इमरान की पारी ख़त्म हुई है लेकिन, पाकिस्तान की मुश्किलें नहीं….!
पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने 07 अप्रैल को नेशनल असंबेली को बहाल करने का फ़ैसला सुनाया. अदालत ने डिप्टी स्पीकर द्वारा प्रधानमंत्री इमरान के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग को नामंज़ूर किए जाने के फ़ैसले को असंवैधानिक करार दिया. कोर्ट ने कहा कि ये फ़ैसला उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर था. अदालत से ऐसे ही फ़ैसले की उम्मीद थी. दरअसल, इस केस में किसी भी तरह की पेचीदगियां नहीं थीं. लिहाज़ा किसी दूसरे देश में इस तरह का सर्वसम्मत फ़ैसला एकदम आसान बात होती. शायद किसी और देश की सत्तारूढ़ सरकार इतने खुले तौर पर संविधान की धज्जियां भी नहीं उड़ाती जैसा इमरान ख़ान की हुकूमत ने पाकिस्तान में किया है. बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पाकिस्तान में लोकतंत्र की एक नई सुबह के तौर पर देखा जा रहा है. कोर्ट के फ़ैसले से संविधान और क़ानून का राज पुख़्ता हुआ है. इस फ़ैसले ने ‘अनिवार्यता या लाचारी के सिद्धांत’ के तौर पर बदनाम हो चुकी परंपरा को भी कब्र में डाल दिया है. दरअसल, इसी की दुहाई देकर पाकिस्तान की न्यायपालिका अक्सर फ़ौज के ग़ैर-संवैधानिक क़दमों को जायज़ क़रार देती रही है.
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पाकिस्तान में लोकतंत्र की एक नई सुबह के तौर पर देखा जा रहा है. कोर्ट के फ़ैसले से संविधान और क़ानून का राज पुख़्ता हुआ है. इस फ़ैसले ने ‘अनिवार्यता या लाचारी के सिद्धांत’ के तौर पर बदनाम हो चुकी परंपरा को भी कब्र में डाल दिया है.
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लेकर ख़ुशी, जोश और जज़्बा समझ में आता है. हालांकि इसे संविधान की सर्वोच्चता स्थापित करने वाला फ़ैसला मानना ज़्यादती होगी. ये मानना भी सही नहीं होगा कि इस फ़ैसले से भविष्य में किसी तानाशाह के लिए ग़ैर-संवैधानिक तरीक़े से सत्ता पर क़ाबिज़ होना नामुमकिन हो जाएगा. इमरान ख़ान की सरकार सेना की बैसाखियों के सहारे सत्ता में पहुंची थी. अब ये असैनिक सत्ता बेहद अलोकप्रिय हो गई थी. इस सरकार के सिर पर अब फ़ौज का भी हाथ नहीं रहा. लिहाज़ा ऐसी मजबूर सरकार के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी जजों का फ़ैसला आसानी से समझा जा सकता है. बहरहाल इसी न्यायपालिका द्वारा फ़ौज की इच्छाओं या सत्ता हड़पने वाले फ़ौजी हुक़्मरानों के ख़िलाफ़ सीधे तौर पर चोट करना बिल्कुल अलग बात होगी. ताज़ा मसले की सुनवाई कर रही पांच सदस्यीय बेंच के कम से कम तीन जजों- चीफ़ जस्टिस उमर अता बंदियाल, जस्टिस एजाज़ुल एहसान और जस्टिस मुनीब अख़्तर को निष्पक्ष या तटस्थ होने के लिए नहीं जाना जाता. हक़ीक़त तो ये है कि उनके कुछ फ़ैसले बेइंतहा रूप से शक़ और सुबहे पैदा करते रहे हैं. इस सिलसिले में नवाज़ शरीफ़ की अयोग्यता से जुड़ा मामला और जस्टिस फ़ैज़ ईसा से जुड़े केस तो महज़ दो मिसालें हैं. हालांकि, असहज कर देने वाले इन तथ्यों को इस वक़्त याद करना मुनासिब नहीं. इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि भले ही आगाज़ अच्छा हुआ है लेकिन अंत के बारे में पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता.
