Author : Prithvi Iyer

Published on Apr 01, 2020 Updated 0 Hours ago

कोरोना वायरस के प्रकोप से बचने के लिए लोगों को सामाजिक रूप से अलग-थलग रहना पड़ रहा है. इस दौरान मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों से बचने के लिए गिने-चुने सोशल नेटवर्क पर सक्रिय रूप से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके आप ख़ुद को बचा सकते हैं.

सोशल डिस्टेंसिंग की चुनौतियों से कैसे पार पाएं?

प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका लैंसेट (Lancet) में 2018 में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट ने बिल्कुल सटीक तरीक़े से दिखाया था कि किस तरह पूरी दुनिया इस वक़्त मानसिक स्वास्थ्य के संकट से जूझ रही है. इस रिपोर्ट का संकलन 28 स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने किया था. उन्होंने मानसिक स्वास्थ्य को हाशिए पर धकेले जाने की कड़ी आलोचना करते हुए कहा था कि, ‘मानसिक स्वस्थता वैश्विक स्वास्थ्य संकट के निदान के प्रति उदासीनता के ऐसे भयंकर परिणाम दुनिया झेल रही है, जिस कष्ट से बचना पूरी तरह से संभव था. ये संपूर्ण विश्व की सामूहिक नाकामी है.’ इस सामूहिक असफलता के कारण दुनिया के तमाम देश मानसिक स्वास्थ्य के मानकों से नीचे होते जाने के संकेत दे रहे हैं. उदाहरण के लिए अमेरिका में अकेलेपन को मापने के राष्ट्रव्यापी सर्वे से ये पता चला कि जेनरेशन ज़ेड यानी 1990 के दशक में पैदा हुए लोगों में से 79 प्रतिशत, इक्कीसवीं सदी के युवाओं यानी मिलेनियल्स में 71 प्रतिशत और बीसवीं सदी के पचास और साठ के दशक में पैदा हुए लोगों में से 50 प्रतिशत लोगों ने अकेलापन महसूस करने की शिकायत की. जबकि अमेरिकी जनता के सामुदायिक गतिविधियों में शामिल होने का प्रतिशत पिछले एक दशक में 75 प्रतिशत से घट कर 57 प्रतिशत ही रह गया है. प्रश्न यह है कि अभी दुनिया के सामने कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी का जो ख़तरा उत्पन्न हुआ है, उसकी वजह से दुनिया भर के लोगों की मानसिक स्वास्थ्य की ये कमज़ोर स्थिति और कैसे प्रभावित होगी?

अधिकतर स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने कोरोना वायरस से बचने के लिए सोशल डिस्टैंसिंग यानी सामाजिक दूरी बनाने की सलाह दी है, ताकि कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण की रफ़्तार को धीमा किया जा सके. अभी भी दुनिया भर के स्वास्थ्य विशेषज्ञ ये बताने में सावधानी बरत रहे हैं कि दुनिया को महामारी पर क़ाबू पाने में कितना समय लगेगा. यानी अभी ये कहना मुश्किल है कि परिस्थितियां वापस कब सामान्य होंगी, और ज़िंदगी दोबारा कब पटरी पर लौट सकेगी. ऐसे में ये समझना आवश्यक है कि सामाजिक रूप से अलग-थलग रहने के कारण लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर कैसा असर पड़ेगा. साथ ही ये जानना भी ज़रूरी है कि इस महामारी के दौरान लोग कौन से क़दम उठाकर अपने मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने की दिशा में क़दम बढ़ा सकते हैं.

अकेलापन महसूस करने को कोई लोग सोशल डिस्टैंसिंग का ही कुप्रभाव मानते हैं. असल में अकेलापन एक मानसिक परिस्थिति है, जो मानवीय संवेदनाओं पर आधारित है

