Author : Sabrina Korreck

Published on Feb 24, 2020 Updated 0 Hours ago

श्रम के डिजिटल मंचों के उदय के कारण आज रोज़गार के नए स्वरूप उभर रहे हैं. रोज़गार के ये नए अवसर, काम-काज से पुराने संबंधों के मानकों से इतर हैं.

काम-काज का भविष्य: असंगठित क्षेत्र का समावेश कैसे हो?

चौथी औद्योगिक क्रांति से संबंध रखने वाली उभरती हुई तकनीकें, आज काम-काज के तरीक़े में मूलभूत बदलाव ला रही हैं. और इनके कारण आज हम बड़े सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन होते देख रहे हैं. इस विषय में होने वाली परिचर्चाओं के केंद्र में अक्सर ऐसे प्रश्न होते हैं, जैसे कि- डिजिटल क्रांति से काम करने का तरीक़ा कैसे बदल रहा है. इससे रोज़गार के कौन से नए अवसर सृजित हो रहे हैं. और कौन सी नौकरियां इसकी वजह से ख़त्म हो रही हैं. और हमारे कामकाज के स्थल किस तरह परिवर्तित हो रहे हैं. एक अन्य प्रश्न, जो विशेष तौर पर विकासशील और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ में प्रासंगिक है, वो ये है कि-डिजिटल क्रांति का असंगठित रोज़गार पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? इस लेख में हम डिजिटल क्रांति के भारत पर हो रहा प्रभावों की पड़ताल करेंगे. क्योंकि, असंगठित क्षेत्र भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है.

पारंपरिक असंगठित रोज़गार

चौथी औद्योगिक क्रांति की तकनीकों, जैसे कि- आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, ऑटोमेशन, रोबोटिक्स और इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स को भारत की अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र के कुछ हिस्सों में अपनाए जाने की संभावना है. ख़ासतौर से ज़्यादा पूंजी वाले मैन्यूफैक्चरिंग उद्योगों में. साथ ही साथ वित्तीय, क़ानूनी, आईटी और बीपीओ सेवाओं में भी इन्हें अपनाये जाने की पूरी उम्मीद है.[1] लेकिन, भारत के ज़्यादातर कामगार असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. जिन्हें अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संगठन[2] ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है- ये कामकाजियों का वो तबक़ा है, जो मज़दूरी के राष्ट्रीय क़ानूनों, आमदनी पर लगने वाले टैक्स, सामाजिक सुरक्षा या रोज़गार के कुछ लाभों की पात्रता रखते हैं. भारत की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी क़रीब 90 प्रतिशत है.[3] भारती अर्थव्यवस्था में आईटी क्रांति और तेज़ आर्थिक विकास दर के बावजूद, असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी की ऊंची दर बनी हुई है. ख़ास तौर से ग्रामीण क्षेत्र और कृषि क्षेत्र में कार्यरत युवाओं के बीच असंगठित रोज़गार बहुत व्यापक है. चौथी औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व करने वाली तकनीकों का व्यापक असर इन क्षेत्रों में रोज़गार पर बमुश्किल ही देखने को मिलेगा. क्योंकि, इन सेक्टरों में ज़्यादातर काम हाथ की मज़दूरी पर आधारित है. इसका एक कारण यह भी है कि इन क्षेत्रों में वित्तीय पूंजी का अभाव है. इन सेक्टरों में नई तकनीक के प्रयोग के लिए न तो सहयोगी मूलभूत ढांचा है और न ही ज़रूरी हुनर उपलब्ध है.[4]

