Published on Sep 19, 2019 Updated 0 Hours ago

साइबर वर्ल्ड से सुरक्षा चुनौतियों के मामले में कुछ भी नया नहीं है और भारत में कश्मीर अकेला राज्य नहीं है जहां के आतंकवादी संगठन इंटरनेट का दुरुपयोग कर रहे हैं.

कश्मीर ब्लैकआउट: आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में, इंटरनेट की भूमिका को लेकर बढ़ रही है चुनौती!

साइबर सुरक्षा भारत सरकार को कश्मीर में इंटरनेट बंद किए हुए महीने भर से अधिक समय गुज़र चुका है और राज्य में जो भी शांति दिख रही है, वह हद से हद तुलनात्मक माना जा सकता है. यह सहज शांति नहीं है क्योंकि घाटी में रहने वालों को भारतीय संविधान के तहत लाने के बाद से वहां इंटरनेट व मोबाइल-लैंडलाइन सेवाओं पर रोक लगी हुई है.

अगर सरकार को यह लगे कि इन तकनीक का इस्तेमाल लोगों को गोलबंद करने के लिए किया जा सकता है, तो उसके पास इंटरनेट सर्विस को बंद या सस्पेंड करने का नीतिगत आधार है. इंटरनेट कनेक्शन होने पर ऐप्स और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करके लोगों को विरोध-प्रदर्शन के लिए उकसाया जा सकता है. इन सोशल मीडिया नेटवर्क में अक्सर एंड टू एंड एनक्रिप्शन होता है. इसका मतलब यह है कि सरकार उनके ज़रिये भेजे जाने वाले मैसेज पढ़ नहीं सकती. साथ ही, अगर इंटरनेट न हो, तब विरोध-प्रदर्शन की ख़ातिर भीड़ जुटाने के लिए लोगों के पास जाना होगा. यह बहुत मुश्किल काम है. घाटी में लैंडलाइन फोन की सेवा भी रोक दी गई है ताकि सुरक्षा एजेंसियां किसी संभावित ‘हिंसा’ से निपट सकें.

भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर से जब राज्य में कम्युनिकेशन सेवाएं रोके जाने को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने बताया कि हिंसा और पत्थरबाजी जैसी घटनाओं को रोकने के लिए इनका दुरुपयोग हो सकता है. इसी वजह से यह रोक लगाई गई है. उन्होंने कहा, ‘अगर हम आतंकवादियों और उनके आकाओं के बीच बातचीत और संपर्क को रोक रहे हैं तो दूसरी तरफ लोगों के लिए इंटरनेट सेवा को कैसा चालू रख सकते हैं? अगर आपके पास इसका जवाब है तो मुझे जानकर ख़ुशी होगी.’ कश्मीर में इंटरनेट सेवाओं पर सरकार के रोक लगाने की तीन वजहें हैं. पहली, इससे केंद्र के कदम से नाराज़ लोगों को विरोध-प्रदर्शन के लिए आसानी से गोलबंद नहीं किया जा सकेगा. दूसरी, झूठी ख़बरें या सही समाचार भी लोगों तक सोशल मीडिया अपडेट नहीं होने से धीमी गति से पहुंचेंगे. तीसरी, लोगों की गोलबंदी न हो पाने और ख़बरों के धीमी गति से पहुंचने से राज्य में शांति बनी रहेगी. इसे दूसरे शब्दों में विरोध को दबाने की कोशिश भी कहा जा सकता है.

इंटरनेट सेवा पर रोक का उन संगठनों या समूहों पर असर हुआ है, जो इसका इस्तेमाल रणनीतिक तौर पर कश्मीर में अशांति फैलाने और विरोध भड़काने के लिए करते हैं. सरकार को आशंका थी कि अलगाववादी और स्थानीय नेता मौके का फायदा उठाकर अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने के विरोध के लिए जनता का समर्थन जुटाने की कोशिश करेंगे. शायद इसी कारण से सरकार ने उन्हें नज़रबंद किया हुआ है. इसलिए वे पार्टी कार्यकर्ताओं से संपर्क नहीं कर पा रहे हैं. इंटरनेट सेवाओं को बंद करने से स्थानीय आतंकवादी संगठनों पर भी असर हुआ है. वे अपनी सहूलियत के हिसाब से सोशल मीडिया पर घटनाओं को मोड़ नहीं दे पा रहे हैं. वे प्रोपगैंडा वीडियो नहीं डाल पा रहे हैं. उनके फेक इमेज क्रिएट करने पर रोक लग गई है. वे सीमा पार पाकिस्तानी आकाओं से संपर्क भी नहीं कर पा रहे हैं.

