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क्या अमेरिकी जनता चीन से पूरे ज़ोर शोर से लंबे समय तक ट्रेड वॉर से होने वाले असर का विरोध करेगी? ये तो अभी साफ नहीं है लेकिन ट्रम्प और अमेरिका के उपराष्ट्रपति माइक पेंस लगातार चलने वाली इस लड़ाई के लिए पब्लिक ओपिनियन बनाने में फिर से जुट गए हैं।
ट्रम्प प्रशासन की चीन को लेकर नीति धीरे-धीरे आकार ले रही है। जिसमें बीजिंग को आराम से संभालने की बजाय उसे घूरकर नीचा दिखाने पर ज़ोर है।
उपराष्ट्रपति माइक पेंस का चीन पर हमला दरअसल एक चार्जशीट है जिसमें अलग-अलग तरह के अपराधों की सूची बनाई गई है।
ये हमला अब तक चीन पर किये गए हमलों में सबसे ज़बरदस्त है। इस भाषण में वो साड़ी बातें कही गयी हैं जो अब तक वाशिंगटन में अमेरिकी प्रशासन में हो रही सुगबुगाहट थी। ये बातें अब जनता के सामने आ गयी हैं।
इससे बुनियादी बदलाव का पता चलता है और इसका असर दुनियाभर में होगा, ख़ासकर के एशिया में। चीन अपनी ताक़त को बढ़ाचढ़ाकर दिखाता है और अब अमेरिका उसे पीछे धकेल रहा है। इस का नतीजा या इसकी कोशिश है कि आख़िरकार अमेरिका और चीन की अर्थव्यवस्था एक दुसरे पर निर्भर न होकर अलग अलग हो जाएँ, ताकि चीन अमेरिका के उद्योग में सेंध न लगा सके। आज के कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण के चीन में हेनरी किसिंजर की रणनीति नहीं चलती। अब चीन और उसकी अनेक जटिलताओं को समझने का दौर ख़त्म हो गया है।
पेंस ने आरोप लगाया है कि चीन आने वाले मध्यावधि चुनावों और 2020 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी जनता की राय को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है। बीजिंग चाहता है कि अमेरिका में नया राष्ट्रपति हो। ऐसा इसलिए है क्यों कि पुराने राष्ट्रपतियों की तरह चीन अमेरिका के विन-विन मॉडल (हर परिस्थिति में फ़ायदे का मॉडल) को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। रूस ने 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने की तुलना चीन के यूनिवर्सिटी कैम्पस, स्थानीय निकायों और थिंक टैंक को प्रभावित करने से की जा सकती है। पेंस का कहना है कि अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों के पास सबूत हैं कि चीन साइबर अटैक, औद्योगिक युद्ध और समाज में फूट डालने के बीच बोने की कोशिश कर रहा है। चीन चोरी की गयी तकनीक से बड़े पैमाने पर अपने हथियारों और अपनी तकनीक का आधुनिकीकरण कर रहा है।
पेंस चीन पर ये आरोप भी लगाते हैं कि वो वेस्टर्न पैसिफिक में अपनी क्षमताएं बढ़ाकर ज़मीन, आसमान और हवा में अमेरिकी मिलिट्री की बढ़त को ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है।
अमेरिकी थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट की स्पीच में चीन को लेकर अलग-अलग मामलों पर सोच को एक साथ पेश किया गया। इसमें चीन की अपने फ़ायदे के लिए दूसरे देशों का इस्तेमाल करने वाली अर्थव्यवस्था, सेना को आक्रामक मुद्रा में पेश करना, समाज में घुसना और घरेलू मोर्चे पर दमन करना शामिल है। इस स्पीच में चीन के आक्रामक आर्थिक और सैनिक नीति, समाज में चीनी असर को लेकर अमेरिका में जितनी अलग अलग सोंच है सबको सामने रखा गया।
इसके साथ ही सेना की ताक़त दिखाने की कोशिश हो रही है। पेंटागन नवंबर में चीन के अधिकार वाले समंदर के क़रीब युद्ध अभ्यास की योजना बना रहा है ताकि बीजिंग की सेना के दुस्साहस को चुनौती दी जा सके।
ये सब बताता है कि ओबामा प्रशासन की चीनी नीति अब विदा हो चुकी है। जिसके आख़िर में जयवायु परिवर्तन समझौते की खातिर चीन का सहयोग लिया गया था। ट्रम्प प्रशासन चाहता है नए और जटिल भूराजनैतिक परिदृश्य के मद्देनज़र चीन को कई मुद्दों पर चुनौती दी जाए, जिसका महत्त्व अभी कई देशों ने नहीं समझा है। शी चिनफ़िंग के नेतृत्व में चीन को इस बात की आदत नहीं है कि उसे चुनौती दी जाए चाहे वो घर हो या फिर बाहर। कई सालों बाद अमेरिका ने चीन के सामने फिर से मानवाधिकार का सवाल उठाया है। पेंस ने चीन के सामने उईगुर (या वीघर), क्रिश्चियन और तिब्बतियों की दुर्दशा के मुद्दे को पुरज़ोर तरीके से उठाया है। चीन इन तमाम आरोपों से कैसे निपटेगा, क्या वो इन्हें ख़ारिज कर देगा या अपनी बेगुनाही का दावा करेगा?
