Published on Feb 25, 2022 Updated 0 Hours ago

नया बिल मालदीव सरकार के द्वारा अपनी विदेश नीति के हितों की रक्षा करने की गंभीर कोशिश के बारे में बताता है लेकिन घरेलू मोर्चे पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हो सकती है.

मालदीव्स: क्या नया क़ानून कूटनीतिक ख़लल को रोक सकता है?

9 फरवरी को मालदीव का सत्ताधारी दल- मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी- ऐसा बिल संसद में लाने के लिए सहमत हुआ जो देश में कूटनीतिक खलल को ग़ैर-क़ानूनी घोषित करता है. ताज़ा घटनाक्रम मालदीव सरकार की तरफ़ से ‘इंडिया फर्स्ट’ नीति बनाए रखने को प्राथमिकता देने के क्रम में आया है और इससे विपक्ष के द्वारा चलाए जा रहे ‘इंडिया आउट’ अभियान को सीमित कर दिया गया है. लेकिन ये बिल देश को सत्ताधारी पार्टी की विदेश नीति के विकल्पों की दया पर छोड़ता है और अगर इसे मौजूदा रूप में पारित कर दिया गया तो ये कुछ अप्रत्याशित चुनौतियां पेश कर सकता है.

 

एक धुंधली रेखा

वर्ष 2008 में जब से मालदीव ने लोकतंत्र को अपनाया है, तब से उसके राजनेता और राजनीतिक दल राष्ट्रवादी भावनाओं को उठाकर और देश की विदेश नीति एवं विकास परियोजनाओं का राजनीतिकरण कर चुनाव लड़ रहे हैं. इसकी वजह से मालदीव की घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बीच की रेखा काफ़ी धुंधली हो गई है. मालदीव के पहले लोकतांत्रिक राष्ट्रपति नशीद ने पूर्व राष्ट्रपति गयूम के द्वारा भारत के साथ नज़दीकी संबंध रखने और भारत की मदद और सुरक्षा लेने की नीति को जारी रखा. इसके बाद भारत ने 2010 में गश्त करने और मानवीय उद्देश्यों के लिए मालदीव को पहला हेलीकॉप्टर मुहैया कराया. नशीद ने भारत से बड़ी मात्रा में निवेश को आकर्षित करके अर्थव्यवस्था का निजीकरण करने की भी कोशिश की. जीएमआर का 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर का हवाई अड्डा प्रोजेक्ट ऐसा ही एक महत्वपूर्ण उदाहरण है.

भारत ने 2010 में गश्त करने और मानवीय उद्देश्यों के लिए मालदीव को पहला हेलीकॉप्टर मुहैया कराया. नशीद ने भारत से बड़ी मात्रा में निवेश को आकर्षित करके अर्थव्यवस्था का निजीकरण करने की भी कोशिश की. 

लेकिन नशीद के विरोधियों ने उन पर मालदीव को विदेशी शक्तियों और कंपनियों के हाथों बेचने का आरोप लगाया. विरोधी पार्टियों ने भारतीय उच्चायुक्त के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए. इसकी वजह से पहली बार इस द्वीपीय देश में भारत विरोधी भावनाएं दिखाई दी. मालदीव की सरकार के ख़िलाफ़ इन आरोपों के साथ दूसरे घरेलू कारणों ने व्यापक विरोध प्रदर्शनों, नशीद के इस्तीफ़े और उसकी वजह से जीएमआर प्रोजेक्ट के एकतरफ़ा रद्द होने में योगदान दिया. भारत के द्वारा थोड़े वक़्त के लिए नशीद को शरण देने से विपक्ष को उनके ख़िलाफ़ बोलने और आरोप लगाने में और मज़बूती मिली. 2013 में अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल की. इस दौरान भारत ने मालदीव को सुरक्षा मुहैया कराने को जारी रखने की इच्छा जताई और दूसरा हेलीकॉप्टर तोहफ़े के रूप में दिया. लेकिन यामीन ने भारत के बदले चीन के साथ नज़दीकी संबंध को तरजीह दी और चीन ने यामीन की आर्थिक नीतियों के साथ-साथ घरेलू राजनीति पर भी असर डाला. यामीन की सरकार ने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर दस्तख़त किए और कर्ज़ के रूप में चीन से 1.5-3 अरब अमेरिकी डॉलर हासिल किए. मालदीव के बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए भी चीन की कंपनियों को न्योता दिया गया. चीन की जिन कंपनियों के साथ समझौते होते थे वो आम तौर पर अपारदर्शी होते थे. कई द्वीप और बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं को चीन की कंपनियों को सौंप दिया गया; फेधू फिनोल्हू द्वीपों को चीन की एक कंपनी को 50 साल की लीज़ पर दे दिया गया.

