Published on Dec 15, 2021 Updated 0 Hours ago

इतिहास गवाह है कि चीन पहले अपनी बस्तियां बसाता है फिर वहां की कनेक्टिविटी सुधारकर अपनी फ़ौजी चौकियां खड़ी कर देता है. नेपाल और भूटान की भौतिक क्षमता और सामरिक ढांचा बेहद कमज़ोर है.

चीन के नये भूमि सुरक्षा का कानून का नेपाल और भूटान पर कितना असर?

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अक्टूबर 2021 में चीन में एक नया “भूमि सीमा क़ानून” पारित किया गया है. क़ानून का मकसद चीन में फ़ौज और नागरिकों के बीच मेलमिलाप और तालमेल को बढ़ाकर देश की क्षेत्रीय संप्रभुता की हिफ़ाज़त करना है. हालांकि इस नए क़ानून को लेकर बढ़ती आशंकाओं के बीच चीन ने सफ़ाई दी है कि मौजूदा सीमा समझौतों और सहयोगों पर इसका कोई प्रभाव नहीं होगा. बहरहाल इस क़ानून में कई ऐसे प्रावधान हैं जो चीन के छोटे और अपेक्षाकृत कमज़ोर पड़ोसियों (जैसे नेपाल और भूटान) के लिए ख़तरा पैदा कर सकते हैं.

प्राथमिक तौर पर इस क़ानून के ज़रिए चीन की सभी सीमाओं पर संकेतक या निशान स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है. इसके साथ ही फ़ौज और पुलिस को चीन की सरहदों का बचाव करने के निर्देश भी दिए गए हैं. इसके अलावा गश्ती अधिकारियों को घुसपैठियों के ख़िलाफ़ पुलिसिया तौर-तरीक़े और हथियारों के इस्तेमाल का अधिकार दिया गया है. दूसरा, इस क़ानून के तहत चीनी राज्यसत्ता को सरहदी शहर बसाने और वहां कनेक्टिविटी और सार्वजनिक सेवाएं उपलब्ध कराने को कहा गया है. साथ ही वहां इंसानी बसावट और रिहाइश को बढ़ावा देने के लिए सैनिक और नागरिक उद्देश्यों से बुनियादी ढांचा खड़ा करने को भी कहा गया है. इतना ही नहीं इस नए क़ानून के ज़रिए चीनी नागरिकों से देश के सरहदी इलाक़ों की सुरक्षा करने और ज़रूरत पड़ने पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की मदद करने का अनुरोध भी किया गया है.

दूसरे देशों के भू-भाग पर क़ब्ज़ा जमाने की चीनी रणनीति को ही सलामी स्लाइसिंग कहते है. इसके तहत चीन अपने पड़ोसी देशों के ख़िलाफ़ छोटे-छोटे सैन्य ऑपरेशन से या धीरे-धीरे पैर पसारकर उस इलाक़े पर अपना क़ब्ज़ा जमाना शुरू कर देता है.  

सरसरी तौर पर तो इस नए क़ानून के पीछे का इरादा चीनी सरज़मीं की हिफ़ाज़त औऱ सुरक्षा करना मालूम होता है. हालांकि सलामी स्लाइसिंग और पड़ोसी देशों के भूक्षेत्र में अपनी असैनिक आबादी को बसाने की चीनी रणनीति के साथ मिलाकर देखने पर इस क़ानून के पीछे का लालची नज़रिया साफ़ ज़ाहिर हो जाता है. ग़ौरतलब है कि दूसरे देशों के भू-भाग पर क़ब्ज़ा जमाने की चीनी रणनीति को ही सलामी स्लाइसिंग कहते है. इसके तहत चीन अपने पड़ोसी देशों के ख़िलाफ़ छोटे-छोटे सैन्य ऑपरेशन से या धीरे-धीरे पैर पसारकर उस इलाक़े पर अपना क़ब्ज़ा जमाना शुरू कर देता है.

