भारत-आशियान, कृत्रिम द्वीप, दक्षिण चीन सागर, फ़्रीडम ऑफ नेविगेशन, सामरिक अध्ययनदक्षिणी चीन सागर एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. यहां पर चीन और वियतनाम व फ़िलीपींस के जहाज़ों के बीच हुई कुछ घटनाओं से अचानक से तनाव फिर से बढ़ गया है. दक्षिणी चीन सागर पर चीन अपना जितना व्यापक दावा करता है, अब उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है. इसीलिए अब कई क्षेत्रीय देश अमरीका की मदद से चीन के दावों को चुनौती देने लगे हैं.
दक्षिणी चीन सागर के खनिजो से लैस इलाक़े में चीन की गतिविधियां काफ़ी तेज़ हो गई हैं. इनकी वजह से चीन और वियतनाम के बीच वियतनाम के एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक ज़ोन को लेकर भी तनातनी हुई है. पिछले महीने जब दक्षिणी पूर्वी एशिया के दस देशों के संगठन आसियान के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई, तो इस में दक्षिणी चीन सागर का विवाद भी प्रमुख रूप से चर्चा का विषय बना. इस बैठक के बाद जो आख़िरी बयान जारी हुआ उस के ज़रिए आसियान देशों ने समुद्री इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करने और पूरे इलाक़े में चीन की गतिविधियों को लेकर चिंता जताई.
दक्षिणी चीन सागर में चीन के विस्तार की चुनौती को अमेरिका ने काफ़ी देर से समझा. ट्रंप सरकार की अगुवाई में अमेरिका इस इलाक़े में अपने हितों को लेकर आक्रामक बयानबाज़ी करता रहा है.
लेकिन, चीन ने भी दूसरे देशों के विरोध के बावजूद अपने क़दम पीछे नहीं खींचे हैं. बल्कि चीन के वरिष्ठ राजनयिक वांग यी ने चेतावनी दी कि बाहरी देश जान बूझ कर ऐसे मतभेदों और विवादों को कतई बढ़ावा न दें. साथ ही वांग यी ने आसियान देशों के बीच कोड ऑफ़ कन्डक्ट को लेकर चल रही बातचीत का भी हवाला दिया, जिससे सदस्य देशों के बर्ताव के लिए नियम क़ायदे आगे चल कर तय होंगे.
दक्षिणी चीन सागर से हर साल क़रीब 3.4 ख़रब डॉलर का कारोबार होता है. चीन, दक्षिणी चीन सागर के एक बड़े हिस्से पर अपना दावा जताता है. उसके कई पड़ोसी देशों ने चीन के दावों पर ऐतराज़ जताया है. दक्षिणी चीन सागर पर चीन के दावों का विरोध करने वालों में मलेशिया, फिलीपींस, ताईवान और वियतनाम प्रमुख हैं. दूसरे देशों की चिंता उस वक़्त बढ़ गई, जब चीन ने वर्ष 2010 में दक्षिणी चीन सागर को अपनी दिलचस्पी के प्रमुख क्षेत्रों में शामिल करने की घोषणा की थी. चीन के मुताबिक़ वो इस मसले पर किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं है. तब से चीन ने ज़मीनी स्तर पर दक्षिणी चीन सागर में अपने अधिकार क्षेत्र को लगातार बढ़ाने का ही प्रयास किया है. उसने कई कृत्रिम द्वीप भी दक्षिणी चीन सागर में बना डाले हैं, जहां चीन के सैन्य बलों को तैनात किया गया है.
दक्षिणी चीन सागर में चीन के विस्तार की चुनौती को अमेरिका ने काफ़ी देर से समझा. ट्रंप सरकार की अगुवाई में अमेरिका इस इलाक़े में अपने हितों को लेकर आक्रामक बयानबाज़ी करता रहा है. वो क्षेत्रीय ताक़तों को समर्थन देता है. साथ ही फ्रीडम ऑफ नेविगेशन ऑपरेशन्स (FONOPS) के अंतरराष्ट्रीय समझौते को लागू करने पर भी ज़ोर देता आया है.
हाल ही में हुई आसियान देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में भी अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने दक्षिणी पूर्वी एशियाई पड़ोसी देशो को धमकाने वाले चीन के अंदाज़ का विरोध किया और कहा कि दक्षिणी चीन सागर के विवाद और मीकॉन्ग नदी पर बांध के मसले पर चल रहे विवाद को चीन दूसरे देशों को धमकाकर सुलझाना चाहता है. माइक पॉम्पियो ने अपने बयान में क्षेत्रीय ताक़तों से चीन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को कहा. पॉम्पियो ने कहा कि दक्षिणी चीन सागर में चीन की आक्रामक नीति से क्षेत्रीय स्थिरता को ख़तरा है. वहीं मीकॉन्ग नदी पर चीन के बांध बना लेने से इस नदी के निचले इलाक़ों में जल स्तर पिछले एक दशक में सबसे कम हो गया है.
चीन और अमेरिका के बीच ये तनातनी उस वक़्त हो रही है, जब दोनों देशों के संबंध बहुत ही ख़राब दौर से गुज़र रहे हैं. कारोबार के मसले पर तनातनी के बाद अमेरिका ने चीन से आयात होने वाले सामान पर 10 प्रतिशत ज़्यादा टैक्स लगा दिया है. अमेरिका, चीन से क़रीब 300 अरब डॉलर का आयात करता है. इस पर टैक्स की नई दरें 1 सितंबर से लागू हो जाएंगी.