गिग अर्थव्यवस्था में अनौपचारिकता के नए रूप

पिछले एक दशक में एक और बड़ा तकनीकी विकास ये हुआ है कि डिजिटल मज़दूरी के नए प्लेटफॉर्म सामने आए हैं. जो नौकरी चाहने वालों और नौकरी देने वालों के बीच नए-नए माध्यमों से संपर्क कराते हैं. ये नए तकनीकी मंच, साधारण परिश्रम करने वाले लो-स्किल कामकाजी लोगों से लेकर पेचीदा काम कर सकने वाले उच्च शिक्षा प्राप्त हुनरमंद लोगों तक को काम मुहैया कराने का काम करते हैं. इसके कुछ उदाहरण हम यूबर और ओला जैसी साझा सफ़र कराने वाले प्लेटफॉर्म के तौर पर देख सकते हैं. साथ ही ऑनलाइन फ्रीलांस, घर के छोटे-मोटे काम की मदद मुहैया कराने वाली स्टार्ट अप अर्बन क्लैप जो फिटनेस ट्रेनर, बढ़ई, सफ़ाई कर्मी और बाल काटने के काम करने वालों को ग्राहक से जोड़ने का मंच प्रदान करती है. इसी तरह फ्लेक्सिंग इट ऐसा डिजिटल प्लेटफॉर्म है, जो सलाह देने का काम करने वालों को साधन उपलब्ध कराता है. और अमेज़न मर्केंटाइल तुर्क, छोटे-छोटे काम करने वालों का प्लेटफॉर्म है.

आज बढ़ती संख्या में लोग ख़ुद को स्वरोज़गार प्राप्त या फ्रीलांसर के तौर पर देखते हैं. हालांकि, छुपा हुआ रोज़गार और किसी पर निर्भर होने  वाला स्वरोज़गार गिग इकॉनमी में बहुत ज़्यादा चलन में आ गया है. ऐसे में कामगारों का स्वरोज़गार प्राप्त होने का वर्गीकरण ग़लत है

मज़दूरी के डिजिटल मंचों के बढ़ते दायरे की वजह से, रोज़गार के नए अवसर भी पैदा हो रहे हैं, जो पहले के रोज़गार के मानक संबंधों से अलग हट कर हैं. पहले के मानकों के अनुसार, काम का मतलब फुल टाइम काम होता था जो अनिश्चित काल के लिए होता था. और रोज़गार देने वाले को काम करने वाले से ऊपर के दर्जे पर रखता था.[5] अब जबकि बहुत से लोग ऐसे छोटे-छोटे काम कर रहे हैं, तो भविष्य के काम-काज की तस्वीर की एक मिसाल हमारे सामने दिख रही है. जिसमें लोग छोटे-छोटे ऐसे काम कर रहे हैं. ये पूर्व के रोज़गार के पारंपरिक पैमानों से इस तरह से भिन्न हैं:[6]

‣ रोज़गार के अवसर खुले नहीं हैं कामगार अस्थायी रूप से काम पर रखे जाते हैं और एक तय समय सीमा, जो अक्सर बेहद सीमित होती है, या फिर किसी विशेष प्रोजेक्ट के लिए ठेके पर काम करते हैं.

‣ रोज़गार स्थायी नहीं है कामगारों को पार्ट टाइम काम मिलता है, या बुलावे पर जाना पड़ता है. और कई बार ऐसे मिले-जुले अवसरों पर काम करना होता है. यानी कामगार किसी एक संगठन के लिए फुल टाइम काम नहीं करते.

‣ रोज़गार सीधे अपने मातहत के साथ संबंध के तौर पर नहीं होता इसके बजाय एक साथ कई लोगों के साथ काम का संबंध होता है. जैसे मिसाल के तौर पर किसी रोज़गार देने वाली एजेंसी या दलालों के माध्यम से. और आज तो कोई कंपनी पूरे काम का ठेका ले कर फिर उसके लिए कामगारों को सब कॉन्ट्रैक्ट पर रखती है.

‣ रोज़गार आज नौकरी देने वाले और काम पाने वाले के बीच का पारंपरिक रिश्ता नहीं रह गया है आज बढ़ती संख्या में लोग ख़ुद को स्वरोज़गार प्राप्त या फ्रीलांसर के तौर पर देखते हैं. हालांकि, छुपा हुआ रोज़गार और किसी पर निर्भर होने  वाला स्वरोज़गार गिग इकॉनमी में बहुत ज़्यादा चलन में आ गया है. ऐसे में कामगारों का स्वरोज़गार प्राप्त होने का वर्गीकरण ग़लत है. क्योंकि अगर वो किसी एक क्लायंट या कई ग्राहकों के लिए काम करते हैं. यानी वो अपने काम और आमदनी के स्रोत के लिए उन पर निर्भर हैं. और वो कामगारों के काम की बारीक़ी से निगरानी करते हैं.

