Published on Feb 07, 2017 Updated 0 Hours ago

ऐसा लगता है कि कई अन्य देशों की तरह जर्मनी में भी संघर्ष वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ का नहीं है बल्कि खुली अर्थव्यवस्था बनाम बंद अर्थव्यवस्था का है।

जर्मनी की स्थिति एवं यूरोपीय एकीकरण

ब्रांडेनबर्ग गेट, बर्लिन

विभाजन के 40 वर्षों के बाद जर्मनी का एकीकरण हुआ था और उस एकीकरण को अब 26 वर्ष बीत चुके हैं।

बर्लिन की दीवार के गिरने के 11 महीनों के बाद, घृणित कम्युनिस्ट शासन से छुटकारा दिलाने के बाद, जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिकत्र फेडेरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी में शामिल हो गया। आधी सदी के भीषण युद्ध और शीत युद्ध के बाद, देश एक बार फिर से शांतिपूर्ण तरीके से एकीकृत हो गया था।

तबसे, जर्मनी ने सहेज कर रखे जाने वाली हर चीज को एक सूत्र में पिरो कर रखने के मामले में उल्लेखनीय प्रगति की है। यह रेखांकित करने वाली सैकडों किताबें थीं कि किस प्रकार एक पूंजीवादी लोकतंत्र को सर्वहारा वर्ग की कम्युनिस्ट तानाशाही में तबदील किया जा सकता है, लेकिन इसकी विपरीत प्रक्रिया के लिए मार्ग निर्देशन देने वाली एक भी पुस्तक नहीं थी। यह निहायत लाजिमी था कि गलतियां होनी थीं। लेकिन पिछले विश्लेषण में, हम विभाजन की विरासत रहीं अक्षमताओं, असमानताओं एवं नुकसानों पर विजय प्राप्त करने में आशातीत रूप से सफल रहे हैं।

यहां पांच अर्थपूर्ण तथ्य हैं:

  1. औसतन, हमने पूर्वी जर्मनी के जीवन को पश्चिमी जर्मनी के स्तर पर लाने एवं इसकी ध्वस्त अवसंरचना को आधुनिक बनाने पर वार्षिक रूप से 100 बिलियन यूरो-अर्थात पिछले 25 वर्षों में 2.5 ट्रिलियन यूरो खर्च किया है। इसका मतलब हुआ-25 वर्षों के लिए अपनी जीएनपी का लगभग चार से पांच प्रतिशत। इसकी तुलना में मार्शल योजना बौनी नजर आती है जिसमें यह खर्च अमेरिकी जीएनपी के इसी अनुपात के बराबर रहा था लेकिन केवल चार साल के लिए। इसका परिणाम विस्मयकारी रहा है।
  2. प्रति निवासी शुद्ध आय 1991 के पश्चिमी स्तर 43 प्रतिशत से बढ़कर 2015 में 72.5 प्रतिशत हो गई। वेतन एवं मजदूरी पश्चिमी जर्मनी के स्तर के 97 प्रतिशत तक पहुंच गई है। उत्पादकता 30 प्रतिशत से बढ़कर 80 प्रतिशत तक पहुंच गई है। इस बीच, पेंशन बढ़कर 94 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है एवं 2020 तक बढ़कर 100 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी।
  3. बेरोजगारी दर, हालांकि अभी भी पश्चिम की तरह दोगुनी ऊंची है,पर 2005 के 18.7 प्रतिशत से गिर कर 9.2 प्रतिशत तक आ चुकी है (पश्चिम: 5.7 प्रतिशत; सकल जर्मन दर: 6.4 प्रतिशत)। आज पूर्वी जर्मनी में 7.9 मिलियन लोगों के पास रोजगार है जो 1992 के बाद से सर्वाधिक संख्या है।
  4. जीवन प्रत्याशा में पुनःएकीकरण के बाद से सात प्रतिशत तक की वृद्धि हो चुकी है।
  5. जीवन स्थितियों को लेकर आम संतुष्टि पूर्वी जर्मनी में लगभग उतनी ही ऊंची है जितनी पश्चिमी जर्मनी में-83 प्रतिशत की तुलना में 76 प्रतिशत। कोई भी जीडीआर को अब वापस नहीं देखना चाहता।

