Author : Harsh V. Pant

Published on Jul 11, 2020 Updated 0 Hours ago

भारत हॉन्गकॉन्ग को लेकर अपने हर क्षेत्र की नीति की नए सिरे से समीक्षा कर रहा है. तो, हॉन्गकॉन्ग भारत के लिए एक ऐसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में उभरा है, जिसका इस्तेमाल करके भारत, चीन पर दबाव बना सकता है.

भारत ने आख़िरकार हॉन्गकॉन्ग पर अपना दांव चल ही दिया

हॉन्गकॉन्ग की जनता के जज़्बातों और दुनिया भर में बढ़ते विरोध के बावजूद, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पिछले हफ़्ते एक विवादित राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून पर दस्तख़त कर ही दिए. इस क़ानून से चीन को हॉन्गकॉन्ग का भविष्य तय करने के असीमित अधिकार मिल गए हैं. चीन के इस क़ानून के कारण, हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता बहुत घट गई है. इस क़ानून के लागू होने के बाद, चीन को इस बात का खुला अधिकार मिल गया है कि वो हॉन्गकॉन्ग में अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विरोध के सुरों का दमन कर सके. और हॉन्गकॉन्ग के अधिकारों के इस दमन को चीन ने, अलगाववाद, बग़ावत, आतंकवाद और विदेशी शक्तियों के साथ सांठ-गांठ के ख़िलाफ़ कार्रवाई का नाम दिया है. हॉन्गकॉन्ग के ज़्यादातर निवासियों को ये बात अच्छे से पता है कि चीन ने इस क़ानून के माध्यम से अभिव्यक्ति की आज़ादी और संगठित होने के उनके अधिकारों की आत्मा को ही मार दिया है. चीन द्वारा हॉन्गकॉन्ग को लेकर जिस वन कंट्री, 2 सिस्टम का बड़े ज़ोर शोर से प्रचार किया जाता था, इस क़ानून से उसका भी अंत हो गया है. 1997 में ब्रिटेन से हॉन्गकॉन्ग के प्रशासन का अधिकार पाने के बाद से अब तक चीन और हॉन्गकॉन्ग के संबंध इसी ‘एक देश दो व्यवस्थाओं’ के आधार पर संचालित होते आए थे.

चीन के इस क़ानून के कारण, हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता बहुत घट गई है. इस क़ानून के लागू होने के बाद, चीन को इस बात का खुला अधिकार मिल गया है कि वो हॉन्गकॉन्ग में अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विरोध के सुरों का दमन कर सके

हॉन्गकॉन्ग में वर्ष 2019 से ही चीन के ख़िलाफ़ ज़ोरदार प्रदर्शन हो रहे हैं. और चीन ने ये जो नया क़ानून बनाया है, असल में वो शी जिनपिंग का हॉन्गकॉन्ग के निवासियों से लिया गया बदला है. क्योंकि, हॉन्गकॉन्ग के निवासियों के विरोध प्रदर्शन के चलते, पिछले साल चीन की सरकार को विवादित प्रत्यर्पण विधेयक को वापस लेना पड़ा था. उसके बाद से ही हॉन्गकॉन्ग में चीन विरोधी और लोकतंत्र समर्थक आंदोलन अपने आपको संगठित कर रहा था. अब इस नए क़ानून के माध्यम से चीन ने हॉन्गकॉन्ग के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का का गला घोटने की ठान ली है.

हालांकि, इस बार इस मसले पर सबसे दिलचस्प बात जो देखने को मिली है, वो है भारत की प्रतिक्रिया. हॉन्गकॉन्ग के मसले पर भारत ने कुछ बोला है, यही अपने आप में बहुत बड़ा बदलाव है. हॉन्गकॉन्ग के नए सुरक्षा क़ानून को लेकर भारत ने अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के मंच को चुना. जेनेवा में पिछले हफ़्ते, भारत ने कहा कि वो ‘हॉन्गकॉन्ग के ताज़ा हालात पर बारीक़ी से नज़र बनाए हुए है.’ क्योंकि हॉन्गकॉन्ग में भारतीय समुदाय के लोग भी बड़ी संख्या में रहते हैं. जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत के स्थायी प्रतिनिधि राजीव चंदर ने चीन का नाम लिए बग़ैर कहा कि, ‘भारत को ये उम्मीद है कि इस विषय में संबंधित पक्ष उसके विचारों का ध्यान रखेंगे. और पूरे मामले को सही तरीक़े, गंभीरता और निष्पक्षता से हल करने की कोशिश करेंगे.’