अभियोजन के ये जो नए रूप हैं, वो उच्च स्तर पर अंसगिठत क्षेत्र के परिचायक हैं. इन डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से कारोबार करने वालों को स्थायी कर्मचारियों की फौज रखने के बजाय ऐसे कामगारों से काम कराने का अवसर मिला है, जो ज़रूरत पड़ने पर कामगारों को ऑनलाइन तलाश करके, अपना काम कराते हैं. और काम पूरा होने पर उन्हें भुगतान कर देते हैं. स्टार्ट अप कंपनियां, जो डिजिटल इकॉनमी में ख़ुद एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, वो अपने बहुत से काम आउटसोर्स कर देती हैं. और इस तरह, अपने स्थायी कर्मचारियों की संख्या सीमित रख कर अपने व्यय को संतुलित बनाए रखते हैं. काबिल लोगों को सीधे नौकरी देने के बजाय, इस तरह से अस्थाई तौर पर काम पर रखने के इस नए माध्यम से कंपनियों का ज़िम्मेदारियों का बोझ कम होता है. इससे मज़दूरों को मिलने वाले क़ानूनी संरक्षण से वंचित रखा जाता है. वो कामगार जिन्हें अब स्वतंत्र रूप से ठेके पर काम करने वालों के तौर पर वर्गीकृत किया जाता है, उन्हें वो लाभ नहीं मिल पाते, जो किसी नियमित कर्मचारी को प्राप्त होते हैं. जैसे, स्वास्थ्य बीमा, बीमारी पर छुट्टी अथवा सैलरी के साथ मिलने वाली छुट्टियां. इससे भी अहम बात ये है कि अभियोजन के इस स्वरूप में भेदभाव और दबाव के विरुद्ध मिलने वाली सुरक्षा और संरक्षण का अभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है.

हालांकि, भारत की गिग इकॉनमी में संभावनाओं और इसके विकास के कोई आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन, पहले से इतर काम-काज के अवसरों में वृद्धि स्पष्ट रूप से देखी जा रही है. इनके माध्यम से रोज़गार के पर्याप्त अवसर सृजित हो रहे हैं, ख़ास तौर से युवाओं के लिए. हालांकि, जैसे-जैसे ये गिग इकॉनमी, मुख्यधारा का हिस्सा बनती जाएगी. ख़ास तौर से ‘व्हाइट कॉलर’ नौकरियों में, तो ऐसे बिना मानकों वाले अभियोजन, नियमित रोज़गार का स्थान लेने लगेंगे. इसका नतीजा ये होगा कि संगठित क्षेत्र भी अनौपचारिक सेक्टर में परिवर्तित होता दिखने लगेगा. इसका अर्थ यह होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी घटने के बजाय और बढ़ेगी.

असंगठित क्षेत्र के विस्तार और इसके संभावित सामाजिक आर्थिक विकास पर असर को लेकर जो परिचर्चाएं होती हैं, वो विवादास्पद हैं और विचारधारा के दबाव के अंतर्गत होती हैं. कुछ विद्वानों[8] का कहना है कि, व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण से देखें, तो अनौपचारिक क्षेत्र में बढ़ रहे रोज़गार विकास और रोज़गार सृजन का इंजन साबित हो सकते हैं. क्योंकि संगठित और असंगठित क्षेत्र की कंपनियों के बीच मज़बूत रिश्ते होते हैं. इससे दोनों एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं. वहीं सूक्ष्म आर्थिक विश्लेषण से यह पता चलता है कि, अभियोजन के ये नए स्वरूप कामकाजी वर्ग को काम में लचीलापन लाकर, ये स्वतंत्रता उपलब्ध कराते हैं कि वो कब और कहां काम करें. इससे भी अधिक, कुछ लोगों का यह मानना है कि गिग इकॉनमी से बहुत से लोगों को उद्यमिता के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं. ये एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर प्रयोगधर्मिता के लिए अवसर खुल रहे हैं. जिससे कामकाजी वर्ग अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं. और छोटे-छोटे काम को आगे बढ़ा कर नियमित आमदनी का स्रोत बना सकते हैं और करियर में आगे तरक़्क़ी कर सकते हैं.[9]