नेपाल की स्थायी मगर अनसुलझी सरहदें

नेपाल और चीन ने 1961 में आधिकारिक तौर पर अपनी सीमाओं का निर्धारण किया था. एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो की नीति के तहत दोनों ही देशों ने थोड़े-थोड़े इलाक़ों का आदान-प्रदान किया था. 1963 में दोनों ही देशों ने अपनी सरहदों को स्पष्ट करने के लिए वहां 99 खंबे खड़े कर दिए थे. हालांकि दुर्गम और दूरदराज़ के इलाक़ों में लगाए गए इन खंबों का नेपाली अधिकारी शायद ही कभी जायज़ा लेते थे. नेपाल की ओर से वहां गश्त भी कभी-कभार ही लगाई जाती थी. लिहाज़ा लगातार अनदेखी होते रहने से कुछ खंबों को मौसम के थपेड़ों ने तबाह कर दिया जबकि कुछ को चीन ने वहां से हटा दिया.

आज हालात ये हैं कि चीन की सीमा से लगे नेपाल के 15 ज़िलों में से 7 ज़िले चीन द्वारा घुसपैठ और ज़मीन के अतिक्रमण किए जाने के ख़तरे का सामना कर रहे हैं. इन ज़िलों में दोलखा, गोरखा, दार्चुला, हुमला, सिंधुपालचौक, संखुवासभा और रासुवा शामिल हैं. चीन ने दार्चुला और गोरखा ज़िलों में नेपाली गांवों पर भी क़ब्ज़ा जमा लिया है. इस सिलसिले में सबसे ताज़ा मिसाल रुई गांव की है. सितंबर 2020 में चीन ने नेपाल के सरहदी हुमला ज़िले के दूरदराज़ के इलाक़े में 11 इमारतें तक खड़ी कर दी थीं. इस गांव में सरहद की निशानी के तौर पर गाड़े गए खंबों को चीन ने हटा दिया था. कुछ खंबे तो टूटी-फूटी हालत में भी मिले थे.

आज हालात ये हैं कि चीन की सीमा से लगे नेपाल के 15 ज़िलों में से 7 ज़िले चीन द्वारा घुसपैठ और ज़मीन के अतिक्रमण किए जाने के ख़तरे का सामना कर रहे हैं. इन ज़िलों में दोलखा, गोरखा, दार्चुला, हुमला, सिंधुपालचौक, संखुवासभा और रासुवा शामिल हैं. 

सरहदी इलाक़ों में चीनी घुसपैठ और ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की घटनाएं नेपाल के लिए कोई नई समस्या नहीं हैं. दरअसल अपनी भूराजनीतिक मजबूरियों और राजनीतिक अस्थिरता की वजह से नेपाल कभी भी खुलकर चीन का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाया. चीन की आक्रमकता से निपटने में नेपाल का ये बुजदिली भरा रवैया लंबे अर्से से जारी है. शायद यही वजह है कि 2006 के बाद से दोनों देशों ने साझा तौर पर सरहदी इलाक़ों का जायज़ा तक नहीं लिया है. ग़ौरतलब है कि 2006 में ही तबाह हुए 57 खंबों का मुद्दा सबके सामने आया था. दूसरी ओर नेपाल के प्रधानमंत्री के पी ओली की नीतियों की वजह से भारत के साथ नेपाल के रिश्तों में खटास आ गई. ओली के नेतृत्व में नेपाल की चीन से नज़दीकियां बढ़ गईं. ज़ाहिर है भारत के साथ रिश्तों की क़ीमत पर नेपाल की चीन से क़रीबी बढ़ गई. ऐसे में भूक्षेत्रों पर क़ब्ज़ा जमाने की चीनी फ़ितरत की अनदेखी नेपाल में एक आम बात हो गई.

बहरहाल, नेपाल में नई सरकार के सत्ता संभालने के बाद वहां के गृह मंत्रालय के तहत एक अध्ययन दल गठित किया गया. इसकी रिपोर्ट में नेपाली सरहद के भीतर चीनी हरकतों और इमारतों की मौजूदगी की तस्दीक की गई. रिपोर्ट में नेपाली नागरिकों की दैनिक गतिविधियों में चीन की ओर से खड़ी की गई रुकावटों और पाबंदियों का भी आकलन किया गया है.

