Author : Kabir Taneja

Published on Dec 15, 2021 Updated 0 Hours ago

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतरराष्ट्रीय पटल पर बरसों से भू-राजनीतिक तकरार का दौर जारी है. एक लंबे अर्से से ईरान पर कई तरह की अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां भी लागू रही हैं

ईरान: परमाणु सौदे पर दोबारा बातचीत और मंथन का दौर; पश्चिम एशिया की सुरक्षा का चक्र

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतरराष्ट्रीय पटल पर बरसों से भू-राजनीतिक तकरार का दौर जारी है. एक लंबे अर्से से ईरान पर कई तरह की अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां भी लागू रही हैं.  2015 में पी5+1 समूह के देशों और ईरानी नेतृत्व के बीच वार्ताओं के एक लंबे दौर के बाद एक करार पर सहमति बनी थी. आस्ट्रिया के विएना में दोनों पक्षों के बीच सौदे पर दस्तख़त हुए थे. इसे ज्वाइंट कॉम्प्रिहैंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (JCPOA) या ईरान परमाणु समझौते का नाम दिया गया. इस करार पर लोगों की राय बंटी हुई थी. जहां एक पक्ष ने इसका स्वागत किया वहीं दूसरे ने इसकी ज़बरदस्त आलोचना की. हालांकि, इस समझौते की बदौलत ईरान की अंतरराष्ट्रीय राजनीति और अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में वापसी की प्रक्रिया ज़रूर शुरू हो गई. इसके अलावा किसी तरह का सैनिक टकराव टालने में भी ये करार मददगार साबित हुआ. कुल मिलाकर 2015 में हुए इस समझौते का सफ़र उतार-चढ़ावों से भरा रहा. बहरहाल मई 2018 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान परमाणु समझौते से एकतरफ़ा तौर पर बाहर निकलने का नामुनासिब फ़ैसला कर लिया. ट्रंप के इस एलान ने इस मोर्चे पर अब तक हासिल तमाम कामयाबियों पर पानी फेर दिया. ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर वही पुराने ढाक के तीन पात वाले हालात बन गए.

ट्रंप के आक्रामक बर्ताव से ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति हसन रूहानी के कार्यकाल पर संकट के बादल मंडराने लगे थे. ईरान की सियासत में रूहानी की छवि एक नरमपंथी नेता की रही है. वो अपने अंदाज़ से ईरान के शक्तिशाली रुढ़िवादियों और अयातुल्लाह का समर्थन हासिल करने में काफ़ी हद तक कामयाब रहे थे. 

अब ईरान और पी5+1 देशों के समूह के बीच वार्ताओं का दौर दोबारा शुरू हो चुका है. दोनों ही पक्ष 2018 के बाद से हुए ज़बरदस्त नुकसान की भरपाई के तौर-तरीक़े ढूंढने में लगे हैं. बहरहाल आगे का रास्ता पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मुश्किलों भरा लग रहा है. पिछले कुछ सालों में ट्रंप ने ईरान के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त दबाव की रणनीति अपना रखी थी. कई बार तो दोनों पक्षों के बीच फ़ौजी टकराव शुरू होने तक की नौबत आ गई थी. ट्रंप के आक्रामक बर्ताव से ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति हसन रूहानी के कार्यकाल पर संकट के बादल मंडराने लगे थे. ईरान की सियासत में रूहानी की छवि एक नरमपंथी नेता की रही है. वो अपने अंदाज़ से ईरान के शक्तिशाली रुढ़िवादियों और अयातुल्लाह का समर्थन हासिल करने में काफ़ी हद तक कामयाब रहे थे. इसी समर्थन के बूते उनकी अगुवाई वाला ईरानी प्रशासन परमाणु समझौते से जुड़ी वार्ताओं में आगे बढ़ सका था. नतीजतन 2015 में ईरान परमाणु समझौते (JCPOA) पर दस्तख़त हो सके थे. वैसे तो कोई ये दावा नहीं कर सकता कि इस समझौते में कोई ख़ामी नहीं थी लेकिन यथास्थिति को बदलने की दिशा में ये सार्थक रूप से पहला क़दम ज़रूर था. शिया इस्लाम की सर्वोच्च सत्ता और पश्चिमी जगत के बीच हालात को बेहतर बनाने की दिशा में ये एक कारगर पहल थी. इससे भी बड़ी बात ये है कि इस करार से ईरानी परमाणु कार्यक्रम अंतरराष्ट्रीय नियम-क़ायदों और ज़रूरी जांच-पड़ताल के दायरे में आ गया था.

