Published on Dec 14, 2019 Updated 0 Hours ago

इसरो के सामने चुनौती विदेशी प्रतियोगिता से निपटने की है और वह ख़ासतौर पर छोटे सैटेलाइट के लॉन्च को लेकर, जिसका बाज़ार तेजी से बढ़ रहा है.

इसरो के स्पेश मिशन को कैसे समझना चाहिए?

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के हाल के बयानों और दावों के बीच देश के अंतरिक्ष अभियानों की पड़ताल ज़रूरी हो गई है. इसरो के प्रवक्ता ने हाल ही में कहा था कि स्पेस एजेंसी कोई ‘प्रोडक्शन हाउस’ नहीं है. इसलिए इसकी सफलता सिर्फ अंतरिक्ष में भेजे गए सैटेलाइटों की संख्या से नहीं मापी जा सकती. जिन अंतरिक्ष अभियानों की योजना बनाई गई है, इसरो उन्हें पूरा कर रहा है, इस दावे से दो मुद्दे सामने आते हैं. दूसरा, क्या मौजूदा साइंटिफिक, टेक्नोलॉजिकल, इंफ्रास्ट्रक्चर और बजट सीमाओं के बीच इससे ऐसी ऊटपटांग उम्मीद रखना ठीक होगा? क्या इससे सिविलयन और कमर्शियल ज़रूरतों के अलावा सैन्य हितों की खातिर और ज्यादा सैटेलाइट लॉन्च करने की उम्मीद की जानी चाहिए? देश में नागरिक, कमर्शियल और सैन्य ज़रूरतों के लिए अंतरिक्ष यान बनाने वाली यह अकेली एजेंसी है. इसलिए इसके अभियानों की संख्या बढ़ाने का लालच या आकर्षण समझा जा सकता है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक इस एजेंसी पर पहले से काफ़ी बोझ है, उसे देखते हुए इससे समस्या खड़ी हो सकती है. इसके अलावा, एजेंसी के अपने प्रदर्शन को परखने की शर्तें और परिभाषा भी व्यापक हैं क्योंकि उसे कई साइंटिफिक और टेक्नोलॉजिकल मिशन पर काम करना पड़ता है. मिसाल के लिए इसरो अपने लॉन्च व्हीकल मिशन और सैटेलाइट को ऑर्बिट में पहुंचाने को अलग-अलग अभियान मानता है. यह सामान्य बात नहीं है और इसे गलत ठहराया जा सकता है क्योंकि स्पेस पावर माने जाने वाले दुनिया के किसी देश की अंतरिक्ष एजेंसी ऐसा नहीं करती. सच तो यह है कि इसरो के मिशन की परिभाषा में एक अभियान के लिए दो अलग टास्क या फेज शामिल होते हैं. लॉन्च व्हीकल को स्टार्ट करना, उड़ान को सफलतापूर्वक पूरा करना और सैटेलाइट पेलोड को तय ऑर्बिट में पहुंचाना एक फेज माना जाता है, इसके बाद अंतरिक्ष यान ख़ुद रिमोट सेंसिंग से लेकर कम्युनिकेशंस जैसे काम करते हैं. वैसे मिशन के अलग-अलग टास्क या फेज की तुलना पोलर सैटेलाइट स्पेस लॉन्च व्हीकल (PSLV) के अलग-अलग स्टेज से नहीं की जानी चाहिए.

इसरो अपने लॉन्च व्हीकल मिशन और सैटेलाइट को ऑर्बिट में पहुंचाने को अलग-अलग अभियान मानता है. यह सामान्य बात नहीं है और इसे गलत ठहराया जा सकता है क्योंकि स्पेस पावर माने जाने वाले दुनिया के किसी देश की अंतरिक्ष एजेंसी ऐसा नहीं करती.