वहीं, दूसरी तरफ़, असंगठित क्षेत्र के व्यक्तियों, कंपनियों और समाजों पर नकारात्मक असर भी देखने को मिलते हैं.[10] जहां कुछ कंपनियां अपना काम असंगठित क्षेत्र के कामगारों को आउटसोर्स करके अपना ख़र्च बचाती हैं. या फिर अपने लिए कच्चा काम असंगठित क्षेत्र की कंपनियों से लेती हैं. लेकिन, संगठित क्षेत्र की कंपनियां इनके लिए अन्यायपूर्ण प्रतिस्पर्धी बन जाती हैं क्योंकि वो श्रम क़ानूनों का पालन करती हैं. कुछ व्यक्ति काम करने मे लचीलेपन की संभावना को पसंद करते हैं और ऐसे छोटे-मोटे अवसरों का लाभ उठा कर सफल बनना चाहते हैं. हालांकि, अभी भी ज़्यादातर कामकाजी वर्ग रोज़गार के पारंपरिक स्वरूप को तरज़ीह देता है. जहां रोज़गार देने वाले और नौकरी करने वाले के बीच रिश्ता होता है.[11] क्योंकि वहां नौकरी की सुरक्षा होती है. और इसे काम में लचीलेपन और अन्य फ़ायदों पर तरज़ीह दी जाती है. इसके साथ-साथ, गिग इकॉनमी में फ़ायदा उठाने वालों का तबक़ा वो छोटा सा वर्ग है, जो उच्च शिक्षा प्राप्त है. जबकि यहां काम पाने वालों का बहुसंख्यक वर्ग इसलिए आता है, क्योंकि उसके पास कोई और विकल्प नहीं है. उनके लिए, तो असगंठित क्षेत्र में ये पुराने मानकों से हट कर उपलब्ध हो रहे अवसर असर में ऐसी तरह के रोज़गार हैं, जिनसे उनके जीवन में अनिश्चितता औऱ काम में ख़तरा बढ़ जाता है. आख़िर में, असंगठित क्षेत्र का एक अर्थ ये भी है कि सरकार का कर राजस्व भी कम होता है. इससे देश के विकास में निवेश करके इसकी गति बढ़ाने की सरकार की वित्तीय शक्ति का क्षरण होता है.

श्रमिक बाज़ार की नई हक़ीक़तों की चुनौतियों का निस्तारण कैसे हो?

अंतत: भारत में अंसगठित क्षेत्र में रोज़गार के बढ़ रहे अवसर और गिग इकॉनमी के माध्यम से अभियोजन के बढ़ते ग़ैर परंपरागत अवसरों की वजह से श्रम के बाज़ार में असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी और बढ़नी तय है. ऐसे में नीति नियंताओं को ऐसे प्रयास सतत रूप से करने होंगे, जो इस असंगठित श्रमिक बाज़ार को शनै: शनै: संगठित क्षेत्र के दायरे में आने के लिए उत्प्रेरित करें. इनकी राह में आने वाली सरकारी बाधाओं को दूर करें, ताकि लागत कम हो. कंपनियों को प्रोत्साहन दें कि वो अपने कर्मचारियों की सही संख्या की घोषणा करें और अन्य क़ानूनी बाध्यताएं पूरी करें. इसके साथ-साथ चूंकि नए रोज़गार का सृजन एक राजनीतिक आवश्यकता है और गिग इकॉनमी के माध्यम से आज बड़ी संख्या में अभियोजन के अवसर उपलब्ध हो रहे हैं, तो असंगठित क्षेत्र को आज एक आर्थिक हक़ीक़त के रूप में स्वीकार किए जाने की आवश्यकता है. ये चुनौती दोतरफ़ा है. एक तरफ़ तो कंपनियों को आवश्यक लचीलापन देने की ज़रूरत है, ताकि वो नए ए तरीक़े ईजाद करके उस व्यापारिक माहौल में सफलतापूर्वक प्रतिद्वंदिता कर सकें, जहां बड़ी तेज़ी से तकनीकी परिवर्तन आ रहे हैं. और दूसरी तरफ़ ये सुनिश्चित किया जाए कि रोज़गार के इन नए अवसरों में काम पाने वाले श्रमिक अपने लिए स्थायी जीविका के संसाधन जुटा सकें.

