सारे फ़ॉर्मूले फेल हो गए. सारे आइडिया असफल हो गई. हर रणनीति नाकाम साबित हुई. दिल्ली चुनाव के नतीजे देखें तो दिल्ली के मतदाता ने आख़िर में अपने लिए वो नेता चुना, जिसने वक़्त और वोटरों की ज़रूरत के हिसाब से ख़ुद को ढाल लिया था. अरविंद केजरीवाल दिल्ली की गद्दी पर वापस आ गए हैं. हालांकि, इस बार उनकी जीत थोड़ी हल्की है. 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा में इस बार केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के 62 विधायक जीते हैं. जो पिछली बार की 67 सीटों से पांच कम हैं. बेहद तीख़े चुनाव प्रचार के बाद केजरीवाल के पास सत्ता भी दोबारा आ गयी है. और उनका स्वाभिमान भी क़ायम है. वो न तो नाकाम रहे हैं और न ही उनका ग्राफ़ नीचे गिरा है. 16 फ़रवरी को अरविंद केजरीवाल, तीसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे.
हालांकि, अरविंद केजरीवाल का मुख्य राजनीतिक हथियार ख़लल पैदा करना है. लेकिन, ये राजनीतिक उद्यमी अब बहुत बदल गया है. अब उनके दूसरों को उल्टा-सीधा कहने के दिन चले गए हैं. अब उनके दूसरे नेताओं पर आरोप लगाने वाले कारखाने भी बंद हो गए हैं. यही नहीं, अब तो अरविंद केजरीवाल ने दूसरों को नैतिकता के चरित्र प्रमाण पत्र जारी करने वाले अपने नाटक भी बंद कर दिए हैं. पांच साल तक दिल्ली की जनता के साथ बेहद नज़दीकी से काम करने की वजह से अरविंद केजरीवाल को नई समझ हासिल हुई है. वो अब ज़्यादा प्रौढ़ता से पेश आ रहे हैं. इसीलिए उन्होंने अपने शोर-शराबे वाले राजीनितक संवाद को परिवर्तित कर के प्रशासन पर ज़ोर देना शुरू दिया है.
किसी राजनीतिक परिवार या दल से संबंध न रखने वाले एक बाहरी व्यक्ति के लिए अचानक से राजनीतिक मैदान में कूद कर स्वयं को एक नेता के तौर पर और अपने राजनीतिक दल को एक विकल्प के तौर पर स्थापित कर पाना कोई मामूली उपलब्धि नहीं है. वो भी एक दशक से भी कम वक़्त में. भले ही आज कोई ये कहे कि केजरीवाल की लोकप्रियता केवल दिल्ली तक सीमित है, तो भी ये कोई साधारण उपलब्धि नहीं है. अन्य राज्यों के मुक़ाबले, जिनका देश की राजनीति में ज़्यादा बड़ा क़द और प्रभाव है, दिल्ली अपने आप में अनूठा शहर है. यहां पर केंद्र सरकार अपने पूरे वैभव और ताक़त के साथ आसीन है. एक राजनीतिक उद्यमी , जिसका हथियार यथास्थिति में ख़लल पैदा करना है, वो आज केंद्र की राजनीति में दम-ख़म रखने वाले राजनीतिक दलों के प्रभुत्व से ऊपर उठ गया है.
2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के वक़्त, दिल्ली यानी केंद्र में कांग्रेस सत्ता में थी. उस चुनाव में केजरीवाल ने 28 सीटें जीती थीं और 28 दिसंबर 2013 को उन्होंने पहली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी. उनकी सरकार को बाहर से समर्थन मिला था. केजरीवाल की ये जीत राजनीति में एक नयेपन का नतीजा थी. उनसे एक ऐसे राजनीतिक संवाद की उम्मीद लगाई जा रही थी, जो दिल्ली को कांग्रेस और बीजेपी का विकल्प दे सके. लेकिन, वो समर्थन महज़ 48 दिन में ख़त्म हो गया, जब केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में जन लोकपाल बिल पेश करने में नाकाम रहने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था.
उसके बाद जब 2015 में विधानसभा चुनाव हुए, तो केजरीवाल ने दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 67 सीटों पर जीत हासिल की थी, जो एक असाधारण उपलब्धि थी. केजरीवाल की इस बुलंद जीत की इमारत, सकारात्मक परिवर्तन की बुनियाद पर खड़ी हुई थी. जिसके तहत केजरीवाल ने उस वक़्त की राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती दी थी. जब केजरीवाल, 2015 के चुनाव में जीते, तो केंद्र में बीजेपी की सरकार थी.