नेपाली सरकार ने हाल ही में चीनी अधिकारियों के साथ ये मुद्दा उठाया था. हालांकि इस बारे में शिकायत दर्ज कराने में नेपाल की ओर से काफ़ी देर हुई. इतना ही नहीं शिकायत को लेकर नेपाल की तरफ़ से बेहद सतर्कता भी बरती गई. ग़ौरतलब है कि दोनों देशों ने ऐसे मसलों के निपटारे के लिए स्थायी तंत्र बना रखा है. इसके बावजूद नेपाल को अपनी वाजिब शिकायत दर्ज कराने में काफ़ी पापड़ बेलने पड़ रहे हैं.

चीन में नया सीमा क़ानून बन जाने के बाद वो चीन पर सवाल खड़ा करने या चीनी गतिविधियों की पड़ताल करने से और भी ज़्यादा कतराने लगेगा. इससे आख़िरकार चीन को ही लाभ होगा. ज़ाहिर है नेपाल की इस कमज़ोरी का चीन पूरा फ़ायदा उठाएगा. 

दरअसल इसकी वजह भी साफ़ है. चीन के साथ संबंधों के ज़रिए नेपाल को अनेक आर्थिक फ़ायदे होते हैं. इसके अलावा भारत पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता वाले हालात से बचने के लिए नेपाल और वहां की सरकारें चीन के साथ अपनी क़रीबी का इस्तेमाल करती हैं. इस संदर्भ में चीन के ताज़ा भूमि सीमा क़ानून से नेपाल के लिए नई चुनौतियां खड़ी होती है. निश्चित तौर पर आने वाली वक़्त में उसकी सिरदर्दी बढ़ने वाली है. भारत और चीन के बीच बसा नेपाल अपनी भलाई में एशिया की इन दोनों ताक़तों के बीच संतुलन क़ायम करने की नाज़ुक क़वायद करता आ रहा है. चीन में नया सीमा क़ानून बन जाने के बाद वो चीन पर सवाल खड़ा करने या चीनी गतिविधियों की पड़ताल करने से और भी ज़्यादा कतराने लगेगा. इससे आख़िरकार चीन को ही लाभ होगा. ज़ाहिर है नेपाल की इस कमज़ोरी का चीन पूरा फ़ायदा उठाएगा. वो नेपाल की सीमा के आरपार कनेक्टिविटी का विस्तार करेगा, वहां अपनी बस्तियां बसा लेगा, नए गांवों का निर्माण करेगा और सलामी स्लाइसिंग से जुड़े तमाम हथकंडों का भरपूर इस्तेमाल करेगा. इन चीनी गांवों और बस्तियों में कनेक्टिविटी सुधरने और वहां चीनी फ़ौज द्वारा अपना डेरा डाल लेने पर इस पूरे मसले का निपटारा करना नेपाल के लिए और भी पेचीदा हो जाएगा.

जबरन बसने वाले, सलामी स्लाइसिंग और भूटान की अनसुलझी सरहदें

चीन के साथ सीमाओं से जुड़े मसलों को सुलझाने के लिए भूटान के पास कोई स्थायी तंत्र मौजूद नहीं है. पारंपरिक तौर पर भूटान के भारत के साथ बेहद ख़ास रिश्ते रहे हैं. दूसरी ओर चीन को वो हमेशा से शक़ की नज़रों से देखता रहा है. चीन के साथ भूटान का राजनयिक स्तर पर कोई जुड़ाव भी नहीं है. हालांकि 1984 के बाद से अबतक दोनों देशों के बीच सीमा विवादों को सुलझाने के लिए 24 दौर की वार्ताएं और विशेषज्ञ स्तर की 10 बैठकें हो चुकी हैं.

