Author : Sunjoy Joshi

Published on Mar 21, 2022 Updated 0 Hours ago

हर देश का अपना-अपना हित है और हर देश अपने हितों के बारे में सोचने के लिये स्वतंत्र है, और अगर हम वास्तव में खुद को लोकतांत्रिक देश कहते हैं तो हमारी राय में भिन्नता होगी, और हमें इस भिन्नता स्वीकार कर इसका सम्मान करना होगा. 

युद्ध और शांति के बीच झूलते ऐतिहासिक निर्णय!

Image Source: Jeb Bjammin/Flickr

(ये लेख ओआरएफ़ के वीडियो मैगज़ीन इंडियाज़ वर्ल्ड के एपिसोड –‘युद्ध और शांति के बीच झूलते ऐतिहासिक निर्णय’, में चेयरमैन संजय जोशी और नग़मा सह़र के बीच हुई बातचीत पर आधारित है).


24 फरवरी को शुरू हुआ रूस और यूक्रेन का युद्ध अब भी जारी है, अब तक 30 लाख से भी ज़्यादा यूक्रेनी नागरिक देश छोड़ शरणार्थी बन चुके हैं. दूसरी ओर युद्ध बंद करने की कोशिशें भी चल रही हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि युद्ध रोकने लिये कोई पंद्रह सूत्रीय एग्रीमेंट पर काम जारी है. पर ये सवाल अब भी बना हुआ कि क्या युद्धविराम (ceasefire) होगा?

युद्ध अभी ऐसे मोड़ पर है, जहां टीवी और ट्विटर पर लड़ाई जितनी कम की जाये उतना ही दोनों पक्षों के लिये श्रेष्ठ होगा. पर जिस ढंग से एक विश्व-व्यापी दर्शक मंडली को केंद्र में रख लगातार संदेश देने का सिलसिला जारी है, उससे डर है कि ऐसे अशोभनीय बयान न निकल जाएँ जो इस नाज़ुक वक्त़ पर आग में घी डालने का काम करें. इसलिये ज़रूरी है ट्विटर पर होनेवाली लगातार बयानबाज़ी थमे और डिप्लोमेसी को अपना काम करने का मौका मिले. एक तरफ तो शांति वार्ता चल रही है जिसमें दबे-दबे स्वर में कुछ आशा भरे संदेशों की महक है. लगता है कि रूस और यूक्रेन के बीच वार्तालाप सकारात्मक दिशा की ओर है. पर दूसरी ओर अपनी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दर्शक मंडली को सम्मोहित करने के लिए आवेश भरी भाषणबाज़ी के स्वर सुनाई पड़ते हैं जिनका इस नाज़ुक मोड पर उल्टा प्रभाव पड़ सकता है.

युद्ध अभी ऐसे मोड़ पर है, जहां टीवी और ट्विटर पर लड़ाई जितनी कम की जाये उतना ही दोनों पक्षों के लिये श्रेष्ठ होगा. पर जिस ढंग से एक विश्व-व्यापी दर्शक मंडली को केंद्र में रख लगातार संदेश देने का सिलसिला जारी है, उससे डर है कि ऐसे अशोभनीय बयान न निकल जाएँ जो इस नाज़ुक वक्त़ पर आग में घी डालने का काम करें. 

इस वक्त वार्ताओं का उद्देश्य जल्दी से जल्दी युद्ध रोक कर ceasefire लागू करना होना चाहिए न कि परस्पर अपनी-अपनी रेटिंग बढ़ाने की होड़. वैसे अब तक अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन काफी समझदारी से इन हालातों मे पेश आ रहे हैं. उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि नेटो सीधे इस युद्ध में भाग नहीं लेगा. इसी क्रम में पोलैंड की यूक्रेन को मिग विमान भेजने की पेशकश को भी अमेरिका ने नज़रअंदाज़ कर दिया. पर फिर हुआ राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की का अमरीकी संसद में बहुचर्चित टेलीविज़न भाषण और उनके उद्गार ऐसे की बाइडेन ने भी प्रेस के सामने पुतिन को ‘वॉर क्रिमिनल’ की संज्ञा से नवाज़ डाला. प्रतिक्रिया स्वरूप रूस की तरफ़ से भी अपेक्षित पलटवार हुआ.

