Published on May 23, 2020 Updated 0 Hours ago

एक बड़ी क्षेत्रीय शक्ति होने के नाते भारत की ये ज़िम्मेदारी बनती है कि वो इस विवाद को हल करने की पहल अपनी ओर से करे और ये दिखाए कि नेपाल के साथ वो बेहतर संबंध चाहता है.

भारत की नेपाल पहेली
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नवंबर 2019 में भारत के दो नए केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की सीमाएं बताने वाले नए नक़्शे ने भारत और नेपाल के संबंधों के पुराने ज़ख्मों को फिर से हरा कर दिया है. नेपाल ने, कालापानी इलाक़े को भारत के उत्तराखंड राज्य का हिस्सा बनाने पर सख़्त ऐतराज़ जताया है. कोविड-19 की महामारी की शुरुआत और इसके तेज़ी से फैलते संक्रमण के बीच, ऐसा लगता है कि भारत और नेपाल के बीच ये सीमा विवाद, नेपथ्य में चला गया है. लेकिन, हाल ही में भारत के रक्षा मंत्री द्वारा उत्तराखंड के धारचुला से, भारत नेपाल और चीन की सीमाओं को जोड़ने वाले लिपुलेख दर्रे तक जाने वाली 80 किलोमीटर लंबी सड़क के उद्घाटन के कारण, ऐसा लगता है कि भारत और नेपाल के बीच ये सीमा विवाद फिर से भड़क उठा है.

भारत और नेपाल के बीच ये सीमा विवाद काफ़ी पुराना है. इसकी शुरुआत वर्ष 1816 में सुगौली की संधि से हुई थी. इस संधि के अनुसार, महाकाली नदी के पूर्व में पड़ने वाली सारी ज़मीन नेपाल के हिस्से में आती है. इस संधि के बाद, नेपाल का दावा है कि लिपुलेख, लिंपियाधुरा और और कालापानी उसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं. जबकि, हक़ीक़त ये है कि भारत की सीमा से लगे ये विवादित क्षेत्र, महाकाली नदी के उद्गम स्थल से दक्षिण पूर्व इलाक़े में पड़ते हैं.

विवाद, नेपाल के इस दावे पर भी है कि महाकाली नदी का उद्गम कहां से होता है. नेपाल जिस स्थान से महाकाली नदी का उद्गम बताता है, वो महज़ ‘लिपु गाद’ नाम की एक बरसाती नदी का शुरुआती स्थल है. ये महाकाली नदी में मिलने वाली तमाम सहायक नदियों में से एक छोटी सी धारा भर है. इसी कारण से, नेपाल के इस दावे का भारत ये कह कर प्रतिरोध करता रहा है कि सुगौली की संधि के अंतर्गत इस धारा के उत्तर वाले हिस्से की सीमा को पूरी तरह से निर्धारित नहीं किया गया है. इसके अतिरिक्त, उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशक से प्रशासनिक एवं राजस्व के रिकॉर्ड बताते हैं कि कालापानी इलाक़ा वास्तव में भारत के पिथौरागढ़ ज़िले का हिस्सा रहा था.

इस सीमा विवाद से परे, भारत और नेपाल का आपसी सहयोग का लंबा इतिहास रहा है. और दोनों ही देश, इससे पहले उस वक़्त के सीमा विवादों को कूटनीतिक संवाद के माध्यम से सफलतापूर्वक हल करते आए हैं. 1981 में भारत और नेपाल ने मिल कर साझा तकनीकी स्तरीय सीमा समिति का गठन किया था. इस समिति की ज़िम्मेदारी दोनों ही देशों की लगभग 1850 किलोमीटर लंबी सीमा का स्पष्ट रूप से विभाजन करना था. भारत और नेपाल का ये साझा प्रयास बेहद सफल रहा था. दोनों ही देशों ने आपसी सहमति से वर्ष 2007 तक अपनी 98 प्रतिशत सीमाएं स्पष्ट रूप से रेखांकित कर ली थीं. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण ये है कि दोनों ही देश उसके बाद से कई मौक़ों पर इस बात को लेकर सहमति जता चुके हैं कि दोनों देशों की सीमा के बचे हुए विवादित हिस्सों के निपटारे के लिए एक उच्च स्तरीय व्यवस्था की जाए.