एक समग्र बेहद सकारात्मक विकास के नकारात्मक पहलू के बावजूद यह सच है। पूर्व में आर्थिक विकास पश्चिम की तुलना में कम है क्योंकि वहां औद्योगिक उत्पादन काफी कम है। एक वजह पुनःएकीकरण के बाद पहले के जीडीआर के औद्योगिकीकरण में नाटकीय रूप से आई कमी है। पूर्व में उत्पादित अधिकांश वस्तुएं प्रौद्योगिकीय रूप से पश्चिमी अत्याधुनिक प्रणाली से 15 वर्ष पुरानी थीं और उनकी बिक्री बंद हो गई थी। हालांकि इस बीच समृद्धि के कई क्लस्टर ड्रेस्डेन, लिपजिग, जेना या इरफर्ट के इर्द गिर्द आकार ले चुके हैं, शायद ही किसी बड़ी जर्मन कंपनी का केंद्रीय मुख्यालय एकल रूप से पूर्व में स्थित है। पूर्वी जर्मनी की अर्थव्यवस्था की कसौटी छोटी कंपनियां हैं।

पूर्वी जर्मनी के छह नए राजनीतिक क्षेत्र अर्थात् ‘लैंडर’ जर्मनी के संरचनागत कमजोर क्षेत्रों से निर्मित हैं। इससे पता चलता है कि क्यों उनके कर राजस्व पश्चिमी मानकों के 64 प्रतिशत से अधिक नहीं पहुंचते हैं। यह इसकी भी व्याख्या करता है कि क्यों पूर्वी निर्यात कोटा कम है और क्यों पूर्वी जर्मनी शेष दुनिया से कम जुड़ा हुआ और कम संपर्क में है।

जहां कई नगर और बर्लिन के मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र फलफूल रहे हैं, पूर्वी जर्मनी की बड़ी पट्टियां निर्जन होती जा रही हैं। 1990 से वहां की आबादी 17 मिलियन से घटकर 14 मिलियन तक रह गई है। इसकी मुख्य वजह ऊर्जावान और महत्वाकांक्षी युवाओं का पश्चिम की ओर प्रवास है जिन्होंने अपने क्षेत्र में किसी आर्थिक चमत्कार की उम्मीद छोड़कर पश्चिम की ओर जाने का फैसला किया।

जहां कई नगर और बर्लिन के मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र फलफूल रहे हैं, पूर्वी जर्मनी की बड़ी पट्टियां निर्जन होती जा रही हैं। 1990 से वहां की आबादी 17 मिलियन से घटकर 14 मिलियन तक रह गई है।

इसका एक दुष्परिणाम यह है कि पूर्वी जर्मनी में पश्चिमी जर्मनी की तुलना में तेजी से वृद्धों की संख्या बढ़ रही है।

अभी भी कुछ मूलभूत मनोभावों में सुस्पष्ट भिन्नता है। इसमें ज्यादा ताज्जुब की बात नहीं है क्योंकि विभाजन के 40 वर्षों और उस विशिष्ट मानसिक सांचे और मानसिकता को खत्म कर देना उतना आसान नहीं है जो लगभग दो पीढि़यों को प्रदान किया गया है। बहरहाल, आर्थिक रूप से, पूर्वी जर्मनी रफ्तार पकड़ रहा है। और इसका प्रभाव एकीकृत जर्मनी में भी दिख रहा है। निश्चित रूप से यह कोई कम महत्व की बात नहीं है कि फेडरल रिपब्लिक के दो शीर्ष पदों-प्रेसीडेंसी और चांसलरशिप पर पूर्वी जर्मनी की दो शख्सियतें जोआचिम गौक एवं ऐंजेला मर्केल काबिज हैं।