2018 तक, जब इस द्वीपीय देश में चीन के प्रोजेक्ट और उसकी भागीदारी बढ़ गई थी, यामीन ने मालदीव के परंपरागत सहयोगी भारत की क़ीमत पर राष्ट्रवादी भावनाओं का दुष्प्रचार करने की कोशिश की. यामीन की सरकार ने संप्रभुता के मुद्दे का ज़िक्र करते हुए भारतीय हेलीकॉप्टर के पायलट्स का वीज़ा बढ़ाने से इनकार कर दिया और भारत से कहा कि वो अपने हेलीकॉप्टर और उसे चलाने में लगे सैनिकों को वापस ले. इस तरह यामीन ने उस विरोध प्रदर्शन का बीज बोया जिसे आज ‘इंडिया आउट’ के नाम से जाना जाता है.

भारत ने मालदीव को सुरक्षा मुहैया कराने को जारी रखने की इच्छा जताई और दूसरा हेलीकॉप्टर तोहफ़े के रूप में दिया. लेकिन यामीन ने भारत के बदले चीन के साथ नज़दीकी संबंध को तरजीह दी और चीन ने यामीन की आर्थिक नीतियों के साथ-साथ घरेलू राजनीति पर भी असर डाला. 

चीन के समर्थन से हौसला बढ़ने के बाद यामीन ने उन प्रदर्शनकारियों पर सख़्ती की जिन्होंने उनके भ्रष्टाचार और चीन के साथ नज़दीकी के लिए उनकी आलोचना की. यामीन ने पश्चिमी देशों और भारत की अपील को भी नज़रअंदाज़ कर दिया और देश के लोकतंत्र एवं राजनीतिक विरोधियों को कुचलना जारी रखते हुए आपातकाल लागू कर दिया.

 

इंडिया फ़र्स्ट बनाम इंडिया आउट

चीन के कर्ज़ के जाल से डरते हुए यामीन के बाद के राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह ने साल2018 में ‘इंडिया फर्स्ट’ नीति को बढ़ावा दिया. उन्होंने भारत के साथ संबंधों को प्राथमिकता दी है और चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर फिर से विचार करते हुए भारत की सुरक्षा चिंताओं को कम किया है. इसके अलावा राष्ट्रपति सोलिह महंगे चीनी कर्ज़ से परहेज कर रहे हैं, सुरक्षा मुहैया कराने वाले देश के रूप में भारत की भूमिका को स्वीकार कर रहे हैं और चीन की तरफ़ से समुद्र में निगरानी चौकी बनाने के प्रस्ताव को उन्होंने ठुकरा दिया है. इन क़दमों के बावजूद सोलिह ने चीन के साथ बातचीत को जारी रखा है ताकि ज़्यादा टिकाऊ समझौतों और परियोजनाओं का लाभ हासिल किया जा सके.

इसके जवाब में भारत ने भी मालदीव को कुछ वित्तीय सहायता की पेशकश की है ताकि चीन के कर्ज़ का भुगतान करने में मदद मिल सके. भारत ने 2022 में मालदीव के लिए बजट में अनुदान बढ़ाकर 360 करोड़ कर दिया है; 2020 में ये रक़म सिर्फ़ 160 करोड़ थी. 2021 में भारत ने 45 से ज़्यादा सामाजिक-आर्थिक विकास परियोजनाओं में निवेश किया. उथुरु थिलाफलहू (यूटीएफ) नौसेनिक बंदरगाह समझौते पर हस्ताक्षर कर भारत एक कोस्ट गार्ड बंदरगाह को विकसित करने, उसकी देखरेख करने और उसका समर्थन करने के लिए भी तैयार हुआ है. लेकिन चूंकि मालदीव में 2023 में चुनाव होने वाले हैं, इसलिए यामीन के नेतृत्व में विपक्ष ने अपने ‘इंडिया आउट’ अभियान के साथ भारत की सामाजिक-आर्थिक और सुरक्षा परियोजनाओं का राजनीतिकरण शुरू कर दिया है. यामीन और उनके सहयोगी आरोप लगाते हैं कि मालदीव की मौजूदा सरकार देश की संप्रभुता का उल्लंघन कर रही है और उथुरु थिलाफलहू समझौते की आड़ में भारतीय सैन्य टुकड़ियों को बिना किसी शर्त के यहां तैनात होने की इजाज़त दे रही है. मालदीव के विपक्ष ने भारत से भी अनुरोध किया है कि वो अपने सैन्य कर्मियों और हेलीकॉप्टर को यहां से हटा ले और उनके देश के साथ सभी सैन्य समझौते तोड़ ले. इस तरह मालदीव का विपक्ष सुरक्षा मुहैया कराने वाले देश के रूप में भारत की भूमिका का राजनीतिकरण कर रहा है और भारतीय राजनयिकों और शिक्षकों को परेशान कर रहा है.

चूंकि मालदीव में 2023 में चुनाव होने वाले हैं, इसलिए यामीन के नेतृत्व में विपक्ष ने अपने ‘इंडिया आउट’ अभियान के साथ भारत की सामाजिक-आर्थिक और सुरक्षा परियोजनाओं का राजनीतिकरण शुरू कर दिया है. 