जनता को अपनी कारगरता दिखाने के लिये टीवी या ट्विटर पर चल रहे दंगल को शांत करने की ज़रूरत है. नेताओं को अपनी तत्काल रेटिंग्स की चिंता छोड़ यूक्रेन की जनता के बारे में सोचकर शांति प्रयास करने होंगे. वास्तव में न सिर्फ यूक्रेन बल्कि यूरोप का भला इसी में है की इलाके की स्थिरता को ध्यान में रखकर इस विवाद का सबसे पहले अंत किया जाये. युद्धविराम के बाद भी नेगोशिएशंस होते रहेंगे, बातचीत चलती रहेगी – इसलिए इस मौके पर ठंडे दिमाग से इस मसले पर विचार-विमर्श करें. इनमें से कोई भी पक्ष दूसरे के सिर पर दोष का पूरा का पूरा ठीकरा नहीं फोड़ सकता. जब तक दोनों पक्ष एक दूसरे को ग़लत साबित करने की जंग में उलझे रहेंगे वे इस समस्या के स्थायी समाधान की तरफ़ आगे नहीं बढ़ पायेंगे. इसलिए इस युद्ध को राम और रावण के बीच की लड़ाई मानकर न लड़ा जायेगा. यह सोच कि एक तरफ राम खड़े हैं और दूसरी तरफ़ रावण ऐंठा बैठा है जिसका संघार ही एक मात्र उपाय हो, बातचीत या समझौता का रास्ता बंद ही कर सकती है. आखिर दोनों पक्ष इस आपसी युद्ध को कहाँ किस मोड पर ले जाने को आतुर हैं? विवाद और बढ़ने का परिणाम क्या होगा?

यदि यह लड़ाई नहीं थमी तो इससे उत्पन्न अस्थिरता यूक्रेन तक सीमित न रहकर पूरे यूरोप को अपने आगोश में ले लेगी जिसके परिणामों से विश्व का शायद ही कोई देश अछूता रह सकता है.

यदि यह लड़ाई नहीं थमी तो इससे उत्पन्न अस्थिरता यूक्रेन तक सीमित न रहकर पूरे यूरोप को अपने आगोश में ले लेगी जिसके परिणामों से विश्व का शायद ही कोई देश अछूता रह सकता है. यदि इतिहास पलटा जाए तो यूरोप दुनिया के सबसे ज़्यादा अस्थिर क्षेत्रों में से रहा है जहां सदियों से देशों और क़बायली घमासान चलता रहा है. यूरोप के लिए तो 1945 के बाद की शांति एक प्रकार से अपवाद ही है. अगर पुनः यूरोप शीत युद्ध में प्रवेश करता है तो उससे सबसे ज़्यादा नुकसान यूरोप का ही होगा.

संघर्ष यदि खींचता है तो यूरोप और अमेरिका की भागीदारी का क्या होगा?

अमेरिका दुनिया के कई भौगोलिक क्षेत्रों से अपने कदम खींच रहा है. गत वर्ष हमने उसे अपने क़दम अफ़ग़ानिस्तान से बहुत ही शर्मनाक ढंग से समेटते देखा है; सीरिया और पश्चिम एशिया में वह पहले ही रूस के लिये स्थान रिक्त कर चुका था. इन क्षेत्रों से पीछे हटने की क़वायद को अमेरिकी प्रशासन कुछ समय से नयी एशियाई ध्रुव की ओर अग्रसर नीति की नींव मान बैठा था – चीन से बढ़ते संघर्ष को ज्य़ादा तवज्जो दी जाने लगी और हिंद-प्रशांत क्षेत्र घोषित हो गया उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भू-रणनीतिक चुनौती.

यूक्रेन में रूस ने अमेरिका की इसी नयी रणनीति को चुनौती दे डाली है – उसका साफ़ ऐलान है की वक्त़ आ गया है जब अमेरिका को अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं को चुनने का विशेषाधिकार उपलब्ध नहीं है – तालाब में और भी मछलियां हैं. अमेरिका को अपनी रणनीति बनाने की स्वायत्तता के दिन गए. रूस नेटो को जगह-जगह पर चुनौती दे रहा है, अफ्रीका में जहां फ्रांस का परचम खिसक रहा है, पश्चिम एशिया से, वो नेटो को साफ़-साफ़ कह रहा है कि विवादों का भूगोल सिर्फ़ आप तय नहीं कर सकते.

यूक्रेन में रूस ने अमेरिका की इसी नयी रणनीति को चुनौती दे डाली है – उसका साफ़ ऐलान है की वक्त़ आ गया है जब अमेरिका को अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं को चुनने का विशेषाधिकार उपलब्ध नहीं है 

यूक्रेन युद्ध ने डांवाडोल हो रहे ट्रांस-अटलांटिक गठबंधन में नयी जान फूँकी; क्या वास्तव में नेटो मजबूत हुआ है?