राजनीतिक स्थिति

अब जर्मनी की वर्तमान राजनीतिक स्थिति की ओर रुख करें। वहां आज हम बड़े पैमाने पर लोकलुभावनवाद के अधिकार में बढोतरी: उत्पत्तिस्थानवाद(नेटिविज़्म), राष्ट्रवाद, संरक्षणवाद, बाहरी लोगों के प्रति विद्वेष एवं होमोफोबिया की स्थिति देखते हैं। यह अवधारणा पश्चिम जर्मनी के लिए कोई अजनबी नहीं है लेकिन पूर्वी जर्मनी में यह विशेष रूप से सुस्पष्ट एवं जहरीली है। प्रति 10 लाख नागरिकों पर बाहरी व्यक्तियों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं की तादाद देश के पश्चिमी हिस्से की तुलना में पूर्वी हिस्से में तीन से छह गुनी अधिक है, हांलाकि यहां विदेशी बहुत ही कम हैं।

बहरहाल, इस तरह की घटनाएं केवल विशेष रूप से जर्मनी में ही हो रही हों, ऐसा नहीं है। अमेरिका एवं कई यूरोपीय देशों में भी ऐसी घटनाएं अक्सर देखने में आ जाती हैं। डोनाल्ड ट्रम्प, मैरीन ली पेन, गीर्ट वाइर्ल्ड (नीदरलैंड), नोर्बर्ट होफर (ऑस्ट्रिया), क्रिस्टोफ ब्लोचर (स्विट्जरलैंड), बेप्पो ग्रिलो (इटली), हंगरी में विक्टर ऑर्बन एवं पोलैंड में जरास्लाव कैजिंस्की के नाम हमें स्कैंडिनेविया में कुछ अन्य नामों का स्मरण कराते हैं कि सभी पश्चिमी लोकतंत्रों में हमें एक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। आॅल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) के अगुआ फ्रॉक पेट्री आप्रवास विरोधी, इस्लाम विरोधी, वैश्विकीकरण विरोधी, मुक्त व्यापार विरोधी, कुलीन नारे विरोधी अकड़ दिखाने वाले एक अधिक साधारण आंदोलन का एक जर्मन चेहरा है। वह सीमाओं और दीवारों का निर्माण करना चाहता है। कुछ लोग इसे ‘पहचान की राजनीति’ का नाम देते हैं। इसकी मुख्य विशेषताएं इस्लामीकरण को लेकर, अपनी सांस्कृतिक विशिष्टताओं के खोने, प्रजातीय एकरूपता और जैसाकि कुछ दक्षिणपंथी विचारकों का कहना है, अपनी जातीय शुद्धता को लेकर चिंताएं हैं। एथनोमॉर्फोसिस की छाया-जिसे जर्मन भाषा में उमवोल्कंग कहा जाता है-उनका पीछा कर रही है।

ऐसा प्रतीत होता है कि अन्यत्र जगहों की तरह, जर्मनी में भी महत्वपूर्ण संघर्ष वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ का नहीं है बल्कि खुली अर्थव्यवस्था बनाम बंद अर्थव्यवस्था का है। वामपंथी एवं दक्षिणपंथी दोनों की ही स्थापित पार्टियां नए किस्म के अवरोधों का सामना कर रही हैं। भूमंडलीकरण से हारे हुए लोग मुख्यधारा के कट्टरपंथियों को चुनौतियां दे रहे हैं। एक नई राजनीतिक पंक्ति पुराने वामपंथियों एवं दक्षिणपंथियों के प्रतिमानों को चुनौती दे रही है: श्रम बनाम पूंजी, श्रमिक बनाम व्यवसाय, विनियमन बनाम उपक्रम। इसकी जगह वैश्विक एकीकरण केंद्रित एवं वैश्विक एकीकरण विरोधी तत्वों का नए एकत्रीकरण पर वर्चस्व है।

ऐसा लगता है कि कई अन्य देशों की तरह जर्मनी में भी जो संघर्ष महत्वपूर्ण है, वह वामपंथ बनाम दक्षिण पंथ नहीं है बल्कि खुली अर्थव्यवस्था बनाम बंद अर्थव्यवस्था है।