मालदीव की विपक्षी पार्टियों का ये अभियान मालदीव सरकार की ‘इंडिया फर्स्ट’ नीति के ठीक विपरीत है और इससे भारतीय निवेश, भारतीय नागरिकों और मालदीव में भारतीय हितों को ख़तरा है. मालदीव की सरकार और उसके सहयोगियों ने भारत की संवेदनशीलता और हितों पर विचार करते हुए विपक्ष की निंदा की है. इसके अलावा सत्ताधारी पार्टी ने संसद में एक नया बिल लाने का प्रस्ताव भी दिया है.

नया बिल और उसका तात्पर्य

इस बिल का उद्देश्य दूसरे मित्र देशों के साथ मालदीव के कूटनीतिक संबंधों पर असर डालने वाले विरोध प्रदर्शनों या कार्रवाइयों को ग़ैर-क़ानूनी करार देना है. क़ानून का उल्लंघन करने पर 6-12 महीनों की क़ैद हो सकती है या घर में नज़रबंद किया जा सकता है और 20,000 मालदीवी रुफिये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है. लेकिन अगर बिल को इसके मौजूदा रूप में पारित किया गया तो ये अनजाने में भारत के साथ-साथ मालदीव के लिए भी नई चुनौतियां खड़ी कर सकता है.

पहला, ये बिल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है. विपक्ष ने अक्सर सरकार पर अपारदर्शी और अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाया है और इसमें उथुरु थिलाफलहू समझौते का इस्तेमाल आरोपों की पुष्टि करने के लिए किया जाता है. इस तरह ये बिल विपक्षी पार्टियों और मतदाताओं से आलोचना के मामले में सरकार को और कमज़ोर बनाता है. इस बात की भी आशंका है कि लोगों का ये ग़ुस्सा और आलोचना विपक्ष के लिए अपने भारत विरोधी अभियान का प्रचार करने और उसको सही ठहराने में ठोस बुनियाद के रूप में काम कर सकता है. स्पष्ट रूप से स्थानीय पत्रकारों और मीडिया घरानों के एक हिस्से ने पहले से ही इस बिल के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया है.

इसी तरह जैसे-जैसे मालदीव 2023 में होने वाले चुनाव की तरफ़ बढ़ रहा है, यामीन ने सरकार पर मालदीव की संप्रभुता के साथ समझौता करने का आरोप लगाकर और भारत की सहायता और परियोजनाओं का राजनीतिकरण कर अपने अभियान को तेज़ कर दिया है. पिछले कुछ हफ़्तों में इन चालबाज़ियों से सीमित सफलता मिली थी लेकिन इस बिल के पारित होने के बाद शायद ये स्थिति बदल भी सकती है. जिस वक़्त भारत मालदीव के लिए और ज़्यादा अनुदान का आवंटन कर रहा है, उस वक़्त इस बिल के कारण और ज़्यादा राजनीतिकरण और आलोचना हो सकती है.

जैसे-जैसे मालदीव 2023 में होने वाले चुनाव की तरफ़ बढ़ रहा है, यामीन ने सरकार पर मालदीव की संप्रभुता के साथ समझौता करने का आरोप लगाकर और भारत की सहायता और परियोजनाओं का राजनीतिकरण कर अपने अभियान को तेज़ कर दिया है.

आख़िर में, ये बिल किसी भी तरह के विरोध या उचित आलोचना पर भी रोक लगाता है. अगर मालदीव में एक बार फिर चीन की नीतियों या चीन की समर्थक सरकार आती है तो इसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं. मालदीव में चीन के प्रोजेक्ट और कर्ज़ ऐतिहासिक रूप से महंगे और अपारदर्शी रहे हैं. उदाहरण के लिए, चीन का सबसे बड़ा कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट- सिनामाले ब्रिज– 2.1 किलोमीटर लंबा है और इसकी लागत 200 मिलियन अमेरिकी डॉलर है. दूसरी तरफ़ भारत के सबसे बड़े प्रोजेक्ट- ग्रेटर माले कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट- की लागत सिर्फ़ 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर है जबकि ये सिनामाले प्रोजेक्ट से तीन गुना से भी ज़्यादा बड़ा (6.74 किलोमीटर) है. लेकिन चूंकि बिल में आलोचनाओं और असहमति को सीमित करने की बात है, ऐसे में ये बिल चीन के कर्ज़ जाल से मालदीव को और भी ज़्यादा असुरक्षित बनाता है.

मालदीव का नया बिल इस द्वीपीय देश की तरफ़ से ‘इंडिया फर्स्ट’ की नीति बरकरार रखने की ईमानदार कोशिश के बारे में बताता है, साथ ही भारत की सुरक्षा चिंताओं का भी ख्याल रखता है. लेकिन चूंकि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को लेकर मालदीव का अंतर धुंधला होता जा रहा है, ऐसे में ये बिल देश और उसकी विदेश नीति के विकल्पों को सत्ता में मौजूद लोगों की दया पर छोड़ता है. ये भारत और मालदीव के लिए और भी ज़्यादा अप्रत्याशित चुनौतियां पेश कर सकता है.

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