सरकार और बड़ी कंपनियों के साथ-साथ कामकाजी लोगों के प्रतिनिधियों को मिल कर सक्रियता से काम करना चाहिए, ताकि भविष्य के काम-काज की रूप-रेखा निर्धारित कर सकें और असंगठित क्षेत्र से जुड़ी हुई चुनौतियों का निस्तारण कर सकें

सरकार और बड़ी कंपनियों के साथ-साथ कामकाजी लोगों के प्रतिनिधियों को मिल कर सक्रियता से काम करना चाहिए, ताकि भविष्य के काम-काज की रूप-रेखा निर्धारित कर सकें और असंगठित क्षेत्र से जुड़ी हुई चुनौतियों का निस्तारण कर सकें. सर्वप्रथम तो इस बात की भरोसेमंद जानकारी नहीं है कि आज भारत की गिग इकॉनमी में कितने भारतीय काम कर रहे हैं. सरकार को, विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संगठनों के साथ मिल कर इस विषय पर अच्छी गुणवत्ता और संख्या वाले आंकड़े जुटाने चाहिए. और इस विषय में बेहतर रिसर्च को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि ये पता लगाया जा सके कि रोज़गार के इन नए अवसरों में कितने लोग काम कर रहे हैं. और किन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं. दूसरी बात ये कि रोज़गार के बारंबार ग़लत वर्गीकरण की परेशानी का समाधान निकालना चाहिए. जो लोग किसी पर निर्भरता वाले माहौल में मातहत बन कर काम करते हैं, वो तो कर्मचारी की परिभाषा फिट बैठते हैं, और उनका वर्गीकरण ऐसे ही होना भी चाहिए. अत:उनके साथ भी स्थायी कर्मचारियों वाला ही बर्ताव होना चाहिए.

तीसरी बात ये है कि रोज़गार के ग़ैर पारंपरिक स्वरूपों की ख़ूबियों को ध्यान में रखते हुए भारत के श्रम क़ानूनों और सामाजिक सुरक्षा के क़ानूनों और योजनाओं में भी परिवर्तन लाने की आवश्यकता है. इसके लिए तो एक अवसर इस तरह है कि अब असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी छुपे हुए नहीं हैं. जब वो किसी प्लेटफॉर्म पर रजिस्टर हो जाते हैं, तो उन्हें सामाजिक सुरक्षा के फ्रेमवर्क से जोड़ा जा सकता है.[12]

चौथी बात ये कि जैसे स्वरोज़गार करने वाले इस व्यवस्था से कट जाते हैं, तो उन्हें नए तरह के संगठनों और प्रतिनिधित्व की आवश्यकता होती है. ताकि वो प्लेटफॉर्म आधारित अर्थव्यवस्था में सामूहिक मोलभाव की शक्ति के अपने प्रयासों को और मज़बूत कर सकें. और अंत में बेहद महत्वपूर्ण बात ये है कि शिक्षा और नए हुनर सिखाने में ज़्यादा निवेश की आवश्यकता है, ताकि भारत का ये नया श्रमिक वर्ग, श्रम बाज़ार की नई हक़ीक़तों से बेहतर ढंग से निपट सके.


[1] Urvashi Aneja, “Informal will be the new normal in the future of work”, The Wire, June 19, 2018.

[2] ILO, “Guidelines concerning a statistical definition of informal employment”.

[3] World Bank, “World Bank Development Report: The changing nature of work”, 2019.

[4] See note 1.

[5] ILO, “Non-standard employment around the world: Understanding challenges, shaping prospects”, 2016.

[6] Ibid.

[7] Ephrat Livni, “The gig economy is quietly undermining a century of worker protections”, Quartz, February 26, 2019.

[8] See, for instance, Ejaz Ghani, “The power of informality”, Business Standard, May 4, 2019.

[9] Anne-Marie Slaughter and Aubrey Hruby, “Informal sector will be main job creator in future. So equip workers today”, Hindustan Times, Nov 23, 2017.

[10] ILO, “Informality and non-standard forms of employment”, Paper prepared at the G20 Employment Working Group meeting, February 20-22, 2018.

[11] Nikhil Datta, “Is it time up for the gig economy?” World Economic Forum, Jul 22, 2019.

[12] Sabina Dewan and Partha Mukhopadhyay, “More than formalizing informal jobs, we need to create productive ones”, Hindustan Times, Dec 14, 2018.

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