इसके परिणामस्वरूप, पूरे पश्चिमी क्षेत्र में दल संबंधी मानचित्र फिर से बनाया गया है। अधिकांश यूरोपीय देशों में ऐसा हुआ है और खासकर जर्मनी में हुआ है। 1949 के पहले बंडस्टैग में, 11 दलों का प्रतिनिधित्व किया गया था। 1953 में पांच प्रतिशत खंड लागू किए जाने के बाद उनकी संख्या घटकर तीन रह गई थी — क्रिश्चियन डेमोक्रैट्स, सोशल डेमोक्रैट्स एवं फ्री डेमोक्रैट्स। 1980 में कम्युनिस्टों और पुनःएकीकरण के बाद ‘ग्रीन्स’ उनमें शामिल हुए। अब लोकलुभावन आॅल्टरनेटिव फॉर जर्मनी को अगले वर्ष के आम चुनावों में लगभग 15 प्रतिशत मतों की उम्मीद है। इस प्रकार, हमारे पास अब छह सदस्य दलों से युक्त संसद हो जाएगी।

जीर्ण होते पुराने दल

पुराने दलों के लिए समर्थन अब कमजोर पड़ने लगा है। क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक एवं सोशल डेमोक्रैटिक पार्टियों को 90 प्रतिशत मत मिलते थे। 2013 तक, उनका संयुक्त हिस्सा घटकर 67.2 प्रतिशत तक आ गया था। वर्तमान चुनावों में उन्हें केवल 52 प्रतिशत (32 एवं 20) प्राप्त हुए। हाल के क्षेत्रीय चुनावों में वे अपने बीच बहुमत भी हासिल नहीं कर सके ; बर्लिन में सीडीयू को केवल 17.6 प्रतिशत मिल पाए और वे सोशल डेमोक्रैट को मिले 21.6 प्रतिशत मतों से पिछड़ गए, वामपंथियों को 16.6 प्रतिशत, ग्रीन्स को 15.2 प्रतिशत और आॅल्टरनेटिव फॉर जर्मनी को 14.2 प्रतिशत मत प्राप्त हुए।

अगर संघीय स्तर पर यह सिकुड़न जारी रहती है तो इन दोनो पार्टियों का एक बड़ा गठबंधन बना पाना संभव नहीं हो पाएगा। खुद में, यह एक बुरी बात नहीं भी हो सकती है क्योंकि हमने देखा है कि ऑस्ट्रिया और जर्मनी दोनों में ही बड़े गठबंधनों ने राजनीतिक बहसों को गला घोंट दिया है। लेकिन एक बहुमत को एक जुट करना अब और कठिन हो जाएगा जो प्रभावी शासन करने में सक्षम हो और यह सुनिश्चित करे कि हमारी राजनीति में भावना तर्क के ऊपर हावी न हो। यह और भी सच साबित हो जाता है जब जनमत संग्रह के लिए फैशन को समर्थक प्राप्त हो जाते हैं। इससे ज्यादा और आसान कुछ और भी नहीं हो सकता।

जर्मनी में लोकलुभावनवादियों की संख्या में अचानक बेशुमार बढोतरी हुई जहां लगभग 10 लाख शरणार्थी और आर्थिक प्रवासी पिछले वर्ष इस देश में आ गए। कई लोगों का मानना है कि ऐंजेला मर्केल ने ही इन सबके लिए व्यापक रूप से देश के दरवाजे खोल दिए। उस वक्त उनकी इस ‘स्वागत वाली संस्कृति’ की काफी सराहना हुई और लाखों स्वयंसेवकों ने शरण मांगने वालों की मदद की। अधिक सेे अधिक लोग देश में आते गए और उसी के साथ यह भ्रम भी बढ़ता गया कि हम इतनी बड़ी संख्या में आ रहे लोगों को संभाल सकते हैं। मर्केल के मंत्र ‘वर स्कैफैन डैस (हम कर सकते हैं)’ में इस तथ्य पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया था कि इस सब को किस प्रकार, प्रबंधित, व्यवस्थित किया जाएगा, उसके आर्थिक पहलू पर भी ध्यान नहीं दिया गया था। शुरूआती जोश ठंडा होने लगा जैसे जैसे यह स्पष्ट होता गया कि हम सभी वंचितों को समायोजित नहीं कर सकते। अगर स्वतंत्रता की मूर्ति (स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी) पर गढ़े शब्दों को उद्धृत करें तो ‘थके हारे, गरीब और एकत्र हुए लोग खुली हवा में सांस लेने को तड़प रहे थे।’