इमरान ख़ान को कभी नियम-क़ायदों के हिसाब से चलने के लिए नहीं जाना गया. जब हार सामने दिखाई दे तो इज़्ज़त का तकाज़ा यही था कि वो इस्तीफ़ा दे देते. बहरहाल उन्हें सम्मानजक कामों के लिए नहीं जाना जाता. वो मसले को और पेचीदा बनाने के हर मुमकिन प्रयास करेंगे. उनकी ओर से संसदीय प्रक्रियाओं को पलीता लगाने का हर दांव चला जाएगा. अटकलें हैं कि समूची सत्तारूढ़ पार्टी ही इस्तीफ़ा दे सकती है. डिप्टी स्पीकर की ओर से भी तमाम तिकड़म किए जाने के कयास लगाए जा रहे हैं. बहरहाल दीवार पर लिखी इबारत साफ़ है- इमरान की पारी ख़त्म हो चुकी है. अपने दांव-पेचों से वो पवेलियन लौटने की क़वायद में देरी कर सकते हैं, लेकिन उन्हें अब दूसरा मौक़ा नहीं मिलने वाला. शायद अगले मैच में भी उनको खेल दिखाने का अवसर न मिल पाए. सौ बात की एक बात ये है कि संभावित खिलाड़ियों की सूची से फ़िलहाल उन्हें बाहर किया जा रहा है. उन्होंने कइयों को अपना दुश्मन बना लिया है, दोस्ती के मौक़े गंवा दिए हैं, बेहद ख़स्ता प्रदर्शन किया है और उनके तेवर बहुत बुरे हैं.
अटकलें हैं कि समूची सत्तारूढ़ पार्टी ही इस्तीफ़ा दे सकती है. डिप्टी स्पीकर की ओर से भी तमाम तिकड़म किए जाने के कयास लगाए जा रहे हैं. बहरहाल दीवार पर लिखी इबारत साफ़ है- इमरान की पारी ख़त्म हो चुकी है. अपने दांव-पेचों से वो पवेलियन लौटने की क़वायद में देरी कर सकते हैं, लेकिन उन्हें अब दूसरा मौक़ा नहीं मिलने वाला.
पाकिस्तान की अड़ियल बन चुकी परेशानियां
इमरान हुकूमत के अंत से पाकिस्तान की परेशानियों का अंत नहीं होने वाला. वो एक खोख़ली, दिवालिया अर्थव्यवस्था छोड़कर जा रहे हैं, जो कभी भी गर्त में जा सकती है. वहां का सियासी माहौल ज़हरीला और विभाजनकारी बन चुका है. दुनिया के देशों के साथ रिश्ते बेपटरी हो चुके हैं. मुल्क की प्रशासनिक नीतियां रास्ते से भटक चुकी हैं और प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है. उनके उत्तराधिकारी (बहुत मुमकिन है शाहबाज़ शरीफ़) को मुल्क को दोबारा पटरी पर लाने के लिए ख़ून-पसीना एक करना होगा. दिक़्क़त ये है कि वो तूफ़ान के बीचोंबीच कमान संभालेंगे और उनके पास ठहरकर सोचने के लिए रत्तीभर वक़्त नहीं होगा. पाकिस्तान में मुश्किलें मुंह बाए खड़ी हैं और शाहबाज़ के पास करतब दिखाने के बेहद सीमित मौक़े हैं. पाकिस्तान की मुश्किलें- चाहे वो सियासी हों, आर्थिक हों या सामाजिक- अभी महज़ शुरुआती दौर में हैं. शाहबाज़ शरीफ़ के लिए अपने सिर पर डले कांटों के ताज का बोझ उठाना आसान नहीं होगा.