 

ईरान परमाणु समझौता

अब तेहरान में राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की अगुवाई में एक नया प्रशासनिक अमला सत्ता में है. लिहाज़ा ईरान ने वार्ता प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से पहले अपनी कुछ शर्ते सामने रख दी हैं. इनमें पाबंदियों को पूरी तरह से हटाने और 2017 में अमल में लाए गए तौर-तरीक़ों की वापसी शामिल हैं. इसके अलावा ईरानी पक्ष इस बात की गारंटी भी चाहता है कि नए सिरे से होने वाले समझौते को अमेरिका का कोई भावी राष्ट्रपति पलट ना सके. ईरानी पक्ष की ओर से सामने रखी गई ऐसी तमाम मांगों को यूरोपीय राजनयिकों ने पहले ही “नागवार बदलाव” करार दे दिया है. और तो और कुछ हलकों से ईरान पर अपने परमाणु कार्यक्रम की गति में तेज़ी लाने का इल्ज़ाम भी लगाया गया है. निश्चित रूप से भारत समेत दुनिया की तमाम ताक़तों ने 2015 के ईरान परमाणु  समझौते (JCPOA) को ज़मीन पर उतारने के लिए पूरी जुगत लगाई थी. हालांकि, अब आगे ये काम उतना आसान नहीं होगा. ख़बरों के मुताबिक चीन जैसा देश भी वार्ता प्रक्रिया को लेकर ईरानी रुख़ के प्रति अपनी नाख़ुशी का इज़हार कर चुका है. ग़ौरतलब है कि अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती रस्साकशी के बीच ईरान में चीन को एक बड़े मददगार के तौर पर देखा जाता है. चीन की ईरान के साथ सामरिक साझेदारी भी है.

इसमें कोई शक़ नहीं कि क्षेत्रीय स्तर पर ईरान की गतिविधियों को अरब देश और इज़राइल, दोनों ही अमन के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट समझते हैं. चाहे यमन और सीरिया में जारी जंग का मसला हो, ढहते हुए लेबनान में हिज़्बुल्लाह का मोर्चा हो या फ़िलिस्तीनी विवाद में हमास का किरदार- इन सबमें ईरान की भूमिका सवालों के घेरे में है

मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) में सुरक्षा का एक स्थायी ढांचा खड़ा करने की क़वायद में ईरान परमाणु समझौते को एक अहम कारक के तौर पर देखा जाता है. ट्रंप ने यूएई की अगुवाई में अरब देशों के एक गुट को साथ लाकर इज़राइल के साथ अब्राहम समझौता करवाने में कामयाबी पाई थी. अरब देशों और इज़राइल के बीच की दुश्मनी दशकों पुरानी है. इस समझौते के ज़रिए पहली बार अरब देशों और इज़राइल के बीच आधिकारिक रिश्तों की शुरुआत हो सकी है. हालांकि ईरान को लेकर ट्रंप प्रशासन का रवैया इसके ठीक विपरीत रहा. ट्रंप प्रशासन ने अंतरराष्ट्रीय पटल पर ईरान को अलग-थलग करने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रखी थी. इज़राइल ने भी अमेरिका की इसमें भरपूर मदद की. यक़ीनन इससे मध्य-पूर्व में भूराजनीतिक दरारों को पाटने की क़वायद में और आगे जाने का मौक़ा हाथ से जाता रहा. इसमें कोई शक़ नहीं कि क्षेत्रीय स्तर पर ईरान की गतिविधियों को अरब देश और इज़राइल, दोनों ही अमन के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट समझते हैं. चाहे यमन और सीरिया में जारी जंग का मसला हो, ढहते हुए लेबनान में हिज़्बुल्लाह का मोर्चा हो या फ़िलिस्तीनी विवाद में हमास का किरदार- इन सबमें ईरान की भूमिका सवालों के घेरे में है. दरअसल पिछले कुछ अर्से से इज़राइल और ईरान के बीच संघर्ष तेज़ हो गया है. हालांकि टकराव से जुड़े ज़्यादातर वाक़ये पर्दे के पीछे ही रहे हैं. दोनों ही देशों के बीच इस पूरे इलाक़े में दबे-ढके अंदाज़ में ज़बरदस्त रस्साकशी चल रही है. अक्सर दोनों के बीच के संघर्ष का दायरा इस इलाक़े से आगे निकल जाता है. इज़राइल के पास ईरानी ठिकानों ख़ासतौर से उसके परमाणु कार्यक्रम से जुड़े साज़ोसामानों (ईरान के भीतर) को निशाना बनाने की ज़बरदस्त काबिलियत मौजूद है. निश्चित तौर पर दुश्मन देश के भीतर घुसकर अपने लक्ष्य को भेदने की इज़राइल की क्षमता की कोई सानी नहीं है.

