उरी में आतंकी हमले के जवाब में भारत की कार्रवाई से एक बार फिर अत्यंत गुप्त तरीके से काम करने वाले हमारे विशेष सैन्य दल अर्थात स्पेशल फोर्सेंज(एसएफ) चर्चा में हैं। भारतीय एसएफ अमेरिकी एसएफ की तरहं नहीं हैं। मूल रूप से भारत की एसएफ में पैरा कमांडो हैं, उन्हें एक ‘सुपर’ इन्फैंट्री भी कहा जा सकता है। अन्य शब्दों में जो काम सामान्य तौर पर पैदल सेना यानी कि इन्फैंट्री नहीं कर सकती है, उसे ये एसएफ अंजाम तक पहुंचाते हैं।
जम्मू व कश्मीर में उनका इस्तेमाल रजवार की उंचाईयों व पीरपंजाल में उच्च स्तरीय प्रशिक्षण प्राप्त किए हुए आतंकवादियों से निपटने में हो चुका है और उनकी बहादुरी के कारनामे अपने आप में किस्से कहानियों का विषय बन चुके हैं। साल 1993 के बाद से ही उन्होंने नियंत्रण रेखा के पार जाकर वैसे ही कार्रवाई में कई बार भूमिका निभाई है जैसी कार्रवाई हाल ही में की गई गई है। लेकिन उनकी अपनी कुछ सीमाएं भी हैं जिसके कारण उनकी कार्रवाई या तो सीमा से कुछ दूरी तक यां अपनी जमीन पर ही सकती है। अगर वाकई हमें सच में स्पेशल आपरेशन्स करने हैं तो इसके लिए हमें अलग तरहं का सैन्यबल चाहिए।
वर्ष 2011 में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद तत्कालीन भारतीय थल सेना प्रमुख जनरल वी.के.सिंह ने दावा किया था कि जिस तरहं की कार्रवाई कर अमेरिका ने लादेन को मार गिराया था उसी तरहं की कार्रवाई करने में भारत भी सक्षम है। लेकिन यह कुछ ज्यादा बढा़-चढ़ाकर कर किया गया दावा था। लंबी दूरी तक जाकर कार्रवाई करने की ऐसी क्षमता का भारत के पास अभाव है जिसके चलते पाकिस्तान के अंदर भीतर तक जाकर कार्रवाई की जा सके। इसके लिए हेलिकाप्टरों के पास रात को उड़ने की क्षमता, उपग्रह और मानवीय इंटेलिजेन्स, निगरानी और मौके की जानकारी एकत्र करने की क्षमता से लैस होना जरूरी है।
मौजूदा एसएफ ऐसी कार्रवाई करने में उपयोगी है जैसी कार्रवाई नियंत्रण रेखा पर 18 सितंबर को उरी पर आतंकी हमले के जवाब में की गई। औपचारिक रूप से सीधी सैनिक कार्रवाई में खतरा ये है कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है और पाकिस्तान ऐसी स्थिति मे पहुंच सकता है जहां उसके पास परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के अलावा कोई चारा ही न बचे। पिछले कई सालों में इजरायल ने गाजा में हमास के तथा लेबनान में हिजबुल्ला के खिलाफ परंपरागत सैनिक कार्रवाई की है लेकिन उसके बावजूद उनकी हमले करने की क्षमता कम नहीं हुई । इससे पता चलता है कि औपचारिक सैनिक कार्रवाई जैसे विकल्प बहुत धारदार नहीं हैं।
जहां तक कूटनीति यां वित्तीय प्रतिबंधों का सवाल है भारत का पाकिस्तान पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है; ज्यादा से ज्यादा भारत सहयोगी देशों का गठबंधन खड़ा कर इस दिशा में आवश्यक कार्रवाई करने का प्रयास कर सकता है; लेकिन ये रणनीति भी नाकाम साबित हो सकती है क्योंकि चीन और अमेरिका दोनों के पाकिस्तान में हित हैं। इसलिए भारत ने नकारात्मक कूटनीति का सहारा लेते हुए दक्षेस का बहिष्कार किया, सिंधु जल संधि को खत्म करने की चेतावनी दी और पाकिस्तान को दिए गए एमएफएन दर्जे को वापिस लिया।
कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि स्पेशल फोर्सेज द्वारा सही मायने में स्पेशल आपरेशन्स चलाने के लिए एक अलग तरहं का संगठन, नेतृत्व और उपकरण चाहिएं। सच तो यह है कि अब तक दुनिया भर में तीन यां चार ही ऐसे देश-इजरायल, यूके, यूएसए व रशिया- हैं जिन्होंने लगभग आत्मघाती होने की हद तक खतरनाक अभियानों को अंजाम देने की क्षमता का प्रदर्शन किया है। उनके सैन्य बल उन अभियानों को अंजाम देते हैं जिनमें सामूहिक रूप से उनके पास राजनीतिक दिशा की स्पष्टता रहती है, राजनीतिक व्यवस्था-सैन्य व्यवस्था- गुप्तचर एजंसियां एक साथ मिलकर काम करते हैं और उनके पास विशेष किस्म की टेक्नालाजी उपलब्ध रहती है।
गौरतलब है कि स्पेशल आपरेशन्स फोर्सेज (एसओएफ) अपने आप में एक पूर्णकालिक काम है। इन्हें खास तरहं की भाषायी और सांस्कृतिक क्षमताएं चाहिएं जो रोजमर्रा के सैन्य काम काज में लगे रहने से विकसित नहीं की जा सकती हैं। मसलन हाल ही के दिनों में अमेरिका और इंग्लैंड के एसओएफ इस्लामिक स्टेट के कब्जे वाले इलाके में बहुत भीतर तक सक्रिय हैं। पर वे ऐसा तभी कर सकते हैं जब दुश्मन के इलाके में स्थानीय समाज का हिस्सा बन जाएं।
ऐसी छापामार कार्रवाईयों के लिए अच्छी खासी तकनालाजी की आवश्यकता होती है। अमेरिका के एलिंट व कोमइंट जैसे जबरदस्त उपग्रह हैं जो लगातार निगरानी में दूसरों पर बहुत भारी पड़ते हैं। स्टेल्थ तकनालाजी के मामले में भी वह दूसरे देशों से कहीं आगे है। एबटाबाद में बिन लादेन के घर के दालान में पाए गए अमेरिक हेलिकाॅप्टर के टुकड़ों से पता चलता है कि अमेरिकी स्टेल्थ तकनालाजी ने कैसे पाकिस्तानी राडारों को चकमा दिया। यह कहना सही नहीं होगा कि लादेन को मारने के लिए की गई कार्रवाई के दौरान पाकिस्तानी राडार निष्क्रिय थे क्योंकि एबटाबाद वास्तव में इस्लामाबाद/रावलपिंडी एयर डिफेन्स जोन का हिस्सा है।
स्पेशल आपरेशन्स मूल रूप से खतरों से भरे होते हैं। यहां खतरा केवल शारीरिक यां भैतिक ही नहीं है। ऐसी किसी भी कार्रवाई की असफलता के परिणाम भयानक हो सकते हैं। जरा सोचिए कि एबटाबाद में कोई गड़बड़ हो जाती और यूएस नेवी सील्स पकड़े जारते यां मारे जाते तो अमेरिका की कैसी भद्द पिटती। पाकिस्तानी सेना तो भारत को शत्रु देश मानती है, ऐसे में भारतीय सैनिकों के पकड़े जाने यां उनकी मौत से मामला कहीं ज्यादा बिगड़ सकता है।
ईरान में 1980 में फंसे अमेरिकी बंधकों को रिहा करवाने के लिए की गई सैन्य कार्रवाई की विफलता ने न केवल अमेरिका राष्ट्रपति जिमी कार्टर को डुबा दिया बल्कि उसका अमेरिका-ईरान रिश्तों पर भी बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा। वैसे यह बता देना उचित होगा कि ये स्पेशल फोर्सेंज का मिशन नहीं था। इसमें अमेरिकी थल, वायु और नौसेना तथा मरीन्स शामिल थे। मिशन की असफलता का प्रमुख कारण संभवतः इन सबमें आपसी तालमेल का अभाव था।