शाहबाज़ को बेमेल गठजोड़ के ज़रिए सत्ता चलानी होगी. इस गठबंधन के तमाम घटक दलों के निजी हितों में टकराव है. केवल इमरान ख़ान को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए ये तमाम सियासतदान इकट्ठा हो गए हैं. इस एक सूत्री एजेंडे को हासिल करने में वो कामयाब रहे हैं. हालांकि इससे आगे के तमाम मुद्दों में उनकी रस्साकसी साफ़ दिखाई देती है. इनमें से कोई भी सियासी पार्टी अपने सियासी हितों की कुर्बानी देने को तैयार नहीं होगी. नतीजतन इस गठजोड़ में खींचतान मचना तय है. पाकिस्तान की विकट और वजूद पर भारी चुनौतियों से निपटने में शाहबाज़ शरीफ़ को ऐसे गठजोड़ से बेहद मुश्किलें पेश आने वाली हैं. वो इस रंग-बिरंगे गठजोड़ को कुछ महीनों तक एकजुट रखने में कामयाब हो सकते हैं. हो सकता है कि इस दौरान ये कुनबा तात्कालिक तौर पर चंद आर्थिक उपायों पर रज़ामंद हो जाए. इतना ही नहीं इमरान ख़ान की हुकूमत द्वारा बदनीयती से किए गए कामों को सियासी और क़ानूनी क़वायदों के ज़रिए पलटने की कोशिशें भी हो सकती हैं. हालांकि इस गठजोड़ के लिए अगले साल अगस्त तक अपना वजूद बचाए रखना नामुमकिन है. ग़ौरतलब है कि मौजूदा नेशनल असेंबली की मियाद तभी तक है. दूसरे लब्ज़ों में पाकिस्तान में वक़्त से पहले चुनाव (या तो सितंबर-अक्टूबर में या दिसंबर-जनवरी में) होने के आसार हैं. नेशनल असंबेली भंग होने के 60-90 दिनों के भीतर चुनाव करवाया जाना अनिवार्य होता है. लिहाज़ा या तो जून के अंत तक (सितंबर में चुनावों के लिए) या दिसंबर-जनवरी में चुनावों के लिए सितंबर-अक्टूबर तक एक कामचलाऊ हुकूमत को कामकाज संभालना होगा.
पाकिस्तान की विकट और वजूद पर भारी चुनौतियों से निपटने में शाहबाज़ शरीफ़ को ऐसे गठजोड़ से बेहद मुश्किलें पेश आने वाली हैं. वो इस रंग-बिरंगे गठजोड़ को कुछ महीनों तक एकजुट रखने में कामयाब हो सकते हैं. हो सकता है कि इस दौरान ये कुनबा तात्कालिक तौर पर चंद आर्थिक उपायों पर रज़ामंद हो जाए.
ये बात इसलिए अहम है क्योंकि नवंबर के अंत तक फ़ौज के नए मुखिया की नियुक्ति होनी है. निश्चित रूप से शाहबाज़ अगले आर्मी चीफ़ की नियुक्ति करने के इच्छुक होंगे. अपनी कुर्सी किसी कार्यवाहक प्रधानमंत्री को सौंपने से पहले इमरान ख़ान आईएसआई के पूर्व प्रमुख फ़ैज़ हमीद को फ़ौज का मुखिया बनाना चाहते थे. बहरहाल अब ये साफ़ है कि हमीद को आर्मी चीफ़ की कुर्सी नहीं सौंपी जाएगी. PMLN को उम्मीद है कि सितंबर में होने वाले चुनावों में वो आसानी से जीत हासिल कर लेगी. ऐसे में उसे जनरल क़मर बाजवा का उत्तराधिकारी चुनने का मौक़ा मिल जाएगा. दिसंबर में चुनाव होने पर ये क़वायद थोड़ी मुश्किल हो जाएगी क्योंकि तब बाजवा के रिटायरमेंट से दो से तीन महीने पहले अगले सेना प्रमुख के नाम का एलान करना होगा. इससे जनरल बाजवा बेइख़्तियार ओहदेदार बनकर रह जाएंगे. बेशक़ चुने हुए सेना प्रमुखों के साथ शरीफ़ परिवार के रिश्तों का इतिहास ख़ुशनुमा नहीं रहा है. नवाज़ शरीफ़ को हर सेना प्रमुख के साथ काम करने में मुश्किलें पेश आई थीं. शायद शाहबाज़ सोच रहे हैं कि वो इन रुझानों को पलट सकते हैं.