सबसे महत्वपूर्ण तो ये है कि हम सोशल डिस्टैंसिंग के अर्थ को रहस्य के दायरे से बाहर लाएं. और सोशल डिस्टैंसिंग व अन्य संबंधित अवधारणाओं जैसे कि अलग-थलग रहने और सामाजिक वैराग्य के बीच के फ़र्क़ को समझें. अमेरिका के सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल के अनुसार सोशल डिस्टैंसिंग का अर्थ ये है कि, ‘लोग सामूहिक आयोजनों से दूर रहें, भीड़ के रूप में इकट्ठे न हों और जहां तक संभव हो, अन्य लोगों से कम से कम छह फुट की दूरी बना कर रखें’. यानी की सामाजिक अलगाव और सामाजिक विरक्ति से इतर सोशल डिस्टैंसिंग का अर्थ केवल शारीरिक दूरी बनाने से है. और इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं हैं कि लोग एक दूसरे से जज़्बाती तौर पर दूरी बना लें. अकेलापन महसूस करने को कोई लोग सोशल डिस्टैंसिंग का ही कुप्रभाव मानते हैं. असल में अकेलापन एक मानसिक परिस्थिति है, जो मानवीय संवेदनाओं पर आधारित है. अत: अकेलापन एक ऐसी संवेदना है, जिसका अर्थ ये है कि किसी व्यक्ति के जीवन में सामाजिक संबंधों का अभाव है. इसे तब भी महसूस किया जा सकता है, जब किसी वायरस के कारण सामाजिक जीवन सीमित नहीं होता. फिर भी, सोशल डिस्टैंसिंग का अर्थ इंसान की उन मूलभूत सहज प्रकृतियों के विरुद्ध होता है, जिसके अंतर्गत कोई इंसान शारीरिक संपर्क चाहता है. इससे अकेलेपन के एहसास की उत्पत्ति होती है.

स्थिति का नियंत्रण अपने हाथ में  होने के एहसास का भी सोचीसमझी असहायता में योगदान होता है

जब भी किसी वैश्विक महामारी का संकट सामने आता है, तो लोगों को ये लगता है कि परिस्थितियां उनके नियंत्रण में नहीं हैं. अत: परिस्थितियां अपने हाथ में न होने की ये सोच और इसका परिणाम अपने हाथ में न होने का एहसास असहाय महसूस करने और चिंता बढ़ाने में बहुत बड़ा योगदान देना है. जैसा कि डॉक्टर एलोवे ने लिखा था, ‘ये हमारे हाथ में नहीं है. हालात हमारे नियंत्रण में होने का एहसास हमें स्वस्थ महसूस कराने में बड़ी भूमिका निभाता है. मैंने अपने रिसर्च में पाया है कि स्वायत्तता का सीधा संबंध अवसाद या डिप्रेशन से है.’ इसीलिए, जब लोग सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते हैं, तो कई लोगों को अपने व्यवहार के नतीजों के बारे में बिल्कुल समझ नहीं होती. और वो ये मानते हैं कि महामारी को नियंत्रित करने में उनकी भूमिका बेहद सीमित है. इसीलिए, किसी महामारी का सामना करने के दौरान, अधिकार न महसूस कर पाने का उन लोगों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है, जो सोशल डिस्टैंसिंग का पालन कर रहे होते हैं.

हॉरमोन का असंतुलन

सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करने के लिए किसी से शारीरिक संपर्क बनाने और क़रीब आने से बचना होता है. सामाजिक होने के लिए मानवीय स्पर्श की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है और ये हमारे शरीर में हॉरमोन का स्राव कराता है, जिससे सामाजिक मेल-जोल से हमें आराम और आनंद की अनुभूति होती है. जब कोई इंसान नज़दीकी शारीरिक संपर्क में आता है, तब हमारे शरीर में ऑक्सीटोसिन नाम के हॉरमोन का स्राव होता है. ये पारस्परिक संबंध मज़बूत बनाने वाला हॉरमोन है, जो हमारे दिमाग़ को संकेत देने का काम यानी न्यूरोट्रांसमिटर का काम करता है. जिससे लोगों में हमारा विश्वास बनता है. लोगों के बीच सामाजिक पहचान बढ़ती है. सोशल डिस्टैंसिंग के दौरान इस पूरी प्रक्रिया पर बुरा असर पड़ता है. इसके अतिरिक्त, मानवीय स्पर्श से हमारे शरीर की वेगस तंत्रिका उत्प्रेरित होती है, जो पूरे शरीर में फैली हुई है. ये तंत्रिका, तनाव के समय हमारे दिल की धड़कन को धीमा करने में मदद करती है. अमेरिका के कार्नेगी मेलॉन यूनिवर्सिटी में रिसर्चर माइकल मर्फी कहते हैं कि, ‘जब आप किसी मुश्किल परिस्थिति में होते हैं, तो किसी साथी से आपसी सहमति से किया गया संपर्क, तनाव के एहसास को कम करता है. और ये स्पर्श आपके इम्यून सिस्टम को भी बेहतर काम करने के लिए प्रेरित करता है. और यहां तक कि साथी के स्पर्श से आपके शरीर में ऑक्सीटोसिन और प्राकृतिक दर्द निवारक रसायनों का भी स्राव होता है.’ इसीलिए, मानवीय स्पर्श से हॉरमोन के स्राव के जो सकारात्मक प्रभाव होते वो हमारी अच्छी मनोदशा बनाए रखने में योगदान देते हैं. लेकिन, सोशल डिस्टैंसिंग के दौर में इस पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है.

