दी थी ताकि किसी तरह की शंका दूर की जा सके और तेजी से निर्णय लिए जाएं. हालांकि, उस दौर के द्विपक्षीय रिश्तों का जो तजुर्बा रहा है, उससे एथनिक, आर्थिक सहयोग और चीन जैसे तीन प्रमुख मुद्दों पर भारत बहुत उम्मीद नहीं कर सकता. शीर्ष स्तर पर द्विपक्षीय मसलों को सुलझाया जाए तो इससे संबंधित मुद्दों पर जल्द फैसले लेने में मदद मिलेगी. युद्ध काल में बेशक यह अच्छी नीति थी. हालांकि, इस मॉडल में एक दूसरे की चिंता को देखकर रुख बदलने का रास्ता बंद हो जाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें दोनों देशों के संस्थानों की भूमिका नहीं रह जाती, न ही अतीत में उनके योगदान से हम कुछ सीख पाते हैं और उसका फायदा ले पाते हैं.
गौर करने लायक बात यह है कि गोटाबाया और मोदी की यह पहली मुलाकात थी. दोनों एक साथ अपने-अपने देशों के नेता कभी नहीं रहे थे. इसलिए यह दोनों के लिए एक दूसरे को जानने का मौका भी था. इसके साथ सच यह भी है कि राजपक्षे परिवार और उनके शीर्ष प्रशासनिक-राजनीतिक सहयोगी फिर से सत्ता में आ गए हैं.
पाकिस्तान को साइडलाइन किया जाए
कहते हैं कि पुडिंग का जायका उसे खाने पर ही पता चलता है. गोटाबाया ने अपनी जो काल्पनिक छवि बनाई है, भारत उससे पॉजिटिव नतीजे निकलने का इंतजार करेगा. श्रीलंका को भी ऐसी ही उम्मीद होगी. गोटाबाया-मोदी की मुलाकात के बाद दोनों नेताओं ने आतंकवाद को सबसे बड़ी चिंता बताया था. यह अच्छी शुरुआत है. इस मोर्चे पर दोनों देशों को मिलकर काम करने की जरूरत है. आतंकवाद के खिलाफ़ इस पहल में भारत और श्रीलंका को दक्षिण एशिया के अधिक से अधिक पड़ोसी देशों को जोड़ना चाहिए और उसकी जरूरत भी है. हालांकि, ऐसी किसी भी पहल से पाकिस्तान को अलग रखना होगा, जो आज भी भारत के खिलाफ़ आतंकवाद का सबसे बड़ा ठिकाना बना हुआ है. श्रीलंका ने 2016 में इस्लामाबाद में होने वाले सार्क सम्मेलन का ज्यादातर पड़ोसी देशों के साथ बहिष्कार किया था. भारत और श्रीलंका के लिए संबंधों को मज़बूत करने की बातचीत का यह बढ़िया आधार हो सकता है. गोटाबाया सरकार अगर पाकिस्तान को लेकर इसी नीति पर चलती रही तो भारत सरकार और यहां के सैन्य प्रशासन के मन में श्रीलंका को लेकर कोई संदेह नहीं पनपेगा.
चीन के मामले में भारत को इंतजार करना होगा. श्रीलंका की पिछली सरकार ने हंबनटोटा बंदरगाह परियोजना के लिए कर्ज़ के बदले हिस्सेदारी वाले मॉडल का सुझाव दिया था. गोटाबाया सरकार ने इसकी समीक्षा की बात कही है. भारत को देखना चाहिए कि वह इस मामले में क्या करती है. इस मामले में उसके हाथ क्या लगता है, इसके साथ यह भी जरूरी है कि वह ज़मीनी स्तर पर लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या करती है.
भारत और श्रीलंका के द्विपक्षीय रिश्तों के बीच एक और अड़चन एथनिक मुद्दे से जुड़ा है क्योंकि श्रीलंका में तमिल मूल की अच्छी-ख़ासी आबादी है. इसके साथ लिट्टे के खिलाफ़ अभियान के दौरान युद्ध अपराधों की जांच और जवाबदेही सुनिश्चित करने जैसे मुद्दे भी हैं. भारत इस मामले में श्रीलंका से राजनीतिक समाधान के संकेत का इंतजार करेगा. मुमकिन है कि भारत को यह पता न हो कि वहां का तमिल नेतृत्व कौन सा खेल, खेल रहा है. वहीं श्रीलंका यह देखना चाहता है कि सितंबर में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत का रुख क्या रहता है. यह मामला गोयाबाया के सत्ता में आने के बाद स्विस एंबेसी के एक स्टाफ के कथित अपहरण से जुड़ा है.
अगर श्रीलंका सरकार के नज़रिये से देखें तो एक सीमा के बाद चीन और एथनिक मुद्दे जुड़ सकते हैं. सिरिसेना-विक्रमसिंघे की तुलना में राजपक्षे को चीन और रूस के अलावा गैर-पश्चिमी देशों में दोस्तों की जरूरत है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन और रूस के पास वीटो का अधिकार है. भारत के पास ऐसी ताकत नहीं है. इसके बावजूद श्रीलंका को पता है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को प्रभावित करने की क्षमता P-5 देशों का सदस्य हुए बगैर भारत रखता है. हालांकि, इन मंचों पर श्रीलंका को भारत की मदद इस पर निर्भर करेगी कि वह उसे वैश्विक मित्र मानता है या नहीं यानी मसला कोई भी हो, दोनों एक दूसरे की मदद करने से पीछे न हटें.
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