भारत में सेना के तीनों अंगों के पास स्पेशल फोर्सेज़ हैं लेकिन वे स्पेशल आपरेशन्स नहीं करती हैं और न ही एक दूसरे के साथ ज्यादा तालमेल रखती हैं। वायुसेना रात में हेलिकाप्टर भी नहीं उड़ाती है लेकिन नौसेना ऐसा करती है हालंकि ये उड़ानें अलग संदर्भ में होती हैं। ये भारत में चल रही कार्रवाई से भी कोसों दूर होती हैं। इन तीनों का रिसर्च एंड एनालिसिस विंग से सीमित संबंध है जिसमें गुप्त कार्रवाई की संस्कृति का अभाव है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय सैन्य बलों के पास उन्नत तकनालाजी वाले सहायक उपकरणों व ऐसी इंसानी इंटेलिजेंस का अभाव है जिसकी जरूरत इस तरहं की विशेष कार्रवाई में पड़ती है।
लेकिन स्पेशल आपरेशन्स में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है राजनीतिक नेतृत्व को साथ लेने का । इन अभियानों की संवेदनशीलता को देखते हुए उच्चतम स्तर पर कार्रपाई के लिए राजनीतिक स्वीकृति जरूरी है। राजनीतिक नेतृत्व के अलावा भारतीय स्पेशल फोर्सेज को एक दूसरे तथा गुप्तचर एजेंसियों के साथ बेहतर तालमेल की जरूरत है। वास्तव में जरूरत तो इस बात की है कि राजनीतिक नेतृत्व सेना के तीनों अंगों की विशेष क्षमताओं को एक स्पेशल आपरेशन्स कमांड के अंतर्गत लाए। इसके रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के अलावा सैन्य तथा गैर सैन्य गुप्तचर एजेंसियों को जोड़ने की जरूरत है जिसमें के अलावा एनटीआरओ, आईबी तथा जियोस्पेशियल इमेजरी जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले लोग शामिल हैं।
भारत ने इन्टेलिजेंस आधारित एक विशेष सैन्य बल स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के नाम से खड़ा भी किया था। मूल रूप से इसे तिब्बत में कार्रवाई के लिए खड़ा किया गया था पर अब यह बेकार हो चुका है और किसी को भी स्पष्ट नहीं है कि इसके लक्ष्य क्या हैं।
इसलिए हमें जरूरत इस बात की है कि हम अपनी स्पेशल फोर्सेंज को एक स्वायत्त स्पेशल आपरेशन्स कमांड के अंतगर्त लाएं जो गुप्तर सेवाओं के साथ करीब से जुड़ी हो और जिसे उच्च स्तर पर सब तरहं की आवश्यक राजनीतिक स्वीकृतियां प्राप्त हों। इनके सदस्यों को खास भाषाओं और संस्कृतियों से संबंधित प्रशिक्षण मिलना चाहिए। मौजूदा हालात में कुछ भारतीय एसएफ उत्तरपूर्व, जम्मू-कश्मीर व राजस्थान के कुछ इलाकों की संस्कृति से परिचित हैं। लेकिन हम बात कर रहे हैं उन्हें सिंहली, बर्मी भाषाओं, मालदीवियिन, पश्तो और ऐसे देशों की संस्कृति से रूबरू करवाने की जो हमारी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। संगठन और तकनालाजी के स्तर पर पूरी तरहं से सक्षम एसएफ ही दुश्मन के इलाके में भीतर तक जाकर आतंकवादियों के नेतृत्व और इन संगठनों के बुनियादी ढांचे को अपना निशाना बना पाएंगे अन्यथा हम कुछ छोटे मोटे अभियान चलकार उनके कुछ प्यादों को ही गिरा पाएंगे।
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