Author : K. Yhome

Published on Sep 06, 2017 Updated 0 Hours ago

भारत को म्यांमार के लोकतांत्रिकीकरण का लाभ मिला है। बहरहाल, उनके द्विपक्षीय संबंध में सकारात्मक रूझान पर म्यांमार में उभर रहे आंतरिक राजनीतिक घटनाक्रम का नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

म्यांमार की घरेलू राजनीति के सामरिक निहितार्थ

म्यांमार की वर्तमान आंतरिक राजनीतिक गतिशीलता और उभरते क्षेत्रीय अंतर्प्रवाहों के भारत-म्यांमार संबंधों के लिए गंभीर निहितार्थ हैं। इस नजरिये से देखने पर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस सप्ताह होने वाली म्यांमार यात्रा यह सुनिश्चित करने की एक कोशिश है कि वहां वर्तमान में उभरती घरेलू एवं क्षेत्रीय ताकतों के परिणाम म्यांमार के साथ भारत के रिश्तों को नकारात्मक रूप से प्रभावित न करे।

1990 के दशक से ही, अभी हाल के कुछ वर्षों तक, लोकतंत्र के समर्थकों एवं अधिनायकवादी सैन्य (या तात्मादाव) शासन के बीच के राजनीतिक संघर्ष ने काफी हद तक म्यांमार की विदेश नीति विकल्पों को आकार दिया था। म्यांमार के सैन्य शासन का झुकाव अपने उत्तरी पड़ोसी, चीन की ओर ज्यादा हो गया क्योंकि उसने अपने अंतरराष्ट्रीय दबावों को दूर करने के लिए चीन से समर्थन मांगा।

2010 में म्यांमार लोकतंत्र में रूपांतरित हो गया और इस प्रक्रिया को मजबूत बनाने की कोशिशें अब भी जारी हैं, लेकिन एक भूराजनीतिक परिणाम, जिसका बोझ जो अभी भी देश पर बना हुआ है, वह है एक प्रमुख आर्थिक एवं रक्षा साझीदार के रूप में चीन की जबर्दस्त मौजूदगी।

देश में जैसे जैसे सुधार हो रहे हैं, ऐसी नई चुनौतियां भी उभर रही हैं जिनमें देश को वापस उसी स्थिति में ले जाने की क्षमता है, जहां से यह दूर हटने की कोशिश करता रहा है। इस बात की आशंका तेजी से बलवती हो रही है कि बढ़ते बाहरी दबावों के चलते म्यांमार ऐसी भूराजनीतिक संरचना का सृजन कर रहा है जिसमें उसका झुकाव एक बार फिर से चीन की तरफ काफी बढ़ जाएगा।

हाल के महीनों में, म्यांमार का राजनीतिक नेतृत्व रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ उसकी सेना के जवानों द्वारा मानवाधिकार के कथित दुरुपयोग के कारण गहन जांच के दायरे में आ गया है। रोहिंग्या मुसलमान अल्पसंख्यक समुदाय हैं जिनकी संख्या 1.1 मिलियन है जो उत्तर पश्चिमी राखिने राज्य में केंद्रित हैं।

अगस्त के उत्तरार्ध में रोहिंग्या आतंकी समूहों द्वारा म्यांमार सुरक्षा बल के एक दर्जन से अधिक जवानों की हत्या के बाद फिर से संघर्ष भड़क गए। म्यांमार के सैन्य बलों द्वारा चलाए गए भीषण आतंक रोधी कार्रवाईयों से घबड़ाकर हजारों रोहिंग्या मुसलमान भाग कर पड़ोसी देश बांग्ला देश चले गए।

स्टेट काउंसलर आउंग सान सू की एवं उनकी सरकार की रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ कथित अत्याचारों को रोकने से संबंधित पर्याप्त कार्रवाई न करने के लिए आलोचना की जाती रही है। म्यांमार पर संयुक्त राष्ट्र, पश्चिमी देशों एवं इंडोनेशिया एवं टर्की समेत मुस्लिम बहुल देशों से कूटनीतिक दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है।