इससे पहले, भारत हमेशा हॉन्गकॉन्ग के विषय पर बात करने का अनिच्छुक रहता था. लेकिन, पिछले महीने गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक संघर्ष के कारण दोनों देशों के संबंध काफ़ी ख़राब हो गए हैं. शायद इसी कारण से भारत को हॉन्गकॉन्ग के विषय में अपने रुख़ में बदलाव लाना पड़ा. इससे पहले, भारत को हॉन्गकॉन्ग के लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं को अपने यहां आने का वीज़ा देने में भी हिचक होती थी. और G-20 देशों में इंडोनेशिया के साथ भारत ऐसा दूसरा देश है, जिसने हॉन्गकॉन्ग के लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं से मिलने तक से इनकार कर दिया था. ये लोकतंत्र समर्थक भारतीय प्रतिनिधियों से मिलकर एक अर्ज़ी देना चाहते थे, ताकि सभी देश, हॉन्गकॉन्ग को लेकर चीन पर दमनकारी नीतिया न अपनाने का दबाव बना सकें. भारत ने शिन्जियांग के वीगर अल्पसंख्यक मुसलमानों के साथ चीन के बुरे बर्ताव को लेकर भी ख़ामोशी अख़्तियार कर रखी थी. जबकि, भारत के उलट चीन खुलकर भारत के अंदरूनी मसलों में दख़लंदाज़ी करता था. यहां तक कि जब भारत की मोदी सरकार ने पिछले साल अगस्त में कश्मीर से धारा 370 हटाई थी, तो चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी इस मसले को उठाने की कोशिश की थी.

इससे पहले, भारत को हॉन्गकॉन्ग के लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं को अपने यहां आने का वीज़ा देने में भी हिचक होती थी. और G-20 देशों में इंडोनेशिया के साथ भारत ऐसा दूसरा देश है, जिसने हॉन्गकॉन्ग के लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं से मिलने तक से इनकार कर दिया था

लेकिन, इस बार सीमा पर उठे संकट ने भारत की चीन नीति की बुनियादों को हिला दिया है. और अब चीन को लेकर भारत अपनी नीति के हर पहलू पर नए सिरे से विचार कर रहा है. फिर चाहे वो व्यापार का मुद्दा हो या तकनीकी संबंध या फिर चीन के घरेलू राजनीतिक मसलों पर टिप्पणी करने की बात हो. दुनिया भर में चीन का ऐसा ही विरोध देखने को मिल रहा है. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जापान समेत दुनिया के तमाम बड़े देशों ने हॉन्गकॉन्ग को लेकर चीन के नए सुरक्षा क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है और इसकी आलोचना की है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) में 27 देशों ने एक साथ मिल कर हॉन्गकॉन्ग पर चीन के क़ानून का विरोध किया और चीन से कहा कि वो अपने इस राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के ज़रिए दिए जा रहे व्यापक अधिकारों की फिर से समीक्षा करे. इसके अलावा इन देशों ने चीन से ये मांग भी की कि वो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के प्रमुख को अपने पश्चिमी सूबे शिन्जियांग का अर्थपूर्ण दौरा करने की इजाज़त दे.