केजरीवाल, भारतीय राजनीति के उस दौर में फिर से कामयाब हुए हैं, जब राजनीति के परिदृश्य में कांग्रेस के प्रभुत्व की जगह आज भारतीय जनता पार्टी ले रही है
और अब, उन्होंने अपने ही पिछले चुनावी प्रदर्शन को दोहराया है. और उस बेहद ताक़तवर केंद्र सरकार की नाक के नीचे, जो दिल्ली में पुलिस को नियंत्रित करती है. और जहां पर केजरीवाल के पास अपनी बदलाव वाली राजनीति करने के लिए केवल स्कूलों, अस्पतालों और परिवहन जैसे विभाग ही हैं. केजरीवाल, भारतीय राजनीति के उस दौर में फिर से कामयाब हुए हैं, जब राजनीति के परिदृश्य में कांग्रेस के प्रभुत्व की जगह आज भारतीय जनता पार्टी ले रही है. इतनी विपरीत परिस्थितियों में अरविंद केजरीवाल की पार्टी लोगों के दिल दिमाग़ में जगह बनाने में सफल रही है, तो, इसकी वजह ज़मीनी स्तर पर अच्छा प्रशासन देना और कामयाबी के संवाद को सफलता पूर्वक आम जन तक पहुंचा पाना है.
पानी और बिजली की शक़्ल में मुफ़्त की सुविधाओं ने भी अपना जादू चलाया है. इससे सशक्तिकरण आधारित अर्थव्यवस्था के स्थान पर सुविधाओं पर आधारित राजनीतिक की अहमियत दोबारा साबित हुई है. हालांकि, सुविधाओं का लाभ मुफ़्त में देने के कई नैतिक तर्क हैं. लेकिन, सच्चाई ये है कि ये समय संपत्ति निर्माण को मज़बूत करने और इसे संगठित करने का है. लेकिन, इस विचार को न तो बीजेपी अपनाने को तैयार है. और न ही कांग्रेस या आम आदमी पार्टी. केजरीवाल की इस जीत के बाद मुफ़्त में सुविधाएं देने वाली राजनीतिक का ज़ोर और बढ़ेगा. आने वाले समय में हम अन्य राज्यों में भी ऐसी ही राजनीति होते देख सकते हैं.
हालांकि, केजरीवाल की जीत का अनुमान तो सभी लगा रहे थे. लेकिन, बीजेपी ने उन्हें कड़ी टक्कर दी. बीजेपी ने अपना चुनाव अभियान राष्ट्रवाद और शाहीन बाग़ के धरने पर केंद्रित रखा. चुनाव प्रचार के दौरान, ऐसा लग रहा था कि बीजेपी अपने प्रचार के शोर की बदौलत, माहौल अपने पक्ष में करने में सफल रहेगी. लेकिन, वो ऐसा करने में नाकाम रही. बीजेपी की नाकामी की तीन प्रमुख वजहें हैं.
पहली बात तो ये कि आज बीजेपी का मतलब नरेंद्र मोदी हो गया है. आज बीजेपी का मतलब न तो काडर है, न ही इसके कार्यकर्ता हैं और न ही इसके समर्थक. बीजेपी का अर्थ आज केवल मोदी और कुछ हद तक गृह मंत्री अमित शाह हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो, आज बीजेपी के पास उसकी सियासी लड़ाई लड़ने वाले प्रमुख चेहरों और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी जीत की शक़्ल में साबित हो चुकी क़ाबिलियत ही है. इसके अलावा पार्टी के पास राज्य स्तर पर राजनीतिक लड़ाइयां लड़ने के लिए क्षत्रप नहीं बचे हैं. हर चुनावी संघर्ष में जीत के लिए मोदी और अमित शाह पर ये ज़रूरत से ज़्यादा की निर्भरता बीजेपी जैसी पार्टी के लिए काफ़ी महंगी साबित हो रही है. और वो भी तब, जब एक वक़्त में बीजेपी को अनुशासित काडर वाली पार्टी माना जाता था. बीजेपी के पास कार्यकर्ताओं के विशाल झुंड में से कुछ नेताओं को चुन कर नया नेतृत्व विकसित करने का भी काफ़ी अनुभव है.
दिल्ली में बीजेपी की हार की दूसरी वजह ये थी कि राज्य स्तर का नेतृत्व न होने की वजह से बीजेपी को ऐसे मुद्दों पर अपना प्रचार केंद्रित करना पड़ा, जिसका दिल्ली के मतदाता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं से कोई वास्ता नहीं था. आख़िर दिल्ली में किसको बालाकोट एयरस्ट्राइक की पड़ी है. ये राष्ट्रीय स्तर पर तो अच्छे राजनीतिक माहौल को बना सकता है. लेकिन, दिल्ली जैसे शहर में जहां लोगों की प्राथमिक चिंता महिलाओं की सुरक्षा, प्रदूषण और ट्रैफ़िक जाम जैसी समस्याएं हों?