बहरहाल, नेशनल असेंबली को भंग करने और कार्यवाहक सरकार को कमान सौंपने का फ़ैसला लेने से पहले सेना प्रमुख के चयन से कहीं ज़्यादा सियासी और आर्थिक मसलों पर भी तवज्जो देनी होगी. सियासी तौर पर अगली सरकार आमूलचूल बदलाव लाना चाहेगी. साथ ही इमरान ख़ान के तमाम वफ़ादारों की प्रशासनिक हलकों से छुट्टी पर भी आमादा होगी. वो मौजूदा राष्ट्रपति को भी बदलना चाहेगी क्योंकि वो पूरी तरह से इमरान के तरफ़दार हैं. नेशनल असंबेली के स्पीकर और डिप्टी स्पीकर को भी कुर्सी छोड़नी पड़ेगी. इमरान ख़ान की हुकूमत ने कई बेहूदे क़ानून पास किए थे. इनको पलटने के लिए जवाबी क़ानून बनाने पड़ेंगे. मसलन विदेशों में रहने वाले पाकिस्तानियों के मताधिकार को ख़त्म करने और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल की मंज़ूरी के लिए नए सिरे से क़ानून बनाने होंगे. प्रांतों के गवर्नर भी बदलने होंगे. पंजाब में PMLN की अगुवाई में गठबंधन सरकार को सत्ता संभालनी होगी. अगर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में PTI की सरकार अड़ियल रुख अपनाती है तो मुमकिन है कि उस सरकार को बदलने के लिए अविश्वास प्रस्ताव सामने रखा जाए. सियासी तौर पर तल्ख़ी भरे माहौल के बीच ये सारी क़वायदें पूरी होंगी. ज़ाहिर है दलबदल विरोधी मुक़दमों के साथ-साथ तमाम तरह की सियासी और क़ानूनी पेचीदगियां सामने आएंगी. सबसे अहम बात ये है कि संघीय सरकार को चारों प्रांतों को अपनी-अपनी प्रांतीय विधायिकाओं को भंग करने के लिए रज़ामंद करना होगा. इससे प्रांतों और देश के चुनाव एक साथ करवाए जा सकेंगे. बहरहाल ये सारी क़वायद इस भरोसे पर टिकी है कि गठबंधन के तमाम सहयोगियों के बीच के रिश्ते संतुलित और ख़ुशनुमा बने रहेंगे.
अगर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में PTI की सरकार अड़ियल रुख अपनाती है तो मुमकिन है कि उस सरकार को बदलने के लिए अविश्वास प्रस्ताव सामने रखा जाए. सियासी तौर पर तल्ख़ी भरे माहौल के बीच ये सारी क़वायदें पूरी होंगी. ज़ाहिर है दलबदल विरोधी मुक़दमों के साथ-साथ तमाम तरह की सियासी और क़ानूनी पेचीदगियां सामने आएंगी
आर्थिक मोर्चे पर मुश्किलों का दौर
अगली सरकार का सबसे बड़ा इम्तिहान आर्थिक मोर्चे पर होने वाला है. यहां कोई आसान समाधान मौजूद नहीं हैं. फ़ौरी तौर पर किसी भी तरह की मदद (मसलन सऊदी अरब, चीन या यूएई की ओर से कुछ अरब डॉलर) या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की आपात सहायता पाकिस्तान को बहुत आगे नहीं ले जा सकेगी. हो सकता है कि इससे संकट कुछ महीनों के लिए टल जाए. फ़िलवक़्त पाकिस्तानी रुपया लुढ़कता जा रहा है. देश का विदेशी मुद्रा भंडार सिमट गया है और ख़तरनाक रूप से कम होता जा रहा है. मुल्क में ब्याज़ दरें बढ़ा दी गई हैं जिसका कारोबारों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा. इससे कर्ज़ चुकाने की लागत इतनी बढ़ जाएगी कि रक्षा ख़र्च का भी एक बड़ा हिस्सा कर्ज़ के ज़रिए पूरा किया जाएगा. पाकिस्तान में कई तरह की सब्सिडी वापस लेनी होगी. साथ ही ईंधन और बिजली की दरों में तेज़ी से बढ़ोतरी करनी होगी. नतीजतन वहां महंगाई के आसमान छूने की आशंका है. अनुमान है कि चंद हफ़्तों में ही अमेरिकी डॉलर का भाव 200 पाकिस्तानी रुपयों के स्तर तक पहुंच जाएगा. पाकिस्तान में पेट्रोल की क़ीमतों में तक़रीबन 50-60 रु की बढ़ोतरी करनी होगी. दूसरे शब्दों में लागत पूरी करने के लिए तक़रीबन 30-40 प्रतिशत की बढ़ोतरी की दरकार होगी. बहरहाल चुनावों से चंद हफ़्तों पहले कोई भी सियासी पार्टी वोटरों पर इस तरह का बोझ नहीं डाल सकती. कोई सियासी सरकार ज़्यादा से ज़्यादा कुछ तिकड़मबाज़ियां कर सकती हैं ताकि अर्थव्यवस्था डूबने से बच जाए. असलियत के कठोर उपायों में से ज़्यादातर या तो कार्यवाहक या फिर चुनावों के बाद चुनकर आने वाली नई सरकारों को करने होंगे.