ऐसे में, भारत, नेपाल और चीन की सीमाओं के बीच स्थित इस जगह को लेकर भारत और नेपाल के बीच जो ताज़ा विवाद उठ खड़ा हुआ है, उसके कारण पहले भी दोनों देशों के रिश्ते पटरी से उतरने के कगार तक पहुंचते रहे हैं. भारत की सरकार ने सीमा तक सड़क निर्माण को महज़ कैलाश मानसरोवर तक पहुंचने वाली सड़क का नाम दिया है. कैलाश मानसरोवर हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल है. अब तक यहां जाने के लिए केवल दो ही रास्ते उपलब्ध थे. या तो यहां नाथू ला के रास्ते जाया जा सकता था या फिर नेपाल के रास्ते. दोनों ही मार्ग बेहद मुश्किल हैं. धारचुला तक इस सड़क के बन जाने से कैलाश मानसरोवर की तीर्थ यात्रा पर जाना बेहद आसान भी हो जाएगा और इससे काफ़ी समय भी बचेगा.

भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि हो सकती है. मगर, नेपाल का हालिया प्रतिकार उस समय देखने में आया है, जब भारत और चीन के सैनिकों के बीच सीमा पर दो जगहों पर संघर्ष देखने को मिला था

इन कारणों के अतिरिक्त, भारत के इस क्षेत्र पर अपना नियंत्रण रखने के कई अन्य स्पष्ट लाभ भी हैं. इस सड़क के बन जाने से भारत और चीन के बीच इस रास्ते से व्यापार में काफ़ी वृद्धि होने की संभावना है. चीन के साथ लगी सीमा पर संपर्क बेहतर होने का भारत को सामरिक लाभ भी होगा. 2017 में संसद की रक्षा मामलों की स्थायी समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि सीमा के आस पास के इलाक़ों में पर्याप्त बुनियादी ढांचे का विकास करना बेहद महत्वपूर्ण है. इससे, कुछ, ‘परेशान करने वाले पड़ोसी देशों’ के साथ शांतिपूर्ण संबंध बनाए रखने में मदद मिलेगी.

भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि हो सकती है. मगर, नेपाल का हालिया प्रतिकार उस समय देखने में आया है, जब भारत और चीन के सैनिकों के बीच सीमा पर दो जगहों पर संघर्ष देखने को मिला था

भारत के लिए ये सामरिक ज़रूरत 2017 में चीन के साथ डोकलाम विवाद के दौरान और भी स्पष्ट हो गई थी. क्योंकि, तब चीन के एक अधिकारी ने कहा था कि अगर चीन की सेना चाहे तो वो बड़ी आसानी से भारत की सीमा में दाख़िल हो सकती है. इस चीनी अधिकारी ने कहा था कि हम कालापानी या फिर पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर के रास्ते भारत की सीमा में घुस सकते हैं. कालापानी इलाक़े पर नियंत्रण से भारत को सामरिक बढ़त मिलती है. ख़ास तौर से भारत पर आक्रमण की स्थिति में. इसकी वजह ये है कि कालापानी का इलाक़ा ऊंचे स्थान पर है. इससे भारत की सीमा चौकियों को तिब्बत के पठारी इलाक़ों के रास्तों पर निगरानी का अच्छा मौक़ा मिलता है. कालापानी त्रिपक्षीय सीमा को लेकर भारत की चिंताओं को थल सेनाध्यक्ष जनरल एम एम नरवणे ने उस वक़्त बख़ूबी रेखांकित किया था, जब उन्होंने कहा था कि हो सकता है कि नेपाल ने सीमा पर ये विवाद, ‘किसी अन्य देश के कहने पर खड़ा किया हो.’ थल सेनाध्यक्ष के इस बयान का इशारा चीन की तरफ़ था. हालांकि, नेपाल के प्रधानमंत्री के. पी. ओली ने कहा है कि कि, ‘हम जो भी करते हैं अपने हितों को ध्यान में रख कर करते हैं’, लेकिन भारत में बहुत से सामरिक विशेषज्ञों का ये मानना है कि नेपाल के कालापानी सीमा पर विवाद फिर से खड़ा करने के पीछे चीन के सामरिक लक्ष्य हो सकते हैं.

भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि हो सकती है. मगर, नेपाल का हालिया प्रतिकार उस समय देखने में आया है, जब भारत और चीन के सैनिकों के बीच सीमा पर दो जगहों पर संघर्ष देखने को मिला था. दस मई को भारत और चीन और भारत के सैनिकों के बीच पूर्वी लद्दाख में पैंगॉन्ग त्सो झील के पास, सिक्किम के नाकू ला में संघर्ष हुआ था. इत्तेफ़ाक़ से 9 मई को नेपाल ने आधिकारिक रूप से भारत के लिपुलेख सीमा के लिए सड़क के उद्घाटन को एकतरफ़ा कार्रवाई बताया था. और भारत को चेतावनी दी थी वो नेपाल की सीमा के भीतर कोई गतिविधि न करे.

भारत और नेपाल के बीच अविश्वास की इस बढ़ती खाई के पीछे, नेपाल के घरेलू मामलों में चीन के बढ़ते दखल को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है. चीन,पिछले एक दशक से नेपाल के वामपंथियों को समर्थनदेकात रहा है. नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के साथ, चीन का नेपाल की अंदरूनी राजनीति में दखल शीर्ष पर पहुंच गया था. नेपाल के चीन के प्रति बढ़ते झुकाव की इस सोच को तब और बढ़ावा मिला, जब 2015 में नेपाल के नए संविधान के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के दौरान भारत ने नेपाल की सीमा की नाकेबंदी कर दी थी.

नेपाल के अंदरूनी मामलों में चीन के बढ़ते दखल को लेकर भारत की चिंताएं तब और सही साबित हुई थीं, जब चीन ने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी में अंदरूनी संघर्ष में सीधे दखल देते हुए सत्ताधारी पार्टी को विभाजन से बचाया था. वहीं, ऐसा लगता है कि नेपाल, भारत के बड़े भाई की भूमिका में दादागीरी करने से निजात पाना जाता है. भारत के कुछ क़दमों को एकतरफ़ा ठहराते हुए, नेपाल ने भारत के ख़िलाफ़ अपने रवैये को और सख़्त कर लिया है. नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा होली ने हाल ही में भारत की विदेश नीति का ये कहते हुए मखौल उड़ाया था कि, ‘क्या ये सत्यमेव जयते नहीं सीमामेव जयते है?’ नेपाल के प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद दोनों देशों के बीच सकारात्मक संवाद की रही सही संभावनाएं भी समाप्त हो गई हैं.

अभी भी भारत, नेपाल का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. लेकिन, घरेलू राजनीतिक दबाव और वैश्विक सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, अक्सर साधारण आर्थिक तर्क भी किनारे लगा दिए जाते हैं

हालांकि, नेपाल के प्रधानमंत्री के ऐसे बयानों को उनकी लगातार घटती लोकप्रियता से भी देखे जाने की ज़रूरत है. इस साल की शुरुआत से ही ओली की जनता के बीच लोकप्रियता घटती जा रही है. अब वो भारत विरोधी बयान देकर 2015 की नाकेबंदी की ही तरह, इस तनाव का फ़ायदा उठाने की फ़िराक़ में लगे दिखाई देते हैं. जब उनकी लोकप्रियता काफ़ी बढ़ गई थी. हालांकि, अभी भी भारत, नेपाल का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. लेकिन, घरेलू राजनीतिक दबाव और वैश्विक सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, अक्सर साधारण आर्थिक तर्क भी किनारे लगा दिए जाते हैं.

भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद के कारण, संबंधों में आए इस नए मोड़ ने दोनों ही देशों को मुश्किल में डाल दिया है. परिस्थितियां इतनी बिगड़ गई हैं कि अब भारत और नेपाल, दोनों ही बिना शर्मिंदगी उठाए अपने अपने स्टैंड से पीछे नहीं हट सकते. नेपाल के प्रधानमंत्री ने इसके बाद भी भारत को लेकर कई ऐसे बयान दिए हैं, जिस कारण से दोनों देशों के बीच स्थिति को बेहतर बनाने के अवसर बेहद सीमित हो गए हैं. प्रधानमंत्री के पी ओली के बयान, जैसे कि, ‘भारत का वायरस संभवत: चीन या इटली के वायरस से भी ख़तरनाक है’, ने सामरिक टकराव को और बढ़ाने की ओर ही इशारा किया है. अगर, भारत की ओर से ऐसा बयान दिया गया होता, तो अब तक इसके ख़िलाफ़ नेपाल की जनता सड़कों पर उतर चुकी होती.

भारत ने कोविड-19 का टेस्ट करने के लिए नेपाल को तीस हज़ार टेस्टिंग किट मुहैया कराई थी और नेपाल ने इसके लिए खुलकर भारत का शुक्रिया अदा किया था. भारत, कोविड-19 से जुड़ी इस कूटनीति का इस्तेमाल, आगे चल कर, जब तनाव कम हो जाए, तो इसकी मदद से नेपाल के साथ सीमा विवाद को हल कर सकता है

हालांकि, कोविड-19 की महामारी से दोनों ही देशों के पास इस बात का मौक़ा है कि वो तेज़ी से बिगड़ रहे संबंध को बचाने की दिशा में प्रयत्न करें. क्योंकि इस महामारी से दोनों ही देशों के लिए बड़ा ख़तरा है. और अब तक तनाव के बावजूद, भारत और नेपाल मिलकर कोविड-19 की वैश्विक महामारी से निपटने के लिए काम कर पाने में सफल रहे हैं. भारत ने कोविड-19 का टेस्ट करने के लिए नेपाल को तीस हज़ार टेस्टिंग किट मुहैया कराई थी और नेपाल ने इसके लिए खुलकर भारत का शुक्रिया अदा किया था. भारत, कोविड-19 से जुड़ी इस कूटनीति का इस्तेमाल, आगे चल कर, जब तनाव कम हो जाए, तो इसकी मदद से नेपाल के साथ सीमा विवाद को हल कर सकता है.

एक बड़ी क्षेत्रीय शक्ति होने के नाते भारत की ये ज़िम्मेदारी बनती है कि वो इस विवाद को हल करने की पहल अपनी ओर से करे और ये दिखाए कि नेपाल के साथ वो बेहतर संबंध चाहता है. इस वक़्त इस बात की ज़रूरत है कि भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद हल करने के लिए साझा व्यवस्था विकसित करे, ताकि मौजूदा हालात को बदल सके. सीमा विवाद हल करने की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जो नेपाल के साथ उठे विवाद जैसे मसलों को समझदारी और कुशलता से निपटा सकें. इससे भारत के एक ज़िम्मेदार क्षेत्रीय शक्ति होने की छवि को मज़बूती मिलेगी. भारत एक ऐसी शक्ति के तौर पर उभर सकेगा, जो विश्वसनीय भी है और अपने क्षेत्रीय पड़ोसियों की चिंताओं की अनदेखी भी नहीं करता है. लेकिन, नेपाल के नेतृत्व को भी ये समझना होगा कि प्रधानमंत्री ओली के हालिया बयानों की तरह का भारत के प्रति उनका बेक़ाबू रवैया, उन्हें ऐसे विवादों के समुचित समाधान की दिशा में नहीं ले जाएगा.

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