बहरहाल मनमुटाव और टकराव के इस इकलौते ठिकाने से बड़े संघर्ष के उभार की संभावनाओं को कम करने की कोशिशें भी जारी है. हाल में यूएई द्वारा चले गए दांवों से ये बात ज़ाहिर होती है. यूएई इससे पहले तुर्की के साथ रिश्तों पर जमी बर्फ़ को पिघलाने की जुगत भिड़ा चुका है. हाल ही में उसने ईरान के साथ भी उच्च-स्तरीय संपर्क कायम किया है. इन क़वायदों ने अबु धाबी के लिए दिलचस्प हालात पैदा कर दिए हैं. दरअसल आज यूएई पश्चिम एशिया में इज़राइल और ईरान के बीच किसी तरह का संपर्क कायम करने का ज़रिया बनने की काबिलियत रखता है. कम से कम इस बात पर कुछ हलकों ने तवज्जो देना शुरू कर दिया है. दूसरी ओर सऊदी अरब के मोर्चे पर भी निश्चित तौर पर कुछ क़दम सही दिशा में उठाए गए हैं. इराक़ी मध्यस्थता के बूते सऊदी अरब ने ईरान के साथ सीधे तौर पर संपर्क स्थापित किया है. इन घटनाक्रमों से साफ़ ज़ाहिर है कि मध्य पूर्व के परंपरागत भू-राजनीतिक तेवरों में इलाक़ाई तौर पर कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं. पारंपरिक रूप से इस इलाक़े के मुल्क आर्थिक रसूख़ के लिए तेल पर और आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के लिए अमेरिका के फ़ौजी और सियासी प्रभाव पर टिके रहे हैं. इन हालातों और तौर-तरीक़ों में अब तेज़ी से बदलाव आ रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौज की बेतरतीब वापसी से जुड़े तजुर्बे ने मध्य-पूर्व के तमाम देशों के नज़रिए बदल डाले हैं. सामरिक और रणनीतिक तौर पर केवल अमेरिका के भरोसे रहने की पारंपरिक सोच अब बदलने लगी है. न सिर्फ़ अरब क्षेत्र में यूएई और सऊदी अरब जैसे अमेरिका के मित्र देशों बल्कि पारंपरिक तौर पर इस इलाक़े में अमेरिका के सबसे मज़बूत साथी इज़राइल की भी सोच बदलने लगी है.

 मध्य पूर्व के परंपरागत भू-राजनीतिक तेवरों में इलाक़ाई तौर पर कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं. पारंपरिक रूप से इस इलाक़े के मुल्क आर्थिक रसूख़ के लिए तेल पर और आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के लिए अमेरिका के फ़ौजी और सियासी प्रभाव पर टिके रहे हैं. 