आज इस्लामिक स्टेट और अल क़ायदा के पास ऐसे हैकर्स हैं, जो सामान्य ड्रोन को हथियार में बदलने में सक्षम हैं. वे उन शहरों और सीरिया के ऐसे क्षेत्रों से 4के क्वॉलिटी प्रोपगेंडा वीडियो अपलोड कर रहे हैं, जो संघर्ष से तबाह हो चुके हैं.

स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के स्कॉलर Jan Rydzak की इंटरनेट शटडाउन और इसके विरोध के पैटर्न पर असर को लेकर किए गए शोध से पता चलता है कि संगठित विरोध में समूहों को डिजिटल टेक्नोलॉजी से मदद मिलती है. वे इसकी मदद से आसानी से विरोध-प्रदर्शन का आयोजन कर पाते हैं. इस रिसर्च में भारत में होने वाले प्रदर्शनों को भी शामिल किया गया है. इसमें यह भी कहा गया है कि ऐसे प्रदर्शन को रोकने के लिए इंटरनेट बंद करने से छोटी अवधि में प्रदर्शनकारियों के सड़क पर उतरने या उनकी तरफ से हिंसक घटनाओं की आशंका भी होती है. कश्मीर में ऐसा ही हुआ. जहां इंटरनेट बंद किए जाने के शुरुआती हफ्तों में पत्थरबाजी और कुछ इलाकों में छिटपुट प्रदर्शन की घटनाएं हुईं. इस रिपोर्ट के लेखकों ने भी जो रिसर्च की है, उनसे पता चला कि इंटरनेट सेवा बंद करना आतंकवाद निरोध की कारगर नीति नहीं है क्योंकि इससे लोगों को गोलबंद करने या हिंसा पर असरदार ढंग से रोक नहीं लगती. लैंडलाइन और मौखिक तौर पर संदेश एक से दूसरे और फिर तीसरे तक पहुंचाया जाता है और इंटरनेट सेवा बंद होने के बावजूद लोग सड़कों पर उतरते हैं.

हालांकि, पिछले कुछ हफ्ते कश्मीर के लिए बिल्कुल अलग रहे हैं क्योंकि इस दौरान इंटरनेट के साथ लैंडलाइन कनेक्शन को भी ब्लॉक रहा है. इससे पूरे राज्य में कम्युनिकेशन पूरी तरह ब्लॉक हो गया है. संघर्ष प्रभावित क्षेत्र में लोगों के कनेक्टेड एक्शन और डिसकनेक्टेड एक्शन के बीच कौन सी चीज पुल का काम करती है, इस पर अभी भी रिसर्च चल रही है. वहीं, आतंकवाद, आतंकवादियों, विरोध-प्रदर्शन और गोलबंदी पर इंटरनेट बंद करने का वास्तविक असर क्या होता है, इसे समझने के लिए भी समय और एकेडमिक पहल की ज़रूरत है. आज जब इंटरनेट शटडाउन को आतंकवाद से जोड़ा जाता है, तब लोग, विधायिका या विपक्षी दल उसकी आलोचना नहीं करते. ऐसे में सत्ता को जब सहूलियत होती है, वह इंटरनेट सेवा बंद करने लगती है या गलत इरादे से सूचनाओं पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश करती है. साथ ही, इंटरनेट शटडाउन सरकारों के लिए सुविधाजनक रास्ता है. इंटरनेट सेवा रोकने के बजाय इस समस्या से निपटने के लिए तकनीकी समाधान ढूंढने की ज़रूरत है क्योंकि असल में यह तकनीकी समस्या है.