चांसलर मर्केल को यह स्वीकार करने में पूरा एक वर्ष लगा कि एक झटके में देश में 10 लाख से अधिक शरणार्थियों को आने की अनुमति दिए जाने से कई मतदाता उनसे विमुख होगए जिससे उनकी पार्टी को गहरा नुकसान हुआ।

इस अंतर्दृष्टि को व्यापक स्वीकृति मिली कि हमारी खुली बांहें, स्वागत करने की संस्कृति जिस पर हमें इतना गर्व था, हमारी बर्बादी साबित हो सकती है। इसे रोकने के लिए हम अपने बोझ को यूरोप में साझा करने का विचार कर रहे थे पर ऐसा हो न सका। इसलिए, शरणार्थियों के आने वाले प्रवाह को नियंत्रित करना दो कारणों-राजनीतिक एवं नैतिक रूप — से भी जरूरी हो गया। ये दो कारण थे कदम उठाने की सरकार की क्षमता के बारे में भरोसा दिलाना तथा शरणार्थियों के मानवीय स्वागत के लिए समाज के समर्थन को बरकरार रखना। जर्मनी के राष्ट्रपति जे. गौक ने दावोस में कहा, ‘नियंत्रण करना कोई अनैतिक कार्य नहीं है। नियंत्रण स्वीकृति बढ़ाने में मदद करता है।’

हालांकि मर्केल ने अभी भी आने वालों की संख्या पर नियंत्रण करने की बात स्वीकार नहीं की है लेकिन उन्होंने अफसोस करते हुए यह जरूर माना कि अगर घड़ी की सुईयों को पीछे कर पाना संभव होता तो वह अपनी शरणार्थी नीति में निश्चित रूप से बदलाव कर पातीं। उन्होंने कहा: ‘मेरे समेत कोई भी इस स्थिति का दुहराव नहीं चाहता।’ ऐसे दुहराव का स्पष्ट रूप से बाल्कन देशों द्वारा अपनी सीमाओं को बंद करने और तुर्की के साथ समझौते, जिसकी काफी आलोचना की गई थी, के द्वारा रोकथाम किया गया। हालांकि अभी भी पिछले जनवरी में 1,00,000 शरणार्थी आए, पर अब यह संख्या मासिक रूप से 15,000 तक सीमित रह गई है। लेकिन और अधिक शरणार्थियों, खासकर, अश्वेत अफ्रीका के लोगों के आने के भय और आतंकी घटनाओं की परिणति, जिसमें कई घटनाओं को शरणार्थियों के वेश में आने वाले उग्रवादी युवाओं द्वारा अंजाम दिया, की वजह से जर्मनी के लोगों में काफी खौफ बना हुआ है।

प्रवासी संकट एवं इसके प्रति उनकी प्रतिक्रिया के कारण, मर्केल की लोकप्रियता में एक वर्ष से लगातार गिरावट आई है। वह प्रभावित तो हुई हैं, फिर भी अडिग हैं। बहरहाल, अगर कुछ अवांछित घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो उनकी अपनी पार्टी के भीतर या किसी अन्य पार्टी में भी किसी मजबूत प्रतिद्वंदी के अभाव में उनकी लगातार चौथी बार जीतने की संभावनाएं उज्जवल ही हैं। हालांकि यह देखना एक दिलचस्प वाकया होगा कि कि वह किस पार्टी या पार्टियों के साथ गठबंधन करती हैं।