चीन की दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ दुनियाभर में उठ रही आवाज़ों में भारत ने भी अपना सुर मिलाया है. क्योंकि इस बार दांव पर बहुत कुछ है. इस समय हम चीन की जो आक्रामकता देख रहे हैं, वो दरअसल शीन जिनपिंग के साम्राज्यवादी रुख़ का परिचायक है. आज चीन, सभी अंतररराष्ट्रीय नियम क़ायदों और समझौतों को ताक पर रख देना चाहता है. ताकि दुनिया पर अपनी दादागीरी स्थापित कर सके. इसके लिए चीन ने भारत के साथ अपने समझौतों से लेकर, ब्रिटेन के साथ हॉन्गकॉन्ग पर संधि तक को निशाने पर ले लिया है. इसके साथ साथ वो तमाम वैश्विक संगठनों जैसे कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का दुरुपयोग करके अपने प्रभुत्व का विस्तार कर रहा है. चीन की इन सब हरकतों से जो तस्वीर बन रही है, वो ये है कि चीन हर क़ीमत पर दुनिया को अपनी ज़िद, ज़रूरत और नियम के हिसाब से ढालने पर आमादा है.

भारत के लिए हॉन्गकॉन्ग, आर्थिक रूप से भी बेहद महत्वपूर्ण है. दुनिया भर के निवेशकों के लिए हॉन्गकॉन्ग, एक आकर्षक मंज़िल है. इसी वजह से हॉन्गकॉन्ग, एशिया के सबसे ताक़तवर वित्तीय केंद्र के तौर पर उभरा है. आज भारत और हॉन्गकॉन्ग के बीच 34 अरब डॉलर का वार्षिक द्विपक्षीय कारोबार होता है. इस लिहाज़ से हॉन्गकॉन्ग, वर्ष 2017 में भारत के लिए निर्यात का तीसरा बड़ा बाज़ार बन गया था. व्यापार के अलावा भी हॉन्गकॉन्ग से भारत में काफ़ी धन का निवेश हो रहा है. और हॉन्गकॉन्ग की अर्थव्यवस्था में भारत के आईटी पेशेवरों और बैंकिंग के विशेषज्ञों का बड़ा योगदान साफ़ तौर से दिखता है. हॉन्गकॉन्ग में भारत की लंबी अवधि की साझेदारी का भविष्य उज्जवल बना रहे, इसके लिए वहां पर राजनीतिक स्थिरता और क़ानून के राज की सख़्त आवश्यकता है.

भारत के लिए हॉन्गकॉन्ग, आर्थिक रूप से भी बेहद महत्वपूर्ण है. दुनिया भर के निवेशकों के लिए हॉन्गकॉन्ग, एक आकर्षक मंज़िल है. इसी वजह से हॉन्गकॉन्ग, एशिया के सबसे ताक़तवर वित्तीय केंद्र के तौर पर उभरा है

अब जबकि, भारत हॉन्गकॉन्ग को लेकर अपने हर क्षेत्र की नीति की नए सिरे से समीक्षा कर रहा है. तो, हॉन्गकॉन्ग भारत के लिए एक ऐसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में उभरा है, जिसका इस्तेमाल करके भारत, चीन पर दबाव बना सकता है. द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज़ से भी और वैश्विक समीकरणों के लिहाज़ से भी हॉन्गकॉन्ग में भारत का बहुत कुछ दांव पर लगा है. अगर, भारत के ऐसा करने से चीन भी भारत के घरेलू मसलों को विश्व मंचों पर उठाता है, तो उसकी मर्ज़ी है. वो ख़ूब ऐसा करे. एक प्रौढ़ लोकतांत्रिक देश के तौर पर हमें अपने वैश्विक साझेदारों के सामने अपना पक्ष रखने और उसका बचाव करने में कोई दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए. यही बात, भारत को चीन से बिल्कुल अलग कर देती है, जिससे विश्व मंच पर भारत की उपस्थिति अन्य देशों में भरोसा जगाती है. और वैसे भी, चीन पहले से भी भारत के घरेलू मामलों में दख़ल देने से क़तई नहीं हिचकिचाता है. अतीत में भारत ने चीन के अंदरूनी मामलों में दख़ल देने से बचने की कोशिश ज़रूर की है. मगर, सीमा पर संघर्ष से साफ़ है कि उसे इसका कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ है. हॉन्गकॉन्ग को लेकर भारत के नए रुख़ को दुनिया ने देखा है और नोटिस किया है. और भारत के नीति निर्माताओं को चाहिए कि वो इस अवसर का लाभ उठाकर चीन को विश्व राजनीति में आलोचना के केंद्र में लाएं और उसे चेतावनी देने का काम करें.

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