इंटरनेट सेवा और लैंडलाइन कनेक्शन बंद करने से भले ही सरकार को घाटी में अस्थायी शांति बहाल करने में मदद मिली है, लेकिन लंबी अवधि में इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. सरकार ने अनुच्छेद 370 को खत्म करने और राज्य को दो हिस्सों यानी जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांटकर उन्हें केंद्रशासित प्रदेश बनाने की घोषणा करने के साथ कहा था कि इस कदम का मकसद जनता का विकास है. डिजिटल इंडिया जैसी योजनाएं देश के आर्थिक विजन के केंद्र में रही हैं. ऐसे में इंटरनेट सेवा बंद करने से कॉल सेंटर जैसे बिज़नेस को गलत संदेश दिया गया है, जो ह्यूमन रिसोर्स और तकनीक पर आश्रित है. रोज़गार पैदा करने में भी इस बिज़नेस की सफलता साबित हो चुकी है. कश्मीर में जिस तरह से इंटरनेट और कम्युनिकेशन सेवा बंद की गई है, उससे इस बिज़नेस को यह मेसेज गया है कि एक स्विच दबाकर उनका धंधा ठप्प किया जा सकता है. यह बात भी सही है कि सरकार के अंदर और कई जानकार आतंकवाद को रोकने के लिए इंटरनेट शटडाउन को सफल तरीका मानते हैं. हालांकि, इसके साक्ष्य नहीं मिले हैं कि इससे कश्मीर घाटी में आतंकवादी संगठनों के कामकाज पर बहुत बुरा असर हुआ है. इसमें भी कोई शक नहीं है कि हम रोज़मर्रा के जिन ऑनलाइन एप्लिकेशंस का इस्तेमाल करते हैं, उनका आतंकवादी संगठन दुरुपयोग करते हैं. लेकिन इसके साथ सच यह भी है कि मुक्त और सरकारी अड़ंगों से आज़ाद इंटरनेट दुनिया के लिए एक बड़ी धरोहर है. इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानने और उसी सोच के साथ रेगुलेट करने से वर्ल्ड वाइड वेब से मिलने वाले आर्थिक, सामाजिक और इंसानी संभावनाओं का लाभ लेना मुश्किल हो जाएगा.

इंटरनेट की सुरक्षा संबंधी चुनौतियां नई नहीं हैं. देश में सिर्फ़ कश्मीर के आतंकवादी संगठन ही इंटरनेट का दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं. तकनीक के साथ आतंकवादी समूह ने भी ख़ुद को बदला है और हम जिन सेवाओं का प्रयोग अपने क़रीबी लोगों से जुड़ने के लिए करते हैं, उनका इस्तेमाल वे हथियार की तरह कर रहे हैं. यह नई परिघटना नहीं है. अगर आप इतिहास पर नजर डालें तो टेलीग्राम से लेकर मेसेंजर्स तक का इस्तेमाल विरोधियों को नीचा दिखाने से लेकर अफ़वाह फैलाने के लिए होता आया है. आज इस्लामिक स्टेट और अल क़ायदा के पास ऐसे हैकर्स हैं, जो सामान्य ड्रोन को हथियार में बदलने में सक्षम हैं. वे उन शहरों और सीरिया के ऐसे क्षेत्रों से 4के क्वॉलिटी प्रोपगेंडा वीडियो अपलोड कर रहे हैं, जो संघर्ष से तबाह हो चुके हैं.

टेक अगेंस्ट टेररिज्म की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर (ओएसएस) प्रॉडक्ट्स का आतंकवादी संगठन और हिंसा करने वाले उग्रवादी दुरुपयोग कर सकते हैं. उसने गेब नाम की एक घोर दक्षिणपंथी वेबसाइट का ज़िक्र किया है. इसे चलाने वालों ने एक और प्लेटफॉर्म Mastadon का सोर्स कोड चुरा लिया था, जो सेल्फ-होस्टेड डिसेंट्रलाइज्ड सोशल मीडिया सर्विस है. इससे गेब को अपने कंटेंट को मॉडरेट या रेगुलेट किए जाने या हटाए जाने से रोकने में मदद मिली. इस्लामिक स्टेट के समर्थकों ने भी Mastodon के ओपन सोर्स कोड का इस्तेमाल करके अपने लिए सुरक्षित ऑनलाइन ईकोसिस्टम बनाया था. ओपन सोर्स कोड दोधारी तलवार है. इसलिए आतंकवादियों के तकनीक के इस्तेमाल और इंटरनेट पर हिंसक चरमपंथ को रोकने के लिए सिर्फ इन पर केंद्रित तरीके आज़माए जाने पर व्यापक विचार की जरूरत है. इसके बजाय अगर 4जी और ओपन सोर्स कोड पर बैन लगाया जाता रहा तो उससे बात नहीं बनेगी. तकनीक के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जो चुनौतियां खड़ी हो रही हैं, उनसे निपटने के लिए भारत सरकार को निवेश बढ़ाना होगा. इंटरनेट शटडाउन जैसे उपायों को अस्थायी माना जा रहा है, लेकिन कश्मीर में एक महीने से अधिक समय से कम्युनिकेशन पर रोक जैसे कदमों से लंबी अवधि में आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, साइकोलॉजिकल दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं.

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Authors

Kabir Taneja

Kabir Taneja

Kabir Taneja is a Fellow with Strategic Studies programme. His research focuses on Indias relations with West Asia specifically looking at the domestic political dynamics ...

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Kriti M. Shah

Kriti M. Shah

Kriti M. Shah was Associate Fellow with the Strategic Studies Programme at ORF. Her research primarily focusses on Afghanistan and Pakistan where she studies their ...

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