ईयू की खेदपूर्ण स्थिति

उनको अगर कोई उन्हें शुभकामना देना चाहता है तो इसकी एक वजह यूरोपीय संघ (ईयू) की खेदपूर्ण स्थिति है। ईयू लगातार अभूतपूर्व संकटों से गुजर रहा है। लेहमैन ब्रदर्स के पतन से उत्पन्न 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद यूनान का कर्ज संकट, यूक्रेन का संकट, मध्य पूर्व का संकट, शरणार्थी संकट, आतंक का संकट और सबसे हाल का ब्रेक्सिट संकट। इनमें से किसी भी संकट का समाधान नहीं हुआ है, सारे अभी तक सुलग रहे हैं।

बाहरी रूप से, ईयू ‘आग के एक गोले’ से घिरा हुआ है, उसे पुतिन के हाइब्रिड युद्ध के तरीके और मध्य पूर्वी अराजक हिस्से से भी खतरा बना हुआ है। आंतरिक रूप से यह विफल हो जाने के खतरे से वह जूझ रहा है। एक पूर्वी समूह शरणार्थियों को स्वीकार करने से इंकार कर रहा है; एक दक्षिणवर्ती समूह आर्थिक बचत करने की नीतियों के गला घोंटे जाने के खिलाफ है; दोनों ही जर्मनी के दबंग प्रभाव को पसंद नहीं करते। पहला चांसलर मर्केल की आलोचना करता है, दूसरा जर्मनी के वित मंत्री स्कौबल की छवि खराब कर रहा है। भले ही उनकी बातों में कुछ दम भी हो, सच्चाई यही है कि बिना जर्मनी के अग्रणी भूमिका निभाए, ईयू के सामने खुद को बदलने का कोई अवसर नहीं है। ब्रसेल्स समुदाय पर एक संक्षिप्त नजर डालना किसी भी विश्लेषक को यह भरोसा दिलाने के लिए पर्याप्त है कि वर्तमान के किसी भी अन्य नेता के पास न तो वह हिम्मत है और न ही इतना धन है कि वह इस बहाव को रोक सके और यूरोपीय परियोजना के लिए आवश्यक मानदंडों को पुनर्भाषित सके।

नई एंजेला मर्केल अगर चाहे तो समय को कई वर्ष पहले ले जा सकती हैं-ही ऐसी एकमात्र शख्सियत हैं जिनके पास वह ताकत, दृढ़ता और संभवतः विनम्रता है जो यूरोप को नई ऊंचाइयों तक ले जा सकती हैं।

नए अवतार में एंजेला मर्केल अगर चाहे तो समय को कई वर्ष पहले ले जा सकती हैं, वे ही ऐसी एकमात्र शख्सियत हैं जिनके पास वह ताकत, दृढ़ता और संभवतः विनम्रता है जो यूरोप को नई ऊंचाइयों तक ले जा सकती हैं। जैसा कि गिडियोन रैचमैन ने हाल में फाइनेंशियल टाइम्स में लिखा, ‘कई यूरोपीय सरकारों ने श्रीमती मर्केल के खिलाफ आक्रोश पाल रखा है, लेकिन अगर वह वास्तव में हार जाती हैं तो वे यूरोप को एक सूत्र में पिरो सकने की उनकी क्षमता को अवश्य याद करेंगे।’

किसी भी सूरत में मैं यह कहना चाहूंगा कि हमें अभी भी खारिज मत कीजिए। यूरोप पहले भी कई सारे संकटों से गुजरा है और हर बार पहले से अधिक मजबूत होकर बाहर निकता है। संकटों की मौजूदा बहुतायत एक भीषण चुनौती है लेकिन इस प्रकार की जागरूकता बढ़ रही है कि यह यूरोप को एक दूसरी बयार या जीवन देने का एक अनूठा अवसर भी प्रदान कर रहा है।

मेरे विचार से और न केवल मेरे ही विचार से हमें उस जुड़ाव को एक नया प्रोत्साहन और उद्देश्य प्रदान करना चाहिए जिसने हमारी लगभग 60 वर्षों तक बेहद अच्छे तरीके से सेवा की है। इसके लिए दो विभिन्न दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है। एक तरफ हमें कम यूरोप चाहिए तो दूसरी तरफ अधिक यूरोप चाहिए।