रोहिंग्या संकट ने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है। देश के अन्य हिस्सों, विशेष रूप से, कचिन एवं शान राज्यों, जहां स्थानिक सशस्त्र समूहों एवं म्यांमार की सेना के बीच संघर्ष जारी हैं, में म्यांमार की सेना द्वारा मानवाधिकार के कथित दुरुपयोग के खिलाफ भी लगातार आवाजें उठ रही हैं।

म्यांमार का राजनीतिक नेतृत्व एक बार फिर से अपने ताकतवर पड़ोसियों-चीन एवं भारत की ओर मुड़ रहा है। जिन लोगों की लोकतंत्र की प्रतिरुप आउंग सान सू की के नेतृत्व में 25 वर्षों में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई पहली सरकार और चीन के बीच गहरे होते रिश्तों पर मुस्तैद नजर रही है, उनके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की म्यांमार यात्रा एक उपयुक्त समय पर की गई यात्रा है।

म्यांमार का राजनीतिक नेतृत्व एक बार फिर से अपने ताकतवर पड़ोसियों-चीन एवं भारत की ओर मुड़ रहा है।

इस वर्ष मार्च में, भारत के साथ साथ चीन ने राखिने राज्य में रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ सुरक्षा बलों द्वारा कथित मानवाधिकार दुरुपयोग की जांच के लिए एक ‘स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय तथ्यान्वेषी मिशन भेजने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से खुद को’ अलग कर दिलया था।

इसके बाद अप्रैल में, म्यांमार एवं चीन ने बंगाल की खाड़ी से चीन के यून्नान प्रांत के कुनमिंग तक तेूल की एक पाईपलाइन को लेकर समझौता किया। सू की सरकार दो वर्षों की देरी के बाद एवं देश में चीन के खिलाफ व्यापक जनभावना के बावजूद इस समझौते के लिए सहमत हो गई।

पाईपलाइन समझौते के साथ साथ, म्यांमार ने लगभग 10 बिलियन डॉलर के गहरे समुद के बंदरगाह एवं राखिने राज्य में क्याउकफाइयू में औद्योगिक पार्क परियोजना के कार्यान्वयन के लिए चीन के साथ पत्रों के आदान प्रदान पर भी हस्ताक्षर किया। यह परियोजना पहले 2015 में चीन के सरकारी कंपनी सीआईटीईसी समूह को मंजूर की गई थी।

ये परियोजनाएं चीन की बेल्ट एवं रोड पहल की महत्वपूर्ण घटक हैं। वास्तव में, जब स्टेट काउंसेलर आउंग सान सू की ने इस वर्ष मई में चीन के बेल्ट एवं रोड फोरम में भाग लिया था, तभी म्यांमार ने ‘सिल्क रोड इकोनोमिक बेल्ट एवं 21वीं सदी मैरीटाइम सिल्क रोड पहल की रूपरेखा के भीतर सहयोग’ पर चीन के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया।

रिपोर्टों के अनुसार, चीन के लगभग 3000 उद्योगपति अगले महीने म्यांमार सरकार के निमंत्रण पर निवेश अवसरों की खोज करने के लिए म्यांमार की यात्रा करेंगे। म्यांमार के सभी राज्यों/क्षेत्रों के मुख्यमंत्री चीनी निवेशकों द्वारा चुने गए क्षेत्रों में निवेश समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए बैठक मे भाग लेंगे।

इस पृष्ठभूमि में, दो घटनाक्रम भारत-म्यांमार संबंधों की वर्तमान स्थिति को दर्शाते हैं। पहला, जब भारत और चीन महीनों तक डोकलाम पठार पर सैन्य गतिरोध में उलझे हुए थे, तब म्यांमार के कमांडर इन चीफ सीनियर जनरल मिन औंग हलैंग आठ दिनों की यात्रा पर भारत आए हुए थे। दूसरा, नै पई तॉव में भारत के स्वतंत्रता दिवस समारोह में म्यांमार की स्टेट काउंसेलर डॉ आउंग सान सू की भी उपस्थित थीं।