अब तक अमेरिका ही यूरोपीय सुरक्षा का बीड़ा उठाए घूम रहा था. ट्रंप की लाख कोशिश रही की यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा में अधिक निवेश करें और अमेरिका के भरोसे न बैठे रहें. कहा जा रहा था की ट्रंप के ये प्रयास ट्रांस-अटलांटिक गठबंधन को छिन्न भिन्न कर रहे हैं. विडंबना देखिये, ट्रंप की ख़्वाहिश परवान चढ़ी भी तो बाइडेन के समय, और वह भी रूस के हाथों. आज हर प्रमुख यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा के प्रति अधिक सजग और अपने-अपने बजट के बड़ा से बड़ा हिस्सा शस्त्रीकरण के लिए खर्च करने को आतुर दिख रहा है.

अंतराल में, यदि यूरोप के देश, जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम आदि अपनी रक्षा पर अधिक निवेश करेंगे तो यही चुनिंदा यूरोपीय देशों की अपनी रणनीतिक प्राथमिकताएं तय करने की स्वायत्तता में भी बढ़ोतरी होगी. साफ़ अर्थ होगा इन देशों की राष्ट्रीय रणनीतियों की सामरिक स्वायत्तता में इज़ाफा. अंततः यूरोप और अमेरिका की भौगोलिक सच्चाई में असमानता है. यूरोप की भौगोलिक प्राथमिकताएँ अमेरिका की भौगोलिक प्राथमिकताएँ नहीं बन सकती. इसलिए उनके सुरक्षा दृष्टिकोणों में भी भिन्नता होना स्वाभाविक है.

मसलन यदि, जैसा की हमने कुछ ही माह पहले देखा था, बेलारूस या किसी भी अन्य बाल्कन क्षेत्र से, पश्चिम एशिया से भाग रहे शरनार्थियों की बाढ़ आए, तो उनसे जिस प्रकार की अफ़रा-तफ़री यूरोप में मचेगी वह अमेरिका से बिलकुल भिन्न है. पश्चिमी एशिया से आने वाले शरणार्थियों की धारा की कभी भी अमेरिका के लिए वह ख़तरा नहीं हो सकता है जैसा कि यूरोप के लिए . यह एक भौगोलिक सत्य है.

यूरोप की भौगोलिक प्राथमिकताएँ अमेरिका की भौगोलिक प्राथमिकताएँ नहीं बन सकती. इसलिए उनके सुरक्षा दृष्टिकोणों में भी भिन्नता होना स्वाभाविक है. 

बेलारूस के रास्ते पोलैंड भाग रहे पश्चिम एशियाई शरणार्थियों के कथित “हथियारीकरण” पर प्रतिक्रियाएँ और टिप्पणियों को तनिक याद करें. और इन टिप्पणियों की तुलना करें पोलैंड में यूक्रेनी शरणार्थियों की आवभगत से. अब स्लाव राष्ट्र अपने को सांस्कृतिक रूप यूक्रेन के करीबी मानते हैं क्योंकि यूक्रेन रूसी और स्लाव संस्कृति का मिश्रण है. पर यदि रूस पश्चिम एशिया की अस्थिरता को यूरोप में शरणार्थियों के माध्यम पाँव पसारने के लिए प्रेरित करने की ठान ले तो यूरोप में सामाजिक और आर्थिक अस्थिरता पैदा करने की क्षमता रखता है.

और यह कोई ख्य़ाली पुलाव नहीं हैं. यूक्रेन युद्ध में ही अब एक बहुत बड़ा मुद्दा निजी सेनाओं (Private Armies) की भूमिका को लेकर बनता जा रहा है. जो नेटो देश युद्ध में अपने सैनिक भेजने से कतरा रहे हैं उनको उसी युद्ध में अपने नागरिकों का निजी सेनाओं में सम्मिलित हो हिस्सा लेने में कोई आपत्ति नहीं दिखती. जवाब में पुतिन भी कह चुके हैं की उनके पास हज़ारों की संख्या में सीरिया और ईरान से आ रहे लड़ाकों की फ़ौज दस्तक दे रही है. शरणार्थियों और लड़ाकों का ऐसा रेला न खड़ा हो जाए जो यूरोप में 500 — 600 साल पुराने हालात पैदा कर दे जब पूरे यूरोप में लड़ाकों का ही राज चला करता था. खुद ही सोचिए नेटो कितना मज़बूत हुआ है और कितना कमज़ोर ?