चुनाव को प्रभावित करने के आरोप को छोड़कर पेंस ने जिन ग़लत कामों के लिए चीन को ज़िम्मेदार ठहराया है वो सब ओबामा प्रशासन के दौरान भी मौजूद थे लेकिन उन्हें लेकर चीन पर दबाव नहीं बनाया गया।
यहां तक कि ये भी कहा जा सकता है कि चीन ने ओबामा प्रशासन के 8 साल के दौरान साउथ चाइना सी में सेना की मौजूदगी को और पुख्ता कर लिया। जबकि अमेरिका धुरी या फिर से संतुलन बनाने की दुविधा में फंसा रहा।
लेकिन चीन को लेकर अमेरिका की सोच में पिछले 2 सालों में बड़ा बदलाव देखने को मिला है क्यों कि मौजूदा प्रशासन का फोकस बीजिंग की दबाव डालने वाली सैन्य और व्यापार नीति पर है। ट्रम्प ने चीनी सामान पर 230 बिलियन डॉलर का टैरिफ़ लगाया है इसके वाबजूद उनके सलाहकार कह रहे हैं कि चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा पिछले साल 375 बिलियन डॉलर रहा, जो ठीक नहीं है और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी ख़तरा है। अमेरिका के दोनों दलों की सोच में साफ अंतर है। दोनों दल चीन के अमेरिका में बढ़ते दखल को लेकर चिंतित हैं ख़ासतौर से ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में बढ़ते चीनी प्रभाव के मद्देनज़र भी।
अमेरिकी जनता लंबे समय के लिए पुरज़ोर तरीके से होने वाली ट्रेड वॉर के असर के लिए तैयार हैं? ये अभी साफ नहीं है लेकिन ट्रम्प और अब पेंस अब इस लड़ाई के लिए जनता में राय बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
वहीं चीन ट्रेड वॉर को बांटने वाले मुद्दे की तरह इस्तेमाल कर रहा है, वो अमेरिकी अख़बारों में पैसे देकर ख़बरें छपा रहा है, ख़ासकर के उन राज्यों में जहां अमेरिकी किसानों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसलिए पेन्स ने चीन पर अमरीकी चुनाव में दखल देने का आरोप लगाया है .. पेन्स के मुताबिक चीन अमेरिकी सरकार और स्थानीय प्रशासन में किसी तरह की फूट का फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है।
बीजिंग छिपकर चीन के लिए काम करने वाले लोगों और संगठनों को सक्रिय कर रहा है ताकि वो प्रोपेगेंडा कर चीनी नीतियों को लेकर अमेरिकी जनता की सोच में बदलाव ला सकें। वो अमेरिकी मतदाताओं को न्यूज़ आर्टिकल की तरह दिखने वाले प्रोपेगेंडा के ज़रिए प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिनमें ट्रम्प की व्यापार नीति को लापरवाह बताया जाता है।
अमेरिका-चीन के बीच नए सिरे से क़ायम हो रहे रिश्तों को लेकर एशियाई देश क्या सोचते हैं? ज़्यादातर देश अमेरिका की इस बुलंद आवाज़ के साथ हैं, भले ही आपस में उनके मतभेद हों। कंबोडिया, नॉर्थ कोरिया और पाकिस्तान को छोड़कर, जो एशिया में चीन के कुछ अच्छे दोस्तों में से हैं। पाकिस्तान को हक़ीक़त पता चल जाएगी जब क़र्ज़ के चलते उसकी अर्थव्यवस्था का दम घुटने लगेगा।
अमेरिका की चीन को पीछे धकेलने की नीति से यूरोपीय देशों को भी अपनी रणनीति बनाने में मदद मिलेगी, क्यों कि चीन यूरोपियन यूनियन के ज़रिए उन्हें बांटने की कोशिश कर रहा है।
चीन को लेकर अमेरिकी की इस रणनीति के भविष्य में बारे में कहना अभी जल्दबाज़ी होगी क्योंकि ट्रम्प आगे क्या करेंगे इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है और ये फ़ैक्टर दुनिया भर की तमाम जोड़-तोड़ पर असर डालेगा।
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Seema Sirohi is a columnist based in Washington DC. She writes on US foreign policy in relation to South Asia. Seema has worked with several ...
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