भारत को म्यांमार के लोकतांत्रिकीकरण का लाभ मिला है। बहरहाल, उनके द्विपक्षीय संबंध में सकारात्मक रूझान पर म्यांमार में उभर रहे आंतरिक राजनीतिक घटनाक्रम का नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। अगर इतिहास से कोई संकेत मिल सकता है तो घरेलू एवं विदेशी के बीच के जटिल संबंधों को जरूर दिमाग में रखे जाने की आवश्यकता है।

यह दिलचस्प है,लेकिन नए समीकरणों एवं पुनर्निर्माणों के लिए, बाहरी एवं आंतरिक दोनों ही घटक बराबर हैं। आंतरिक रूप से, डॉ सु ची एवं तात्मादाव इस बार एक ही तरफ प्रतीत होते हैं और कुछ हद तक एक ही विचार रखते हैं, जहां तक चीन से समर्थन मांगने की आवश्यकता का प्रश्न है। पश्चिमी ताकतों के लिए डॉ आउंग सान सू की को अपनी तरफ रखना कठिन महसूस हो रहा है क्योंकि वह ‘वास्तविक राजनीति’ (रियलपॉलिटिक) में मशगूल हैं।

पश्चिमी ताकतों के लिए डॉ सु ची को अपनी तरफ रखना कठिन महसूस हो रहा है क्योंकि वह ‘वास्तविक राजनीति’ (रियलपॉलिटिक) में मशगूल हैं।

म्यांमार की वर्तमान राजनीतिक प्रणाली — ‘दोहरा राज्य’ या ‘संकर प्रणाली’ — को चाहे कोई भी नाम दिया जाए, सच्चाई यही है कि यह तात्मादॉव एवं निर्वाचित राजनीतिक दलों के बीच सत्ता साझा करने की व्यवस्था है जैसाकि 2008 के संविधान में वर्णित है।

पहली नजर में, जहां तक लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित डॉ आउंग सान सू की एवं तात्मादॉव का सवाल है तो रोहिंग्या मुद्वे एवं स्थानिक सशस्त्र समूहों के मुद्वे पर वे एक ही तरफ दिखाई देते हैं।

बहरहाल, अगर हिंसा एवं संघर्ष और अधिक तेज होता है तो राजनीतिक दलों के दोनों ही नेताओं के लिए एक साथ काम करना मुश्किल हो सकता है। ऐसा अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति हªदय परिवर्तन की वजह से नहीं होगा बल्कि जब उन्हें खुद म्यांमार के नागरिकों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ से दबाव का सामना करना पड़ेगा तो उनके दृष्टिकोण में अंतर आ सकता है। उनके बीच किसी भी दरार का देश की वर्तमान में जारी परिवर्तन प्रक्रिया पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है।

राखिने राज्य में हिंसा की नवीनतम घटनाओं के दौर के बाद देश की यात्रा करने वाले पहले वैश्विक नेता के बतौर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी म्यांमार की आंतरिक राजनीति और इसके संभावित भूसामरिक नतीजों से बखूबी वाकिफ हैं।

म्यांमार के दीर्घकालिक हितों एवं भारत-म्यांमार संबंधों की बेहतरी के लिए, प्रधानमंत्री मोदी को म्यांमार की स्टेट काउंसलर आउंग सान सू की बताना चाहिए कि आंतरिक संघर्षों की समस्या का हल ढूंढने में विफलता म्यांमार के सामरिक हितों को नुकसान पहुंचाएगी और उसे फिर से उसी स्थिति तक पहुंचा देगी जहां से म्यांमार निकलने का प्रयास कर रहा है।

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