अमेरिका ने चीन पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया था – अब क्या उसका इंडो-पैसिफिक फोकस कुछ फ़िसलता नज़र आ रहा है?

अगर ये युद्ध लंबा चलता है और यूरोपीय देश इस युद्ध में मशगूल हो जाते है तो अवश्य ऐसा हो सकता है. कुछ सामरिक गिद्धों का तो इरादा भी दिखता है कि यूक्रेन में रूस को ऐसा फंसा दिया जाये की उससे न निगला बने न उगले. उसकी वही स्थिति हो जाए जो सोवियत यूनियन की अफ़ग़ानिस्तान में बन गयी थी – रूस कब्ज़ा कर नहीं पाये पर लगातार वहाँ निरंतर टकराव में रूसी खून बहता रहे. इससे सामरिक गिद्धों की जीत तो अवश्य होगी पर बेचारे यूक्रेनी नागरिकों का क्या होगा? यूरोप के जिगर में एक और सीरिया या इराक़ खड़ा कर अस्थिरता न सिर्फ़ यूक्रेन बल्कि समूचे यूरोप में फैलेगी. हो सकता है कुछ देशों के सामरिक हित ज़रूर सधें, लेकिन यूरोप और यूक्रेन का क्या हश्र होगा? यूरोपीय एकता का क्या होगा? इसलिये हमारी राय में सबसे अहम् है कि इस युद्ध को तत्काल बातचीत के ज़रिये समाधान निकाल कर रोका जाए. अगर ऐसा शीघ्र नहीं किया गया तो आने वाले समय में इस युद्ध की ज्वाला कई और देशों और दुनिया के हिस्सों को अपनी चपेट में ले लेगी. इसलिये इस आग में घी डालने का काम मत करिये.

कुछ सामरिक गिद्धों का तो इरादा भी दिखता है कि यूक्रेन में रूस को ऐसा फंसा दिया जाये की उससे न निगला बने न उगले. उसकी वही स्थिति हो जाए जो सोवियत यूनियन की अफ़ग़ानिस्तान में बन गयी थी

चीन का रुख़

कुछ समय से अमेरिका ने चीन को अपना दुश्मन नं-1 मान बैठा था. लेकिन वास्तव में अमेरिका का चीन के साथ जो विवाद था वो टेक्नोलॉजी, ट्रेड और दीर्घ काल में इनके माध्यम से उत्पन्न geo-economics के चलते जियो-पॉलिटिक्स पर केंद्रित था. लेकिन, चीन ने सीधे-सीधे स्ट्रैटेजिक चुनौती अमेरिका को अभी नहीं दी थी. ताइवान को लेकर भले ही उनके बीच रस्सा-कस्सी का दौर जारी था, लेकिन चीन का अब तक का विस्तार काफी हद तक व्यापारिक (mercantile) था. वो व्यापार के मार्फ़त, बीआरआई के ज़रिये घुसपैठ करने में लगा था और अमेरिका के हितों को चुनौती दिये जा रहा था. यह एक दूसरी तरह का खेल चल रहा था दोनों देशों के बीच में. रूस ने बीच में आकर पासा पलट दिया, उसने फिर से पारंपरिक सामरिक राजनीति को अंजाम दिया जिससे पूरब और पश्चिम के बीच भूले-बिसरे Iron Curtain की दीवार फिर खड़ी होती दिख रही है. जिस आयरन कर्टेन ने यूरोप को लंबे समय तक विभाजित रखा था, उसी दीवार को रूस ने फिर से खींचने की कोशिश की है, जिसके परिणामस्वरूप अगर अमेरिका यूरोप की सामरिक राजनीति सुलझाने में उलझ जाता है तो, दूसरे क्षेत्रों से, जिनमें इंडो-पेसिफिक प्रमुख है, उसका ध्यान अवश्य बंट जाएगा. इसलिये यदि अमेरिका वास्तव में सोचता है कि उसकी दीर्घकालिक चुनौती चीन है तो उसे सोचना होगा कि इस अस्थिरता का लाभ यदि किसी को होगा तो चीन को ही.

चीन ने सीधे-सीधे स्ट्रैटेजिक चुनौती अमेरिका को अभी नहीं दी थी. ताइवान को लेकर भले ही उनके बीच रस्सा-कस्सी का दौर जारी था, लेकिन चीन का अब तक का विस्तार काफी हद तक व्यापारिक (mercantile) था. 