क्या आप जानते हैं कि दूसरे देशों की अंतरिक्ष एजेंसियों ने मिशन की क्या परिभाषा तय की है? अगर यूएस नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) की बात की जाए तो इसरो के प्रवक्ता ने मिशन की जो परिभाषा दी, वह उससे अलग है. आमतौर पर नासा के किसी मिशन में प्री-फेज ए होता है, जिसमें अभियान का कॉन्सेप्ट तैयार किया जाता है. इसके बाद उसका फेज शुरू होता है, जिसमें शुरुआती विश्लेषण और फेज बी में सिस्टम की ज़रूरतों, डिज़ाइन और नॉन-एडवोकेट व्यू शामिल होते हैं. फेज सी और डी में डिज़ाइन, डिवेलपमेंट, तैयारी और फ्लाइट्स टेस्ट शामिल होते हैं. फाइनल फेज में मिशन का वास्तविक ऑपरेशनल सेगमेंट शामिल होता है, जिसके दायरे में प्राइमरी और एक्सटेंडेड दोनों ही सेगमेंट आते हैं. नासा की शब्दावली में इसे मिशन ऑपरेशंस (MO) और डेटा एनालिसिस (DA) कहा जाता है. हमारी चिंता यहां फाइनल फेज ई या MO और DA को लेकर है.

आइए, जरा नासा के दूसरे ग्रहों या गहरे अंतरिक्ष के मिशन पर गौर करते हैं. इसके चार फेज या यूं कहें कि सब-फेज होते हैं. इनमें लॉन्च फ्रेज, क्रूज फ्रेज, एनकाउंटर फेज और आखिर में एक्सटेंडेड ऑपरेशंस फेज होता है, जो अंतरिक्ष यान की तकनीकी सेहत और पूरे मिशन की अवधि का परिणाम होता है. गहरे अंतरिक्ष के लिए अक्टूबर 2008 में लॉन्च किए गए चंद्रयान-1 पर भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी की अंदरूनी समीक्षा में कहा गया था, ‘इस अभियान का मुख्य मकसद चंद्रमा के क़रीबी और सुदूर क्षेत्र का थ्री डायमेंशनल एटलस तैयार करना और यह पता लगाना था कि चंद्रमा की सतह पर कौन से केमिकल और मिनरल यानी खनिज हैं.’ चंद्रयान-1 की बड़ी सफलता चंद्रमा की सतह पर पानी और हाइड्रॉक्सिल की खोज थी. इस अभियान से मिले आंकड़ों से यह भी पता चला था कि ध्रुवीय क्षेत्र में इनका प्रचुर भंडार है. पानी के अलावा इसरो ने टाइटेनियम, कैल्शियम, एल्यूमीनियम और मैग्नेशियम जैसे कई खनिज का भी पता लगाया था. यह समझना मुश्किल नहीं है कि चंद्रयान के सैटेलाइट में मैप और टेस्ट के लिए जो उपकरण लगे थे, वह मिशन नहीं था. तकनीक की मदद से एक मकसद को पूरा करने के लिए जो चीज बनाई गई थी, मिशन वह था. इसने चंद्रमा की सतह पर पानी और कई खनिज ढूंढे थे. इसलिए इसरो की मिशन की परिभाषा ठीक नहीं है. अगर चंद्रयान-1 का मुख्य उद्देश्य चंद्रमा के भूगोल को समझना और वहां मौजूद खनिजों का पता लगाना था, तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि वह इसरो के मिशन की हालिया परिभाषा में फिट नहीं बैठता. इससे यह सवाल खड़ा होता है कि इसरो ने लॉन्च व्हीकल ऑपरेशंस और सैटेलाइट ऑपरेशंस को दो स्वतंत्र मिशन बताकर गलती की है. कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि वह अपने प्रदर्शन को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के लिए इस तरह से लोगों को गुमराह कर रहा है.

अगर चंद्रयान-1 का मुख्य उद्देश्य चंद्रमा के भूगोल को समझना और वहां मौजूद खनिजों का पता लगाना था, तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि वह इसरो के मिशन की हालिया परिभाषा में फिट नहीं बैठता. इससे यह सवाल खड़ा होता है कि इसरो ने लॉन्च व्हीकल ऑपरेशंस और सैटेलाइट ऑपरेशंस को दो स्वतंत्र मिशन बताकर गलती की है.