डर्कहाइम ने अपने अध्ययन में पाया था कि जब लोग इकट्ठे होते हैं और एक ही मक़सद के साझा एहसास से रूबरू होते हैं, तो एक ख़ास तरह की ‘बिजली’ पैदा होती है. जिससे किसी धार्मिक आयोजन में शामिल लोगों को सामूहिक उत्साह की अनुभूति होती है. इस अद्वितीय अनुभूति की तुलना किसी ‘असाधारण शक्ति की उपस्थिति के एहसास’ से की जाती है

सामूहिक उत्तेजना

सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करने के दौरान हमें जिस नियम का सबसे अधिक पालन करना होता है, वो है सामूहिक तौर पर इकट्ठा होने से बचना. ये सामूहिक जनसमूह हमें सामाजिक रूप से तसल्ली देने का एक बड़ा साझा माध्यम होता है. फ्रांसीसी सामाजिक वैज्ञानिक एमिल डर्कहाइम ने धार्मिक आयोजनों के सामाजिक लाभ और इनमें शामिल हो कर सामूहिक पूजा-पाठ से लोगों को होने वाले आनंददायी नशे के बारे में चर्चा की है. उन्होंने इसे, ‘सामूहिक उत्तेजना’ का नाम दिया है. डर्कहाइम ने अपने अध्ययन में पाया था कि जब लोग इकट्ठे होते हैं और एक ही मक़सद के साझा एहसास से रूबरू होते हैं, तो एक ख़ास तरह की ‘बिजली’ पैदा होती है. जिससे किसी धार्मिक आयोजन में शामिल लोगों को सामूहिक उत्साह की अनुभूति होती है. इस अद्वितीय अनुभूति की तुलना किसी ‘असाधारण शक्ति की उपस्थिति के एहसास’ से की जाती है. हालांकि, डर्कहाइम ने इस अनुभूति को केवल सामूहिक धार्मिक आयोजनों के संदर्भ में बयान किया था. लेकिन, इस परिकल्पना को किसी बड़े संगीत समारोह, या किसी बड़े खेल आयोजन या प्रशंसकों की भीड़ अथवा किसी संप्रदायक विशेष के सामूहिक आयोजनों पर भी लागू किया जा सकता है. पर, चूंकि ऐसे सामूहिक आयोजनों को हतोत्साहित किया जाता है, तो ‘सामूहिक उत्तेजना’ महसूस करने के अवसर सीमित हो जाते हैं. और इससे अच्छी गुणवत्ता वाले सामाजिक मेल-जोल की कमी हो जाती है. इसका नतीजा अकेलेपन का एहसास बढ़ने के तौर पर सामने आता है. विशेष तौर पर उन लोगों के लिए जो ऐसे सामूहिक आयोजनों के आदी हो चुके होते हैं. अब चूंकि भारतीय समाज में ऐसी सामूहिकता अधिक देखने को मिलती है, तो ऐसे में हमारी विशिष्ट संस्कृति के संदर्भ में साझा अनुभव की अहमियत और बढ़ जाती है. क्योंकि, ऐसे सामूहिक जन समूह वाले आयोजन, हमारे सामाजिक मेल-जोल के ताने बाने का केंद्रीय बिंदु हैं.