क़िताबी तौर पर एक उम्मीद ये है कि शाहबाज़ जोख़िम उठाते हुए अगले साल अगस्त तक यानी मौजूदा नेशनल असेंबली का कार्यकाल ख़त्म होने तक सरकार चला लें. हालांकि इसके लिए गठबंधन को साधते हुए कठोर आर्थिक उपायों को अमल में लाना होगा. साथ ही ये उम्मीद करनी होगी कि अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाए. बहरहाल, पाकिस्तान की अनगिनत समस्याओं को देखते हुए ऐसा होने की संभावना बेहद कम है. ढांचागत सुधारों में महीनों नहीं बल्कि सालों का वक़्त लगता है. इनके लिए मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की दरकार होती है. चुनावों की ओर जा रहे राजनेताओं के लिए ऐसी हिम्मत जुटा पाना बेहद मुश्किल है. आसान लहज़े में कहें तो अगर शाहबाज़ इन कठोर फ़ैसलों को लागू करने को तैयार भी हों तो भी उनके गठबंधन साथी इससे मुकर जाएंगे या शायद उनका साथ ही छोड़ देंगे.
पाकिस्तान की अनगिनत समस्याओं को देखते हुए ऐसा होने की संभावना बेहद कम है. ढांचागत सुधारों में महीनों नहीं बल्कि सालों का वक़्त लगता है. इनके लिए मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की दरकार होती है. चुनावों की ओर जा रहे राजनेताओं के लिए ऐसी हिम्मत जुटा पाना बेहद मुश्किल है.
लिहाज़ा संभावना यही है कि शाहबाज़ शरीफ़ की सरकार काफ़ी कम मियाद के लिए ही रहेगी. जल्द ही उसे कार्यवाहक सरकार को सत्ता सौंपनी होगी, जो सितंबर-अक्टूबर में ताज़ा चुनाव करवाएगी. अगर चुनाव आयोग जीजान से जुट जाए तो इस समयसीमा से पहले भी चुनाव हो सकते हैं. बहरहाल, अगर शाहबाज़ अगले वित्त वर्ष के लिए बजट पेश करें तो ये सचमुच अचरज की बात होगी. आसार यही हैं कि वो लेखानुदान (vote on account) पेश करने के बाद सत्ता कार्यवाहक सरकार के हवाले कर देंगे. आमतौर पर एक कार्यवाहक सरकार पूर्ण बजट पेश नहीं करती और उसके लिए चुनी हुई सरकार के सत्ता संभालने का इंतज़ार करती है. हालांकि मौजूदा आर्थिक संकट के मद्देनज़र ऐसा हो सकता है कि कार्यवाहक (तकनीकी विशेषज्ञों की टीम वाली) हुकूमत ही आर्थिक मोर्चे पर कड़वे फ़ैसले लेना तय कर ले. ऐसे हालात सियासी नेताओं के अनुकूल और मनमाफ़िक होते हैं. एक संभावना ये भी है कि अगर अर्थव्यवस्था गर्त में जाने लगे तो कार्यवाहक सरकार के कार्यकाल का विस्तार हो सकता है. इसे वही सुप्रीम कोर्ट अपनी मंज़ूरी दे सकता है जिसने 7 अप्रैल को लोकतंत्र को झटका देने वाला फ़ैसला सुनाया है. फ़ौज भी ऐसी व्यवस्था का समर्थन करेगी. दरअसल, पिछले कुछ समय से फ़ौज पाकिस्तान में तकनीकी विशेषज्ञों की सरकार को सत्ता में देखना चाह रही है. उसकी चाहत है कि ऐसी हुकूमत पाकिस्तान के हालात ठीक कर दे. पाकिस्तान में इसे बांग्लादेश मॉडल के नाम से जाना जाता है.
बहरहाल, किसी भी नज़रिए से देखें तो आने वाला वक़्त पाकिस्तान के लिए सचमुच विकट और उथलपुथल भरा साबित होने वाला है.
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