दोनों देशों के बीच विवादित इलाक़ों की जानकारी नीचे दी गई है:

क्रम संख्या क्षेत्र विवादित इलाक़े/भूक्षेत्र अहमियत
1 उत्तरी भूटान

बेयूल

मेंचुमा घाटी

भूटान के लिए सांस्कृतिक और पहचान से जुड़ा अहम क्षेत्र
2 पश्चिमी भूटान

डोकलाम

द्रामना और शाखाटो

याक चू और चारीथांग चू घाटियां

सिंचुलुंगपा और लांगमार्पो घाटी

भारत के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण सिलिगुड़ी कॉरिडोर/”चिकेन्स नेक” के नज़दीक
3 पूर्वी भूटान साकटेंग दरअसल इस इलाक़े के साथ चीन की कोई सीमा नहीं है. चीन ने पहली बार 2020 में इसको लेकर विवाद खड़ा किया था. ये क्षेत्र भारत के तवांग के नज़दीक है.

स्रोत: एंड्रयू एरिकसन

1996 में चीन ने सीमा विवाद के ख़ात्मे के लिए भूटान के सामने एक प्रस्ताव रखा था. चीन ने भूटान को उत्तरी इलाक़े अपने पास रखने और पश्चिम के विवादित भूक्षेत्र उसे सौंप देने का ऑफ़र दिया था. हालांकि भारत की सुरक्षा चिंताओं का ख़्याल रखते हुए भूटान ने चीन की इस पेशकश को ठुकरा दिया था. 1998 में भूटान और चीन ने विवादित क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखने और वार्ता प्रक्रिया को बरकरार रखने से जुड़े समझौते पर दस्तख़त किए थे. इसके बावजूद 2020 तक इस मोर्चे पर कोई प्रगति नहीं हो सकी. अप्रैल 2021 तक दोनों देश सीमा से जुड़े मसलों को सुलझाने के लिए तीन चरणों वाले कार्यक्रम को केवल अंतिम रूप ही दे सके हैं. अक्टूबर 2021 में चीन और भूटान ने इस बाबत समझौता पत्र (memorandum of understanding, MoU) पर हस्ताक्षर किए.

हालांकि इन घटनाक्रमों और गारंटियों के बावजूद चीन अपने पड़ोसी भूटान के ख़िलाफ़ लगातार ज़ोर-ज़बरदस्ती और बस्तियां बसाने वाली रणनीति का इस्तेमाल करता आ रहा है. मिसाल के तौर पर आज उत्तर में पूरी मेंचुमा घाटी और बेयूल पर चीनी बसावट और नियंत्रण है. चीन की इस रणनीति के तार 1995 से जुड़ते हैं. उस साल चीन ने तिब्बती चरवाहों को पहली बार बेयूल के दुर्गम इलाक़ों में लाकर बसाया था. वहां इससे पहले कोई इंसानी बसावट नहीं थी. तिब्बत से आकर बसे इन लोगों ने भूटानी चरवाहों को अपने मवेशी चराने से रोक दिया. वो जानबूझकर भूटानी चरवाहों से उलझने और लड़ाइयां करने लगे. आख़िरकार भूटान के चरवाहों ने उस इलाक़े को खाली कर दिया और दक्षिण की ओर चले गए. भूटानी चरवाहों के बचाव में लगाए गए भूटानी सैनिक भी वहां से अपना बोरिया बिस्तर समेटकर लौट गए. चीन ने इस खालीपन का भरपूर लाभ उठाया. चीन ने उत्तर के विवादित इलाक़ों में नए सिरे से बस्तियां बसानी शुरू कर दीं. 2015 में उसने इस इलाक़े में अपने पहला गांव बसा दिया. 2017 तक ग्यालफुग नाम के इस गांव तक सड़कें भी बिछा दी गईं. यहां नई इमारतें और फ़ौजी चौकियां तक खड़ी कर दी गईं. मंचुमा घाटी में भी ऐसा ही वाक़या देखने को मिला.