ग़लत जानकारी से भारत में भय का माहौल बढ़ रहा है

कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने के लिए सावधानी बरतने वाले क़दम उठाने आवश्यक हैं. पर, साथ ही साथ, वायरस का प्रकोप बढ़ने के अपुष्ट और बढ़ा चढ़ाकर किए जाने वाले दावों की रोकथाम भी ज़रूरी है. वायरस के प्रकोप, इसके संक्रमण और इलाज से संबंधित ग़लत ख़बरें सोशल मीडिया पर फैल रही हैं. इनमें घरेलू उपायों से वायरस का इलाज होने के दावे, उनकी सक्षमता साबित किए बिना ही किए जा रहे हैं. इसके अलावा ऐसे संदेश भी ख़ूब फैल रहे हैं, जो लोगों को वायरस से बचने के लिए आइसक्रीम न खाने की सलाह दे रहे हैं. ऐसे में एक आम भारतीय के लिए कोरोना वायरस के प्रकोप और इसके इलाज से संबंधित सच्ची और फ़र्ज़ी ख़बरों की बाढ़ सी आ गई है. ये ग़लत जानकारी और हमारे समाज की ये आदत जिसमें ख़ुद से पहले परिवार को प्राथमिकता दी जाती है, उसी वजह से हाल में कोरोना वायरस के कुछ मरीज़ों के आत्महत्या करने की ख़बरें भी आईं.

भारत में कोरोना वायरस से संबंधित एक और आत्महत्या की घटना होने की ख़बर भी बताई गई है. जो इस बात की ओर इशारा करती है कि वायरस से संक्रमित लोगों  और उनके परिजनों के मानसिक स्वास्थ्य की सेवाओं को और बेहतर बनाना होगा. और इसके साथ ही साथ महामारी के प्रभाव को लेकर फैल रही ग़लत जानकारियों को भी रोकना होगा

कहा जा रहा है कि तीन बच्चों के पिता श्री बालाकृष्णन ने उस समय अपनी जान ले ली, जब वो इस भयंकर भय के शिकार हो गए कि ये वायरस उनसे उनके परिवार को भी संक्रमित कर देगा. बालाकृष्णन की आत्महत्या को कोरोना वायरस से संक्रमित दुनिया भर में पहला ऐसा व्यक्ति बताया जा रहा है जिसने अपनी जान ले ली. बालाकृष्णन को इस बात का विश्वास हो गया था कि उन्हें वायरस इस वजह से हुआ क्योंकि उन्होंने इससे संबंधित कुछ ऑनलाइन वीडियो देखे थे. बालाकृष्णन के बेटे ने कहा कि, ‘मेरे पिता लगातार ऐसे वीडियो देखते रहते थे. और वो लगातार ये बात कह रहे थे कि वो इस भयंकर वायरस से ग्रसित हैं.’ ऐसे में वायरस से संबंधित समाचार लगातार देखने रहने से बालाकृष्णन भयग्रस्त हो गए और उन्होंने ख़ुद से ही ये पता लगा लिया कि वो वायरस से संक्रमित हैं. और फिर आख़िर में अपनी जान इस डर से ले ली कि कहीं इस वायरस के कारण उनकी उपस्थिति, उनके परिवार के स्वास्थ्य और उनकी ज़िंदगियों को न ख़तरे में डाल दे. भारत जैसे सामूहिक सामाजिक व्यवस्था वाले देश में भय का ऐसा माहौल लोगों को अपने परिवार की सुरक्षा के लिए अपनी जान लेने की दिशा में और धकेल सकता है. दुर्भाग्य से, भारत में कोरोना वायरस से संबंधित एक और आत्महत्या की घटना होने की ख़बर भी बताई गई है. जो इस बात की ओर इशारा करती है कि वायरस से संक्रमित लोगों  और उनके परिजनों के मानसिक स्वास्थ्य की सेवाओं को और बेहतर बनाना होगा. और इसके साथ ही साथ महामारी के प्रभाव को लेकर फैल रही ग़लत जानकारियों को भी रोकना होगा.

सोशल डिस्टैंसिंग के दौरान मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाए रखने के लिए क्याक्या करें?

हम डिजिटल युग में जी रहे हैं. ऐसे में हमें इसके लाभों का उपयोग भी करना चाहिए. वीडियो कान्फ्रेंसिंग की सुविधा उपलब्ध होने के कारण अपने प्रियजनों से आमने-सामने का संपर्क, प्राथमिकता के आधार पर तय होना चाहिए. फिर चाहे ये थोड़ी दूरी से ही क्यों न हो.