रूस-यूक्रेन संघर्ष में भारत की तटस्थता कितनी उचित – क्या भारत इतिहास के कटघड़े में खड़ा है

इस पूरे घटनाक्रम में भारत का दृष्टिकोण अत्यंत परिपक्व रहा है. यह राम-रावण का युद्ध नहीं है और न ही किसी को इस आग में घी डालने की ज़रूरत है. यदि इस टकराव का विस्तार होता है तो उसके दूरगामी परिणाम होंगे. दोनों ही पक्षों ने गलतियाँ की हैं जिन्हें नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता. गलतियों का सिलसिला तो रूस के विघटन से ही प्रारम्भ हो चुका था और लगातार चलता रहा. आवश्यक है उन गलतियों पर विचार किया जाए. विचार किया जाए की जिस सार्वभौमिक नियमावली की बार-बार दुहाई दी जा रही है वह वास्तव में कितनी सार्वभौमिक थी. उसमें कितने तोड़-मरोड़ किसके हित में हुए? जब तक देश अपने गिरेबान में झांक उन कमियों को दूर करने की कोशिश नहीं करेंगे, जब तक पूरी समस्या को “लोकतन्त्र बनाम एकतंत्र” के विघटन के रूप में पेश किया जाएगा, किसी भी तरह का समझौता होने के आसार कम ही होंगे.

जब तक देश अपने गिरेबान में झांक उन कमियों को दूर करने की कोशिश नहीं करेंगे, जब तक पूरी समस्या को “लोकतन्त्र बनाम एकतंत्र” के विघटन के रूप में पेश किया जाएगा, किसी भी तरह का समझौता होने के आसार कम ही होंगे.

इसी प्रकार अमेरिका का भारत को लताड़ना कि रूस से तेल खरीदना भारत को इतिहास के कटघरे मैं खड़ा का देगा (wrong side of history) सुनने में जरूर नाटकीय लगे है लेकिन व्यवहारिक तौर पर अत्यंत खोख़ला है. और यही स्थिति सैंक्शंस को लेकर है. ये प्रतिबंध पहली बार नहीं लगे हैं. सैंक्शंस तो ईरान पर भी लगे थे लेकिन तब भी भारत ने जहां तक हो सका था ईरान से तेल खरीदा था. तेल खरीदना तब रुका जब सैंक्शंस का प्रभाव उन कंपनियों पर पड़ने लगा जो इस काम को कर रहीं थी. भारत तब भी इस प्रतिबंधों से सहमत नहीं था. तो रूस से तेल लेकर भारत कोई नई चीज़ नहीं कर रहा है, और भारत ही क्यों यूरोप जो इस पूरे विवाद का एक अहम् पक्ष है वो भी रूस से तेल खरीद रहा है, औए भारी मात्र में गैस ले रहा है- अमेरिका यूरोप को रूस से मिलने वाला तेल और गैस तो बंद नहीं करा सकता है लेकिन भारत को नसीहतें ज़रूर दे रहा है कि आप इतिहास में ग़लत तरफ़ खड़े दिखोगे.

भारत और रूस के बीच प्रतिबंधों से पहले ही तेल की निश्चित मात्रा को लेकर समझौता हुआ था. वास्तविक खरीद कीमत पर निर्भर थी. आज कहा जा रहा है कि रूस भारत को डिस्काउंट दे रहा है, जो सच नहीं है. हुआ सिर्फ इतना है कि सैंक्शंस के बाद जो तेल रूस से FOB (Free on Board) आधार पर मिलता वो अब CIF (Cost Insurance and Freight) आधार पर उपलब्ध है. तेल की कीमत पर कोई रियायत नहीं दी गयी है, फर्क पड़ा है बीमा और माल-भाड़े पर जो की युद्ध और प्रतिबंधों के चलते अब रूस की ज़िम्मेदारी बन गए हैं. इंश्योरेंस की कीमत वहन करने का ज़िम्मा रूस खुद पर ले रहा है, जो इस लिहाज़ से बिल्कुल सही कि, क्योंकि वह खुद वॉर ज़ोन है – वहां लड़ाई चल रही है, freight का ख़र्चा भी रूस के हिस्से जा रहा है, और यही रियायत है जिसकी बात हो रही है. भारत ने तो रूस पर प्रतिबंध लगाये नहीं है, और न ही नेटो सदस्य तुर्की ने. हर देश का अपना-अपना हित है और हर देश अपने हितों के बारे में सोचने के लिये स्वतंत्र है, और अगर हम वास्तव में खुद को लोकतांत्रिक देश कहते हैं तो हमारी राय में भिन्नता होगी, और हमें इस भिन्नता स्वीकार कर इसका सम्मान करना होगा. यही अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र है. भेड़चाल तो एकतंत्र हो जाता है.

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