वहीं, दूसरे दक्षिणी पूर्वी एशियाई देश अभी भी चीन के आक्रामक बर्ताव के हिसाब से ख़ुद को तैयार करने में जुटे हैं. फिलीपींस ने हाल ही में बताया कि पिछले महीने चीन के पांच युद्धपोत उसके राजधानी मनीला के 12 समुद्री मील के दायरे से फिलीपींस की सरकार को जानकारी दिए बिना गुज़रे थे. साथ ही फिलीपींस ने अपने क़ब्ज़े वाले थिटू द्वीप को चीन के जहाज़ों से घेरे जाने पर भी कूटनीतिक विरोध दर्ज़ कराया था. इससे पहले चीन की एक मछली मारने की नाव ने फिलीपींस की एक नाव को फिलीपींस के एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक ज़ोन में ही डुबो दिया था. चीन का दावा है कि ये महज़ एक हादसा था. हाल ही में मलेशिया एक एक समुद्री तेल के कुएं के क़रीब भी चीन के जहाज़ जा पहुंचे थे. हाल ही में वियतनाम के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र के दायरे में आने वाले समुद्री इलाक़े में चीन का एक सर्वे करने वाला जहाज़ पहुंचा था. उसके साथ कई और जहाज़ भी थे. उन्होंने वियतनाम के एक समुद्री तेल के इलाक़े में गतिविधियां संचालित की थीं. 2014 के बाद से चीन और वियतनाम के बीच तनातनी का ये सबसे गंभीर मामला था.
वियतनाम के मामले में एक दिलचस्प बात ये भी है कि रूस की कंपनी रोज़नेफ़्ट भी विवादित क्षेत्र में तेल निकालने का काम कर रही है.
जब वियतनाम ने चीन से अपने इस सर्वे करने वाले जहाज़ और बाक़ी जहाज़ों को तुरंत अपने इलाक़े से हटाने की मांग की, तो उसे अमेरिका का समर्थन मिला था. अमेरिका ने चीन के इस धमकाने वाले बर्ताव की कड़ी निंदा की थी और कहा था कि ऐसे बर्ताव से चीन क्षेत्रीय स्थिरता को ख़तरे में डालने का काम कर रहा है. वियतनाम के मामले में एक दिलचस्प बात ये भी है कि रूस की कंपनी रोज़नेफ़्ट भी विवादित क्षेत्र में तेल निकालने का काम कर रही है. जबकि चीन और रूस के बीच लगातार नज़दीकी बढ़ रही है. ऐसे में ये देखने वाली बात होगी कि रूस दक्षिणी चीन सागर के विवाद में क्या रुख़ अपनाता है.
इस इलाक़े में चीन का आक्रामक रुख़ इस बात से समझा जा सकता है कि चीन अब समुद्र के एक व्यापक इलाक़े में अपना दावा ठोक रहा है. इसकी हालिया गतिविधियां भी ये बताती हैं कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका को आसियान देशों से समर्थन मिल रहा है और वो अमेरिका की एशिया-प्रशांत क्षेत्र की नीति के समर्थन में सोच बना रहे हैं.
चीन को अमेरिका का एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ख़ुद और सहयोगी देशों को मज़बूत करना पसंद नहीं है. वो इस हक़ीक़त को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है. इसी वजह से चीन ज़्यादा आक्रामक बर्ताव के ज़रिए ये सुनिश्चित करना चाहता है कि दूसरे क्षेत्रीय देश विदेशी ताक़तों के साथ साझेदारी की मदद से समुद्र से तेल और गैस निकालने का प्रयास न करें. न ही वो इस इलाक़े में तेल और गैस की संभावनाएं तलाशने के लिए अन्वेषण के मिशन चलाएं. क्योंकि ऐसा होता है तो चीन के लिए अपनी कूटनीतिक गतिविधियां चलाने के मौक़े कम हो जाएंगे.
अगर भारत छोटी क्षेत्रीय ताक़तों के समर्थन में आवाज़ नहीं उठाता है, तो चीन अपने दावों को जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज़ पर आगे बढ़ाता रहेगा.
भारत ने अब तक दक्षिणी चीन सागर को लेकर कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है. जबकि ख़बर ये है कि वियतनाम ने दक्षिणी चीन सागर की हालिया घटनाओं की जानकारी भारत को औपचारिक रूप से दी थी. ऐसा लगता है कि चीन के साथ अपने व्यापक हित जुड़े होने की वजह से भारत इस विवाद में अपना रोल सीमित ही रखना चाहता है. लेकिन, भारत ख़ुद के एशिया-प्रशांत क्षेत्र की बड़ी ताक़त होने का दावा करता रहा है. ऐसे में भारत की चुप्पी से इस क्षेत्र में उसके कारोबारी हितों को भी नुक़सान ही होगा. दक्षिणी चीन सागर के विवाद पर भारत की ख़ामोशी उसकी अदूरदर्शिता को दर्शाता है.
अगर भारत छोटी क्षेत्रीय ताक़तों के समर्थन में आवाज़ नहीं उठाता है, तो चीन अपने दावों को जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज़ पर आगे बढ़ाता रहेगा. वो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की धज्जियां उड़ाता रहेगा और किसी भी देश के संयमित बर्ताव के क़ायदों की अनदेखी करता रहेगा. जब पूरा दक्षिण-पूर्वी एशिया उबल रहा है, तो ऐसे मौक़े पर अगर भारत चुप रहेगा, तो एशिया-प्रशांत क्षेत्र को मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाए रखने के उसके विचार को बस ख़याली पुलाव ही माना जाता रहेगा. भारत अगर ये सोचता है कि दक्षिणी चीन सागर के विवाद पर ख़ामोश रह कर वो चीन से स्थायी तौर पर दोस्ती गांठ सकता है, तो ये एक मुग़ालता ही है. बल्कि इससे भारत को स्थायी तौर पर भारी नुक़सान होने की आशंका ज़्यादा है.
ये लेख मूल रूप से MoneyControl में छपा था.
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