कम यूरोप का अर्थ है कि ईयू आयोग को आखिरकार अधीनस्थता के सिद्धांत को लेकर गंभीर हो जाना चाहिए। खीरे की वक्रता, फव्वारे के आकार एवं वैक्यूम क्लीनर या जैतून के तेल (ओलिव ऑयल) के फ्लास्क की डिजाइन का मानकीकरण ही यूरोपीय संघ की सभी प्रकार की नीतियों का सार मर्म नहीं है। ब्रसेल्स को ही सारे निर्णय करने की आवश्यकता नहीं है। निर्णय जहां तक संभव है, सबसे निचले स्तर-स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अगर बेहद जरूरी हो तो ही यूरोपीय स्तर पर लिए जाने की आवश्यकता है।

अधिक यूरोप का अर्थ है, अपनी दृष्टियों को एक बार फिर से उच्चतर उदेश्यों की ओर उठाना। हमें एक समान राजकोषीय नीति, एक समान सामाजिक नीति, एक समान विदेशी और सुरक्षा नीति की आवश्यकता है, और हमें संजीदगी से एक एकल यूरोपीय सेना की परिकल्पना करने की आवश्यकता है। इन सभी को संभव बनाने या अमल में लाने में निश्चित रूप से समय लगेगा।

यूरोप का संयुक्त राष्ट्र संघ अभी भी दो या तीन पीढ़ी दूर है, फिरभी राष्ट्रों के संयुक्त यूरोप को अंतत: स्थापित होना ही है।

याद रखिए: यह एक कभी भी और बड़ा, और ठोस संगठन नहीं हो सकता। वास्तव में, यह एक अधिक हारा हुआ सहयोगी बन सकता है, जिसकी परिधि राज्यों का एक रिंग या बाहरी सीमा होगी जो अलग अलग से (ए ला कार्टे) इसमें भागीदारी करेंगे और जिनकी अपनी गति होगी और जो ब्रसेल्स या फ्रैंकफर्ट में ईसीबी पर आर्थिक रूप से कम निर्भर होंगे और यूरो को साझा करने वाला एक अधिक छोटा और अधिक संकुचित केंद्र होगा और यह एक अधिक घनिष्ठ संगठन के पुराने लक्ष्य की दिशा में कदम आगे बढ़ा रहा होगा-जो एक संघ से कम लेकिन केवल एक परिसंघ से अधिक होगा।

लगभग 50 वर्ष पहले, चांसलर कोनरैड एडेनौएर ने कहा था: ‘यूरोपीय संघ कुछ लोगों का एक स्वप्न था। यह कई लोगों की उम्मीद बन गया। आज यह हम सभी की आवश्यकता है।’ मैं समझता हूं आज भी यह सच है।

तेजी से और ध्यान से आगे बढ़ने की एक बहुत बड़ी वजह इसकी जनसंख्या है। 1900 में, यूरोप कीं आबादी वैश्विक जनसंख्या का 20 प्रतिशत थी। इस बीच उसका हिस्सा तेजी से घटकर केवल 11 प्रतिशत तक आ गया है और इसमें और गिरावट आने वाली है। यह 2050 तक सात प्रतिशत और सदी के आखिर तक केवल 4 प्रतिशत रह जाएगी। यूरोप के किसी भी देश की आबादी वैश्विक जनसंख्या का एक प्रतिशत भी नहीं रह जाएगी। मुझे लगता है कि यूरोपीय एकीकरण की दिशा में मजबूती से आगे बढ़ने और पुनर्राष्ट्रीयकरण या बिखराव की कुटिल प्रवृति का प्रतिरोध करने के पक्ष में यह सबसे मजबूत तर्क है। अगर हम अलग अलग फांसी पर नहीं चढ़ना चाहते हैं तो हमें केवल एकजुट होकर रहने की आवश्यकता है।

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