 चीन ने उत्तर के विवादित इलाक़ों में नए सिरे से बस्तियां बसानी शुरू कर दीं. 2015 में उसने इस इलाक़े में अपने पहला गांव बसा दिया. 2017 तक ग्यालफुग नाम के इस गांव तक सड़कें भी बिछा दी गईं. यहां नई इमारतें और फ़ौजी चौकियां तक खड़ी कर दी गईं. 

भूटान की पश्चिमी सरहद पर भी ऐसे ही हालात देखने को मिलते रहे हैं. 2006 से 2009 के बीच भूटान की पश्चिमी सीमा पर चीन की ओर से 38 बार घुसपैठ की गई है. 2017 के डोकलाम संकट के बाद से भूटान के साथ पश्चिम में लगती अपनी सरहद पर चीन ने अपनी मौजूदगी और बढ़ा दी है. 2020 में तो चीन ने भूटान के अंदर एक गांव तैयार कर लिया. अच्छी कनेक्टिविटी और तमाम सुविधाओं से लैस इस गांव का नाम चीन ने पांगडा रखा है. माना जा रहा है कि मई 2020 से नवंबर 2021 के बीच चीन पश्चिमी भूटान में चार नए गांवों का निर्माण कर चुका है. ज़ाहिर है हाल के MoU और रोडमैप के बावजूद चीन अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहा है.

चीन अपने रणनीतिक फ़ायदे और ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की अपनी फ़ितरत के चलते भूटान के साथ हुए करारों और समझौता पत्रों (MoU) की धज्जियां उड़ाता रहा है. वो भूटान के साथ राजनयिक संबंध कायम करना चाहता है. दरअसल भूटान के साथ सीमा विवादों को सुलझाने की चीनी क़वायद के पीछे एक गहरी चाल है. वो इस इलाक़े में अपना दबदबा बनाकर भारत को सिलिगुड़ी कॉरिडोर में मात देना चाहता है. चीनी अतिक्रमणों, बसावटों और गांवों से निपटने के लिए भूटानी सेना के पास फ़िलहाल न तो ज़रूरी साज़ोसामान हैं और ना ही कोई बुनियादी ढांचा. चीन में नए भूमि सीमा क़ानून के बन जाने से इस असमानता में और इज़ाफ़ा होने की आशंका है. इस क़ानून का फ़ायदा उठाकर चीन सरहदी गांवों के आर-पार और भी ज़्यादा इलाक़ों पर क़ब्ज़ा जमाना शुरू कर देगा. एक बार ज़मीन पर क़ब्ज़ा हो जाने के बाद वो वहां कनेक्टिविटी सुधारकर अपनी फ़ौज की मौजूदगी बढ़ा देगा.

सौ बात की एक बात ये कि चीन के भूमि सीमा क़ानून ने हिमालय की गोद में बसे नेपाल और भूटान के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. चीनी सरज़मी की हिफ़ाज़त की आड़ में बना ये क़ानून चीन की विस्तारवादी नीयत और उसकी आक्रमकता का ही एक और हथकंडा मालूम होता है. भारत और चीन के बीच बसे ये दोनों ही देश एक अजीब किस्म की संतुलनकारी नीतियों के साथ आगे बढ़ने पर मजबूर हैं. निश्चित रूप से इन दोनों छोटे-छोटे देशों के लिए चीन की सलामी स्लाइसिंग रणनीतियों और अतिक्रमणकारी घुसपैठिया तौर-तरीक़ों का ख़तरा बहुत बड़ा है. इतिहास गवाह है कि चीन पहले अपनी बस्तियां बसाता है फिर वहां की कनेक्टिविटी सुधारकर अपनी फ़ौजी चौकियां खड़ी कर देता है. नेपाल और भूटान की भौतिक क्षमता और सामरिक ढांचा बेहद कमज़ोर है. ऐसे में चीन को आगे नई-नई बस्तियां बसाने और गांव खड़े करने से रोकने या मौजूदा बसावट को हटाने के लिए इन्हें भारी जद्दोजहद करनी होगी.

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