सोशल मीडिया और मानसिक स्वास्थ्य का संबंध बेहद जटिल है. सोशल मीडिया के बारे में हाल के दिनों में अध्ययन करने वाले अधिकतर शोधकर्ता ये मानते हैं कि सोशल मीडिया की प्रकृति से ही ये तय होता है कि उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है या फिर नकारात्मक असर होता है. उदाहरण के लिए, फ्रिसन एवं एगरमोंट द्वारा किए गए एक अध्ययन (2015) के अनुसार, फ़ेसबुक के इस्तेमाल से किशोरों की मानसिक सेहत पर अलग-अलग प्रभाव इस पर निर्भर करता था कि वो एक्टिव यूज़र थे या पैसिव यूज़र. एक्टिव यूज़र का अर्थ ये है कि दोस्तों से लगातार सीधे मैसेज पर संवाद करना. इसके सकारात्मक प्रभाव देखे गए. जबकि केवल अन्य लोगों की पोस्ट देखने यानि पैसिव यूज़ के कुल मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव देखे गए. इसीलिए, जहां तक सोशल मीडिया के इस्तेमाल की बात है तो ये आवश्यक है कि एक्टिव यूज़ के दौरान सीधा संवाद हो. बेहतर हो कि वीडियो चैटिंग हो. न कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के माध्यम से अन्य लोगों के जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त की जाए. अमेरिका की नॉर्थ कैरोलिना यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर, डॉक्टर ट्रेसी एलोवे, सोशल मीडिया को एक्टिव और पैसिव, दोनों तरह से प्रयोग करने की सलाह देती हैं. डॉक्टर एलोवे कहती हैं कि, ‘ऐसा न महसूस करें कि सोशल डिस्टैंसिंग से आप सामाजिक रूप से अलग-थलग हो जाएं. हो सकता है कि हम शारीरिक रूप से ख़ुद को अलग-थलग महसूस करें, लेकिन, हमारी आज की दुनिया की सबसे अच्छी बात ये है कि हम एक दूसरे से इतना जुड़े हुए हैं. मैं दुनिया के किसी भी कोने में रह रहे अपने किसी दोस्त को फ़ोन कर सकती हूं. और आपको इसके लिए भौगोलिक दूरी की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है.’

सोशल मीडिया के सकारात्मक उपयोग के अलावा, कुछ ऐसे कार्य करने भी आवश्यक हैं, जिससे लोगों को ये अनुभूति हो कि परिस्थितियां उनके नियंत्रण में हैं. जैसा कि पहले भी कहा गया है, किसी महामारी का सामना करते हुए, स्थितियां अपने नियंत्रण में न होने का एहसास तनाव को बढ़ा देता है. इसीलिए, नियमित रूप से हाथ धोने और निजी साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखने जैसे कामों के महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक लाभ होते हैं. ये आप को वायरस से तो सुरक्षित रखते ही हैं. इन क्रियाओं के माध्यम से आप को परिस्थितियां अपने हाथ में होने का एहसास भी होता है. इससे किसी परिस्थिति के आख़िरी निष्कर्ष के अपने हाथ में होने की भी अनुभूति होती है. सोशल डिस्टैंसिंग का मुक़ाबला करने का एक और बढ़िया तरीक़ा ये हो सकता है कि छोटे-छोटे समूहों में आपसी वादा करना कि वो एक-दूसरे पर भरोसा करेंगे. जैसा कि अमेरिका की पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के के सेंटर फॉर पब्लिक हेल्थ की रिसर्च निदेशक कैरोलिन कैनुसियो कहती हैं, कि अगर दो तिहाई परिवार, बाक़ी दुनिया से सोशल डिस्टैंसिंग को लेकर दृढ़ हैं, तो ये परिवार आपस में मेल-जोल बढ़ा सकते हैं. और एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं. इस तरह से वो अलगाव और विरक्ति के एहसास से पार पा सकेंगे.

इस अजीब दौर में, ये आवश्यक है कि अकेलापन और विरक्ति का एहसास, केवल लोगों की सोच पर आधारित होते हैं. और, अकेलेपन की ये अनुभूति केवल शारीरिक दूरी के कारण नहीं होती. भले ही सोशल डिस्टैंसिंग से इंसानी कमज़ोरी का ऐसी चुनौतियों से सामना होता है. लेकिन, छोटे सामाजिक समूहों के माध्यम से आपसी लगाव बनाए रख कर और वीडियो कांफ्रेंसिंग जैसे कुछ क़दमों के ज़रिए हम एक-दूसरे के पास होेने के एहसास को बनाए रख सकते हैं. और, इसी तरह से हम कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के इस कठिन समय में अपना मानसिक संतुलन बनाए रख सकते हैं.

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