अगर आप मतदाता पर बहुत ज़्यादा ज़ुल्म ढाते हैं, दबाव बनाते हैं. तो, फिर उसे सारे राजनीतिक संतुलन को तितर-बितर करने में, सारी योजनाओं को मिट्टी में मिलाने में और राजनीतिक व्यवस्था को धूल चटाने में ज़रा भी समय नहीं लगत
तीसरी वजह ये रही कि बीजेपी का प्रशासनिक रिकॉर्ड भी बेहद ख़राब रहा है. दिल्ली के तीनों नगर निगमों. उत्तरी दिल्ली नगर निगम, पूर्वी दिल्ली नगर निगम और दक्षिणी दिल्ली नगर निगमों की हालत बेहद ख़राब है. दिल्ली के तीनों नगर निगमों में भ्रष्टाचार का बोलबाला है. अक्षमता ही यहां का प्रशासनिक ढांचा बन गई है. और जवाबदेही से विहीन नागरिक संवाद ही इन निगमों की पहचान है. इन तीनों नगर निगमों पर बीजेपी क़ाबिज है. दिल्ली के इन तीनों नगर निगमों ने बर्बाद होते ढांचे को सुधारने और बदलने के लिए कुछ भी नहीं किया है. और हो सकता है कि 2022 में होने वाले नगर निगम के चुनावों में इन तीनों पर ही आम आदमी पार्टी का क़ब्जा हो जाए. ये वही साल होगा, जब भारत अपनी स्वतंत्रता के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रहा होगा.
इन हालात के बीच हम कांग्रेस की ओर लौटते हैं. दिल्ली कांग्रेस में शीला दीक्षित का दौर बीत चुका है. शीला दीक्षित, दिल्ली की राजनीति में एक कद्दावर और मानवीय चेहरा थीं. जिन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री का पद संभाला और 15 बरस तक दिल्ली पर राज किया. अगर आज हम दिल्ली मेट्रो में चलना पसंद करते हैं और इस पर गर्व करते हैं, तो ये शीला दीक्षित का ही एक मुश्किल राजनीतिक फ़ैसला था, जिसकी वजह से दिल्ली को मेट्रो का तोहफ़ा मिला. शीला दीक्षित एक कामयाब नेता थीं, पार्टी की सफल प्रबंधक थीं और दिल्ली की सबसे गर्मजोशी वाली नेता थीं. सोनिया गांधी का क़रीबी होना भी उनके बहुत काम आया. शीला के दौर में केंद्र में भी कांग्रेस सत्ता में रही थी.
केंद्र में अपने पतन के साथ-साथ कांग्रेस आज दिल्ली में भी धुंधली याद बन कर रह गई है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का पतन दिल्ली पर भी हावी है. आज दिल्ली में भी कांग्रेस उसी तरह नेतृत्व विहीन, दिशा हीन और दूरदर्शिता से विहीन है, जैसी राष्ट्रीय स्तर पर है. दिल्ली में कांग्रेस न केवल उन सभी 66 सीटों पर चुनाव हार गई, जहां वो लड़ी थी. बल्कि, इन में से 63 सीटों पर उनके प्रत्याशियों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई. इसका मतलब है कि कांग्रेस के प्रत्याशियों को कुल वोटों का छठवां हिस्सा भी हासिल नहीं हुआ.
कांग्रेस आज हमारे सामने एक ऐसे उदाहरण के तौर पर मौजूद है, जो ये बताती है कि आप कितने भी ताक़तवर क्यों न हों. वोटर को अपना दिमाग़ बदलने और आपकी ताक़त को मिट्टी में मिलाने में बस एक पल लगता है. कांग्रेस के पतन से बीजेपी को भी बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है. आज भारत का लोकतंत्र ऐसे रंग-रूप में फल-फूल रहा है, जिसे आलोचक समझ नहीं पा रहे हैं. इस दौरान भले ही ये लगता हो कि वोटर को ख़ामोशी से बहुत कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है. लेकिन, अगर आप मतदाता पर बहुत ज़्यादा ज़ुल्म ढाते हैं, दबाव बनाते हैं. तो, फिर उसे सारे राजनीतिक संतुलन को तितर-बितर करने में, सारी योजनाओं को मिट्टी में मिलाने में और राजनीतिक व्यवस्था को धूल चटाने में ज़रा भी समय नहीं लगता.
अब अगले पांच साल अरविंद केजरीवाल के हैं. एक नई प्रशासनिक व्यवस्था को विकसित होने देना चाहिए.
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