रुढ़िवादियों की सत्ता

ईरान में अब राजपाट बदल गया है. अब वहां रुढ़िवादियों की अगुवाई वाला अमला सत्ता पर क़ाबिज़ है. ईरान की राजसत्ता और सियासत में अमेरिका के ख़िलाफ़ भावनाएं कूट-कूटकर भरी हैं. हालांकि इन तमाम हक़ीक़तों के बावजूद ये मानकर चलना कि अमेरिका के साथ किसी भी तरह का करार करने को ईरान रज़ामंद नहीं होगा, कतई मुनासिब नहीं होगा. ग़ौर से देखें तो परिस्थितियां इसके ठीक उलट हैं. दरअसल, परमाणु समझौते या JCPOA पर दस्तख़त कर 2015 वाले हालात की वापसी के लिए यही सबसे माकूल वक़्त है. ईरान में रुढ़िवादियों की सत्ता है. ऐसे में वहां के कट्टरपंथी तत्वों को अपने बीच के ही लोगों द्वारा वार्ताओं के ज़रिए किए गए समझौते को मानने में किसी तरह का गुरेज़ नहीं होगा. इससे पहले रूहानी की अगुवाई वाली नरमपंथियों की सरकार द्वारा किए गए ऐसे किसी समझौते पर कट्टरपंथियों को रज़ामंद कराना कतई आसान नहीं होता.

अक्सर एक मसले पर JCPOA की तगड़ी आलोचना होती रही है. दरअसल ईरान को लेकर टकराव वाले दूसरे तमाम मुद्दों का इस समझौते से कोई समाधान नहीं निकलता. इनमें इलाक़े को लेकर ईरान की विदेश नीति से लेकर कुछ आतंकी संगठनों को ईरान द्वारा दिए जाने वाले समर्थन तक कई मसले शामिल हैं. ये आलोचना आज भी अपनी जगह जायज़ है. हालांकि JCPOA से हासिल नतीजों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. इसकी बदौलत ईरान को न केवल वार्ताओं की मेज़ तक लाया जा सका बल्कि उसकी गतिविधियों को एक हद से आगे न बढ़ने देने में भी कामयाबी मिली. समझौते ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े सवालों को केंद्र में बनाए रखा. इस तरह क्षेत्रीय मसलों के ऊपर अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं को तरजीह दी गई. ज़ाहिर है कि आलोचक भले ही JCPOA में तमाम मीन-मेख निकालें लेकिन अपने संभावित विकल्पों के मुक़ाबले ये समझौता कहीं बेहतर है. परमाणु समझौता ईरान से जुड़े कई अन्य मसलों पर चर्चा और बहस के लिए वैकल्पिक मोर्चे मुहैया कराता है. दरअसल, यमन और सीरिया समेत तमाम दूसरे इलाक़ों में ईरानी हितों के ख़िलाफ़ कार्रवाइयों से तमाम संबंधित पक्षों के लिए बेहद सीमित नतीजे निकले हैं. सार्वजनिक तौर पर अपनी तमाम पैंतरेबाज़ियों के बावजूद ईरान अगर अमेरिका के साथ बातचीत के रास्ते पर आगे बढ़ाता है तो समझौते के बुनियादी उसूलों को दोबारा अपनाए जाने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. हो सकता है कि एक-दूसरे की रज़ामंदी वाले करार के लिए दोनों ही पक्षों को थोड़ी-थोड़ी नरमी बरतनी पड़े. निश्चित रूप से मौजूदा हालात के मद्देनज़र इस तरह का कोई भी घटनाक्रम बेहद रोचक होगा.

सार्वजनिक तौर पर अपनी तमाम पैंतरेबाज़ियों के बावजूद ईरान अगर अमेरिका के साथ बातचीत के रास्ते पर आगे बढ़ाता है तो समझौते के बुनियादी उसूलों को दोबारा अपनाए जाने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. 

फ़िलहाल ईरान के साथ वार्ताओं का आग़ाज़ उथल-पुथल भरा रहा है. इसके बावजूद अल्पकाल में सामरिक मोर्चे पर पश्चिमी दुनिया का सब्र और इज़राइल जैसे देश का रणनीतिक संयम राजनयिक तौर पर एक ऐसा मुकाम मुहैया करा सकता है जिसपर सबकी रज़ामंदी हो. इसमें कोई शक़ नहीं कि कूटनीति को छोड़कर बाक़ी तमाम विकल्पों का नतीजा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विनाशकारी हो सकता है.

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