हालांकि, चंद्रयान-2 मिशन में इसरो इससे भी आगे चला गया. उसके एक अधिकारी ने स्पष्ट तौर पर कहा, ‘इस साल चंद्रयान-2 अकेले पांच या छह मिशन के बराबर रहा. इसमें ऑर्बाइटर, एक लैंडर, एक रोवर और एक लॉन्च व्हीकल शामिल था.’ इसीलिए ये आंकड़े गुमराह करने वाले हैं. मुद्दे की बात यह है कि कोई भी सैटेलाइट बिना लॉन्च व्हीकल के अंतरिक्ष में नहीं जा सकता. साफ-साफ कहें तो लॉन्च व्हीकल और सैटेलाइट का कामकाज किसी मिशन का सिर्फ एक फेज है और हम ऊपर बता चुके हैं कि मिशन के कई उद्देश्य हो सकते हैं. इसरो के मिशन की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताने की चाहे जो भी वजह हो, लंबी अवधि में स्पेस एजेंसी की समस्याएं गंभीर दिख रही हैं और ये दो तरह से सामने आ सकती हैं. पहली समस्या तो यह है कि तकनीकी क्षमता के मामले में यह पीछे है और कर्मचारियों की संख्या कम होने के कारण इसका कामकाज प्रभावित हो रहा है.

लंबी अवधि में स्पेस एजेंसी की समस्याएं गंभीर दिख रही हैं और ये दो तरह से सामने आ सकती हैं. पहली समस्या तो यह है कि तकनीकी क्षमता के मामले में यह पीछे है और कर्मचारियों की संख्या कम होने के कारण इसका कामकाज प्रभावित हो रहा है.

2015 की एक स्टडी में कहा भी गया था कि सप्लाई और डिमांड की समस्या से उबरने के लिए एजेंसी को ‘प्रोडक्शन ज़रूरतों से पल्ला झाड़ना पड़ेगा.’ इस स्टडी में बताया गया था कि इस काम को निजी क्षेत्र के हाथों में देना बेहतर होगा. इसके लिए इसरो को पहले छोटे सैटेलाइट का डिवेलपमेंट और प्रोडक्शन बाहर से करवाना चाहिए. इसरो के सामने दूसरी चुनौती विदेशी प्रतियोगिता से निपटने की है और वह भी ख़ासतौर पर छोटे सैटेलाइट के लॉन्च को लेकर, जिसका बाजार तेजी से बढ़ रहा है.

एलन मस्क की स्पेसएक्स फाल्कन 9 को इसरो के पोलर सैटेलाइट लॉच व्हीकल के लिए गंभीर प्रतियोगी माना जाता है. PSLV इसरो के लिए भरोसेमंद लॉन्च व्हीकल साबित हुआ है. इससे वह कम लागत में दूसरे देशों के सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजने में सफल रहा है. हालांकि, फाल्कन 9 जैसे बेहद भरोसेमंद स्पेस लॉन्च व्हीकल (SLV) के आने के बाद इसरो के लिए रिसर्च एंड डिवेलपमेंट, प्रोडक्शन का नियंत्रण छोड़ना बेहतर रहेगा. इससे निजी क्षेत्र के छोटे सैटेलाइट बनाने का रास्ता साफ होगा. इतना ही नहीं, इससे इसरो के जो संसाधन बचेंगे, उनका इस्तेमाल वह रिसर्च एंड डिवेलपमेंट या SLV डेवलपमेंट के लिए कर सकता है. इस स्थिति में वह फाल्कन 9 जैसे रॉकेट का मुकाबला कर पाएगा, जो छोटे सैटेलाइट लॉन्च करने को लेकर उसे कड़ी टक्कर दे सकते हैं. इसरो के लिए अच्छा होगा कि वह अपने मिशन के बारे में बढ़-चढ़कर दावे न करे. यह उसके हित में तो है ही, साथ ही ऐसे दावों से देश का भी भला नहीं होता.

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